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Showing posts from 2009

2009: मेरे अपने आंकड़े

पिछले साल इन दिनों में ही तय हो गया था कि मेरी बदली हरिद्वार से दिल्ली होने वाली है। इसलिए जनवरी का महीना काफी उथल-पुथल भरा रहा। जनवरी में ही इंटरव्यू और मेडिकल टेस्ट हुआ। फ़रवरी शुरू होते-होते सरकारी नौकरी भी लग गयी। नौकरी क्या लगी, बड़े बड़े पंख लग गए। मार्च में सेलरी मिली तो घूमने की बात भी सोची जाने लगी। कैमरा भी ले लिया। अप्रैल की नौ तारीख को बैजनाथ के लिए निकल पड़ा। बैजनाथ हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में है। सफ़र में साथी था रामबाबू। बैजनाथ गए तो पैराग्लाइडिंग का स्वर्ग कहे जाने वाले बीड व बिलिंग भी हो आये। इसी यात्रा में चाय नगरी पालमपुर व चामुंडा देवी के भी दर्शन किये। इसके बाद मई का गर्म महीना आया। किसी और जगह को चुनता तो शायद कोई भी तैयार नहीं होता, लेकिन मित्र मण्डली को जब पता चला कि बन्दा शिमला जा रहा है तो तीन जने और भी चल पड़े। शिमला से वापस आया तो भीमताल चला गया। साथ ही रहस्यमयी नौकुचियाताल व नैनीताल का भी चक्कर लगा आया। इसके बाद कुछ दिन तक तो ठीक रहा, फिर जून आते आते खाज सी मारने लगी। तब चैन मिला गढ़वाल हिमालय की प्रसिद्द वादी व सैनिक छावनी लैंसडाउन

टेढ़ा मन्दिर

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । आज आपको टेढ़ा मंदिर के बारे में जानकारी देते हैं। यह मंदिर हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में ज्वालामुखी के पास स्थित है। ज्वालामुखी के ज्वाला देवी मंदिर की बगल से ही इसके लिए रास्ता जाता है। ज्वाला जी से इसकी दूरी करीब दो किलोमीटर है। पूरा रास्ता ऊबड़-खाबड़ पत्थरों से युक्त चढ़ाई भरा है। खतरनाक डरावने सुनसान जंगल से होकर यह रास्ता जाता है। ... यह मंदिर पिछले 104 सालों से टेढ़ा है। कहा जाता है कि वनवास काल के दौरान पांडवों ने इसका निर्माण कराया था। 1905 में कांगड़ा में एक भयानक भूकंप आया। इससे कांगड़ा का किला तो बिलकुल खंडहरों में तब्दील हो गया। भूकंप के ही प्रभाव से यह मंदिर भी एक तरफ को झुककर टेढ़ा हो गया। तभी से इसका नाम टेढ़ा मंदिर है। इसके अन्दर जाने पर डर लगता है कि कहीं यह गिर ना जाए।

ज्वालामुखी - एक चमत्कारी शक्तिपीठ

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । ज्वालामुखी देवी हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में कांगड़ा से करीब दो घण्टे की दूरी पर है। दूरी मापने का मानक घण्टे इसलिए दे रहा हूँ कि यहाँ जाम ज़ूम नहीं लगता है और पहाड़ी रास्ता है, मतलब गाड़ियां ना तो रूकती हैं और ना ही तेज चाल से दौड़ पाती हैं। ज्वालामुखी एक शक्तिपीठ है जहाँ देवी सती की जीभ गिरी थी। सभी शक्तिपीठों में यह शक्तिपीठ अनोखा इसलिए माना जाता है कि यहाँ ना तो किसी मूर्ति की पूजा होती है ना ही किसी पिंडी की, बल्कि यहाँ पूजा होती है धरती के अन्दर से निकलती ज्वाला की। ... धरती के गर्भ से यहाँ नौ स्थानों पर आग की ज्वाला निकलती रहती है। इन्ही पर मंदिर बना दिया गया है और इन्ही पर प्रसाद चढ़ता है। आज के आधुनिक युग में रहने वाले हम लोगों के लिए ऐसी ज्वालायें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि पृथ्वी की अंदरूनी हलचल के कारण पूरी दुनिया में कहीं ज्वाला कहीं गरम पानी निकलता रहता है। कहीं-कहीं तो बाकायदा पावर हाऊस भी बनाए गए हैं, जिनसे बिजली उत्पादित की जाती है। लेकिन यहाँ पर यही तो चमत्कार है।

कांगड़ा का किला

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । किला - जहाँ कभी एक सभ्यता बसती थी। आज वीरान पड़ा हुआ है। भारत में ऐसे गिने-चुने किले ही हैं, जहाँ आज भी जीवन बसा हुआ है, नहीं तो समय बदलने पर वैभव के प्रतीक ज्यादातर किले खंडहर हो चुके हैं। लेकिन ये खंडहर भी कम नहीं हैं - इनमे इतिहास सोया है, वीरानी और सन्नाटा भी सब-कुछ बयां कर देता है। ... भारत में किलों पर राजस्थान का राज है। महाराष्ट्र और दक्षिण में भी कई प्रसिद्द किले हैं। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में भी किले हैं। दिल्ली में लाल किला और पुराना किला है। लेकिन हिमालय क्षेत्र में बहुत कम किले हैं। क्योंकि हिमालय खुद एक प्राकृतिक किला है। इसमें शिवालिक जैसी मजबूत बाहरी दीवार है। पहाड़ इतने दुर्गम हैं कि किसी आक्रमणकारी की कभी हिम्मत नहीं हुई। फिर भी हिमालय क्षेत्र में कई किले हैं। इनमे से एक है - कोट कांगड़ा यानी कांगड़ा का किला।

दुर्गम और रोमांचक - त्रियुण्ड

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । आज ऐसी जगह पर चलते हैं जहाँ जाने का साहस कम ही लोग जुटा पाते हैं। क्योंकि इसके लिए दमखम व प्रकृति से लड़ने की ताकत की जरूरत होती है। यह जगह मैक्लोडगंज से मात्र नौ किलोमीटर दूर है लेकिन यहाँ जाने का इरादा करने वाले आधे लोग तो बीच रास्ते से ही वापस लौट आते हैं। परन्तु चार-पांच घण्टे की तन-मन को तोड़ देने वाली चढ़ाई के बाद कुदरत का जो रूप सामने आता है, उसे हम शब्दों में नहीं लिख सकते। ... अपनी इस दो दिवसीय यात्रा के लिए हमने योजना बनाई थी कि पहले दिन तो मैक्लोडगंज में ही घूमेंगे, दूसरे दिन कहीं आस-पास निकल जायेंगे। पहले दिन की योजना तो बारिश में धुल गयी। जब अगले दिन सोकर उठे तो देखा कि मौसम बिलकुल साफ़ था। हालाँकि जगह-जगह रुई वाले सफ़ेद बादल भी घूम रहे थे। सफ़ेद बादलों में पानी नहीं होता इसलिए आज पूरे दिन बारिश ना होने की उम्मीद थी।

मैक्लोडगंज - देश में विदेश का एहसास

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 14 नवम्बर 2009, सुबह आठ बजे। जब पूरा देश बाल दिवस मनाने की तैयारी कर रहा था तब हम दो 'बच्चे' मैक्लोडगंज में थे और बारिश थमने का इन्तजार कर रहे थे। यहाँ कल से ही बारिश हो रही थी और पारा धडाम हो गया था। मौसम के मिजाज को देखते हुए लग नहीं रहा था कि आज यह खुल जाएगा। रह-रहकर अँधेरा छा जाता और गडगडाहट के साथ बारिश जारी रही। बस से उतरते ही एक निर्माणाधीन भवन में शरण ले ली और बारिश के कम होने का इन्तजार करने लगे। ... दिल्ली से चलते समय हमने योजना बनाई थी कि चौदह नवम्बर को पूरा मैक्लोडगंज घूमेंगे लेकिन आज यह योजना पूरी होती नहीं दिख रही थी। हम केवल एक उम्मीद से ही यहाँ रुके रहे कि हमारे पास कल का दिन है। हो सकता है कि कल मौसम साफ़ हो जाए। अगर कल तक भी मौसम साफ़ नहीं हुआ तो सुबह-सुबह ही वापसी की बस पकड़ लेंगे।

