ये भारतीय रेल भी अजीब चीज है। एक तो सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार देती है, तो सबसे ज्यादा नौकरियां भी निकालती है। हम भी कई बार इसके झांसे में आये। कहाँ कहाँ जाकर पेपर नहीं दिए? कभी हैदराबाद, कभी नागपुर, कभी गोरखपुर तो कभी चंडीगढ़। इसके पास दो चार तो वैकेंसियाँ होती हैं, हजारों परीक्षार्थियों को बुला लेता है। अपनी अक्ल इतनी तेज है नहीं कि हजारों में से निकल जाएँ। निकलती है तो हमारी फूंक, पेपर को देखते ही। फार्म भी इसलिए भर देते हैं कि कम से कम कहीं जाने का बहाना तो मिलेगा।
एक बार बुला लिया जी रेलवे मुंबई वालों ने। पिछले साल नवम्बर की बात है। कुछ दिन पहले यूपी, बिहार वालों की पिटाई हुई थी। तो समझदारी दिखाते हुए रेलवे ने नागपुर में परीक्षा केंद्र बना दिए। हम जा पहुंचे समता एक्सप्रेस (ट्रेन नं। 2808) से। जो रात को दो बजे से पहले ही नागपुर पहुँच जाती है। खैर, ये यात्रा तो कोई ख़ास नहीं रही।
ख़ास रही वापसी की यात्रा। ट्रेन थी तमिलनाडु संपर्क क्रांति एक्सप्रेस (ट्रेन नं। 2651) । यह ट्रेन भी रात को दो बजे ही नागपुर पहुँचती है। मेरा रिजर्वेशन कन्फर्म था। स्लीपर के सात नंबर वाले डिब्बे में सीट नंबर 56। नागपुर का स्टेशन रात को दस बजे तक बिलकुल खाली सा हो गया था। मैंने डेढ़ बजे का अलार्म भरा और फर्श पर ही बिस्तर (अखबार) बिछाया और फ़ैल गया। सोता रहा, सोता रहा। आखिरकार डेढ़ बजे अलार्म बजा। इस नींद के कनस्तर ने सोचा कि इस टाइम किस कमीने का फोन आ गया? यह तो अपने घर में बिस्तर पर सो रहा था वो भी घोडे बेचकर।
"फोन" काट दिया। और दुबारा सो गया। तभी मुझे एक सपना सा दिखा। इसमें एक आवाज सुनाई दी-"यात्रीगण कृपया ध्यान दें, गाड़ी नंबर दो छः पांच एक तमिलनाडु संपर्क क्रांति सुपर फास्ट एक्सप्रेस थोडी ही देर में प्लेटफार्म नंबर तीन पर पहुँचने वाली है। " इसके बाद इंग्लिश में सुनाई दिया...फिर हिंदी में...फिर...। तो नींद कुछ कमजोर सी पड़ गयी। मैंने पड़े पड़े ही सोचा कि वाह! अजीब बात है, कल ही ट्रेन से नागपुर गया था। आज भी सपने में ट्रेन ही दिखाई दे रही है। फिर करवट बदली और सोने लगा।
तभी आवाज आई -"यात्रीगण कृपया....ट्रेन प्लेटफार्म नंबर तीन पर पहुँच चुकी है।" इस टाइम मैं हालाँकि गहरी नींद में तो था नहीं, इसलिए "पहुँच चुकी है" सुनते ही अकल ठिकाने आ गयी। नींद वींद सब भाग गयी। गया गुजरा सब याद आ गया। सोया पड़ा दिमाग एकदम सक्रिय हो गया। फटाफट उठा, चादर कंधे पर डाली, एक हाथ में जूते ले लिए, दूसरे में बैग और भागमभाग। अभी कितनी भयंकर नींद आ रही थी और अब कहाँ गयी वो नींद?
एस सात में घुसा। देखा कि मेरी सीट पर एक मुल्ला जी सो रहे हैं। हो सकता है कि मुल्ला जी का टिकट कन्फर्म ना हुआ हो, और वे खाली सीट देखकर सो गए हों। खैर, मैंने उन्हें हिलाया, आवाज दी। अगल बगल की सब सवारियां उठ गयी लेकिन वे नहीं उठे। शायद सोच रहे होंगे कि ट्रेन ही हिल रही है। काफी मशक्कत के बाद वे उठे। अब जैसा कि होता है कि गहरी नींद में सोते किसी आदमी को रात को ढाई बजे उठाओगे तो क्या होगा?
