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यदि पंजाब की राजधानी जालंधर होती...??

1947 में जब भारत का बँटवारा हुआ, तो पंजाब के भी दो हिस्से हुए... एक हिस्सा पाकिस्तान में चला गया और एक हिस्सा भारत में आ गया... चूँकि पूरे पंजाब की राजधानी लाहौर थी, तो लाहौर के पाकिस्तान में चले जाने के कारण भारतीय पंजाब राजधानी-रहित हो गया... उसी समय पंजाब के लिए नई राजधानी की आवश्यकता पड़ी और चंडीगढ़ को बसाने का विचार आया... जब तक चंडीगढ़ का निर्माण हुआ, तब तक पंजाब की राजधानी शिमला रही... लेकिन बात इतनी ही नहीं है... इसी क्षेत्र में कुछ रियासतें ऐसी थीं, जो बँटवारे के समय अंग्रेजों के अधीन नहीं थीं... इनमें पटियाला, जींद, कपूरथला, नाभा, फरीदकोट, मलेरकोटला, कलसिया, नालागढ़ और बहावलपुर की रियासतें थीं... बहावलपुर का विलय पाकिस्तान में हो गया और बाकी सभी रियासतें भारत में शामिल हो गईं... ये रियासतें राजनैतिक रूप से पंजाब से अलग थीं... तो बँटवारे के बाद जो रियासतें भारत में शामिल हुईं, उन्हें पेप्सू का नाम दिया गया... PEPSU - Patiala and East Punjab States Union... 1956 तक पेप्सू भारत का एक राज्य था... Source Link पेप्सू के अलावा बाकी पंजाब अर्थात पेप्सू के बाहर का वर्तमान हरियाणा और पंजाब...

अमृतसर वाघा बॉर्डर यात्रा (विमल बंसल)

मूलरूप से समालखा हरियाणा के रहने वाले और वर्तमान में चंडीगढ़ में रह रहे विमल बंसल जी ने अपना एक यात्रा वृत्तांत भेजा है... इसका पहला भाग (डलहौजी-खजियार यात्रा) उनकी फेसबुक वाल पर प्रकाशित हो चुका है, इसलिए हम उसे अपने ब्लॉग पर प्रकाशित नहीं कर सकते... तो आप आनंद लीजिए इस भाग का... तो दोस्तों, अमृतसर यात्रा शुरू करने से पहले इस शहर के पुराने नाम, इतिहास और देखने योग्य स्थानों के बारे में बता दूं। अमृतसर का पुराना नाम रामदास नगर था जो कि सिखों के गुरु रामदास के नाम पर था, जिन्होंने सबसे पहले 1577 में 500 बीघा जमीन में गुरुद्वारे की नीव रखी थी। बाद में गुरु रामदास ने ही इसका नाम बदलकर अमृतसर रखा। यह नाम किसलिए बदला, इसके बारे में भी एक कथा प्रचलित है कि यही वो धरती है, जहां पर ऋषि वाल्मीकि जी ने रामायण की रचना की थी और यहीं पर माता सीता ने लव को जन्म दिया था। एक दिन माता सीता जब नहाने के लिये गईं तो लव को ऋषि वाल्मिकी जी के पास छोड़ गईं। बालक लव खेलता-खेलता ना जाने कहां चला गया। जब ऋषि वाल्मीकि को काफी देर तक खोजने पर भी लव नही मिला तो उन्होंने सोचा कि अब सीता को क्या जवाब दूंगा। तब उन्हो...

हुसैनीवाला में बैसाखी मेला और साल में एक दिन चलने वाली ट्रेन

हुसैनीवाला की कहानी कहाँ से शुरू करूँ? अभी तक मैं यही मानता आ रहा था कि यहाँ साल में केवल एक ही दिन ट्रेन चलती है, लेकिन जैसे-जैसे मैं इसके बारे में पढ़ता जा रहा हूँ, नये-नये पन्ने खुलते जा रहे हैं। फिर भी कहीं से तो शुरूआत करनी पड़ेगी। इसकी कहानी जानने के लिये हमें जाना पड़ेगा 1931 में। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को लाहौर षड़यंत्र केस व अन्य कई मामलों में गिरफ़्तार करके फाँसी की सज़ा घोषित की जा चुकी थी। तय था कि 24 मार्च को इन्हें लाहौर जेल में फाँसी दे दी जायेगी। लेकिन उधर जनसाधारण में देशभक्ति की भावना भी भरी हुई थी और अंग्रेजों को डर था कि शायद भीड़ बेकाबू न हो जाये। तो उन्होंने एक दिन पहले ही इन तीनों को फाँसी दे दी - 23 मार्च की शाम सात बजे। जेल के पिछवाड़े की दीवार तोड़ी गयी और गुपचुप इनके शरीर को हुसैनीवाला में सतलुज किनारे लाकर जला दिया गया। रात में जब ग्रामीणों ने इधर अर्थी जलती देखी, तो संदेह हुआ। ग्रामीण पहुँचे तो अंग्रेज लाशों को अधजली छोड़कर ही भाग गये। लाशों को पहचान तो लिया ही गया था। इसके बाद ग्रामीणों ने पूर्ण विधान से इनका क्रिया-कर्म किया। आज उसी स्थान पर समाधि स्थल बन...