पहले परिचय- लैंसडाउन उत्तराखंड के पौडी गढ़वाल जिले में है। इसकी समुद्र तल से ऊँचाई लगभग 1500 मीटर है। यहाँ गढ़वाल रेजिमेंट का मुख्यालय भी है। सारा प्रशासन मिलिट्री के ही हाथों में है।
क्या देखें- लैंसडाउन में कुछ भी देखने के लिए पहले यहाँ जाना पड़ता है।
दुगड्डा
यहाँ से थोडा आगे एक सड़क बाएं मुड़कर पौडी को चली जाती है और एक दाहिने मुड़कर लैंसडाउन जाती है। लैंसडाउन सालभर में कभी भी जाया जा सकता है। रुकने के लिए गढ़वाल मंडल विकास निगम के रेस्ट हाउस हैं तथा होटल भी हैं। यहाँ पर कभी-कभी जाडों में बरफ भी गिरती है।
और अब यात्रा वृत्तान्त
27 जून 2009, शनिवार। बहुत दिन पहले ही योजना बन गयी थी कि लैंसडाउन जायेंगे। हर बार की तरह फिर वही दिक्कत। किसे साथ लें??? आखिरकार रामबाबू ने हाँ भर ली। उसके और अपने नाम का रिजर्वेशन भी करा लिया। मसूरी एक्सप्रेस (4041) में स्लीपर का। लेकिन पांच-छः दिन पहले प्रयास वाले नरेश जी बीच में कूद पड़े। बोले कि हम भी जायेंगे। मैंने फटाफट रामबाबू को मना कर दिया।
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वैसे नरेश और मुझमे कई समानताएं हैं। जैसे कि रात को सफ़र कर लेना, ट्रेन को वरीयता देना, स्टेशन पर आलू-पूरी खाना, ज्यादा स्मार्टनेस ना दिखाना, एक दूसरे की बातों को सुनना, सही लगी तो ठीक वरना दूसरे कान से बाहर निकाल देना। लेकिन एक अंतर भी है। वे बाल-बच्चों वाले हैं जबकि मैं अभी खुद ही बाल-बच्चा हूँ।
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खैर, 28 जून रविवार को सुबह छः बजे हम कोटद्वार पहुँच गए। मेरी तो आँख कोटद्वार से जरा सा पहले ही खुली थी। जबकि नरेश आँख मीचे पड़े हुए थे। बाद में पता चला कि उन्होंने नजीबाबाद में चाय पी थी। पता भी कैसे चला? उनके कैमरे में फोटो देख रहा था तो बर्थ पर रखा कुल्हड़ भी दिख गया। अभी भी नजीबाबाद में कुल्हड़ वाली चाय मिलती है।
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स्टेशन से बाहर निकले भी नहीं थे कि 'लैंसडाउन, लैंसडाउन' चिल्लाते हुए जीप वालों ने घेर लिया। जब उन्हें पता चला कि हम भी वही जायेंगे तो हमें जीप में ठूंसकर जीप को भगा दिया। कोटद्वार से निकलते ही वही पहाडी व जलेबी की तरह गोल-गोल सड़क। दुगड्डा, फिर फतेहपुर, फिर पता नहीं क्या-क्या आया और फिर लैंसडाउन।
दुगड्डा के पास खोह नदी |
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यहाँ नरेश के कोई जान-पहचान वाले रहते हैं। उन्होंने मुझे कई बार बताया कि क्या जान-पहचान है लेकिन मेरे भी दोनों कान खुले हैं, दूसरे कान से बाहर निकल गया। कालेश्वर रोड पर रहते हैं वे। दुमंजिले मकान में ऊपर वाली मंजिल पर रहते हैं।
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यहाँ सभी मकान फौज के अधीन हैं। आज भी लैंसडाउन वाले मिलिट्री को मकान किराया देते हैं। वैसे नाममात्र का ही किराया है। जिनकी 'औकात' होती है वे जमीन खरीदकर अपना मकान भी बना लेते हैं। इसके अलावा यहाँ की एक और खासियत है कि जैसा अंग्रेज इसे छोड़कर गए थे यह आजतक वैसा का वैसा ही है। यह शहर एक पहाड़ की चोटी पर बसा है। इस कारण यहाँ पानी की भारी कमी है। दो-दो दिन बाद मिलिट्री का टैंकर आता है।
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ऊपर वाली मंजिल पर जाने के लिए जैसे ही लकडी के जीने पर पैर रखा, तभी 'भाड़'। लकडी की चौखट में सिर जा टकराया। सिर को मसलता हुआ ऊपर चढ़ गया। कमरे में घुसा तो एक बार फिर 'भाड़'। छत से जा भिडा। हे भगवान्!!! मैं तो इतना लम्बा भी नहीं हूँ फिर क्यों झुकने को कह रहे हो?
