Skip to main content

लैंसडाउन यात्रा

पहले परिचय- लैंसडाउन उत्तराखंड के पौडी गढ़वाल जिले में है। इसकी समुद्र तल से ऊँचाई लगभग 1500 मीटर है। यहाँ गढ़वाल रेजिमेंट का मुख्यालय भी है। सारा प्रशासन मिलिट्री के ही हाथों में है।
क्या देखें- लैंसडाउन में कुछ भी देखने के लिए पहले यहाँ जाना पड़ता है।
कैसे जाएँ- यहाँ जाने के लिए पौडी जाने की जरुरत नहीं है। कोटद्वार से ही काम चल जाता है। कोटद्वार से दूरी 42 किलोमीटर है। कोटद्वार से 20 किलोमीटर आगे दुगड्डा है।
दुगड्डा
यहाँ से थोडा आगे एक सड़क बाएं मुड़कर पौडी को चली जाती है और एक दाहिने मुड़कर लैंसडाउन जाती है। लैंसडाउन सालभर में कभी भी जाया जा सकता है। रुकने के लिए गढ़वाल मंडल विकास निगम के रेस्ट हाउस हैं तथा होटल भी हैं। यहाँ पर कभी-कभी जाडों में बरफ भी गिरती है।
और अब यात्रा वृत्तान्त
27 जून 2009, शनिवार। बहुत दिन पहले ही योजना बन गयी थी कि लैंसडाउन जायेंगे। हर बार की तरह फिर वही दिक्कत। किसे साथ लें??? आखिरकार रामबाबू ने हाँ भर ली। उसके और अपने नाम का रिजर्वेशन भी करा लिया। मसूरी एक्सप्रेस (4041) में स्लीपर का। लेकिन पांच-छः दिन पहले प्रयास वाले नरेश जी बीच में कूद पड़े। बोले कि हम भी जायेंगे। मैंने फटाफट रामबाबू को मना कर दिया।
...
वैसे नरेश और मुझमे कई समानताएं हैं। जैसे कि रात को सफ़र कर लेना, ट्रेन को वरीयता देना, स्टेशन पर आलू-पूरी खाना, ज्यादा स्मार्टनेस ना दिखाना, एक दूसरे की बातों को सुनना, सही लगी तो ठीक वरना दूसरे कान से बाहर निकाल देना। लेकिन एक अंतर भी है। वे बाल-बच्चों वाले हैं जबकि मैं अभी खुद ही बाल-बच्चा हूँ।
...

खैर, 28 जून रविवार को सुबह छः बजे हम कोटद्वार पहुँच गए। मेरी तो आँख कोटद्वार से जरा सा पहले ही खुली थी। जबकि नरेश आँख मीचे पड़े हुए थे। बाद में पता चला कि उन्होंने नजीबाबाद में चाय पी थी। पता भी कैसे चला? उनके कैमरे में फोटो देख रहा था तो बर्थ पर रखा कुल्हड़ भी दिख गया। अभी भी नजीबाबाद में कुल्हड़ वाली चाय मिलती है।
...
स्टेशन से बाहर निकले भी नहीं थे कि 'लैंसडाउन, लैंसडाउन' चिल्लाते हुए जीप वालों ने घेर लिया। जब उन्हें पता चला कि हम भी वही जायेंगे तो हमें जीप में ठूंसकर जीप को भगा दिया। कोटद्वार से निकलते ही वही पहाडी व जलेबी की तरह गोल-गोल सड़क। दुगड्डा, फिर फतेहपुर, फिर पता नहीं क्या-क्या आया और फिर लैंसडाउन।
दुगड्डा के पास खोह नदी
...
यहाँ नरेश के कोई जान-पहचान वाले रहते हैं। उन्होंने मुझे कई बार बताया कि क्या जान-पहचान है लेकिन मेरे भी दोनों कान खुले हैं, दूसरे कान से बाहर निकल गया। कालेश्वर रोड पर रहते हैं वे। दुमंजिले मकान में ऊपर वाली मंजिल पर रहते हैं।
...
यहाँ सभी मकान फौज के अधीन हैं। आज भी लैंसडाउन वाले मिलिट्री को मकान किराया देते हैं। वैसे नाममात्र का ही किराया है। जिनकी 'औकात' होती है वे जमीन खरीदकर अपना मकान भी बना लेते हैं। इसके अलावा यहाँ की एक और खासियत है कि जैसा अंग्रेज इसे छोड़कर गए थे यह आजतक वैसा का वैसा ही है। यह शहर एक पहाड़ की चोटी पर बसा है। इस कारण यहाँ पानी की भारी कमी है। दो-दो दिन बाद मिलिट्री का टैंकर आता है।
...

