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आज ऐसी जगह पर चलते हैं जहाँ जाने का साहस कम ही लोग जुटा पाते हैं। क्योंकि इसके लिए दमखम व प्रकृति से लड़ने की ताकत की जरूरत होती है। यह जगह मैक्लोडगंज से मात्र नौ किलोमीटर दूर है लेकिन यहाँ जाने का इरादा करने वाले आधे लोग तो बीच रास्ते से ही वापस लौट आते हैं। परन्तु चार-पांच घण्टे की तन-मन को तोड़ देने वाली चढ़ाई के बाद कुदरत का जो रूप सामने आता है, उसे हम शब्दों में नहीं लिख सकते।
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अपनी इस दो दिवसीय यात्रा के लिए हमने योजना बनाई थी कि पहले दिन तो मैक्लोडगंज में ही घूमेंगे, दूसरे दिन कहीं आस-पास निकल जायेंगे। पहले दिन की योजना तो बारिश में धुल गयी। जब अगले दिन सोकर उठे तो देखा कि मौसम बिलकुल साफ़ था। हालाँकि जगह-जगह रुई वाले सफ़ेद बादल भी घूम रहे थे। सफ़ेद बादलों में पानी नहीं होता इसलिए आज पूरे दिन बारिश ना होने की उम्मीद थी।
फ्रेश होकर बाहर निकले। आज बाजार सजने लगे थे। इन्ही में एक चाय की दुकान पर चाय पीने लगे। वैसे कल तो आसपास के पहाड़ भी नहीं दिख रहे थे लेकिन आज दूर तक फैली कांगड़ा घाटी भी दिख रही थी। ऊपर की तरफ देखा तो बादलों के बीच से झांकती धौलाधार की बरफ भी दिख पड़ी। ललित ने पहली बार बरफ देखी थी। हम बरफ देखकर खुश हो ही रहे थे कि तभी चायवाला बोल उठा कि भाई, त्रियुण्ड चले जाओ, वहां बरफ गिरी हुई मिलेगी। हमने पूछा कि वहां जाएँ कैसे। तो बोला कि मुख्य चौक से दो किलोमीटर आगे धर्मकोट गाँव है। वहां तक तो पक्की सड़क बनी है। उससे आगे कच्चा रास्ता है।
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त्रियुण्ड जाने का इरादा तो पहले भी था लेकिन बरफ ने इस इरादे पर मोहर लगा दी। ललित भी एकदम तैयार हो गया। मैक्लोडगंज से दो किलोमीटर दूर धर्मकोट के लिए टैक्सी व टम्पू भी चलते हैं लेकिन उनका किराया था - 60 रूपये प्रति सवारी, जो हमारे लिए ज्यादा था। इसलिए पैदल ही चल पड़े। धर्मकोट में पेट भरकर नाश्ता किया। इस तरह की दुर्गम ट्रेकिंग में मालूम नहीं होता कि रास्ते में कुछ खाने को मिलेगा कि नहीं इसलिए बिस्कुट के तीन-चार पैकेट भी साथ ले लिए। पीने को बोतल में पानी ले लिया।
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धर्मकोट से ही पथरीला रास्ता शुरू हो जाता है। रास्ते की कठिनता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मैक्लोडगंज की समुद्र तल से ऊंचाई 1700 मीटर के करीब है और त्रियुण्ड 2900 मीटर यानी नौ किलोमीटर के रास्ते में 1200 मीटर की चढ़ाई। थोड़े से जानकार के लिए यह तथ्य रोंगटे खड़े कर सकता है। ऐसे रास्ते पर कम से कम थकान हो इसके लिए जरुरी है कि धीरे-धीरे लेकिन लगातार चलते रहें।
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एक-डेढ़ किलोमीटर चलने के बाद एक दुकान मिली। यहाँ पहले से ही कुछ घुमक्कड़ बैठे थे। वे निकले तो त्रियुण्ड के लिए ही थे लेकिन यहाँ तक आते-आते वे बहुत थक गए थे, उनमे बहस होने लगी थी कि और आगे जाएँ या ना जाएँ। पूरा रास्ता पथरीला है लेकिन चट्टानों को कुछ ही साल पहले काट-छांट कर रास्ता बना दिया गया था जिससे भटकने का डर कम हो जाता है। यहाँ एक विदेशी बैठा था, बाद में तीन और आ गए। सभी ने चाय ली- पचास रूपये वाली, हमने भी ली- दस रूपये वाली।