धर्मशाला यात्रा

13 नवम्बर 2009, शाम साढ़े छः बजे मैं और ललित कश्मीरी गेट बस अड्डे पर पहुंचे। पता चला कि हिमाचल परिवहन की धर्मशाला जाने वाली बस सवा सात बजे यहाँ से चलेगी। बराबर में ही हरियाणा रोडवेज की कांगड़ा - बैजनाथ जाने वाली शानदार 'हरियाणा उदय' खड़ी थी। इसके लुक को देखते ही मैंने इसमें जाने से मना कर दिया। लगा कि पता नहीं कितना किराया होगा! लेकिन भला हो ललित का कि उसने कांगड़ा तक का किराया पता कर लिया - तीन सौ पांच रूपये। इतना ही साधारण बस में लगता है। तुरन्त टिकट लिया और जा बैठे। कांगड़ा से धर्मशाला तक के लिए तो असंख्य लोकल बसें भी चलती हैं। ... कुरुक्षेत्र पहुंचकर बस आधे घंटे के लिए रुकी। वैसे तो कुरुक्षेत्र का बस अड्डा मेन हाइवे से काफी हटकर अन्दर शहर में है लेकिन यहाँ भी 'बस अड्डा, हरियाणा परिवहन निगम, कुरुक्षेत्र' लिखा था। यहाँ पर हमने खाना पीना किया। इसके बाद तो मुझे नींद आ गयी। हाँ, चण्डीगढ़ व ऊना में आँख जरूर खुल गयी थी। ऊना के बाद किस रास्ते से चले, मुझे नहीं पता। शायद अम्ब व देहरा होते हुए गए होंगे।

करोल टिब्बा और पांडव गुफा

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । ... अभी तक आपने पढ़ा कि मैं अकेला ही सोलन जा पहुंचा। यहाँ से आगे करोल के जंगलों में एक कॉलेज का ग्रुप मिल गया। और मैं भी उस ग्रुप का हिस्सा बन गया। फिर हम जंगल में भटक गए लेकिन फिर भी दो घंटे बाद करोल के टिब्बे पर पहुँच ही गए। अब पढिये आगे:- टिब्बा यानी पहाड़ की चोटी पर छोटा सा समतल भाग। मेरे अंदाज से इसकी ऊंचाई समुद्र तल से 2500 मीटर से ज्यादा ही होगी। पेडों पर बरफ के निशान स्पष्ट दिख रहे थे। यानी कि शिमला में बरफ पड़े या ना पड़े यहाँ जरूर पड़ती है। इसके आस पास इसके बराबर की चोटी नहीं है। इस कारण हवा पूरे जोश से बह रही थी - पेडों व झाडियों के बीच से सीटी बजाते हुए।

करोल के जंगलों में

एक महीने से भी ज्यादा समय हो गया था कहीं गए हुए। पिछले महीने देवप्रयाग गया था। तभी एक दोस्त ललित को पता चला कि मैं घुमक्कडी करता हूँ। बोला कि यार अब जहाँ भी जाएगा, बता देना, मैं भी चलूँगा तेरे साथ। अब मैंने अपना दिमाग लगाया। सोचा कि मेरी तरह इसे भी तीन-चार दिन की छुट्टी आराम से मिल जायेगी। चल बेटे, केदारनाथ चलते हैं। बैठे-बिठाए थोडी देर में ही तय हो गया कि कब यहाँ से चलना है, कब वहां से चलना है। लेकिन 19 अक्टूबर को केदारनाथ के कपाट बंद हो गए। कपाट बंद होते ही अगले के तो तोते उड़ गए। बोला कि नहीं यार, इस रविवार को मेरी फलानी परीक्षा है। वैसे भी अब क्या फायदा वहां जाने का? वहां तो भगवान् जी के भी दर्शन नहीं होंगे। अगली बार चलूँगा, जहाँ भी तू कहेगा, पक्का। ... ललित ने तो इस बार मेरे साथ जाने से मना कर दिया लेकिन उधर मेरी हालत खराब होनी शुरू हो गयी। पेट में घुमक्कडी के खदके लगने शुरू हो गए, गैस के गोले बनने लगे। इसका मतलब था कि कहीं ना कहीं जाना ही पड़ेगा। तभी आशीष खंडेलवाल से लाइन मिल गयी। उन्होंने फिलहाल जयपुर आने से मना कर दिया। ऑफिस वर्क की अति होने की वजह से। नैनीताल वाली विनी

जब पहली बार ट्रेन से सफर किया

मैंने पहली बार ट्रेन से सफ़र किया था आज से लगभग साढे चार साल पहले यानी अप्रैल 2005 में। भारतीय नौसेना की परीक्षा देने कानपुर जाना था। मैंने तब तक ट्रेन देखी तो थी लेकिन बैठा नहीं था। यहाँ तक कि मेरठ सिटी रेलवे स्टेशन भी नहीं देखा था। मेरठ छावनी तो देख रखा था - दो प्लेटफोर्म वाला। ... इन परिस्थितियों में पिताजी मुझे अकेले नहीं भेज सकते थे। बोले कि मैं चलूँगा तेरे साथ। इतने लम्बे सफ़र के लिए रिजर्वेशन भी नहीं कराया। तब तो मुझे भी नहीं पता था कि रिजर्वेशन नाम की भी कोई चीज होती है। मेरठ सिटी पहुंचे। मैं अति हर्ष उल्लाषित हो रहा था कि आज ट्रेन में बैठूंगा। पिताजी की आज्ञा से मैं ही कानपुर के दो टिकट लाया।

चन्द्रबदनी - एक दुर्गम शक्तिपीठ

शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । ... नवरात्र ख़त्म हो गए हैं। इन दिनों जम्मू स्थित वैष्णों देवी हो या हिमाचल वाली ज्वाला देवी आदि, सभी के दरबार में भयानक भीड़ रहती है। लेकिन आज हम आपको एक ऐसी 'शक्ति' के दर्शन कराएँगे जो सुगम होने के साथ-साथ दुर्गम भी है। सुगम तो इसलिए कि मंदिर तक जाने के लिए करीब-करीब एक किलोमीटर चलना पड़ता है और दुर्गम इसलिए कि इतना सुगम होने के बावजूद भी लोग-बाग़ वहां नहीं जाते। यह उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले में है। और समुद्र तल से लगभग 2500 मीटर की ऊंचाई पर। जाडों में यहाँ बरफ भी पड़ती है। ... पिछली पोस्ट में जब मैं देवप्रयाग गया था, तो पता चला कि चन्द्रबदनी देवी यहाँ से ज्यादा दूर नहीं है। अगर आप अभी तक देवप्रयाग नहीं गए हैं तो सलाह मानिए और फटाफट पहुँचिये। सुबह-सुबह संगम में स्नान करके सीधे तहसील के पास पहुँच जाओ और यहीं खड़े होकर हिण्डोलाखाल जाने वाली बस या जीप की प्रतीक्षा करो। अगर अपना वाहन लेकर आये हो तो सीधे हिण्डोलाखाल निकल जाओ और मेरी प्रतीक्षा करो। मैं अभी बस से आ रहा हूँ। देवप्रयाग से हिण्डोलाखाल तक महड, कांडीखाल जैसे करीब दर्

देवप्रयाग - गंगा शुरू होती है जहाँ से

देवप्रयाग से वापस आकर जब मैंने अपने एक बिहारी दोस्त से बताया कि मैं देवप्रयाग से आया हूँ तो वो बोला कि -"अच्छा, तो तू इलाहाबाद भी घूम आया।" मैंने कहा कि नहीं भाई, मैं इलाहाबाद नहीं, देवप्रयाग गया था। बोला कि हाँ हाँ, एक ही बात तो है। इलाहाबाद को प्रयाग भी कहते हैं। अब तू उसे देवप्रयाग कह, शिवप्रयाग कह या रामप्रयाग कह। तेरी मर्जी। घरवालों, घरवाली, बॉस व ऑफिस में डूबे रहने वाले कुँए के मेंढकों को क्या मालूम कि इलाहाबाद के प्रयाग की ही तरह और भी प्रयाग हैं जिनमे से गढ़वाल के पांच प्रयाग प्रमुख हैं। प्रयाग कहते हैं जहाँ दो नदियाँ मिलती हैं। इसे संगम भी कहते हैं। इलाहाबाद में गंगा और यमुना मिलती हैं तो देवप्रयाग में भागीरथी व अलकनंदा का संगम होता है और यहाँ से आगे दोनों नदियों की जो सम्मिलित धारा बहती है उसे गंगा कहते हैं। भागीरथी तो आती है गोमुख-गंगोत्री से और अलकनंदा आती है बद्रीनाथ से।