ऊपर वाली मंजिल पर जाने के लिए जैसे ही लकडी के जीने पर पैर रखा, तभी 'भाड़'। लकडी की चौखट में सिर जा टकराया। सिर को मसलता हुआ ऊपर चढ़ गया। कमरे में घुसा तो एक बार फिर 'भाड़'। छत से जा भिडा। हे भगवान्!!! मैं तो इतना लम्बा भी नहीं हूँ फिर क्यों झुकने को कह रहे हो?
...

चाय बनवाई गयी। नरेश के साथ मैडम के हाथ की बनी कल शाम की सब्जी व परांठे थे। सब्जी खराब नहीं थी तो खा ली। अब टारगेट बनाया घूमने का। पहले राउंड में टिप-इन-टॉप व संतोषी माता मंदिर और दूसरे राउंड में बाकी लैंसडाउन। बैग यही पर छोड़ दिए। साथ में पानी की बोतल ली और निकल पड़े।
मुख्य बाजार में पहुंचे। पूछ-ताछ करते रहे, टिपिन टॉप (टिप-इन-टॉप) की ओर चलते रहे। टिपिन टॉप के बारे में हमने अंदाजा लगाया कि यह लैंसडाउन की उच्चतम चोटी ही होगी। कोहरे की वजह से चोटी दिख भी नहीं रही थी। चढाई तो खैर थी ही।

एक जगह हम कन्फ्यूजिया गए। ये वाली रोड जायेगी या वो वाली? बताने वाला कोई था ही नहीं। हम अंदाजे से आगे बढ़ते रहे। टिपिन टॉप तो पहुंचे नहीं, विश्व प्रसिद्द चर्च में पहुँच गए। इसे क्वींस लाइन भी कहा जाता है।

...

चर्च के अन्दर तो क्या बाहर भी दूर-दूर तक कोई नहीं था। हमने भी बाहर से फोटो-वोटो खींचे। और चलते बने। रास्ते में एक वो पड़ता है- गढ़वाल मंडल वालों का रेस्ट हाउस। यहीं पर उन्होंने दो कोटेज भी बना रखी हैं। यहाँ पर कुछ टूरिस्ट थे, टूरिस्टनी भी थीं। उनके देखा-देखी हमने भी चाय का आर्डर दे दिया।
...
जयहरीखाल गाँव

अरे हाँ, एक ख़ास बात तो भूल ही गया। यहीं बराबर में ही टिपिन टॉप है। टिपिन टॉप के उस तरफ क्या जबरदस्त खाई!!! खाई नहीं घाटी। कोहरे के कारण पूरी घाटी नहीं दिखी। इस घाटी में नीचे जयहरीखाल गाँव दिखता है। यह लैंसडाउन-पौडी मार्ग पर गुमखाल से पहले पड़ता है। एक बार तो मन में आया कि चलो, पैदल जयहरीखाल चलते हैं। लेकिन नरेश ने मना कर दिया।

...