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2600 मीटर की ऊंचाई के बाद रास्ते में जगह-जगह बिखरी पड़ी बरफ मिलने लगी। यहाँ तक वृक्ष भी कम होने लगे थे। जैसे-जैसे यात्रा का अंतिम भाग आने लगा, चढ़ाई भी अधिक खड़ी होने लगी और बरफ की मात्रा भी बढ़ने लगी। एक बार तो फोटो खिंचवाते समय ललित का बरफ पर पैर पड़ गया और धडाम से जोर से गिर पड़ा। अच्छा हुआ कि वो रास्ते के किनारे पर नहीं था, अन्यथा बहुत बड़ा 'हादसा' हो सकता था। इस घटना के बाद तो हम पर बरफ का इतना खौफ छाया कि अंतिम क्षणों में चढ़ाई असंभव लगने लगी।
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लेकिन यही तो इंसानी हौसला है। हम सफलतापूर्वक त्रियुण्ड पहुँच गए। यहाँ भी चाय की एक दुकान थी। नीचे कांगड़ा घाटी से आती बादलों भरी हवाएं पहाड़ों की ढलानों के सहारे ऊपर आने लगी। और ऊपर खुली जगह पाकर घने बादलों के रूप में फ़ैल गयीं।
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कोहरा सा छा गया। पचासेक कदम दूर फोरेस्ट गेस्ट हाऊस भी नहीं दिख रहा था। जब मैं घूमता हुआ गेस्ट हाऊस के पीछे पहुंचा तो वहां करीब एक फुट बरफ जमा थी। इसी के पास एक प्राइवेट विश्राम गृह था। शाम के चार बज गए थे। मेरा इरादा इस समय वापस जाने का नहीं था। मैं त्रियुण्ड में सूर्योदय देखना चाहता था। इसलिए 500 रूपये में एक कमरा भी तय कर लिया था।
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जब मैंने ललित को बताया कि आज रात यहीं पर रुकते हैं तो बोला कि "नहीं, मुझे सुबह तक घर पहुंचना है। अगर मैं सुबह तक घर ना पहुंचा तो मम्मी-पापा नाराज हो जायेंगे। कल ऑफिस भी जाना है।" वैसे ये सब उसके बहाने थे, असल में वो बरफ और ठण्ड से डर गया था। मैंने उसे रोकने के लिए बहुत तर्क दिए लेकिन वो नहीं माना।
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हमारे अलावा यहाँ 8-10 पर्यटक और थे। घने कोहरे की वजह से सभी निराश तो थे ही लेकिन खुश भी थे। जब वापस चलने को हुए, तभी चमत्कार हो गया। कोहरा छंट गया और हमारे बिलकुल सामने था विराट हिमालय। अचानक विश्वास नहीं हुआ कि हम यह दृश्य देख रहे हैं। अब मैंने ललित को समझाने में पूरा जोर लगा दिया कि भाई, रुक जा। लेकिन वो नहीं माना। और वापस मुड गया। एक बार तो मन में आया कि इसे जाने दे, तू यही रुक जा। लेकिन पता नहीं क्या सोचकर, उखड़े हुए मन से, मन ही मन में उसे गालियाँ देता हुआ, मैं भी उसके पीछे - पीछे चल पड़ा। लेकिन फिर भी ललित की तारीफ़ करनी होगी कि उसने पूरी दुर्गम चढ़ाई के दौरान अच्छी तरह साथ दिया। वो बार-बार थककर बैठ भी जाता था लेकिन हिम्मत नहीं हार रहा था। उसके बैठने से मुझे भी आराम मिल जाता था। नहीं तो कितने लोग होते हैं इस तरह की यात्रा को करने वाले। ललित, तू अपने परिवार में, मित्र मण्डली में, गाँव में और शायद जिले में भी ऐसा पहला इंसान है, जिसने त्रियुण्ड की यात्रा की है।
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त्रियुण्ड जाने से पहले:
(1) दस पंद्रह दिन पहले व्यायाम करना शुरू कर दें।
(2) कम से कम दो दिन पहले मैक्लोडगंज पहुँच जाएँ। इससे शरीर वहां के मौसम के हिसाब से ढल जाएगा।
(3) त्रियुण्ड में फोरेस्ट रेस्ट हाउस है। इसकी बुकिंग मैक्लोडगंज से ही करानी पड़ती है। इसके अलावा एक प्राइवेट रेस्ट हाउस भी है। इसमें उपलब्धता के हिसाब से जगह मिल सकती है।
(4) मैक्लोडगंज से किराए पर तम्बू भी मिल जाते हैं।
(5) रास्ता अच्छा है, गाइड की कोई जरुरत नहीं है।
(6) खाने-पीने का सामान जरूर साथ लें लेकिन खाली पैकेट, बोतलें वगैरा वापस ले आयें, उन्हें कहीं भी ना फेंकें।
(7) दिसम्बर से मार्च तक ना जाएँ तो अच्छा है - अगर बरफ से डर लगता है तो।
(ऐसे नजारों से शुरू होती है यात्रा)
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(पथरीले रास्ते)
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(क्या लिखूं?)