मथुरा-भरतपुर-कोटा-नागदा-रतलाम

दिल्ली से मुंबई गए हो कभी? ट्रेन से। मथुरा तक तो ठीक है। फिर दो रास्ते हो जाते हैं- एक तो जाता है झाँसी, भोपाल, भुसावल होते हुए; दूसरा जाता है कोटा, रतलाम, वडोदरा होते हुए। अच्छा, ये और बताओ कि कौन सी ट्रेन से गए थे? चलो, कोई सी भी हो, मुझे क्या, लेकिन सुपरफास्ट ही होगी। पैसेंजर तो बिलकुल भी नहीं होगी। ... आज हम इसी रूट पर मथुरा से रतलाम जायेंगे पैसेंजर ट्रेन से। सुबह साढे पांच बजे ट्रेन नंबर 256 (मथुरा-रतलाम पैसेंजर) चलती है। रानीकुण्ड रारह स्टेशन के बाद यह राजस्थान के भरतपुर जिले में प्रवेश करती है। जिले में क्या, धौरमुई जघीना के बाद भरतपुर पहुँच भी जाती है। यहाँ तक तो सभी सवारियां सोते हुए आती हैं, लेकिन भरतपुर में रुकने से पहले ही राजस्थानी सवारियां घुसती हैं -"उठो, भई, उठो। तुम्हारा रिजर्वेशन नहीं है। नवाब बनकर सो रहे हो।"

कालाकुण्ड - पातालपानी

14 अगस्त 2009 को मैं इंदौर में ताऊ के यहाँ था। अगले दिन ओमकारेश्वर जाना था। तो रास्ते में स्टेशन तक छोड़ते समय ताऊपुत्र भरत ने बताया कि महू से आगे एक जगह पड़ती है- पातालपानी। पातालपानी से निकलकर बीच जंगल में ट्रेन रुकती है। ड्राईवर नीचे उतरकर एक स्थान पर पूजा करते हैं, फिर ट्रेन को आगे बढाते हैं। आते-जाते दोनों टाइम हरेक ट्रेन के ड्राईवर ऐसा ही करते हैं। ... आधी रात से ज्यादा हो चुकी थी। इसलिए इस दृश्य को देखने का मतलब ही नहीं था। सोचा कि उधर से वापसी में देख लूँगा। लेकिन 16 अगस्त को जब घूम-घामकर ओमकारेश्वर रोड स्टेशन पर आया तो शाम हो चुकी थी। अब पौने दस बजे एक ट्रेन थी जो बारह बजे पातालपानी पहुंचती थी। अँधेरा होने की वजह से ना तो कुछ देख ही सकता था ना ही फोटो खींच सकता था। इसलिए सुबह चार वाली ट्रेन से जाना तय हुआ जो साढे छः बजे पातालपानी पहुँचती है। वैसे तो स्टेशन के सामने ही एक धर्मशाला थी, जिसमे मेरे सोने का मतलब था गधे-घोडे बेचकर सोना। फिर चार बजे किसकी मजाल थी कि उठता। अलार्म व तीन-चार 'रिमाइंडर' भरकर स्टेशन पर ही सो गया।

सिद्धनाथ बारहद्वारी

सिद्धनाथ बारहद्वारी ओमकारेश्वर के पास ही है। परिक्रमा पथ में पड़ता है यह। आज ज्यादा लिखने का मूड नहीं है, इसलिए चित्र देख लो। यह राजा मान्धाता के खंडहर महल में स्थित है। पूरी पहाडी पर महल फैला था। लेकिन समय की चाल देखिये। आज महल की एक-एक ईंटें इधर-उधर पड़ी हैं। लेकिन इन पर भी जबरदस्त कलाकारी देखने को मिलती है। जब मैं वहां पहुँचा तो एक चौकीदार बैठा था। मैंने उससे पूछा तो उसने इस खंडहरी का कारण मुस्लिम आक्रमण बताया। चलो खैर, कुछ भी हो, एक भरा-पूरा इतिहास यहाँ बिखरा पडा है।

ओमकारेश्वर ज्योतिर्लिंग

ओमकारेश्वर ज्योतिर्लिंग शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। इस बारे में एक कथा है। एक बार नारदजी, विन्ध्य पर्वत पर आये। विन्ध्य ने अभिमान से कहा- "मैं सर्व सुविधा युक्त हूँ।" यह सुनकर नारद बोले-"ठीक है। लेकिन मेरू पर्वत तुमसे बहुत ऊंचा है।" यह सुनकर विन्ध्य उदास हो गया। "धिक्कार है मेरे जीवन को।" फिर उसने शिवजी की तपस्या की। जहाँ आज ज्योतिर्लिंग है, वहां शिव की पिण्डी बनाई और तपस्या करता रहा। तपस्या से प्रसन्न होकर जब शिवजी ने वर मांगने को कहा तो विन्ध्य बोला-"हे भगवान्! आप यहाँ स्थाई रूप से निवास करें।" बस, शिवजी मान गए। ... यह पूर्वी निमाड़ (खंडवा) जिले में नर्मदा के दाहिने तट पर स्थित है। बाएँ तट पर ममलेश्वर है जिसे कुछ लोग असली प्राचीन ज्योतिर्लिंग बताते हैं। इसके बारे में कहा जाता है कि रात को शंकर पार्वती व अन्य देवता यहाँ चौपड-पासे खेलने आते हैं। इसे अपनी आँखों से देखने के लिए स्वतन्त्रता पूर्व एक अंग्रेज यहाँ छुप गया था। लेकिन सुबह को वो मृत मिला। यह भी कहा जाता है कि शिवलिंग के नीचे हर समय नर्मदा का जल बहता है। हालाँकि अत्यधिक

वो बाघ नहीं, तेन्दुआ था

अभी मैं एक किताब पढ़ रहा था- "रुद्रप्रयाग का आदमखोर बाघ"। यह जिम कार्बेट द्वारा लिखित पुस्तक The Man-eating Leopard of Rudraprayag का हिंदी अनुवाद है। इस किताब में अनुवादक ने Leopard का हिंदी अनुवाद 'बाघ' किया है। जबकि तस्वीर तेन्दुए की लगा रखी है। पूरी किताब में अनुवादक ने बाघ ही लिखा है। इसमें दो चित्र और भी हैं जिसमे कार्बेट साहब मृत आदमखोर तेन्दुए के पास बैठे हैं। तस्वीर देखने पर साफ़ पता चलता है कि रुद्रप्रयाग में 1918 से 1926 तक जबरदस्त 'नरसंहार' करने वाला वो आदमखोर बाघ नहीं था, बल्कि तेन्दुआ था। ... असल में बात ये है कि हमें आज तक इन जानवरों की पहचान नहीं है। बिल्ली परिवार के बड़े सदस्यों में शेर, बाघ, चीता व तेन्दुआ आते हैं। शेर की पहचान तो उसकी गर्दन पर चारों और लम्बे-लम्बे बालों से हो जाती है। अब बचे बाघ, चीता व तेन्दुआ। वैसे भारत भूमि से चीता तो गायब हो ही चुका है। बाघ व तेन्दुआ काफी संख्या में हैं। आज का 'रिसर्च' इन्ही के बारे में है।

इन्दौर में ब्लॉगर ताऊ से मुलाकात

14 अगस्त, जन्माष्टमी। जैसे ही ताऊ को पता चला कि मैं इंदौर में हूँ, तुरन्त ही निर्देश मिलने शुरू हो गए कि फलानी बस पकड़ और फलाने चौराहे पर उतर जा। खैर, फलाने चौराहे पर ताऊ ने किसी को भेज दिया और थोडी ही देर में मैं ताऊ के घर पर उनके सामने। देखते ही बोले -"अरे यार! तू तो बिलकुल वैसा का वैसा ही है, जैसा अपनी पोस्ट में दिखता है।" घाट तो मैं भी नहीं हूँ -"अजी ताऊ, मैं तो बिलकुल वैसा ही हूँ। लेकिन आपने क्यों रूप बदल लिया है? कौन सा मेकअप कर लिया है कि आज तो चिम्पैंजी की जगह आदमी नजर आ रहे हो?" "अरे ओये, चुप। यहाँ पर मुझे ताऊ मत बोलना।" (शायद मेड-इन-जर्मन का डर था)। खैर हमने फिर उन्हें पूरे दिन ताऊ नहीं बोला। ... फिर दोपहर को साढे बारह-एक बजे 'ब्रेकफास्ट' किया। यहीं ताई से हमारा सामना हुआ। पहले तो मैं सोच रहा था कि ताई वाकई 'ताई' जैसी होगी। लेकिन मेरा अंदाजा गलत निकला। इसके बाद पडोसी के घर की तरफ इशारा करके बोले कि वो देख, वो साला बीनू फिरंगी पड़ा हुआ है। अब तो खा-खाकर पड़ा रहता है। हमारा सैम नीचे बंधा हुआ है। और वो देख, वहां घास में थोडी स