उन्होंने कहा कि अरे यार, ये मेरी सीट है। अपनी सीट पर जाओ। मैंने कहा कि भई, ये मेरी कन्फर्म सीट है। आप क्यों सो रहे हो? उठो। बोले कि तुम्हारी कहाँ से हो गयी? ये मेरी कन्फर्म सीट है। बड़ी मुसीबत आई। मैंने कहा कि मुल्ला जी, जरा अपना टिकट तो दिखाओ। अगर आपकी कन्फर्म सीट है तो जरूर टीटी ने ही कन्फर्म की होगी, तो मेरी कोई और सीट कर दी होगी उसने। मुल्ला जी ने टिकट दिखा दिया। उस पर टीटी ने ही एस 7 और सीट नंबर 56 लिख रखा था।
मैं दूसरे डिब्बे से टीटी को ढूंढकर पकड़कर लाया। उन्होंने अपने कागज़ पत्तर देखे। फिर मुझे सीट नंबर 65 दे दी। यहाँ भी एक पंगा हो गया। इस सीट पर भी एक 16-17 साल का लड़का सो रहा था। सच बताऊँ तो मुझे सोते हुए को जगाना बहुत बुरा लगता है। ना तो मैं किसी सोते हुए को उठाना चाहता हूँ, ना ही ये चाहता हूँ कि कोई मुझे सोते हुए को उठाए। लेकिन मजबूरी थी। मैंने हलके से उसे हिलाया। वो उठ गया। मैंने कहा कि भाई, ये सीट मेरी है। वो दक्षिण भाषी था, हिंदी नहीं समझ पाया। इतने में उसके पापा उठ गए।
उन्होंने उस सीट से लड़के को उठा दिया और मेरे लिए खाली कर दी। लेटते ही नींद आ गयी। वो लड़का फिर कहाँ सोया, मुझे नहीं पता।
फिर आँख खुली आठ बजे के बाद। मतलब कि भोपाल से जरा सा पहले। गर्दन घुमाकर नीचे देखा कि सभी लोग उठ चुके हैं। मैं ही ऐसा था जो अभी तक नहीं उठा था। नीचे वाले भी शायद मेरे उठने की ही बाट देख रहे थे। तभी तो मेरे नीचे उतरते ही उन्होंने फटाफट मेरी बर्थ को फोल्ड कर दिया। चादर व बैग भी नीचे अपनी बर्थ पर रख दिया। उन्हें डर था कि कहीं मैं दुबारा ना फ़ैल जाऊं। उनकी बात भी सही थी। अगर बीच वाली बर्थ खुली हो तो नीचे वाली सीट पर कोई भी ठीक ठाक नहीं बैठ सकता।
मेरे वाले और बराबर वाले दोनों केबिनों में एक ही परिवार था, परिवार नहीं कुनबा था। विशाखापत्तनम के रहने वाले थे। दिल्ली जा रहे थे घूमने के लिए। उनका मुखिया ही थोडी बहुत हिंदी जनता था, बोल भी लेता था, नहीं तो औरतें, उप मुखिया और बच्चे तेलुगु भाषी थे।
बातों बातों में ही ये भी पता चल गया कि उनका पांच दिन का टूर था। उन्होंने जो प्रोग्राम बनाया था, वो इस प्रकार है- आज दिल्ली जाकर आराम करेंगे, कल निकल पड़ेंगे ऋषिकेश के लिए। शाम को गंगा आरती देखने के लिए हरिद्वार जायेंगे। फिर रात बिताएंगे देहरादून में। अगले दिन वहां से शिमला, कुल्लू, मनाली और रोहतांग। फिर वापस दिल्ली से मथुरा-आगरा। बस। इसके लिए उन्होंने INDIA ROAD ATLAS भी ले रखी थी।
मुझे उनके इस प्रोग्राम में कई पेंच दिखे। लेकिन मैं दूसरों के मामले में टांग नहीं अडाया करता। इसलिए मैंने उन्हें कोई राय नहीं दी। कई बार तो उनमे आपस में ही लठमलठ होने की नौबत आई। कोई कहता कि इस रास्ते से जायेंगे, तो दूसरा कहता कि इससे जायेंगे।
ट्रेन तो मजे से चलती ही जा रही थी। सूरज भी छत के ऊपर आ गया था। तो सभी खाना खाने में लग गए। उस कुनबे ने एक बड़े से बैग में से चावल के मुरमुरे निकाल लिए। उनमे शायद चने, प्याज, मूली, मिर्च, नमक वगैरा अडगम सडगम भी मिक्स कर दिए। और प्लास्टिक की छोटी छोटी प्लेटों में आपस में "सर्व" करके खाने लगे। तब तक मैं अपना खाना खाकर डकार भी ले चुका था। उन्होंने मुझे पूछा तक भी नहीं।
मुझे ताज्जुब हो रहा था कि मैंने तो इनके बारे में सब कुछ पता कर लिया, लेकिन इन्होने मुझसे कुछ पूछा ही नहीं। आखिरकार वो घडी आ ही गयी। मिक्स मुरमुरे खाते खाते ही उस एकमात्र हिंदी ज्ञाता ने मुझसे पूछा कि तुम कहाँ जाओगे? मैंने बता दिया- हरिद्वार। असल में मुझे हरिद्वार ही जाना था और मेरा मसूरी एक्सप्रेस का रिजर्वेशन भी था। मैंने ये भी जोड़ दिया कि मैं हरिद्वार का ही रहने वाला हूँ। तभी उसने शायद अपनी घरवाली से कुछ कहा। उसने तुंरत प्लेट में रखकर मेरे लिए मुरमुरे दिए। मैंने एक आदर्श रेल यात्री का दायित्व निभाते हुए शालीनतापूर्वक मुरमुरे लेने से मना कर दिया।
वो मुझसे और रिक्वेस्ट करने लगा। बोला कि भाई, थोडा सा खा लो। हमें भी हरिद्वार के लोगों को कुछ खिलने का सौभाग्य मिल रहा है। कितने नसीब वाले हैं हम!!! मैंने खाना शुरू किया तो लड़के ने मेरा फोटू खींच लिया।
फिर मैंने उनसे बताया कि तुम पहले हरिद्वार जाओ, फिर ऋषिकेश जाना। वहां पर भी गंगा आरती होती है। उसके बाद देहरादून, मसूरी वगैरा।
झाँसी से निकलते ही एक किला दिखाई दिया। बोले कि ये ग्वालियर का किला ही तो है? मैंने कहा कि भाई, अभी तो ग्वालियर डेढ़ दो घंटे बाद आएगा। मुरैना के बाद चम्बल नदी पार करते ही मैंने उन्हें बताया कि अब हम राजस्थान में हैं। उन्होंने गिनती शुरू कर दी - पहले आन्ध्र प्रदेश, फिर महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, फिर मध्य प्रदेश और अब राजस्थान।
मथुरा के बाद फरीदाबाद जिला शुरू हो जाता है। मैंने बताया कि ये हरियाणा है। एक बार फिर गिनती- आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और फिर दिल्ली।
उन्हें एक और दिक्कत थी- भाषा की। पूछा कि क्या मनाली तक ही हिंदी बोली जाती है? मैंने कहा कि आप यहाँ कहीं भी चले जाओ, हिंदी वाले ही मिलेंगे। तो बोले कि यार, हमारे यहाँ बड़ा पंगा है। छत्तीसगढ़ वाले हिंदी बोलते हैं, तो उडीसा वाले उड़िया, महाराष्ट्र वाले मराठी, कर्नाटक वाले कन्नड़ और तमिलनाडु वाले तमिल। सब अलग अलग।
खैर निजामुद्दीन पहुंचकर वे अपने रास्ते चले गए, मैं अपने रास्ते।
भाई इतना घूमोगे तो रजाइयां तो गुमेंगी ही न. वो राजस्थान रोडवेज़ वाली रजाई मिली क्या?
ReplyDeleteसुना है नागपुर के संतरे खरबूज के बराबर होते हैं. आप जब गए थे उस समय तो उसी का मौसम रहा होगा.
ReplyDeleteजब रेल से गर्मियों मे ननिहाल जाते थे तो दोपहर को खाना नागपुर रेल्वे स्टेशन पर ही खाते थे।बड़ा मज़ा आता है रेल के सफ़र मे कई बार ऐसा लगता है कि रेल चलता-फ़िरता भारत है।
ReplyDeleteकहानी में ट्विस्ट अभी बाकी लग रही है. वाकई रजाई मिली क्या!
ReplyDeleteमुझे लगता है तुम्हारी रजाई की घुमने की आदत अभी तक गई नही है.:)
ReplyDeleteरामराम.
रजाई नहीं मिली.
ReplyDelete@सुब्रमनियम जी, संतरे तो खाए थे, बल्कि घर के लिए भी रख लिए थे, लेकिन सोते हुए वे मेरे नीचे दब गए. तो बाद में उठकर उन्हें भी खा गया.
@अनिल जी, सही कह रहे हो. ट्रेन एक चलता फिरता भारत ही है.
your blog is very fine......
ReplyDeleteकाश हमारे पास भी ऐसे यात्रा संस्मरण होते! यहां तो ट्रेन यात्रा हो ही कम पाती है और बिल्कुल यायावर की तरह तो कदापि नहीं!
ReplyDeleteआपकी यात्रा के बारे में पढ़-पढ़ कर मुझे भी आपके साथ होने का दिल कर रहा है....मुझे भी अपने साथ ले लो ना....प्लीज़......!!
ReplyDeleteयह कहानी भी निरजा गुलेरी के चन्द्र्कानता सन्तती के नाटक की तरह बीच मे रूक गयी ----ससपेन्स
ReplyDeletebhartiya rail ki baat hi kuch aur hai
ReplyDeleteu r very good teller...interesting...
ReplyDeletebeech mein hi rok diya...aage bataiye!
ReplyDeletemast bhai..
ReplyDeletejaldi se dusari kadi sunao.. :)