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(थोड़ा सा सुस्ता लो, फ़िर इन रास्तों पर आगे बढ़ना है)
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(मैक्लोडगंज से तीन किलोमीटर दूर एक दुकान। ज्यादातर राही यहीं से लौट जाते हैं।)
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(ऊपर से मैक्लोडगंज ऐसा दिखता है)
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(बीच में बाएं से दायें एक पतली सी लकीर दिख रही है? असल में वही पथरीली पगडण्डी है)
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(चाय की एक दुकान के सामने लगा एक स्वागत और परिचयात्मक बोर्ड)
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(नीचे को पानी की पतली सी धारा जा रही है। इस तरह की यहाँ सैकड़ों धाराएं हैं।)
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(एक धारा यानी झरना ऊपर से भी आ रहा है)
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(थक गया? मैंने एक बार कहा था ना कि जब मेरे साथ 'साईट' पर चलेगा तब पता पड़ेगा। आ तुझे चाय पिलाता हूँ, तभी तुझमे ताकत आएगी।)
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(बैठ थोड़ी देर। चाय आने वाली है। यह अकेली दुकान समुद्र तल से 2500 मीटर की ऊंचाई पर है।)
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(सामने कोई मन्दिर-वन्दिर नहीं है। वह तो एक चट्टान है। और उस तक पहुंचना लगभग असंभव है।)
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(इतनी खड़ी पहाड़ी पर से गुजरना बेहद रोमांचक होता है। है ना?)
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(जैसे-जैसे ऊपर चढ़ते गए, बादल भी बढ़ते गए)
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(बरफ। ललित, तू यही पर तो गिरा था।)
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(सीधा पहाड़, पतला सा पथरीला रास्ता, और उस पर बरफ। जरा सी असावधानी बहुत भारी पड़ सकती है। अरे, मुझे क्या देख रहा है? नीचे देख, इस बार गिरेगा तो बचना तो दूर मिलेगा भी नही।)
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(त्रियुण्ड। कोहरे का साम्राज्य)
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(जब हम वापस चलने लगे तो कोहरे का परदा धीरे-धीरे हटने लगा और...)
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(...और हट गया। अब सामने था प्रकृति का विराट रूप।)
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(तेरे हौसले की दाद देता हूँ। हर किसी में ऐसा हौसला नहीं होता।)
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(है आपमें हिम्मत साथ देने की? इन पत्थरों में मैं अगले साल फ़िर आऊंगा, चलना मेरे साथ)
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(आज तो मैं बड़ा ही समारट (SMART) लग रिया हूँ।)
अगला भाग: कांगडा का किला
धर्मशाला कांगडा यात्रा श्रंखला
1. धर्मशाला यात्रा
2. मैक्लोडगंज- देश में विदेश का एहसास
3. दुर्गम और रोमांचक- त्रियुण्ड
4. कांगडा का किला
5. ज्वालामुखी- एक चमत्कारी शक्तिपीठ
6. टेढा मन्दिर
प्रकृति का मनोरम सामना...
ReplyDeleteवैसे खराब मौसम में भी ऐसे पंगे नीरज जाट ही ले सकता है...
नीरज भाई, एक बार फिर देहरादून जाते वक्त टीटी की धुनाई वाला किस्सा सुनाओ...एक बार विवेक सिंह ने उसका ज़िक्र किया था, लेकिन तुम्हारी जुबानी सुनना ज़्यादा अच्छा लगेगा...
जय हिंद...
गजब गजब!!
ReplyDeleteकितना पैदल चल लेते हो और कितनी सुन्दर जगहों पर हो आते हो..धन्य हुए जा रहे हैं हम सब फोटो में देख देख कर...वाह!!
वाह मज़ा आ गया घुमक्कड़ी पढ़ कर और फ़ोटो देखकर.
ReplyDeleteचार-पांच घण्टे की तन-मन को तोड़ देने वाली चढ़ाई के बाद कुदरत का जो रूप सामने आता है, उसे हम शब्दों में नहीं लिख सकते
ReplyDeleteपर आज के कैमरे ने कुदरत के इस रूप को पाठकों के सामने लाने में अच्छी भूमिका निभायी है .. आपका काम आसान हो गया .. कमाल का वर्णन है .. गजब के चित्र हैं !!