महाकाल की नगरी है उज्जैन

13 अगस्त 2009, अगले दिन जन्माष्टमी थी। मैं उस दिन भोपाल के पास भीमबैठका में था। ताऊ का फोन आया। बोले कि भाई, हम नासिक जा रहे हैं, कल शाम को यहाँ से निकलेंगे। तू दोपहर तक इंदौर आ जा, मिल लेंगे। जब मैंने उन्हें बताया कि मैं भोपाल में हूँ, बोले तो एक काम कर, आज रात को उज्जैन पहुँच जा। सुबह चार बजे महाकाल मंदिर में भस्म आरती होती है। उसे जरुर देखना। इसके अलावा वहां तेरे लायक कुछ भी नहीं है। फिर सीधे इंदौर आ जाना। ... ताऊ की बात हमने तुरन्त मानी। रात ग्यारह वाली पैसेंजर पकड़ी, टीटी की 'कृपा' से सोते हुए गए। ढाई बजे ही उज्जैन पहुँच गए। साढे तीन बजे तक नहा-धोकर चार बजे महाकाल मंदिर पहुँच गए। पहुँचते ही प्रसाद वालों ने पचास रूपये का प्रसाद जबरदस्ती 'गले' में बाँध दिया। जन्माष्टमी होने की वजह से काफी लम्बी लाइन लगी थी। अन्दर गर्भगृह में भस्म आरती की तैयारी चल रही थी। बाहर जगह-जगह टीवी स्क्रीन पर आरती का लाइव प्रसारण चल रहा था।

भीमबैठका- मानव का आरंभिक विकास स्थल

आज एक ऐसी जगह पर चलते हैं जो बिलकुल गुमनाम सी है और अनजान सी भी लेकिन यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल है- एक दो साल से नहीं बल्कि बारह सालों से। इस जगह का नाम है- भीमबैठका (BHIMBETKA), भीमबेटका, भीमबैठिका। कहते हैं कि वनवास के समय भीम यहाँ पर बैठते थे इसलिए यह नाम पड़ गया। ये तो सिर्फ किंवदंती है क्योंकि भीम ने अपने बैठने का कोई निशान नहीं छोडा। ... निशान छोडे हैं हमारे उन आदिमानव पूर्वजों ने जो लाखों साल पहले यहाँ स्थित गुफाओं में गुजर-बसर करते थे। जानवरों का शिकार करके अपना पेट भरते थे। उन्ही दिनों उन्होंने चित्रकारी भी शुरू कर दी। यहाँ स्थित सैंकडों गुफाओं में अनगिनत चित्र बना रखे हैं। इन चित्रों में शिकार, नाच-गाना, घोडे व हाथी की सवारी, लड़ते हुए जानवर, श्रृंगार, मुखौटे और घरेलु जीवन का बड़ा ही शानदार चित्रण किया गया है।

बरसात में नीलकंठ के नज़ारे

कुछ दिन पहले मैंने प्रतिज्ञा की थी कि जल्दी ही नीलकंठ महादेव के नज़ारे दिखाए जायेंगे। हमारे यहाँ देर तो है पर अंधेर नहीं है। इसलिए थोडी देर में आप देखोगे नीलकंठ की हिमालयी वादियों को। मैं वहां करीब महीने भर पहले 15 जुलाई को गया था। उस दिन दोपहर से पहले बारिश हुई थी इसलिए नजारों में चाँद भी लगे थे और तारे भी। ... चलो, आज फिर चलते हैं वहीं पर। सबसे पहले किसी भी तरह ऋषिकेश पहुंचेंगे। अरे यार, वही हरिद्वार वाला ऋषिकेश। हवाई जहाज से, ट्रेन से, बस से, कार से, टम्पू से; जैसा भी साधन मिले, बस पहुँच जाइए। इसके बाद राम झूला पार करके स्वर्गाश्रम। पहुँच गए? ठीक है। यहाँ से नीलकंठ की दूरी कम से कम चौदह किलोमीटर है- वो भी पैदल। दम-ख़म हो तो पैदल चले जाओ। पूरा रास्ता पक्का है लेकिन महाघनघोर जंगल भी है। दस किलोमीटर तक तो निरंतर खड़ी चढाई है। सावन को छोड़कर पूरे साल सुनसान पड़ा रहता है। बन्दर व काले मुहं-लम्बी पूंछ वाले लंगूर जगह-जगह आपका स्वागत करेंगे। ये ही यहाँ की पुलिस है। बैग व जेबों की तलाशी लेकर ही आगे जाने देते हैं।

ऐसा ही होता है ना भाई-बहन का प्यार!!!

परसों रक्षाबंधन है। भाई-बहन के प्यार का बंधन। आज की इस आधुनिक दुनिया में जहाँ बाकी पूरे साल दुनिया भर के "फ्रेंडशिप डे" मनाये जाते हैं, रक्षाबंधन की अलग ही रौनक होती है। इसी रौनक में हम भी रक्षाबंधन मना लेते हैं। ... हमारे कोई बहन तो है नहीं, इसलिए मुझे नहीं पता कि बहन का प्यार कैसा होता है। तवेरी-चचेरी बहनों के भी अलग ही नखरे होते हैं। रक्षाबंधन वाले दिन हमारी कलाईयों में बुवाएं ही राखी बांध देती हैं। पिताजी हर चार भाई हैं। बाकी तीनों बड़े हैं। सभी के अपने-अपने घर-परिवार हैं। दो बुवा हैं। जब वे आती हैं तो बड़े ताऊ के यहाँ ही रुकती हैं। इसके बाद बाकियों के घर पड़ते हैं। इस क्रम में हमारा घर सबसे आखिर में है। ... तो बुवाओं को हमारे यहाँ आते-आते दोपहर हो जाती है। इसलिए दोपहर तक तो हम बेफिक्र रहते हैं, इसके बाद नहा-धोकर चकाचक हो जाते हैं। एक बजे के आसपास बुवाजी आती हैं। पिताजी को राखी बांधकर हमें भी बांधती हैं। वे घर से बनाकर स्टील के डिब्बे में रखकर कलाकंद व मिठाई लाती हैं। हम भी अपनी हैसियत से उन्हें कुछ नेग देते हैं।

कांवड़ यात्रा - भाग दो

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये  यहां क्लिक करें । बरला इंटर कॉलेज खेतों के बीच लम्बा चौडा बना हुआ कॉलेज है। इसलिए एक तो ठंडी हवा चल रही थी, दूसरे पंखे भी चल रहे थे। नीचे दरी बिछी हुई थी। एक थके हुए भोले को रात को सोने के लिए इससे बेहतर और क्या चाहिए? इतनी धाकड़ नींद आई कि कब सुबह के सात बज गए पता ही नहीं चला। उठे तो देखा कि बरामदा अब बिलकुल खाली है, सभी भोले जा चुके हैं। ... हालाँकि कॉलेज में चहल-पहल थी। सुबह का नाश्ता चल रहा था। हमने नहा-नूह कर चाय पी। हम चूंकि काफी देर से उठे थे तो अब जल्दी से जल्दी निकल लेने में ही भलाई थी। लेकिन मेरे लिए अब चलना भी मुश्किल हो रहा था। कल जो हम अपनी औकात से ज्यादा तेज चले थे तो इसका नुकसान अब होना था। अब तो नोर्मल स्पीड भी नहीं बन पा रही थी। इंजन, पिस्टन सब ढीले पड़े थे। पहियों में पंचर हो चुका था। ऑयल टैंक भी खाली हो गया था। अब तो बस चम्मक-चम्मक ही चल रहे थे।

कांवड़ यात्रा - भाग एक

जैसे-जैसे सावन में शिवरात्रि आती है, वैसे-वैसे मन में कांवड़ लाने की हिलोर सी उठने लगती है। मैं पूरे साल कभी भी भगवान् का नाम नहीं लेता हूँ, ना ही कभी धूपबत्ती-अगरबत्ती जलाता हूँ, ना किसी मंदिर में जाकर मत्था टेकता हूँ, ना प्रसाद चढाता हूँ, ना दान करता हूँ। लेकिन सावन आते ही - चलो चलो हरिद्वार। ... मोहल्ले के जितने भी हमउम्र और कमउम्र लडकें हैं, सभी ने तय किया कि 14 जुलाई को हरिद्वार के लिए रवाना होंगे, 15 को वहीं पर रहेंगे और 16 को कांवड़ उठा लेंगे। 19 तारीख तक पुरा महादेव बागपत पहुंचकर जल चढा देंगे। अपनी 15-16 लड़कों की टोली 14 जुलाई को सुबह दस बजे तक मोहल्ले के मंदिर प्रांगण में इकठ्ठा हो गयी। मेरे साथ छोटा भाई आशु भी था। टोली क्या पूरा मोहल्ला ही साथ था। शिवजी से कुशल यात्रा की विनती करके, बड़ों के आशीर्वाद लेकर, बम-बम के जयकारे लगते हुए यह टोली बस स्टैंड की तरफ बढ़ चली।

कांवडिये कृपया ध्यान दें!

सावन आ गया है। कांवड़ यात्रा शुरू हो चुकी है। राजस्थानी कांवडिये तो हरिद्वार से जल लेकर मेरठ पार करके दिल्ली को भी पार कर रहे हैं। दिल्ली वाले कांवडिये हरिद्वार पहुँच चुके हैं या पहुँचने ही वाले हैं। गाजियाबाद व मेरठ व आस पास वाले भी एक दो दिन में पहुँच रहे हैं। कांवडियों की बढती तादाद के मद्देनजर प्रशासन भी चौकस है। हरिद्वार से मेरठ तक तो नेशनल हाईवे बंद हो गया है। दो दिन बाद मेरठ-दिल्ली रोड भी बंद हो जायेगी। ... ऐसी परिस्थिति में व्यवस्था बनाये रखने की सारी जिम्मेदारी कांवडियों की ही हो जाती है। तो मैं यहाँ पर कुछ बातें लिख रहा हूँ, अगर किसी कांवडिये ने पढ़ ली और इन पर अमल करने की कसम खा ली तो उसे कांवड़ लाने के बराबर ही पुण्य मिलेगा।

लैंसडाउन यात्रा

पहले परिचय - लैंसडाउन उत्तराखंड के पौडी गढ़वाल जिले में है। इसकी समुद्र तल से ऊँचाई लगभग 1500 मीटर है। यहाँ गढ़वाल रेजिमेंट का मुख्यालय भी है। सारा प्रशासन मिलिट्री के ही हाथों में है। क्या देखें - लैंसडाउन में कुछ भी देखने के लिए पहले यहाँ जाना पड़ता है। कैसे जाएँ- यहाँ जाने के लिए पौडी जाने की जरुरत नहीं है। कोटद्वार से ही काम चल जाता है। कोटद्वार से दूरी 42 किलोमीटर है। कोटद्वार से 20 किलोमीटर आगे दुगड्डा है।

नैनीताल के फोटो

24 मई, 2009, रविवार। भीमताल और नौकुचियाताल में घूमकर इरादा बना नैनीताल जाने का। मेरे पास अभी भी तीन घंटे थे। भीमताल से जीप पकड़ी और दस किलोमीटर दूर भवाली जा पहुंचा। यहाँ से नैनीताल बारह किलोमीटर दूर है। बस से पहुँच गया।

नौकुचियाताल

पिछली बार हमने भीमताल में घुमाया था। आज नौकुचियाताल की ओर चलते हैं। यह भीमताल से चार किलोमीटर पूर्व में है। पक्की सड़क बनी हुई है। जहाँ भीमताल 1370 मीटर की ऊँचाई पर है, वहीं नौकुचियाताल अपेक्षाकृत कम ऊँचाई पर है। ... भीमताल से नौकुचियाताल तक चार किलोमीटर का रास्ता पैदल चलने के लिए भी एकदम उपयुक्त है। चूंकि ऊँचाई में कोई ज्यादा परिवर्तन नहीं होता। तो ना तो पहाड़ पर जोरदार चढाई का झंझट है, ना ही तीव्र उतराई का। रास्ते में दो गाँव भी पड़ते हैं- पहाडी गाँव। ... नौकुचियाताल नौ कोनों वाला ताल है। कहते हैं कि अगर कोई एक ही निगाह में सभी कोनों को देख ले, तो उसे मोक्ष प्राप्त होता है। वैसे मुझे हद से हद पांच कोने ही दिखे थे, यानी कि मोक्ष से चार कोने दूर।

आज घूमिये भीमताल में

24 मई, 2009, रविवार। इरादा था सुबह 6 बजे तक हल्द्वानी पहुँचने का, लेकिन अपने आलकस के कारण हल्द्वानी पहुँच सका दस बजे यानि चार घंटे लेट। दिल्ली से रात को ग्यारह बजे के आस-पास रानीखेत एक्सप्रेस चलती है, जो छः-साढे छः बजे तक हल्द्वानी पहुंचती है। मैंने टिकट भी ले लिया। देखा कि ट्रेन "ओवरलोड" हो चुकी है। बैठने लेटने की तो दूर, पैर रखने की भी जगह नहीं मिली।

शिमला के फोटो

2 मई 2009, शनिवार। बीस दिन से भी ज्यादा हो गए थे, तो एक बार फिर से शरीर में खुजली सी लगने लगी घूमने की। प्लान बनाया शिमला जाने का। लेकिन किसे साथ लूं? पिछली बार कांगडा यात्रा से सीख लेते हुए रामबाबू को साथ नहीं लिया। कौन झेले उसके नखरों को? ट्रेन से नहीं जाना, केवल बस से ही जाना, पैदल नहीं चलना, पहाड़ पर नहीं चढ़ना वगैरा-वगैरा। तो गाँव से छोटे भाई आशु को बुला लिया। आखिरी टाइम में दो दोस्त भी तैयार हो गए- पीपी यानि प्रभाकर प्रभात और आनंद। ... तय हुआ कि अम्बाला तक तो ट्रेन से जायेंगे। फिर आगे कालका तक बस से, और कालका से शिमला टॉय ट्रेन से। वैसे तो नई दिल्ली से रात को नौ बजे हावडा-कालका मेल भी चलती है। यह ट्रेन पांच बजे तक कालका पहुंचा देती है। हमें कालका से सुबह साढे छः वाली ट्रेन पकड़नी थी। लेकिन हावडा-कालका मेल का मुझे भरोसा नहीं था कि यह सही टाइम पर पहुंचा देगी।

पालमपुर यात्रा और चामुण्डा देवी

यह यात्रा वृत्तान्त शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । दिनांक 12 अप्रैल 2009, रविवार। सुबह को सोकर उठे तो बुरी तरह अकड़े हुए थे। हम पैर रख कहीं रहे थे, पड़ कहीं रहे थे। ये सब कल की बिलिंग की चढाई की करामात थी। तभी रामबाबू भागा-भागा आया। बोला कि ओये, यहाँ पर भूलकर भी मत नहाना। पानी बहुत ही ठंडा है। मुझे तो ना नहाने का बहाना चाहिए ही था। हालाँकि मुहं धो लिया था। वाकई घणा ठंडा पानी था। नाश्ता किया। हमें आज योजनानुसार पहले तो न्युगल खड जाना था। (न्युगल खड)

हिमाचल के गद्दी

सम्पूर्ण यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें। हिमाचल के घुमंतू चरवाहों को गद्दी कहते हैं। इनके पास घर तो होता है, पर ठिकाना नहीं होता। अपने घरों में इनका मन नहीं लगता। साल भर में चले जाते हैं एकाध बार। बाकी पूरे साल पहाडों पर जंगलों में ही रहते हैं। काम क्या करते हैं? भेड़-बकरियां पालते हैं और बेच देते हैं। भेडें ही इनकी संपत्ति होती हैं। इनके पास सैकडों की संख्या में भेडें होती हैं। ...

