9 मई 2015 डेढ बजे हम कुफरी पहुंचे। हे भगवान! इतनी भीड... इतनी भीड कि निशा ने कहा- सभी लोग कुफरी ही आ गये, शिमला पास ही है, कोई शिमला क्यों नहीं जा रहा? और बदबू मची पडी पूरे कुफरी की सडकों पर गधों और घोडों की लीद की। गधे वालों में मारामारी हो रही कि कौन किसे अपने यहां बैठाये और अच्छे पढे लिखे भी सोच-विचार कर रहे कि इस गधे पर बैठे कि उस गधे पर। यह चार रुपये ले रहा है और वो तीन रुपये। जरूर इस चार रुपये वाले गधे में कुछ खास बात है, तभी तो महंगा है। (नोट: गधे को खच्चर या घोडा पढें।) थोडी देर रुकने का इरादा था, कुफरी देखने का इरादा था लेकिन मुझसे पहले ही पीछे बैठी ‘प्रधानमन्त्री’ ने जब कहा कि कुफरी देखने की चीज नहीं है, आगे चलता चल तो मैं भी आगे चलता गया। अच्छा हुआ कि कुफरी से चायल वाली सडक पर आखिर में कुछ दुकानें थीं और उनमें से एक में हमारी बहुप्रतीक्षित कढी चावल भी थे तो हम रुक गये। बाइक किनारे खडी की नहीं कि तीस रुपये की पर्ची कट गई पार्किंग की। मुझसे ज्यादा निशा हैरान कि यह क्यों हुआ? मैंने कहा- यह टूरिस्ट-फ्रेण्डली स्थान है। ऐसी जगहों पर ऐसा ही होता है।
नीरज मुसाफिर का यात्रा ब्लॉग