यहाँ से आधेक किलोमीटर आगे संतोषी माता का मंदिर है। कुछ दूर तक तो सड़क है, फिर 70-75 सीढियां चढ़नी होती हैं।

कोहरे के कारण पेडों से गिरती टप-टप बूंदों से सीढियां गीली हो गयी थीं। छोटा सा साफ़-सुथरा मंदिर। यहाँ चारों तरफ बांज का जंगल है। यहाँ भी हमारे अलावा कोई नहीं था। बस केवल जंगल का सन्नाटा और बूंदों की टप-टप। हम यहाँ डेढ़-दो घंटे तक बैठे रहे।

इन वादियों में आकर तो ऐसा लगता है कि क्या है दिल्ली-विल्ली? चलो, छोडो दिल्ली को और यहीं बस जाओ।
...

दोपहर एक बजे यहाँ से वापस चल पड़े। एक बार फिर रास्ता भटक गए। इस बार जा पहुंचे भुल्ला ताल। यहाँ छोटे-से कृत्रिम ताल में बोटिंग होती है। पर्यटकों की अच्छी-खासी भीड़ भी थी।
...
नरेश के एक दोस्त रहते हैं यहाँ। वहीं पर हम रुके हुए थे। यहाँ घूमफिरकर वापस आते ही दाल-चावल मिल गए। खा-पीकर कुछ देर तक तो पड़े रहे, फिर सोचा कि चलो, नहा लें। सुबह से क्या, कल से अभी तक मुहं भी नहीं धोया था। तय हुआ कि नहा-धोकर बाकी लैंसडाउन देखेंगे।
यहाँ पर आधुनिकता भी है

