मैंने पहली बार ट्रेन से सफ़र किया था आज से लगभग साढे चार साल पहले यानी अप्रैल 2005 में। भारतीय नौसेना की परीक्षा देने कानपुर जाना था। मैंने तब तक ट्रेन देखी तो थी लेकिन बैठा नहीं था। यहाँ तक कि मेरठ सिटी रेलवे स्टेशन भी नहीं देखा था। मेरठ छावनी तो देख रखा था - दो प्लेटफोर्म वाला।
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इन परिस्थितियों में पिताजी मुझे अकेले नहीं भेज सकते थे। बोले कि मैं चलूँगा तेरे साथ। इतने लम्बे सफ़र के लिए रिजर्वेशन भी नहीं कराया। तब तो मुझे भी नहीं पता था कि रिजर्वेशन नाम की भी कोई चीज होती है। मेरठ सिटी पहुंचे। मैं अति हर्ष उल्लाषित हो रहा था कि आज ट्रेन में बैठूंगा। पिताजी की आज्ञा से मैं ही कानपुर के दो टिकट लाया।
शाम को सात बजे ट्रेन यहाँ से चलनी थी। अभी पांच ही बजे थे। हाँ, ट्रेन थी संगम एक्सप्रेस, जो मेरठ सिटी से इलाहाबाद जाती है। यह यहीं से बनकर चलती है। लेकिन फिर भी पिताजी ने एक कुली को बीस रूपये दे दिए- जनरल डिब्बे में एक बर्थ कब्जाने के लिए। जब खाली ट्रेन प्लेटफोर्म पर आकर लगी तो भारी धक्का-मुक्की के कारण मैं तो चढ़ ही नहीं पाया। जब धक्कामुक्की शांत हो गयी तब अन्दर घुसा। आज पहली बार ट्रेन के अन्दर घुसा था। पिताजी ऊपर एक बर्थ पर बैठे थे और मैं भी वहीं जा बैठा।
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ठीक सात बजे ट्रेन चल पड़ी। मन मीलों उछल रहा था। विश्वास नहीं हो रहा था कि आज मैं ट्रेन में हूँ। यहाँ एक और अनुभव हुआ। ट्रेन के चलने से खड-खड, खड-खड की जो जोर जोर से अनवरत आवाज आ रही थी, यह कहाँ से आ रही है? ओहो, आ गया समझ में। डिब्बे के नीचे शायद ढोल जैसा कुछ बाँध रखा है जो ट्रेन के चलने पर बजता है ताकि सवारियां सो ना जाएँ और रात बे-रात को आने वाले अपने स्टेशनों पर उतर सकें। वास्तविकता बहुत बाद में पता चली। हापुड़ पहुंचे। भीड़ जैसे ट्रेन का ही इन्तजार कर रही थी। इसके बाद बाहर अँधेरा हो गया।
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घंटे डेढ़ घंटे बाद एक और स्टेशन आया। भीड़ में हलचल हुई। किसी ने कहा कि खुर्जा है। अब तक मैं भी आदी हो चुका था। लेटा और सो गया। लेकिन नींद कहाँ!!! कुछ देर बाद आवाज आई कि अलीगढ पहुँच गए हैं। रात ग्यारह बजे के बाद यहाँ से चली। जहाँ भी रूकती, वहीं चाय-चाय का शोर मच जाता। अन्दर भी एक हलचल होती। कोई पूछता कि कहाँ आ गए। कई लोग बताते कि टूंडला आ गए। टूंडला? यह भी कोई स्टेशन है? हा हा हा हा। क्या नाम है!!!!! टूंडला।
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मन ही मन में सोच रहा था कि इतने घंटे हो गए चलते हुए। दूर बहुत दूर क्षितिज में गाँव की एक हलकी सी धुंध सी दिखती। बीच में हापुड़ भी दिखता, खुर्जा भी दिखता।
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आधी रात से ज्यादा हो गयी थी। अब कोई सवारी ना तो उतरती थी, ना ही चढ़ती थी। सब सोये पड़े थे। स्टेशन आये, गाडी रुके, कोई मतलब नहीं। अब पता नहीं चल रहा था कि कहाँ पहुँच गए। ढाई तीन बजे के आसपास कानों में एक हलकी सी आवाज आई - इटावा है। गाँव की और देखा। अब गाँव और छोटा हो गया था। अपना घर भी दिखा, सब सोये पड़े थे।
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सुबह पांच बजे। ट्रेन में जबरदस्त हलचल हो गयी। हर कोई अपना सामान समेट रहा था। ट्रेन रुकी तो पिताजी की भी आँख खुली। मुहं से निकल पड़ा - कौन सा स्टेशन है? कईयों ने तुंरत बताया- कानपुर है। चल बेटे, उतर। कानपुर पहुँच गए। आँखों में नींद भरी हुई, अलसाया सा मैं भी ट्रेन से उतर गया। फिर गाँव की ओर देखा। इटावा दिख रहा था, टूंडला भी दिख सा रहा था, अलीगढ पर धुंध सी छाई थी। लेकिन गाँव स्पष्ट दिख रहा था। मां ने दूध दुह लिया था।
बड़ी देर बाद ट्रेन में बैठे!