वाह नीरज कमाल कर दिया। मजा आ गया, जैसे ये चढाई हमने ही चढ ली हो, चलो अगले साल के लिए हमारी बुकिंग कर लो, अभी से। बधाई
ReplyDeleteमैक्लोडगंज तो हमको भी जाना है.. तब आपकी सेवाए लेंगे.. वैसे लास्ट फोटो में तो वाकई समराट लग रहे हो...
ReplyDeleteआपके ज़ज्बे को सलाम बार बार करता हूँ....क्या दृश्य दिखाएँ हैं आपने...गज़ब...
ReplyDeleteनीरज
हां भाई आज तो तैं समार्ट नही बल्कि घुमक्कडी का सम्राट लागरया सै. घणि जोरदार जगह घुमाई आज तो तन्नै.
ReplyDeleteरामराम.
ये फोटो देख कर ही झुरझुरी छूट रही है! कितना दुर्गम!
ReplyDeleteअद्भुत रोमांचक
ReplyDeleteफोटोज के लिये धन्यवाद
अगली बार बताना जरूर जी, शायद चल सकें
आपका साथ होना हमारी खुशकिस्मती होगी
प्रणाम
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ReplyDeleteneeraj jatji ! vaise main apka blog niyamit pardta hu, par aaj ka lekh padkar vakai maza aagaya, aisha laga jaise main svayam hee yaha ghumkar aaya hu ! Aapke blog main yatra sambandhi de gayi jankari ke liye bahut bahut dhyanyavad..... ek baat or ki hindi main comment kaise karu yadi, aap bata sake to....
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ReplyDeleteरितेश जी,
ReplyDeleteआप कमेन्ट करने के लिए baraha font को डाउनलोड कर लें, उससे आप कहीं भी हिंदी में लिख सकेंगे. नहीं तो ऑरकुट भी अच्छा विकल्प है, जब आप ऑरकुट में किसी को स्क्रैप करते हैं तो लिखने से पहले ctrl+g दबा दें. फिर आप जो भी लिखेंगे, वो हिंदी में बदल जाएगा. फिर इसे कॉपी पेस्ट भी कर सकते हैं .
इस जानकारी के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद . नीरज जी!
ReplyDeletevaah very nice !
ReplyDeleteभाई नीरज, जी सा आ ग्या, त्रियुण्ड यात्रा देखकर - बधाई तन्नै भी और तेरे ढब्बी ललित नै भी । अगले साल गर्मियों का पिरोगराम पक्का कर लै, कैन्दा हो तो बयाना भी जमा करा देंगे, हम भी आडै लुधियाने तै लटक लेंगे नीरज पैसेंजर में, बस टैम माडा सा खुल्ला राखिये भाई इब हम थारे जैसे जवान तो रह नहीं गये पर चालांगे जरूर जे ले जायेगा तो । सच में बहुत अच्छा ब्लाग है आपका ।
ReplyDeleteसंजय @ sanjaycb2007@yahoo.co.in
NEERAJ BABU JO JINDGI MILI HAI ISE KHOOB SARTHAK BANA RAHE HO....
ReplyDeleteBUS EK HI VINTI HAI KI MOTORCYCLE SE ITNI LAMBI DURI TAY NA KARA KARO....
BAAKI 2-3 DIN KA KOI YATRA HO TO KRIPYA MUJHE EK MAIL KAR DENA...
MERA ID HAI kullu_1_2@yahoo.com
MAIN MATHURA MAIN RAHTA HOON MERA NAAM KULDEEP SHARMA HAI....
DHANYBAAD
नीरज बाबू ५-६ दिसम्बर 2011 मैं मक्लोड़ गंज मैं बर्फ मिल जायेगी क्या
ReplyDeleteअकेले जाने में यही फायदा है की जिधर जी चाहे जा सकते हो, हम गए थे मैकलोडगंज मगर सब साथ में थे, चित्रों के साथ वाकई जबरदस्त जानकारी
ReplyDeleteHum bhi gaye the triund....barfeele toofan k samay February me, 57 logo ne attempt karne ki koshish ki thi...upar tak pahunche keval 4 aur unme se ek mai aur ek mera dost jo sabse pehle pahonche....Dukan, Resthouse,triund baba ka mandir aur pichhli plain side ki taraf wala private lodge sab baraf k neeche chhat tak....adbhut aur vihangam nazare dhauladhar ke.....yaadein taaja ho gayi apka khubsurat lekh padh kar
ReplyDeleteniceeeee
ReplyDeleteबर्फ कम लग रही है
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