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चाय बनवाई गयी। नरेश के साथ मैडम के हाथ की बनी कल शाम की सब्जी व परांठे थे। सब्जी खराब नहीं थी तो खा ली। अब टारगेट बनाया घूमने का। पहले राउंड में टिप-इन-टॉप व संतोषी माता मंदिर और दूसरे राउंड में बाकी लैंसडाउन। बैग यही पर छोड़ दिए। साथ में पानी की बोतल ली और निकल पड़े।
मुख्य बाजार में पहुंचे। पूछ-ताछ करते रहे, टिपिन टॉप (टिप-इन-टॉप) की ओर चलते रहे। टिपिन टॉप के बारे में हमने अंदाजा लगाया कि यह लैंसडाउन की उच्चतम चोटी ही होगी। कोहरे की वजह से चोटी दिख भी नहीं रही थी। चढाई तो खैर थी ही।
एक जगह हम कन्फ्यूजिया गए। ये वाली रोड जायेगी या वो वाली? बताने वाला कोई था ही नहीं। हम अंदाजे से आगे बढ़ते रहे। टिपिन टॉप तो पहुंचे नहीं, विश्व प्रसिद्द चर्च में पहुँच गए। इसे क्वींस लाइन भी कहा जाता है।
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चर्च के अन्दर तो क्या बाहर भी दूर-दूर तक कोई नहीं था। हमने भी बाहर से फोटो-वोटो खींचे। और चलते बने। रास्ते में एक वो पड़ता है- गढ़वाल मंडल वालों का रेस्ट हाउस। यहीं पर उन्होंने दो कोटेज भी बना रखी हैं। यहाँ पर कुछ टूरिस्ट थे, टूरिस्टनी भी थीं। उनके देखा-देखी हमने भी चाय का आर्डर दे दिया।
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जयहरीखाल गाँव |
अरे हाँ, एक ख़ास बात तो भूल ही गया। यहीं बराबर में ही टिपिन टॉप है। टिपिन टॉप के उस तरफ क्या जबरदस्त खाई!!! खाई नहीं घाटी। कोहरे के कारण पूरी घाटी नहीं दिखी। इस घाटी में नीचे जयहरीखाल गाँव दिखता है। यह लैंसडाउन-पौडी मार्ग पर गुमखाल से पहले पड़ता है। एक बार तो मन में आया कि चलो, पैदल जयहरीखाल चलते हैं। लेकिन नरेश ने मना कर दिया।
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यहाँ से आधेक किलोमीटर आगे संतोषी माता का मंदिर है। कुछ दूर तक तो सड़क है, फिर 70-75 सीढियां चढ़नी होती हैं।
कोहरे के कारण पेडों से गिरती टप-टप बूंदों से सीढियां गीली हो गयी थीं। छोटा सा साफ़-सुथरा मंदिर। यहाँ चारों तरफ बांज का जंगल है। यहाँ भी हमारे अलावा कोई नहीं था। बस केवल जंगल का सन्नाटा और बूंदों की टप-टप। हम यहाँ डेढ़-दो घंटे तक बैठे रहे।
इन वादियों में आकर तो ऐसा लगता है कि क्या है दिल्ली-विल्ली? चलो, छोडो दिल्ली को और यहीं बस जाओ।
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दोपहर एक बजे यहाँ से वापस चल पड़े। एक बार फिर रास्ता भटक गए। इस बार जा पहुंचे भुल्ला ताल। यहाँ छोटे-से कृत्रिम ताल में बोटिंग होती है। पर्यटकों की अच्छी-खासी भीड़ भी थी।
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नरेश के एक दोस्त रहते हैं यहाँ। वहीं पर हम रुके हुए थे। यहाँ घूमफिरकर वापस आते ही दाल-चावल मिल गए। खा-पीकर कुछ देर तक तो पड़े रहे, फिर सोचा कि चलो, नहा लें। सुबह से क्या, कल से अभी तक मुहं भी नहीं धोया था। तय हुआ कि नहा-धोकर बाकी लैंसडाउन देखेंगे।
यहाँ पर आधुनिकता भी है |
बांज का जंगल |
पूरा भारत गर्मी से जल रहा था, लेकिन यहाँ शीतलहर चल रही है |
दोपहर के दो बजे तय हुआ कि नहाते हैं। अभी तक हमने मुहं तक भी नहीं धोया था। अच्छा, इससे पहले एक बात और। लैंसडाउन के निवासियों को पानी की थोडी कमी रहती है। हर दो दिन बाद मिलिट्री का टैंकर आता है। पानी की सारी पूर्ति इसी टैंकर से होती है। कल टैंकर आया था, आज नहीं आएगा। फिर भी खाने पीने के लिए थोडा पानी बचा के रखा हुआ था। इतना नहीं था कि हम नहा सकें।
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हमें बताया गया कि वहां उधर कालेश्वर मंदिर के पास एक हैंडपंप है। उसी के पास शौचालय भी है। तो बाल्टी व मग्गा लेकर हम चल पड़े- नहाने। कालेश्वर मंदिर के पास पहुंचे। देखा कि हैंडपंप पर कुछ बच्चे कपडे धो रहे हैं। नरेश ने कहा कि यार, यहाँ पर नहाना पड़ेगा हमें? बड़ी शर्म सी आएगी। लेकिन नहाना तो था ही। नरेश ने बच्चों से पूछा- "क्या इस हैंडपंप में पानी आता है?"
"हाँ, लेकिन ऐसे नहीं आएगा। चलाने पर ही आएगा। क्यों, क्या करना है तुम्हे?"
"यार, नहाना है।"
"नहाओगे? इसके पानी में नहाओगे?"
"हाँ।"
"अजी, इस पानी में तो हम भी नहीं नहाते। बहुत ही गन्दा पानी आता है।"
मैंने कहा कि यार, थोडा बहुत चलाकर तो देख। देखते हैं कैसा पानी है। नरेश ने दो तीन बार हैंडल चलाया। बच्चों ने कहा कि चलाते रहो, पानी आ जायेगा। चलाते रहे तो थोडी देर बाद टप-टप। बूँद-बूँद करके बिलकुल पीला पानी आने लगा।
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ऐसे पानी में तो नहाने का सवाल ही नहीं उठता। थोडा ऊपर ही शौचालय था। बच्चों ने बताया कि शौच के लिए तो वहां पर पानी मिल ही जायेगा। ऊपर पहुंचे। वहां से भी पानी नदारद। फिर नीचे आये। आधी बाल्टी पानी भरा हैंडपंप से। उसे ऊपर ले गए। मैं तो गया नहीं था। काम निपटा कर जब नरेश नीचे आया तो बोला-" आ हा हा !!! सुबह से ही प्रेशर बना हुआ था। अब जाकर सुकून मिला है।"
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बाल्टी वापस रखकर हम छावनी की तरफ निकल गए। इरादा तो संग्रहालय देखने का था। लेकिन आज वह बंद था। चलते रहे तो एक मंदिर मिला- दुर्गा देवी मंदिर। क्या साफ़-सुथरा और कलात्मक मंदिर !!! एक बार तो हम 'गंधीलों' ने सोचा कि जाएँ या ना जाएँ। आखिरकार अन्दर चले ही गए। एक फौजी पुजारी साफ़-सफाई में मस्त था।
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यहाँ से निकलकर कालेश्वर मंदिर जा पहुंचे। अभी तक हम इसके सामने से जाने कितनी बार गुजर चुके थे।
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" कालेश्वर मंदिर लैंसडाउन का सबसे प्राचीन स्मारक है। कहते हैं कि 5000 वर्ष पहले यहाँ पर कालुन ऋषि तपस्या करते थे। उन्ही के नाम से इसका नाम कालेश्वर पड़ा। 5 मई 1887 में गढ़वाल रेजिमेंट की स्थापना हुई और 4 नवम्बर 1887 में रेजिमेंट की प्रथम बटालियन यहाँ पहुंची। उस समय यहाँ वीरान जंगल था। यहाँ पर एक गुफा में शिवलिंग था, जो कालेश्वर के नाम से जाना जाता था। यह निकटवर्ती गांवों का ग्राम देवता था। जनश्रुति के अनुसार गाँव वालों की गायें शिवलिंग के ऊपर स्वतः अपने थनों से दूध गिराती थीं। श्रृद्धा भक्ति से लोग जो मन्नत मांगते थे, वह अवश्य पूरी होती थी।
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प्रथम गढ़वाल ने 1901 में यहाँ पर एक छोटा सा मंदिर व धर्मशाला बनवाया। 1926 में मंदिर का विशद निर्माण सार्वजनिक रूप से किया गया। मंदिर की पूजा-अर्चना साधू-महात्मा करते थे। अन्य व्यस्था गढ़वाल रायफल रेजिमेंटल केंद्र करता रहा।
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1995 में मंदिर का पुनर्निर्माण गढ़वाल रायफल रेजिमेंटल केंद्र ने करवाया तथा 1999 में रेजिमेंटल केंद्र द्वारा ही मंदिर के बाहर मौजेक प्रांगण का निर्माण कराया गया। मंदिर की पूजा-अर्चना व देखभाल गढ़वाल रायफल रेजिमेंटल केंद्र द्वारा की जाती है।"
(मन्दिर के बाहर लगे शिलालेख से)
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इतना घूमते-घूमते हमें पांच-साढे पांच बज गए। बस, अब तो हमें वापस चलना ही था। वापस चलने लगे तो उन 'रिश्तेदारों' ने हिदायत दी कि अगली बार जब भी आओगे, तो अकेले मत आ जाना। बाल-बच्चों को लेकर आना। सभी से विदा ली, जीप स्टैंड पहुंचे। कोटद्वार पहुंचे। तुरंत ही नजीबाबाद की ट्रेन मिल गयी। नजीबाबाद से मेरठ डिपो की बस मिल गयी और बिजनौर, मीरांपुर, मवाना, मेरठ, मोदीनगर, मुरादनगर, मोहननगर होते हुए रात को एक बजे तक दिल्ली।
अरे भाई, ये खाली बाल्टी लेकर कहाँ जा रहे हो? ऊपर पानी नहीं है। |
मैंने कहा था ना कि ऊपर पानी नहीं है। चलो, अब नीचे से लाओ। |
भाई, तू तो कतई जी छोड़ रहा है। खड़े होकर नहीं खींच सकता? |
अरे, इतना क्यों खाया था? कि थोडी बहुत देर रुक भी नहीं सकता। |
यह है दुर्गा देवी मन्दिर। है ना कमाल की साफ़ सफाई? |
पुजारी जी, लेफ्ट-राईट-लेफ्ट-राईट छोड़ दी क्या? |
दुर्गा देवी मन्दिर का इतिहास लिखा है इस पर। |
ये है इसी मन्दिर का साइड व्यू।) |
इसे कहते हैं कालेश्वर मन्दिर। वो जो एक बन्दा दिख रहा है जरा उसे पहचानना। |
कोई बताना जरा। कालेश्वर मन्दिर में घंटियाँ चढाई जाती हैं क्या? |
ये है लैंसडाउन का नजारा। |
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नरेश जी प्रयास के नाम से "यह भी खूब रही" ब्लॉग लिखते हैं।
Lansdown ke bare mein pahli baar suna hai. Aage ke vivran ka intejar rahega.
ReplyDeleteअच्छा किया JRS जो आप लैंसडाउन घूमने के लिए यहाँ पर आ गए ..वर्ना कैसे देखते ?
ReplyDeleteआपके सेंस ऑफ़ हयूमर का जवाब नहीं :))
लैंसडाउन का कोहरा वाह बहुत खूब !!!
बहुत रोचक पोस्ट है अगली कडी का इन्तज़ार रहेगा आभार्
ReplyDeleteअपने ही बारे में पढ रहा हूँ. बडा अच्छा लग रहा है. नीरज जी, ट्रेन में आपने पूरी रात सो कर निकाल दी इसलिये ट्रेन की यात्रा जल्दी ही निपटा दी.
ReplyDeleteजीवन में पहली बार पढ़ रहे हैं जी, लैंसडाउन के बारे में. आगे जल्दी से बताएं.
ReplyDeleteबहुत बढिया भाई , इब आगे की तावला सा लिख.
ReplyDeleteरामराम.
बहुत खूब
ReplyDeleteआप तो मुझे मेरे ही पहाङों की तरफ ले गये। यादें ताजा हो गई। धन्यवाद
रोचक विवरण ।
ReplyDeleteअगली कड़ी का इंतजार रहेगा ।
नीरज अब तो तुमसे जलन होने लगी है।मै भी घूम ही रहा हूं लेकिन घर-परिवार रिश्तेदारी और आस-पास के मंदिरो के दर्शन से ही मन बहला रहा हूं।बडा मज़ा आया लैंसडाऊन घुमने में।घुमाते रहो हम भी थकने वालों मे से नही है घूमते रहेंगे।
ReplyDeleteकांवड़ की छुट्टियों में वही जाने का प्रोग्राम है ...जुलाई में बारिश कैसी है वहां ?कुछ आईडिया ?
ReplyDeleteअगर बात दोंनों कानों में एक साथ सुनाई दे और पसंद भी न हो तो उसे कहाँ से बाहर निकालते हैं कृपया किलियर करें :)
ReplyDeleteआपकी इस यायावर प्रकृति ने मुझे बहुत प्रभावित किया है...बस सोचा और निकल पड़े...आज के नौजवानों के लिए एक आदर्श हैं आप...लेकिन इतनी छुट्टियाँ कैसे मिल जाती हैं? जो भी हो आपके साथ घूमने का जो आनंद है वो और कहाँ...वाह
ReplyDeleteनीरज
BAHUT KHOOB ! SUNDAR TASVEEREN! BAARISH MILI ? BARISH VAHAN THEEK THAAK , BADHIYA REHTI HAI !
ReplyDeleteअरे मैं तो बिना पढ़े ही आ गया कम्मेंट करने..हा.हा,..हा..
ReplyDeleteहैरत में हूँ की अब तक आपको फौलो क्यूँ नहीं कर रहा था..इस बार लैंड्स डाउन जाते जाते ..डलहौजी पहुँच गए..मगर आपकी यात्रा ने बता दिया की अगली यात्रा में वहा जाया जाये...अब तक सिर्फ पढ़ा था..
वाह जी वाह सब्जी और पराठे खाए जा रहे है। वो भी चाय के साथ। अगली पोस्ट में क्या मिलेगा देखते है।
ReplyDeleteक्या देखें- लैंसडाउन में कुछ भी देखने के लिए पहले यहाँ जाना पड़ता है। लेकिन हमे तो बिना वहां जाये आप ने घर बेठे सारी सैर करवा दी, बहुत सुंदर लगा,
ReplyDeleteधन्यवाद
अभिषेक जी, सुब्रमनियम जी,
ReplyDeleteअभी तो पहली बार ही पढ़ा है, जल्दी ही दूसरी बार भी पढोगे.
अनिल जी,
एक बार हिमालय की वादियों में आइये, जो भी जलन-वलन है, सब ख़त्म हो जायेगी.
अनुराग जी,
आप जब जाओगे तो पक्का आपको वहां पर बारिश मिलेगी, मेरा वादा है.
विवेक जी,
असल में ऐसा है कि कान के 'पाइप' जहाँ मिलते हैं वहीँ पर एक खाली स्पेस होता है, इसे कभी-कभी दिमाग भी कहते हैं. तो जी, दोनों कानों से सुनी गयी बात उसी स्पेस में मिक्स हो जाती है और अलग-अलग डायरेक्शन होने के कारण अपने आप निरस्त हो जाती हैं. हो गया कलियर?
आप हो आये और हम प्रोग्राम बनाकर ही रह गये.. क्या करे नरेश की केटेगरी के है..:)
ReplyDeleteवैसे होटल वगैरह के बारे में ज्यादा जानकारी दे तो हम जैसो के लिये उपयोगी होगा..
तस्विरें बहुत खुबसुरत है..
जी लैंसडाउन जायें तो डेरियाखाल मे अच्छे -अच्छे होटल हैजिसमे होटल पाइन काफी प्रसिद्ध है!!
Deleteनीरज जी,
ReplyDeleteथोडा इंतजार करें. शनिवार की छुट्टी है. लैंसडौन के लिये ही रखा हुआ है.
पहाडी तो ऊपर होती है ...
ReplyDeleteउसे लैन्डसडाउन
क्यूँ कहा गया होगा ?
अच्छा रहा विवरण !
- लावण्या
जी लैंसडाउन का नाम ब्रिटिश सैनिक लार्ड विलियम लैंसडाउन के नाम से पडा पहले यह पहाडी अंग्रेजों के आधीन थी!!
Deleteकिसी भी स्थान के बारे में पढ़ता हूं तो मन में आता है कि वहां रहने को एक कमरे का जुगाड़ हो जाये।
ReplyDeleteइस सिण्ड्रॉम को न जाने क्या कहा जाता है! :)
लावण्या जी,
ReplyDeleteलैन्सडाऊन को पहले कालूडान्डा के नाम से जाना जाता था. कालूडाण्डा का स्थानीय भाषा में अर्थ है कालू (काला) और डान्डा (पहाड) अर्थात् काला पहाड. इसका नाम लैंसडौन 1887 में, उस समय के वायसराय लार्ड लैंसडौन (Lord Lansdowne) के नाम पर रखा गया था. 1901 में यहाँ की जनसंख्या केवल 3943 थी जो की 2001 में बढकर 8000 हो गई.
MYAR UTTARAKHAND !!
ReplyDeleteYAADEIN TAAZA KARNE KE LIYE AUR PHIR WAHAN LE JAANE KE LIYE DHANYVAAD !!
maine bhee aapki yatra ke baare me parha.main lansdowne ka hi niwasi hoon. fir bhee parhkar achha laga.thanks for this blog.
ReplyDeleteनीरज भाई जी आपका लेख बहुत सुन्दर होता है दिल खुश हो जाता है पढकर!!
ReplyDeleteभाई जी मै भी लैंसडाउन साइड का रहने वाला हूं!
पौडी गढवाल देवभूमि उतराखंड!!