बांज का जंगल


पूरा भारत गर्मी से जल रहा था, लेकिन यहाँ शीतलहर चल रही है

दोपहर के दो बजे तय हुआ कि नहाते हैं। अभी तक हमने मुहं तक भी नहीं धोया था। अच्छा, इससे पहले एक बात और। लैंसडाउन के निवासियों को पानी की थोडी कमी रहती है। हर दो दिन बाद मिलिट्री का टैंकर आता है। पानी की सारी पूर्ति इसी टैंकर से होती है। कल टैंकर आया था, आज नहीं आएगा। फिर भी खाने पीने के लिए थोडा पानी बचा के रखा हुआ था। इतना नहीं था कि हम नहा सकें।
...
हमें बताया गया कि वहां उधर कालेश्वर मंदिर के पास एक हैंडपंप है। उसी के पास शौचालय भी है। तो बाल्टी व मग्गा लेकर हम चल पड़े- नहाने। कालेश्वर मंदिर के पास पहुंचे। देखा कि हैंडपंप पर कुछ बच्चे कपडे धो रहे हैं। नरेश ने कहा कि यार, यहाँ पर नहाना पड़ेगा हमें? बड़ी शर्म सी आएगी। लेकिन नहाना तो था ही। नरेश ने बच्चों से पूछा- "क्या इस हैंडपंप में पानी आता है?"
"हाँ, लेकिन ऐसे नहीं आएगा। चलाने पर ही आएगा। क्यों, क्या करना है तुम्हे?"
"यार, नहाना है।"
"नहाओगे? इसके पानी में नहाओगे?"
"हाँ।"
"अजी, इस पानी में तो हम भी नहीं नहाते। बहुत ही गन्दा पानी आता है।"
मैंने कहा कि यार, थोडा बहुत चलाकर तो देख। देखते हैं कैसा पानी है। नरेश ने दो तीन बार हैंडल चलाया। बच्चों ने कहा कि चलाते रहो, पानी आ जायेगा। चलाते रहे तो थोडी देर बाद टप-टप। बूँद-बूँद करके बिलकुल पीला पानी आने लगा।
...
ऐसे पानी में तो नहाने का सवाल ही नहीं उठता। थोडा ऊपर ही शौचालय था। बच्चों ने बताया कि शौच के लिए तो वहां पर पानी मिल ही जायेगा। ऊपर पहुंचे। वहां से भी पानी नदारद। फिर नीचे आये। आधी बाल्टी पानी भरा हैंडपंप से। उसे ऊपर ले गए। मैं तो गया नहीं था। काम निपटा कर जब नरेश नीचे आया तो बोला-" आ हा हा !!! सुबह से ही प्रेशर बना हुआ था। अब जाकर सुकून मिला है।"
...
बाल्टी वापस रखकर हम छावनी की तरफ निकल गए। इरादा तो संग्रहालय देखने का था। लेकिन आज वह बंद था। चलते रहे तो एक मंदिर मिला- दुर्गा देवी मंदिर। क्या साफ़-सुथरा और कलात्मक मंदिर !!! एक बार तो हम 'गंधीलों' ने सोचा कि जाएँ या ना जाएँ। आखिरकार अन्दर चले ही गए। एक फौजी पुजारी साफ़-सफाई में मस्त था।
...
यहाँ से निकलकर कालेश्वर मंदिर जा पहुंचे। अभी तक हम इसके सामने से जाने कितनी बार गुजर चुके थे।
...
" कालेश्वर मंदिर लैंसडाउन का सबसे प्राचीन स्मारक है। कहते हैं कि 5000 वर्ष पहले यहाँ पर कालुन ऋषि तपस्या करते थे। उन्ही के नाम से इसका नाम कालेश्वर पड़ा। 5 मई 1887 में गढ़वाल रेजिमेंट की स्थापना हुई और 4 नवम्बर 1887 में रेजिमेंट की प्रथम बटालियन यहाँ पहुंची। उस समय यहाँ वीरान जंगल था। यहाँ पर एक गुफा में शिवलिंग था, जो कालेश्वर के नाम से जाना जाता था। यह निकटवर्ती गांवों का ग्राम देवता था। जनश्रुति के अनुसार गाँव वालों की गायें शिवलिंग के ऊपर स्वतः अपने थनों से दूध गिराती थीं। श्रृद्धा भक्ति से लोग जो मन्नत मांगते थे, वह अवश्य पूरी होती थी।
...
प्रथम गढ़वाल ने 1901 में यहाँ पर एक छोटा सा मंदिर व धर्मशाला बनवाया। 1926 में मंदिर का विशद निर्माण सार्वजनिक रूप से किया गया। मंदिर की पूजा-अर्चना साधू-महात्मा करते थे। अन्य व्यस्था गढ़वाल रायफल रेजिमेंटल केंद्र करता रहा।
...
1995 में मंदिर का पुनर्निर्माण गढ़वाल रायफल रेजिमेंटल केंद्र ने करवाया तथा 1999 में रेजिमेंटल केंद्र द्वारा ही मंदिर के बाहर मौजेक प्रांगण का निर्माण कराया गया। मंदिर की पूजा-अर्चना व देखभाल गढ़वाल रायफल रेजिमेंटल केंद्र द्वारा की जाती है।"
(मन्दिर के बाहर लगे शिलालेख से)
...
इतना घूमते-घूमते हमें पांच-साढे पांच बज गए। बस, अब तो हमें वापस चलना ही था। वापस चलने लगे तो उन 'रिश्तेदारों' ने हिदायत दी कि अगली बार जब भी आओगे, तो अकेले मत आ जाना। बाल-बच्चों को लेकर आना। सभी से विदा ली, जीप स्टैंड पहुंचे। कोटद्वार पहुंचे। तुरंत ही नजीबाबाद की ट्रेन मिल गयी। नजीबाबाद से मेरठ डिपो की बस मिल गयी और बिजनौर, मीरांपुर, मवाना, मेरठ, मोदीनगर, मुरादनगर, मोहननगर होते हुए रात को एक बजे तक दिल्ली।
अरे भाई, ये खाली बाल्टी लेकर कहाँ जा रहे हो? ऊपर पानी नहीं है।

मैंने कहा था ना कि ऊपर पानी नहीं है। चलो, अब नीचे से लाओ।

भाई, तू तो कतई जी छोड़ रहा है। खड़े होकर नहीं खींच सकता?

अरे, इतना क्यों खाया था? कि थोडी बहुत देर रुक भी नहीं सकता।

यह है दुर्गा देवी मन्दिर। है ना कमाल की साफ़ सफाई?

पुजारी जी, लेफ्ट-राईट-लेफ्ट-राईट छोड़ दी क्या? 