बिलिंग यात्रा

इस यात्रा-वृत्तांत को आरंभ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । दिनांक 11 अप्रैल, 2009, शनिवार। बीड तो पहुँच गए। बीड बैजनाथ से 13 किलोमीटर दूर है। बैजनाथ व पालमपुर से काफी बसें मिल जाती हैं। बीड से 14 किलोमीटर 'ऊपर' बिलिंग है। बिलिंग जाने के दो तरीके हैं- टैक्सी व पैदल। हमने दूसरा तरीका चुना। ऊपर सामने एक समतल सी पेड़ रहित चोटी है। वहीं बिलिंग है। कुछ दूर तो हम सड़क के साथ ही चले। जब हमें पहाड़ पर जाती एक पगडण्डी दिखी, तो हम रुक गए। सोचा कि किसी से पूछ लें कि क्या यही पगडण्डी बिलिंग जाती है? लेकिन कोई नहीं दिखा। फिर भी हमने चढ़ना शुरू कर दिया। सड़क को छोड़ दिया। पगडण्डी अच्छी तरह से हमारा साथ दे ही रही थी।

मेरठ की शान है नौचन्दी मेला

अप्रैल के महीने में लगने वाला नौचन्दी मेला मेरठ की शान है। इन दिनों यह मेला अपने पूरे शबाब पर है। यह शहर के अंदर नौचन्दी मैदान में लगता है। हर तरफ से आने जाने के साधन सिटी बसें, टम्पू व रिक्शा उपलब्ध हैं। इसकी एक खासियत और है कि यह रात को लगता है। दिन में तो नौचन्दी ग्राउंड सूना पड़ा रहता है। नौचन्दी यानी नव चंडी। इसी नाम से यहाँ एक मंदिर भी है। बगल में ही बाले मियां की मजार है। जहाँ मंदिर में रोजाना भजन-कीर्तन होते हैं वहीं मजार में कव्वाली व कवि सम्मलेन। इसके अलावा एक बड़े मेले में जो कुछ होना चाहिए वो सब यहाँ है। भरपूर मनोरंजन, खाना-खुराक, भीड़-भाड़, सुरक्षा-व्यवस्था सब कुछ।

बैजनाथ मंदिर

इस यात्रा-वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें । (बैजनाथ पपरोला रेलवे स्टेशन) यह ट्रेन आगे जोगिन्दर नगर तक जाती थी, लेकिन हम बैजनाथ पपरोला स्टेशन पर ही उतर गए। बैजनाथ का जो मंदिर है, वो सामने पहाड़ पर स्थित है। निचले बैजनाथ शहर को पपरोला कहते हैं। यहाँ से मंदिर तक जाने के लिए अनलिमिटेड बसें हैं और पैदल भी ज्यादा दूर नहीं है। बैजनाथ मंदिर की बगल में ही बस अड्डा है।

बैजनाथ यात्रा - काँगड़ा घाटी रेलवे

मुझे राम बाबू चांदनी चौक मेट्रो स्टेशन पर मिला। रात को दस बजे। उसे बुलाया तो था आठ बजे ही, लेकिन गुडगाँव से आते समय धौला कुआँ के पास जाम में फंस गया। खैर, चलो दस बजे ही सही, आ तो गया। एक भारी भरकम बैग भी ले रहा था। पहाड़ की सर्दी से बचने का पूरा इंतजाम था। मैंने पहले ही पठानकोट तक का टिकट ले लिया था। दिल्ली स्टेशन पर पहुंचे। पता चला कि जम्मू जाने वाली पूजा एक्सप्रेस डेढ़ घंटे लेट थी। प्लेटफार्म पर वो ही जबरदस्त भीड़। पौने बारह बजे ट्रेन आई। अजमेर से आती है। ट्रेन में प्लेटफार्म से भी ज्यादा भीड़। लगा कि बैठने-लेटने की तो दूर, खड़े होने को भी जगह नहीं मिलेगी।

एक यादगार रेल यात्रा - नागपुर से दिल्ली

ये भारतीय रेल भी अजीब चीज है। एक तो सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार देती है, तो सबसे ज्यादा नौकरियां भी निकालती है। हम भी कई बार इसके झांसे में आये। कहाँ कहाँ जाकर पेपर नहीं दिए? कभी हैदराबाद, कभी नागपुर, कभी गोरखपुर तो कभी चंडीगढ़। इसके पास दो चार तो वैकेंसियाँ होती हैं, हजारों परीक्षार्थियों को बुला लेता है। अपनी अक्ल इतनी तेज है नहीं कि हजारों में से निकल जाएँ। निकलती है तो हमारी फूंक, पेपर को देखते ही। फार्म भी इसलिए भर देते हैं कि कम से कम कहीं जाने का बहाना तो मिलेगा। एक बार बुला लिया जी रेलवे मुंबई वालों ने। पिछले साल नवम्बर की बात है। कुछ दिन पहले यूपी, बिहार वालों की पिटाई हुई थी। तो समझदारी दिखाते हुए रेलवे ने नागपुर में परीक्षा केंद्र बना दिए। हम जा पहुंचे समता एक्सप्रेस (ट्रेन नं। 2808) से। जो रात को दो बजे से पहले ही नागपुर पहुँच जाती है। खैर, ये यात्रा तो कोई ख़ास नहीं रही।

रजाई गददे भी बन गए घुमक्कड़

आजकल अपने रजाई गद्दे राजस्थान की सैर पर निकल गए हैं। राजपूतों के देश में पहुंचकर वे अपने देश को भूल गए हैं। वापस आने का नाम ही नहीं ले रहे। विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि अब वे आयेंगे भी नहीं। पिछले दिनों जब अपना हरिद्वार से दिल्ली ट्रांसफर हुआ, तो रजाई गद्दे भी दिल्ली पहुँचने थे। मैंने दोनों को ऊपर नीचे रखकर रॉल बनाया, और इसे प्लास्टिक के एक कट्टे में डाल दिया। उसमे दो चादरें, खेस, पुराने घिसे जूते व थोडा बहुत सामान और भर दिया। एक हैण्ड बैग भी था, जिसमे रेलवे का टाइम टेबल, पहचान पत्र, आईकार्ड रखे थे। शाम को छः बजे बहादराबाद से राजस्थान रोडवेज की बस पकडी। पीछे वाली सीट पर कट्टे को डाल दिया और ऊपर रैक पर बैग को रख दिया। गाजियाबाद का टिकट ले लिया।

उस बच्चे की होली

सबसे पहले तो सभी को होली की शुभकामनाएं। होली एक ऐसा त्यौहार है जिसके आते ही दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों में जनसँख्या घनत्व कम हो जाता है। क्योंकि दूर दराज से रोजगार की तलाश में आने वाले लोग अपने अपने घरों को, गांवों को लौट जाते हैं-होली मनाने। स्कूलों की तो खैर छुट्टी रहती ही है, कम्पनियाँ भी बंद हो जाती हैं। इस बार 10 व 11 मार्च को होली है। तो ज्यादातर जगहों पर 9 यानी सोमवार की भी छुट्टी कर दी गयी है। 8 का रविवार है। तो इस तरह चार दिन की छुट्टी हो गयी है। खैर, कुछ अपवाद भी होते हैं।

बिहार यात्रा और ट्रेन में जुरमाना

बात पिछले साल की है। नवम्बर में मैं गोरखपुर जा पहुंचा। 21 नवम्बर को रेलवे की परीक्षा थी। मैं पहुँच गया 19 को ही। कायदा तो ये था कि 20 तारीख को पूरे दिन पढना चाहिए था। लेकिन मन नहीं लगा। सुबह-सुबह गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर पहुँच गया। सोचा कि चलो बिहार राज्य के दर्शन कर आयें। छपरा का टिकट लिया और जा बैठा मौर्या एक्सप्रेस (5028) में। यह गोरखपुर से ही चलती है। यह रूट भारत के व्यस्त रूटों में से एक है। बिहार, पश्चिम बंगाल और असोम जाने वाली काफी सारी ट्रेनें इसी रूट से गुजरती हैं। लेकिन इस रूट की सबसे बड़ी कमी है कि लखनऊ से ही यह सिंगल लाइन वाला है, यानी कि अप व डाउन दोनों दिशाओं को जाने वाली ट्रेनें एक ही ट्रैक से गुजरती हैं। इसी कारण से अधिकाँश ट्रेनें लेट हो जाती हैं। चार-चार, पांच-पांच घंटे लेट होना तो साधारण सी बात है। तो जाहिर सी बात है कि सुपरफास्ट ट्रेनों को ज्यादा प्राथमिकता दी जाती है। और पैसेंजर ट्रेनों का तो सबसे बुरा हाल होता है। मेल/एक्सप्रेस को भी कहीं भी रोक लिया जाता किसी दूसरी ट्रेन को पास करने के लिए।

हम भी आ गए अखबार में

18 फरवरी 2009, दिन बुधवार। रोजाना की तरह इस दिन भी मैं कोट-पैन्ट पहनकर और टाई टूई बांधकर ऑफिस के लिए निकला। अब भईया, हमने जबसे दिल्ली मेट्रो को ज्वाइन किया है, कपडे क्या, जूते जुराब तक बदल गए। मैं तो गले में कसकर बांधे जाने वाले "पट्टे" का धुर विरोधी रहा हूँ। जैसे ही शाहदरा बॉर्डर पर पहुंचा, नजर पड़ी एक अखबार वाले पर। फटाफट दैनिक जागरण लिया, और चलता बना। खैर, कोई बात नहीं। दोपहर एक बजे लंच कर लिया, देखा कि मोबाइल जी बता रहे हैं कि "2 missed calls" । सुशील जी छौक्कर ने मारी थी दो घंटे पहले। मैंने फोन मिलाया और पूछा कि सुशील जी क्या बात? बोले कि तुमने आज का हिंदुस्तान पढ़ा क्या? मैंने कहा नहीं तो। बोले कि आज उसमे रवीश जी ने तुम्हारे ब्लॉग के बारे में लिखा है। केवल तुम्हारे।

हरिद्वार-ऋषिकेश की प्रशासनिक सच्चाई

आमतौर पर बाहर से आने वाले लोग हरिद्वार-ऋषिकेश को एक ही जिले में मानते हैं। लेकिन अगर सच्चाई पता चले तो सभी कन्फ्यूज हो जायेंगे। हरिद्वार तो खैर जिला है ही, ऋषिकेश शहर स्थित है देहरादून जिले में, लक्ष्मण झूला क्षेत्र स्थित है टिहरी गढ़वाल जिले में, और राम झूले का नियंत्रण करता है पौडी गढ़वाल जिला। और अब विस्तार से। 1974 से पहले हरिद्वार सहारनपुर जिले का एक भाग था। इसकी तहसील थी रुड़की। अब तो खैर हरिद्वार खुद भी एक तहसील है। लेकिन जिला अस्पताल को छोड़कर इसका कोई भी सरकारी कार्यालय हरिद्वार में नहीं है। जिला मुख्यालय, जिला जेल, पुलिस मुख्यालय सब कुछ हरिद्वार से 15 किलोमीटर दूर रोशनाबाद गाँव में है। रोशनाबाद शिवालिक की पहाडियों की तलहटी में स्थित है।

देहरादून का इतिहास

भौगोलिक रूप से देहरादून शिवालिक की पहाडियों और मध्य हिमालय की पहाडियों के बीच में स्थित है। वास्तव में यह पूर्व में गंगा से लेकर पश्चिम में यमुना नदी तक फैला हुआ है। इस तरह की विस्तृत घाटियों को ही "दून" कहते हैं। इस घाटी में सौंग व आसन जैसी कई नदियाँ हैं। आसन व यमुना के संगम पर तो बैराज भी बना है। इसी जिले में ऋषिकेश व मसूरी जैसी विश्व प्रसिद्द जगहें हैं। राजाजी राष्ट्रीय पार्क का काफी बड़ा हिस्सा भी इसी में पड़ता है। भारतीय सर्वेक्षण विभाग और राष्ट्रीय वन अनुसन्धान संस्थान देहरादून में ही हैं। देश को मिलिट्री अफसर देने वाली इंडियन मिलिट्री अकेडमी (IMA) यही पर है। अब देखते हैं देहरादून का इतिहास। 1675 में सिक्खों के सातवें गुरू, गुरू हरराय के पुत्र राम राय ने यहाँ एक डेरा स्थापित किया था। इसी डेरा को बाद में "देहरा" कहा जाने लगा।

हरिद्वार जाने का वैकल्पिक मार्ग

हरिद्वार जाना चाहते हो? तो आज उनका मार्गदर्शन करते हैं जो अपनी गाड़ी से जाने की सोच रहे हैं। दिल्ली से ही शुरू करते हैं। यहाँ से तीन रास्ते है। पहला रास्ता - दिल्ली, गाजियाबाद, मोदीनगर, मेरठ, खतौली, मुज़फ्फरनगर, रुड़की और हरिद्वार। गाजियाबाद से हरिद्वार तक पूरा एन एच 58 है। दूसरा रास्ता है दिल्ली से बागपत, बडौत, शामली, सहारनपुर/मुज़फ्फरनगर, रुड़की और हरिद्वार। और जो है... तीसरा रास्ता है- दिल्ली से गाजियाबाद, मेरठ, मवाना, बिजनौर, नजीबाबाद और हरिद्वार। तो मेरी सलाह ये है कि आजकल भूलकर भी पहले दो रास्तों से ना जाएँ। क्योंकि मेरठ से मुज़फ्फरनगर तक पूरा हाईवे खुदा पड़ा है। चार लेन को छः लेन बनाया जा रहा है। बाकी पूरा रास्ता एकदम मस्त है।

स्टेशन से बस अड्डा कितना दूर है?

आज बात करते हैं कि विभिन्न शहरों में रेलवे स्टेशन और मुख्य बस अड्डे आपस में कितना कितना दूर हैं? आने जाने के साधन कौन कौन से हैं? वगैरा वगैरा। शुरू करते हैं भारत की राजधानी से ही। दिल्ली:- दिल्ली में तीन मुख्य बस अड्डे हैं यानी ISBT- महाराणा प्रताप (कश्मीरी गेट), आनंद विहार और सराय काले खां। कश्मीरी गेट पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास है। आनंद विहार में रेलवे स्टेशन भी है लेकिन यहाँ पर एक्सप्रेस ट्रेनें नहीं रुकतीं। हालाँकि अब तो आनंद विहार रेलवे स्टेशन को टर्मिनल बनाया जा चुका है। मेट्रो भी पहुँच चुकी है। सराय काले खां बस अड्डे के बराबर में ही है हज़रत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन। गाजियाबाद: - रेलवे स्टेशन से बस अड्डा तीन चार किलोमीटर दूर है। ऑटो वाले पांच रूपये लेते हैं।

अजी अब तो हम भी दिल्ली वाले हो गए

हाँ जी, बिलकुल सही कह रहा हूँ। अब हम हरिद्वार वाले नहीं रहे, दिल्ली वाले हो गए हैं। आज के बाद अपनी समस्त गतिविधियाँ दिल्ली से ही संचालित होंगी। इब आप सोच रहे होंगे कि मुसाफिर को क्या हो गया? कल तक हरिद्वार हरिद्वार करने वाला अब दिल्ली के गुणगान कर रहा है। चलो बता ही देता हूँ। दिल्ली मेट्रो में जूनियर इंजिनियर (JE) बन गया हूँ। अगस्त 2008 में रोजगार समाचार में छपा कि दिल्ली मेट्रो को बाईस मैकेनिकल जेई की जरुरत है। बाईस में से केवल ग्यारह सीटें ही अनारक्षित थी। हमने भी तीन सौ रूपये का बैंक ड्राफ्ट लगाकर फॉर्म भर दिया। दुनिया वालों ने खूब कहा कि भाई, केवल ग्यारह सीटें ही तो हैं, तू तीन सौ रूपये बर्बाद मत कर। एक से एक बढ़कर पढाकू परीक्षार्थी आएंगे, तू तो कहीं भी नहीं टिकेगा। लेकिन धुन के पक्के इंसान ने फॉर्म भर ही दिया।

दूर दूर तक प्रसिद्द है मेरठ का गुड

जब मैं गुडगाँव में रहता था तो मुझसे दिल्ली के एक दोस्त ने पूछा कि यार, ये जो गुड होता है ये कौन से पेड़ पर लगता है? मैंने कहा कि इस पेड़ का नाम है गन्ना। तो बोला कि गन्ने पर किस तरह से लगता है? डालियों पर लटकता है या गुठली के रूप में होता है या फिर तने में या जड़ में होता है। मैंने कहा कि यह गन्ने की डालियों पर प्लास्टिक की बड़ी बड़ी पन्नियों में इस तरह पैक होता है जैसे कि बड़ी सी टॉफी। लोगबाग इसे पन्नियों में से बाहर निकाल लेते हैं और पन्नियों को दुबारा टांग देते हैं। उसके मुहं से एक ही शब्द निकला- आश्चर्यजनक।

ऐसे मनाते थे हम 26 जनवरी

छब्बीस जनवरी मतलब वो दिन जब हम स्कूल तो जाते थे, लेकिन बिना बस्ते के और बिना तख्ती के। हमें पता होता था कि आज स्कूल में मिठाई मिलेगी। मिठाई क्या, सभी बच्चों को गिनती के पाँच पाँच बतासे मिलते थे। अब उनमे से एक दो तो हम ऐसे ही खा जाते थे, दो तीन बतासे बचाकर माँ को भी देने पड़ते थे। हम दोनों भाईयों में होड़ लगी होती थी कि कौन ज्यादा बतासे बचाए। इसके लिए हम दूसरे स्कूलों को भी नही छोड़ते थे। हमारे इस प्राईमरी स्कूल के बगल में ही है इंदिरा स्कूल। मतलब इंदिरा गाँधी जूनियर हाई स्कूल। जो रुतबा कानपुर में ग्रीन पार्क का है, कोलकाता में ईडेन गार्डन का है, मुंबई में वानखेडे स्टेडियम का है, और दिल्ली में फिरोज़ शाह कोटला का है; वही बल्कि उससे भी ज्यादा रुतबा हमारे गाँव में इंदिरा स्कूल के एक बीघे के मैदान का है। सुबह नौ दस बजे से दोपहर बाद दो तीन बजे तक तो स्कूल चलता था। स्कूल बंद हुआ नही, गाँव के अन्य बच्चों से लेकर शादीशुदाओं तक का जमघट लग जाता था।

चलो, हैदराबाद चलते हैं - एक रोमांचक रेलयात्रा

मई 2008 के पहले सप्ताह में एक लैटर आया। रेलवे सिकंदराबाद की तरफ़ से। कह रहे थे की भाई नीरज, हम 22 जुलाई को जूनियर इंजीनियर की परीक्षा का आयोजन कर रहे हैं, तू भी आ जाएगा तो और चार चाँद लग जायेंगे। मैं ठहरा ठलुवा इंसान। तुंरत ही तैयारी शुरू कर दी। इधर मैंने तो 19 जुलाई का दक्षिण एक्सप्रेस (गाड़ी नंबर 2722) का रिजर्वेशन कराया, उधर बापू ने हैदराबाद में मेरे रहने का इंतजाम भी कर दिया। हमारे पड़ोसी फौजी राजेन्द्र सिंह की तैनाती वही पर थी। वापसी का रिजर्वेशन कराया मैंने आन्ध्र प्रदेश संपर्क क्रांति एक्सप्रेस (गाड़ी नंबर 2707) से 23 जुलाई का। यानी कि मुझे हैदराबाद पहुँचते ही ख़ुद को राजेन्द्र भाई के हवाले कर देना था। आगे का सिरदर्द उन्ही का था।

25000 किलोमीटर की रेल यात्रा

अब तक मैंने 25000 किलोमीटर की रेल यात्रा पूरी कर ली है। पहली बार जब मैं रेल में अप्रैल 2005 में बैठा था, उस समय मैंने ये बात तो सोची भी नहीं थी। प्रमाण के तौर पर शुरूआती पाँच छः यात्राओं को छोड़कर और कुछ बेटिकट यात्राओं को छोड़कर मेरे पास सभी टिकट सुरक्षित रखे हैं। आओ शुरू करते हैं कुछ सांख्यिकीय तथ्यों से: अभी तक कुल मिलाकर छोटी बड़ी 210 यात्राएं की हैं। जिनमे से 109 बार पैसेंजर ट्रेनों से 7562 किलोमीटर, मेल/एक्सप्रेस ट्रेनों से 80 यात्राओं में 10428 किलोमीटर, और सुपर फास्ट ट्रेनों से 21 यात्राओं में 7031 किलोमीटर का सफर। सबसे लम्बी यात्रा रही 1660 किलोमीटर की दो बार, जब दक्षिण एक्सप्रेस से निजामुद्दीन से सिकंदराबाद गया था और आन्ध्र प्रदेश संपर्क क्रांति एक्सप्रेस से वापस आया था। सबसे छोटी यात्रा रही 4 किलोमीटर की जब मेरठ सिटी से मेरठ छावनी गया था।

चले थे सहस्त्रधारा, पहुँच गए लच्छीवाला

इस रविवार को हमारा घूमने का कार्यक्रम बना-सहस्त्रधारा जाने का। सहस्त्रधारा देहरादून से आगे पहाडों में घने जंगलों के बीच स्थित है। सुबह कपड़े वपड़े धोकर और नहाकर मैं और सचिन निकल पड़े। हरिद्वार पहुंचकर देहरादून का टिकट लिया। उस दिन सभी ट्रेनें कम से कम चार घंटे लेट थी। तो हमें सुबह सात बजे आने वाली लाहौरी एक्सप्रेस (गाड़ी नंबर 4632 ) ग्यारह बजे मिल गई। बारह बजे तक तो यह हरिद्वार में ही खड़ी रही।

जब मुझ पर लगा रेल में जुरमाना

अपनी बेरोजगारी के दिनों में एक बार कुरुक्षेत्र जाना हुआ। सन 2007 के दिसम्बर महीने की छः तारीख को। मेरे साथ रोहित भी था। वापसी में कुरुक्षेत्र से गाजियाबाद जाना था। हमें कुरुक्षेत्र रेलवे स्टेशन से ट्रेन मिली अमृतसर-दादर एक्सप्रेस (गाड़ी नंबर- 1058) । नई दिल्ली से दूसरी ट्रेन बदलनी थी। अब एक तो जाडे के दिन, दूसरा शाम का समय। हमें जनरल डिब्बे में घुसने की तो दूर, लटकने तक की भी जगह नहीं मिली। मजबूरी में ना चाहते हुए भी शयनयान डिब्बे में जा घुसे। जब तक सूरज नहीं छिपा, तब तक हम खिड़की पर ही बैठे रहे। पानीपत के बाद दिन छिपने पर ठण्ड बढ़ने के कारण हमने खिड़की बंद कर ली। हमारे साथ और भी हमारे जैसे ही कई यात्री बैठे हुए थे।

रेलयात्रा सूची: 2009

2005-2007   |   2008   |   2009   |   2010   |   2011   |   2012   |   2013   |   2014   |   2015   |   2016   |   2017  |  2018  |  2019 क्रम सं कहां से कहां तक ट्रेन नं ट्रेन नाम दूरी (किमी) कुल दूरी दिनांक श्रेणी गेज 1 मेरठ सिटी मुजफ्फरनगर 1DM दिल्ली-मुजफ्फरनगर डीएमयू 56 25080 11/01/2009 साधारण ब्रॉड 2 हरिद्वार दिल्ली 4042 मसूरी एक्सप्रेस 283 25363 20/01/2009 शयनयान ब्रॉड 3 मुजफ्फरनगर मेरठ छावनी 9106 हरिद्वार-अहमदाबाद मेल 52 25415 24/01/2009 साधारण ब्रॉड 4 शिवाजी ब्रिज गाजियाबाद ईएमयू 25 25440 27/01/2009 साधारण ब्रॉड 5 गाजियाबाद साहिबाबाद 1TDB बुलंदशहर-तिलक ब्रिज पैसेंजर 6 25446 28/01/2009 साधारण ब्रॉड 6 साहिबाबाद शिवाजी ब्रिज 2MNR मेरठ छावनी-रेवाडी पैसेंजर 19 25465 28/01/2009 साधारण ब्रॉड 7 दिल्ली गाजियाबाद ईएमयू 20 25485 28/01/2009 साधारण ब्रॉड 8 गाजियाबाद दिल्ली 4042 मसूरी एक्सप्रेस 20 25505 29/01/2009 साधारण ब्रॉड 9 दिल्ली गाजियाबाद 1DM दिल्ली-मुजफ्फरनगर डीएमयू 20 25525 29/01/2009 साधारण ब्रॉड 10 गाजियाबाद दिल्ली ईएमयू 20 25545 30/01/2009 साधारण ब्रॉड 11 शिवाजी ब

रेलयात्रा सूची: 2008

2005-2007   |   2008   |   2009   |   2010   |   2011   |   2012   |   2013   |   2014   |   2015   |   2016   |   2017  |  2018  |  2019 क्रम सं कहां से कहां तक ट्रेन नं ट्रेन नाम दूरी (किमी) कुल दूरी दिनांक श्रेणी गेज 1 मेरठ छावनी गुडगांव 2MNR मेरठ छावनी-रेवाडी पैसेंजर 109 7741 01/01/2008 साधारण ब्रॉड 2 गुडगांव दिल्ली 2915 आश्रम एक्सप्रेस 32 7773 19/01/2008 साधारण ब्रॉड 3 दिल्ली रोहतक 1DJ दिल्ली-जींद पैसेंजर 70 7843 19/01/2008 साधारण ब्रॉड 4 रोहतक भिवानी 1RKB रोहतक-भिवानी पैसेंजर 50 7893 19/01/2008 साधारण ब्रॉड 5 भिवानी रेवाडी 188 हिसार-जयपुर पैसेंजर 82 7975 19/01/2008 साधारण ब्रॉड 6 मेरठ छावनी दिल्ली 304 कालका-दिल्ली पैसेंजर 72 8047 27/01/2008 साधारण ब्रॉड 7 दिल्ली गुडगांव 7RD दिल्ली-रेवाडी पैसेंजर 32 8079 27/01/2008 साधारण ब्रॉड 8 गुडगांव मेरठ छावनी 1MNR रेवाडी-मेरठ छावनी पैसेंजर 109 8188 16/02/2008 साधारण ब्रॉड 9 मेरठ सिटी गुडगांव 9106 हरिद्वार-अहमदाबाद मेल 100 8288 17/02/2008 साधारण ब्रॉड 10 गुडगांव मेरठ छावनी 9105 अहमदाबाद-हरिद्वार मेल 104 8392 02/03/2008 साधारण ब