ReplyDeleteअंतिम दो पैरा तो हमारा दिल लूट ले गये,
ReplyDeleteवाह नीरज वाह !
देर आये दुरुस्त आये वाली कहावत को चरितार्थ कर दिय मुसाफिर जी. और अब तो अच्छों-अच्छों को ट्रेन के मामले में पीछे छोड दिया.
ReplyDelete"लेकिन गाँव स्पष्ट दिख रहा था। मां ने दूध दुह लिया था" super! बहुत सुन्दर..
ReplyDeleteयात्रा संस्मरण बढ़िया रहा।
ReplyDeleteबहुत रोचक संस्मरण...मजा आ गया...
ReplyDeleteनीरज
बहुत रोचक लिखा भाई.
ReplyDeleteरामराम.
रोचक विवरण। जब अबकी बार हमें अकेले जाऐगे रेल से तो जरुर एक विवरण लिखेगे जी।
ReplyDeleteबड़ी रोचकता से लिखते हो भाई..बहुत खूब!
ReplyDeleteबहुत यात्रायें करते कराते हैं। पर ऐसी सुन्दर यात्रा न करी हमने!
ReplyDeleteआपके शीर्षक "जब पहली बार ट्रेन से सफ़र किया" से बहुत पुरानी याद आ गयी। जब हम झाबुआ में रहते थे और एनसीसी में थे तब हम अपने कैडेट्स को लेकर रतलाम कैम्प में जा रहे थे। तो मेघनगर रेल्वे स्टेशन पर एक लड़का नारियल भी साथ में लेकर आया था मैंने पूछा "नारियल किसलिए"
ReplyDeleteजबाब मिला "पहली बार ट्रेन में बैठ रहा हूँ" और इसलिए पटरी पर नारियल फ़ोडूँगा।
ओह तो ये यायावरी बड़ी देर से शुरू हुयी......पर बड़ी तेजी से आगे का सफ़र चले hmm....
ReplyDeleteab to shayad sapne main bhee tren hee dekhtey hoge JRS...??..:))
sundar !
ReplyDeleteमेरे भाई...बड़ी देर कर दी ट्रेन में बैठने में! ख़ैर...अभी ऐसे भी बहुत से लोग हैं जो कभी बस में भी नहीं बैठे...बे-बस लोग।
ReplyDeleteपाठक के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान लाना बखूबी जानते हैं आप नीरज जी
ReplyDeleteबाकई रोचक संस्मरण !
ReplyDeleteरोचक संस्मरण.
ReplyDeleteपिछले दस ग्यारह साल में तो देश छान मारे ।
ReplyDeleteक्या यह नीरज जी के लिए और हम सब के लिए रोचक बात नहीं है कि नीरज जब बालिग हुए तब रेलगाड़ी में बैठे या रेलगाड़ी से चले और ऐसा चले की 11 साल में लगभग रेलगाड़ी से पूरा भारत घूम डाले। विशेष कर जहाँ जहाँ रेलगाडियां जाती हैं। कुछ बाकी है तो वे भी पूरा होना ही है। शायद यह अपने तरह का पहला रिकार्ड हो। अन्य कई रिकार्ड तो है ही।
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