दुर्गा देवी मन्दिर का इतिहास लिखा है इस पर।

ये है इसी मन्दिर का साइड व्यू।)

इसे कहते हैं कालेश्वर मन्दिर। वो जो एक बन्दा दिख रहा है जरा उसे पहचानना।

कोई बताना जरा। कालेश्वर मन्दिर में घंटियाँ चढाई जाती हैं क्या?

ये है लैंसडाउन का नजारा।

...
नरेश जी प्रयास के नाम से "यह भी खूब रही" ब्लॉग लिखते हैं।

Comments

  1. Lansdown ke bare mein pahli baar suna hai. Aage ke vivran ka intejar rahega.

    ReplyDelete
  2. अच्छा किया JRS जो आप लैंसडाउन घूमने के लिए यहाँ पर आ गए ..वर्ना कैसे देखते ?
    आपके सेंस ऑफ़ हयूमर का जवाब नहीं :))

    लैंसडाउन का कोहरा वाह बहुत खूब !!!

    ReplyDelete
  3. बहुत रोचक पोस्ट है अगली कडी का इन्तज़ार रहेगा आभार्

    ReplyDelete
  4. अपने ही बारे में पढ रहा हूँ. बडा अच्छा लग रहा है. नीरज जी, ट्रेन में आपने पूरी रात सो कर निकाल दी इसलिये ट्रेन की यात्रा जल्दी ही निपटा दी.

    ReplyDelete
  5. जीवन में पहली बार पढ़ रहे हैं जी, लैंसडाउन के बारे में. आगे जल्दी से बताएं.

    ReplyDelete
  6. बहुत बढिया भाई , इब आगे की तावला सा लिख.

    रामराम.

    ReplyDelete
  7. बहुत खूब
    आप तो मुझे मेरे ही पहाङों की तरफ ले गये। यादें ताजा हो गई। धन्यवाद

    ReplyDelete
  8. रोचक विवरण ।
    अगली कड़ी का इंतजार रहेगा ।

    ReplyDelete
  9. नीरज अब तो तुमसे जलन होने लगी है।मै भी घूम ही रहा हूं लेकिन घर-परिवार रिश्तेदारी और आस-पास के मंदिरो के दर्शन से ही मन बहला रहा हूं।बडा मज़ा आया लैंसडाऊन घुमने में।घुमाते रहो हम भी थकने वालों मे से नही है घूमते रहेंगे।

    ReplyDelete
  10. कांवड़ की छुट्टियों में वही जाने का प्रोग्राम है ...जुलाई में बारिश कैसी है वहां ?कुछ आईडिया ?

    ReplyDelete
  11. अगर बात दोंनों कानों में एक साथ सुनाई दे और पसंद भी न हो तो उसे कहाँ से बाहर निकालते हैं कृपया किलियर करें :)

    ReplyDelete
  12. आपकी इस यायावर प्रकृति ने मुझे बहुत प्रभावित किया है...बस सोचा और निकल पड़े...आज के नौजवानों के लिए एक आदर्श हैं आप...लेकिन इतनी छुट्टियाँ कैसे मिल जाती हैं? जो भी हो आपके साथ घूमने का जो आनंद है वो और कहाँ...वाह
    नीरज

    ReplyDelete
  13. BAHUT KHOOB ! SUNDAR TASVEEREN! BAARISH MILI ? BARISH VAHAN THEEK THAAK , BADHIYA REHTI HAI !

    ReplyDelete
  14. अरे मैं तो बिना पढ़े ही आ गया कम्मेंट करने..हा.हा,..हा..

    हैरत में हूँ की अब तक आपको फौलो क्यूँ नहीं कर रहा था..इस बार लैंड्स डाउन जाते जाते ..डलहौजी पहुँच गए..मगर आपकी यात्रा ने बता दिया की अगली यात्रा में वहा जाया जाये...अब तक सिर्फ पढ़ा था..

    ReplyDelete
  15. वाह जी वाह सब्जी और पराठे खाए जा रहे है। वो भी चाय के साथ। अगली पोस्ट में क्या मिलेगा देखते है।

    ReplyDelete
  16. क्या देखें- लैंसडाउन में कुछ भी देखने के लिए पहले यहाँ जाना पड़ता है। लेकिन हमे तो बिना वहां जाये आप ने घर बेठे सारी सैर करवा दी, बहुत सुंदर लगा,
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  17. अभिषेक जी, सुब्रमनियम जी,
    अभी तो पहली बार ही पढ़ा है, जल्दी ही दूसरी बार भी पढोगे.
    अनिल जी,
    एक बार हिमालय की वादियों में आइये, जो भी जलन-वलन है, सब ख़त्म हो जायेगी.
    अनुराग जी,
    आप जब जाओगे तो पक्का आपको वहां पर बारिश मिलेगी, मेरा वादा है.
    विवेक जी,
    असल में ऐसा है कि कान के 'पाइप' जहाँ मिलते हैं वहीँ पर एक खाली स्पेस होता है, इसे कभी-कभी दिमाग भी कहते हैं. तो जी, दोनों कानों से सुनी गयी बात उसी स्पेस में मिक्स हो जाती है और अलग-अलग डायरेक्शन होने के कारण अपने आप निरस्त हो जाती हैं. हो गया कलियर?

    ReplyDelete
  18. आप हो आये और हम प्रोग्राम बनाकर ही रह गये.. क्या करे नरेश की केटेगरी के है..:)

    वैसे होटल वगैरह के बारे में ज्यादा जानकारी दे तो हम जैसो के लिये उपयोगी होगा..

    तस्विरें बहुत खुबसुरत है..

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी लैंसडाउन जायें तो डेरियाखाल मे अच्छे -अच्छे होटल हैजिसमे होटल पाइन काफी प्रसिद्ध है!!

      Delete
  19. नीरज जी,

    थोडा इंतजार करें. शनिवार की छुट्टी है. लैंसडौन के लिये ही रखा हुआ है.

    ReplyDelete
  20. पहाडी तो ऊपर होती है ...
    उसे लैन्डसडाउन
    क्यूँ कहा गया होगा ?
    अच्छा रहा विवरण !

    - लावण्या

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी लैंसडाउन का नाम ब्रिटिश सैनिक लार्ड विलियम लैंसडाउन के नाम से पडा पहले यह पहाडी अंग्रेजों के आधीन थी!!

      Delete
  21. किसी भी स्थान के बारे में पढ़ता हूं तो मन में आता है कि वहां रहने को एक कमरे का जुगाड़ हो जाये।
    इस सिण्ड्रॉम को न जाने क्या कहा जाता है! :)

    ReplyDelete
  22. लावण्या जी,
    लैन्सडाऊन को पहले कालूडान्डा के नाम से जाना जाता था. कालूडाण्डा का स्थानीय भाषा में अर्थ है कालू (काला) और डान्डा (पहाड) अर्थात् काला पहाड. इसका नाम लैंसडौन 1887 में, उस समय के वायसराय लार्ड लैंसडौन (Lord Lansdowne) के नाम पर रखा गया था. 1901 में यहाँ की जनसंख्या केवल 3943 थी जो की 2001 में बढकर 8000 हो गई.

    ReplyDelete
  23. MYAR UTTARAKHAND !!

    YAADEIN TAAZA KARNE KE LIYE AUR PHIR WAHAN LE JAANE KE LIYE DHANYVAAD !!

    ReplyDelete
  24. maine bhee aapki yatra ke baare me parha.main lansdowne ka hi niwasi hoon. fir bhee parhkar achha laga.thanks for this blog.

    ReplyDelete
  25. नीरज भाई जी आपका लेख बहुत सुन्दर होता है दिल खुश हो जाता है पढकर!!
    भाई जी मै भी लैंसडाउन साइड का रहने वाला हूं!
    पौडी गढवाल देवभूमि उतराखंड!!

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब...