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एक यात्रा स्कूली बच्चों के साथ

जब से हम Travel King India Private Limited कंपनी बनाकर आधिकारिक रूप से व्यावसायिक क्षेत्र में आए हैं, तब से हमारे ऊपर जिम्मेदारी भी बढ़ गई है और लोगों की निगाहें भी। कंपनी आगे कहाँ तक जाएगी, यह तो हमारी मेहनत पर निर्भर करता है, लेकिन एक बात समझ में आ गई है कि यात्राओं का क्षेत्र असीमित है और इसके बावजूद भी प्रत्येक यात्री हमारा ग्राहक नहीं है। अपनी सरकारी नौकरी को किनारे रखकर एक साल पहले जब मैं इस क्षेत्र में उतरा था, तो यही सोचकर उतरा था कि प्रत्येक यात्री हमारा ग्राहक हो सकता है, लेकिन अब समझ में आ चुका है कि ऐसा नहीं है। मैं अपनी रुचि का काम करने जा रहा हूँ, तो यात्राओं में भी मेरी एक विशेष रुचि है, खासकर साहसिक और दूरस्थ यात्राएँ; तो मुझे ग्राहक भी उसी तरह के बनाने होंगे। जो ग्राहक मीनमेख निकालने के लिए ही यात्राएँ करते हैं, वे हमारे किसी काम के नहीं। खैर, मैं बहुत दिनों से चाहता था कि दस साल से ऊपर के छात्रों को अपनी पसंद की किसी जगह की यात्रा कराऊँ। छात्रों को इसलिए क्योंकि इनमें सीखने और दुनिया को देखने-समझने की प्रबल उत्सुकता होती है। इनके माँ-बाप अत्यधिक डरे हुए लोग ...

एक दिन रीठाखाल में

मुझे तीन दिन बाद दिल्ली पहुँचना था और मैं आज खिर्सू के पास मेलचौरी गाँव में था। यूँ तो समय की कोई कमी नहीं थी, लेकिन अनदेखे पौड़ी को देखने के लिए यह समय काफी कम था। पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड के 13 जिलों में से वह जिला है, जो पर्यटन नक्शे में नहीं है। पौड़ी गढ़वाल जिले का सबसे प्रसिद्ध पर्यटन स्थल लक्ष्मणझूला है, जो आधा टिहरी के साथ साझा हो जाता है और आधा देहरादून के साथ और नाम होता है हरिद्वार का। बद्रीनाथ और केदारनाथ जाने वाले यात्री श्रीनगर से होकर गुजरते हैं, जो पर्यटक स्थल कम, सिरदर्द ज्यादा होता है। अब ले-देकर पौड़ी में लैंसडाउन बचता है और थोड़ा-सा खिर्सू, जो प्रसिद्धि पा रहे हैं। जबकि पौड़ी बहुत बड़ा है और मध्य हिमालय में स्थित होने के बावजूद भी यहाँ 3000 मीटर से भी ऊँची चोटियाँ विराजमान हैं। 2000 मीटर से ऊपर के तो कई स्थान हैं, जो बिल्कुल भी प्रसिद्ध नहीं हैं। और सबसे खास बात - 1500 मीटर ऊँची अनगिनत ‘खालों’ से हिमालयी चोटियों का जो नजारा दिखता है, वो अविस्मरणीय है। आज मुझे 2400 मीटर ऊँची चौंरीखाल नामक ‘खाल’ से होते हुए थलीसैंण जाना था। कल थलीसैंण से लैंसडाउन की सड़क नापनी थी और प...

उत्तराखंड की जन्नत है खिर्सू

18 नवंबर 2019 मैं बीनू के यहाँ जयालगढ़ में पड़ा हुआ था और पड़ा ही रहता, अगर टैंट पर धूप न आती। धूप आने से टैंट ‘ग्रीन हाउस’ बन गया और अंदर तापमान तेजी से बढ़ गया। आँख खुल गई। नाश्ते के लिए आलू के पराँठे बने हुए थे। गुनगुनी धूप में बैठकर तिवारी जी के साथ आलू के पराँठे खाने का अलग ही आनंद था। बाइक की सर्विस करानी थी और धुलाई भी। बल्कि अगर सर्विस न होती, तब भी बात बन जाती... लेकिन धुलाई जरूरी थी। पास में ही धुलाई सेंटर था और उसके पास सर्विस सेंटर। लेकिन मैं धुलाई वाले से सर्विस की बात करने लगा और उसने मुझे आगे भेज दिया। आगे सर्विस वाले से धुलाई की भी बात की, तो उसने सुझाव दिया कि पहले सर्विस करा लो, वापसी में जाते हुए धुलाई कराते चले जाना। एक घंटे बाद वापस आया, तो धुलाई वाले का शटर गिरा हुआ था। इस प्रकार आज बाइक की सर्विस तो हो गई, लेकिन धुलाई फिर भी न हो सकी। लगता है कहीं नाले में घुसाकर खुद ही धोनी पड़ेगी। दोपहर बाद मैं खिर्सू के लिए निकल पड़ा। खिर्सू इसलिए क्योंकि वहाँ अपना एक मित्र आदित्य निगम भी पहुँच चुका था। आदित्य ने अभी-अभी आर्किटेक्ट की पढ़ाई पूरी की है और घुमक्...

मानसून में बस्तर के जलप्रपातों की सैर

13 अगस्त 2019 यदि आपके मन में छत्तीसगढ़ और बस्तर का नाम सुनते ही डर समा जाता है और आप स्वयं, अपने बच्चों को और अपने मित्रों को बस्तर जाने से रोकते हैं, तो आप एक नंबर के डरपोक इंसान हैं और दुनिया की वास्तविकता को आप जानना नहीं चाहते। अपनी पूरी जिंदगी अपने घर में, अपने ऑफिस में और इन दोनों स्थानों को जोड़ने वाले रास्ते में ही बिता देना चाहते हैं। जब-जब भी छत्तीसगढ़ का नाम आता है, नक्सलियों का जिक्र भी अनिवार्य रूप से होता है। और आप डर जाते हैं। मैं दाद देना चाहूँगा कंचन सिंह को कि वह नहीं डरी। वह अपने एक फेसबुक मित्र (मैं और दीप्ति) और एक उसके भी मित्र (सुनील पांडेय) के साथ बस्तर की यात्रा कर रही थी। उसके सभी (अ)शुभचिंतक डरे हुए होंगे और हो सकता है कि उसने सबको अपने छत्तीसगढ़ में होने की बात बता भी न रखी हो। वह अपनी इस यात्रा को हर पल खुलकर जी रही थी और आज जब तक हम सब सोकर उठे, तब तक वह दंतेवाड़ा शहर की बाहरी सड़क पर चार किलोमीटर पैदल टहलकर आ चुकी थी। उसने सड़क पर एक साँप देखा था, जो कंचन के होने का आभास मिलते ही भाग गया था। दंतेवाड़ा से गीदम और बारसूर होते हुए हम जा रहे थे चित्र...

मानसून में बस्तर: दंतेवाड़ा, समलूर और बारसूर

11 अगस्त 2019 छत्तीसगढ़ के हमारे सदाबहार, सदाहरित मित्र सुनील पांडेय जी अपने अडतालीस काम छोड़कर कसडोल से रायपुर आ गए थे - अपनी गाड़ी से। उधर कंचन भी आ चुकी थी, जो पहले लखनऊ से आगरा गई, आगरा से झेलम एक्सप्रेस पकड़कर दिल्ली गई और अगले दिन दिल्ली से फ्लाइट से रायपुर। तो इस तरह हम चार जने रायपुर से बस्तर की ओर जा रहे थे। वैसे तो हमने अपनी पूरी फेसबुक बिरादरी से इस यात्रा पर चलने को कहा था, लेकिन "डर के आगे जीत है" का हौंसला इन चार ने ही दिखाया। हम ये तो नहीं जानते कि हमारी इस यात्रा पर कितने लोगों की आँखें लगी थीं, लेकिन यह जरूर जानते हैं कि कुछ लोग नक्सली हमला और बम-भड़ाम होने की उम्मीद जरूर कर रहे होंगे। कंचन को भूख लगी थी, इसके बावजूद भी उन्होंने हमें फ्लाइट में मिले पेटीज, बर्गर बाँट दिए। इससे हमारी भूख तो कांकेर तक के लिए मिट गई, लेकिन कंचन की भूख ने धमतरी भी नहीं पहुँचने दिए। कुरुद में बस अड्डे पर कुछ छोटा-मोटा मिलने की आस में गाड़ी रोकी, लेकिन वहाँ तो जन्नत मिल गई। चाय के साथ ताजे समोसे और जलेबियाँ। पोहा भी था, लेकिन मैं और दीप्ति रायपुर से ही इतना पोहा खाकर चले ...

रायपुर से केवटी पैसेंजर ट्रेन यात्रा

10 अगस्त 2019 यह रेलवे लाइन पहले दल्ली राजहरा तक थी। रेलवे लाइन दुर्ग से शुरू होती है और बालोद होते हुए दल्ली राजहरा तक जाती है। दल्ली राजहरा में लौह अयस्क की खदानें हैं, जिनसे भिलाई स्टील प्लांट में स्टील बनाया जाता है। फिर इस लाइन को आगे जगदलपुर तक बढ़ाने का विचार किया गया। इसे जगदलपुर तक ले जाने में एक समस्या थी कि यह लाइन अबूझमाड़ से होकर गुजरनी थी। माड़ का अर्थ है पहाड़ी और अबूझ का अर्थ है जिसका पता न हो। यह पूरा क्षेत्र छोटी-बड़ी पहाड़ियों से युक्त है और घना जंगल तो है ही। वर्तमान में लगभग पूरा अबूझमाड़ नक्सलियों का गढ़ है और आए दिन नक्सलियों व सुरक्षाबलों के बीच मुठभेड़ की खबरें आती रहती हैं। नक्सली यहाँ सड़क तक नहीं बनने देते, तो रेलवे लाइन क्यों बनने देंगे? लेकिन रेलवे लाइन बन रही है। पहले दल्ली राजहरा से गुदुम तक बनी, फिर गुदुम से भानुप्रतापपुर तक और अभी 30 मई को भानुप्रतापपुर से केवटी तक भी यात्री ट्रेनें चलने लगीं। केवटी से अंतागढ़ ज्यादा दूर नहीं है और जल्द ही अंतागढ़ में रेल की सीटी सुनाई देने लगेगी। फिर अंतागढ़ से नारायणपुर, कोंडागाँव होते हुए यह रेलवे लाइन जगदलपुर में के...

रघुपुर किले की फटाफट यात्रा

19 जुलाई 2019, शुक्रवार... दोपहर बाद दिल्ली से करण चौधरी का फोन आया - "नीरज, मैं तीर्थन वैली आ रहा हूँ।” "आ जाओ।” फिर दोपहर बाद के बाद फोन आया - "नीरज, मैं नहीं आ रहा हूँ।” "ठीक है। मत आओ।” शाम को फोन आया - " हाँ नीरज, कैसे हो?... क्या कर रहे हो?... मैं आ रहा हूँ।” "आ जाओ।” रात नौ बजे फोन आया - "अरे नीरज, खाना खा लिया क्या?... सोने की तैयारी कर रहे होंगे?... बस, ये बताने को फोन किया था कि मैं नहीं आ रहा हूँ।” "ठीक है। मत आओ।” रात दस बजे फोन आया - "अरे बड़ी जल्दी सो जाते हो तुम।... इतनी जल्दी कौन सोता है भाई!... मैं आ रहा हूँ... बस में बैठ गया हूँ... ये देखो फोटो... सबसे पीछे की सीट मिली है।” "खर्र.र्र.र्र..." रात ग्यारह बजे फोन आया - "अरे सुनो, एक पंगा हो गया। बस वाले ने मुझे बाइपास पर उतार दिया है। उस बस में पहले से ही किसी और की बुकिंग थी और बस वाले ने मुझे भी बैठा लिया था। अब उतार दिया है। तो अब मैं नहीं आ रहा हूँ।" "खर्र.र्र.र्र... खर्र.र्र.र्र..." रात साढ़े ग्यारह बजे फोन आया...

राज ठाकुर का गाँव: बीजल

शांघड़ में थे, तो बड़ी देर तक राज ठाकुर को फोन करता रहा, लेकिन उसने उठाया नहीं। उसने आज हमें अपने घर पर बुलाया था - लंच के लिए और हमने उसका निमंत्रण स्वीकार कर लिया था। निमंत्रण इसलिए लिख रहा हूँ, क्योंकि लंच करके हमें वहाँ से चले जाना था। अगर चले जाने की बात न होती, तो आमंत्रण लिखता। उसके घर में कुछ काम चल रहा है, इसलिए वह अतिथियों का अच्छा सत्कार नहीं कर पाएगा, इसका उसे डर था और इसीलिए वह हमें ठहराने से मना कर रहा था। आधे घंटे बाद जब उसका फोन आया, तो मेरा उत्तर था - “भाई जी, आपने फोन नहीं उठाया और हम बंजार पहुँच गए हैं। अब फिर कभी आएँगे।” “ओहो... मुझे पता नहीं चला... मोबाइल खराब हो गया है... देख लो अगर आ सको तो...” “नहीं आ सकते...” “ये क्या हो गया मुझसे! ये तो बड़ी भारी गलती हो गई...” “अच्छा, अच्छा ठीक है... आ रहे हैं आधे घंटे में... अभी शांघड़ से चले हैं... और अबकी बार फोन उठा लेना।” रोपा में कमल जी को अलविदा कहा, क्योंकि उन्हें आज शिमला जाना था। लेकिन शाम को पता चला कि वे कसोल चले गए। मैं नशे से मीलों, कोसों, प्रकाश वर्षों दूर रहता हूँ, इसलिए मुझे कसोल और मलाणा कतई पस...

शांघड़: बेहद खूबसूरत मुकाम

मनु ऋषि मंदिर से लौटकर हम रोपा में एक ढाबे पर चाय पी रहे थे। रसोई के दरवाजे पर लिखा था - "नो एंट्री विदाउट परमिशन"... और अजीत जी ने रसोई में घुसकर मालिक के हाथ में ढेर सारी प्याज और मालकिन के हाथ में ढेर सारे टमाटर देकर बारीक काटने को कह दिया। वे दोनों बाहर बैठकर प्याज-टमाटर काटने में लगे थे और अजीत जी रसोई में अपनी पसंद का कोई बर्तन ढूँढ़ने में लगे थे। इस तरह एक बेहद स्वादिष्ट डिश हमारे सामने आई - साकशुका। मैं और कमल रामवाणी जी इस नाम को बार-बार भूल जाते थे और आखिरकार कमल जी ने इसका भारतीय नामकरण किया - सुरक्षा। अब हम यह नाम कभी नहीं भूलेंगे। जमकर ‘सुरक्षा’ खाई और बनाने की विधि मालिक-मालकिन दोनों को समझा दी। अब बारी थी शांघड़ जाने की। आप गूगल पर शांघड़ (Shangarh) टाइप कीजिए, आपको ऐसे-ऐसे फोटो देखने को मिलेंगे कि आप इस स्थान को अपनी लिस्ट में जरूर नोट कर लेंगे। पक्का कह रहा हूँ। भरोसा न हो, तो करके देख लेना। तो हमने भी इसे नोट कर रखा था और आज आखिरकार उधर जा रहे थे। रोपा से एक किलोमीटर आगे से शांघड़ की सड़क अलग होती है। दूरी 7 किलोमीटर है। नई बनी सड़क है और अभी कच्ची ही...

एक यात्रा सैंज वैली की

मैं जब अप्रैल 2019 के दूसरे सप्ताह में दिल्ली से हिमाचल के लिए निकला था, तो यही सोचकर निकला था कि तीर्थन वैली में रहूँगा और ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क में ट्रैकिंग किया करूँगा। लेकिन समय का चक्र ऐसा चला कि न मैं तीर्थन वैली में रह पाया और न ही ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क में जा पाया। तीर्थन वैली के बगल में एक छोटी-सी वैली है - जीभी वैली। इस वैली के घियागी गाँव में अपना ठिकाना बना और मेरा सारा समय घियागी में ही कटने लगा। अभी पिछले दिनों अजीत सिंह जी आए और जीभी वैली से बाहर कहीं घूमकर आने को उकसाने लगे। मैं उनके उकसाए में नहीं आता और कल चलेंगे, परसों चलेंगे कहकर बच जाता। फिर कल-परसों आते-आते शनिवार आ जाता और मैं “वीकएंड पर बहुत भीड़ रहेगी और हम जाम में फँसे रहेंगे" कहकर फिर से अपना बचाव कर लेता। हालाँकि यहाँ न भीड़ होती है और न ही जाम। और कमाल की बात ये है कि घियागी की खाली सड़क पर मैं अजीत सिंह जी को भरोसा दिला देता कि भीड़ बहुत है और जाम भी लगा है। लेकिन शुक्रवार 28 जून को मेरी नहीं चली और हम अपनी-अपनी मोटरसाइकिलों से सैंज वैली की ओर बढ़े जा रहे थे। आज मेरी न चलने का भी एक कार...

देवदार के खूबसूरत जंगल में स्थित है बाहू और बालो नाग मंदिर

एक दिन की बात है मैं मोटरसाइकिल लेकर घियागी से बाहू की तरफ चला। इरादा था गाड़ागुशैनी और छाछगलू पास तक जाना। छाछगलू पास का नाम मैंने पहली बार तरुण गोयल से सुना था और इस नाम को मैं हमेशा भूल जाता हूँ। तब हमेशा गोयल साहब से पूछता हूँ और आज भी गोयल साहब से पूछने के बाद ही लिख रहा हूँ। उनसे पूछने का एक कारण और भी है कि वे इसे “छाछगळू” बोलते हैं। और इस तरह बोलते हैं जैसे मुँह में छाछ और गुड़ भरकर बोल रहे हों। तो मुझे यह उच्चारण सुनना बड़ा मजेदार लगता है और मैं बार-बार उनसे इसका नाम पूछता रहता हूँ। तो उस दिन मैं बाहू तक गया और सामने दिखतीं महा-हिमालय की चोटियों को देखकर मंत्रमुग्ध हो गया। यह समुद्र तल से 2300 मीटर ऊपर है और एकदम सामने ये चोटियाँ दिखती हैं। जीभी और घियागी तो नीचे घाटी में स्थित हैं और वहाँ से कोई बर्फीली चोटी नहीं दिखती। तो यहाँ आकर ऐसा लगा जैसे रोज आलू खाते-खाते आज शाही पनीर मिल गया हो। जीभी से इसकी दूरी 10 किलोमीटर है और शुरू में बहुत अच्छी सड़क है, फिर थोड़ी खराब है, फिर और खराब है और आखिर में जब आप बाहू में खड़े होते हैं और कोई बस गुजर जाए, तो आप धूल से सराबोर हो ज...

आश्चर्यचकित कर देने वाली इमारत: चैहणी कोठी

घर की मुर्गी दाल बराबर... इस वजह से हम डेढ़ महीने यहाँ गुजारने के बाद भी चैहणी कोठी नहीं जा पाए। हमारे यहाँ घियागी से यह जगह केवल 10 किलोमीटर दूर है और हम ‘चले जाएँगे’, ‘चले जाएँगे’ ऐसा सोचकर जा ही नहीं पा रहे थे। और फिर एक दिन शाम को पाँच बजे अचानक मैं और दीप्ति मोटरसाइकिल से चल दिए। चलते रहे, चलते रहे और आखिर में सड़क खत्म हो गई। इससे आगे काफी चौड़ा एक कच्चा रास्ता ऊपर जाता दिख रहा था, जिस पर मोटरसाइकिल जा सकती थी, लेकिन कुछ दिन पहले यहाँ आए निशांत खुराना ने बताया कि उस कच्चे रास्ते पर मोटरसाइकिल से बिल्कुल भी मत जाना। तो इस बारे में वहीं बैठे एक स्थानीय से पूछा। उसने भी एकदम निशांत वाले शब्द कहे। मोटरसाइकिल यहीं किनारे पर खड़ी करने लगे, तो उसने कहा - “यहाँ की बजाय वहाँ खड़ी कर दो। अभी बस आएगी, तो उसे वापस मुड़ने में समस्या आएगी।” यहाँ से आगे पैदल रास्ता है। “कितना दूर है? आधे घंटे में पहुँच जाएँगे क्या?” “नहीं, आधे घंटे में तो नहीं, लेकिन पौण घंटे में पहुँच जाओगे।” उसी स्थानीय ने बताया। “मतलब दो किलोमीटर दूर है।” “हाँ जी।”

किन्नर कैलाश की डिजीटल यात्रा

अभी कल्पा में हूँ और सामने किन्नर कैलाश चोटी भी दिख रही है और शिवलिंग भी। चोटी लगभग 6000 मीटर की ऊँचाई पर है और शिवलिंग लगभग 4800 मीटर पर। यात्रा शिवलिंग की होती है और लोग बताते हैं कि वे चोटी तक की यात्रा करके आए हैं। कुछ समय पहले तक मैं चोटी और शिवलिंग को एक ही मानता था और इसी चिंता में डूबा रहता था कि 6000 मीटर तक जाऊँगा कैसे? दूसरी चिंता ये बनी रहती थी कि वे कौन लोग होते हैं जो 6000 मीटर तक पहुँच जाते हैं? 6000 मीटर की ऊँचाई और ट्रैकिंग बहुत ज्यादा होती है... बहुत ही ज्यादा...। मेरी अपर लिमिट 5000 मीटर की है, हद से हद 5200 मीटर तक... बस। जिस दिन इससे ज्यादा ऊँचाई का ट्रैक कर लूँगा, उस दिन एडमंड हिलेरी और तेनजिंग नोर्गे के बराबर मान लूँगा खुद को।  पिछले साल गोयल साहब किन्नर कैलाश का ट्रैक करके आए... और आते ही सबसे पहले तो उन लोगों को खरी-खोटी सुनाई, जो बताते हैं कि यात्रा 6000 मीटर तक होती है। और फिर बताया कि यात्रा केवल 4800 मीटर तक ही होती है। यह सुनते ही मुझे बड़ा सुकून मिला। अभी तक जो किन्नर कैलाश मेरी अपर लिमिट से बहुत ऊपर था, अब अचानक अपर लिमिट के अंदर आ गया।...

इन छुट्टियों में हिमाचल में तीर्थन वैली जाइए

हम आपको भारत के अल्पप्रसिद्ध स्थानों के बारे में बताते रहते हैं। लेकिन अब हमने बीड़ा उठाया है आपको इन स्थानों की यात्रा कराने का... वो भी एकदम सुरक्षित और सुविधाजनक तरीके से। तो चलिए, इसकी शुरूआत करते हैं तीर्थन वैली से। दिल्ली-मनाली हाइवे पर मंडी से 40 किलोमीटर आगे और कुल्लू से 30 किलोमीटर पीछे एक स्थान है औट। यहाँ 3 किलोमीटर लंबी एक सुरंग भी बनी हुई है, जो किसी जमाने में भारत की सबसे लंबी सड़क सुरंग हुआ करती थी। इस सुरंग का एक छोटा-सा दृश्य ‘थ्री ईडियट्स” फिल्म में भी दिखाया गया है। औट के पास ब्यास नदी पर एक बाँध बना हुआ है। और ठीक इसी स्थान पर ब्यास में तीर्थन नदी भी आकर मिलती है और यहीं से तीर्थन वैली की शुरूआत हो जाती है। अब अगर हम तीर्थन नदी के साथ-साथ चलें, तो सबसे पहले जो नदी इसमें मिलती है, उस नदी की घाटी को सैंज वैली कहते हैं। उसके बारे में हम फिर कभी बात करेंगे। फिलहाल तीर्थन वैली की ही बात करते हैं। तो औट से चलने के 20 किलोमीटर बाद एक कस्बा आता है, जिसका नाम है बंजार। यह यहाँ का तहसील मुख्यालय भी है और तीर्थन वैली का सबसे बड़ा और सबसे मुख्य स्थान भी है। बंजार समु...

तमिलनाडु से दिल्ली वाया छत्तीसगढ़

8 मार्च 2019 हम ऊटी में थे और आज पूरे दिन ऊटी में ही रहने वाले थे। ऊटी के कुछ दर्शनीय स्थलों की लिस्ट दीप्ति ने बना रखी थी और मुझे भी उन स्थलों पर जाना ही था। मुझे पहली नजर में ऊटी पसंद नहीं आया था, पता नहीं क्यों। तो लिस्ट के अनुसार जहाँ-जहाँ भी गए, सभी जगहें दीप्ति को नापसंद होती चली गईं। और उसे ऊटी के भीड़-भरे टूरिस्ट स्पॉट्स भला पसंद भी क्यों आएँगे! पहले ‘रोज गार्डन’ गए, लेकिन वहाँ एक ही क्यारी में कुछ फूल खिले थे। कर्मचारी कह रहे थे कि सभी फूल देखने अप्रैल में आना। ऊटी लेक गए, तो यह देखकर हैरान रह गए कि अलग-अलग नाव ठेकेदारों ने झील के भी अपने-अपने हिस्से बाँट रखे हैं। मोटर बोट पैडल बोट के हिस्से में नहीं जा सकती और पैडल बोट चप्पू वाले हिस्से में नहीं जा सकती। यहाँ तक कि आप झील के किनारे पर भी तभी बैठ पाएँगे, जब आपने उस हिस्से वाली बोट का टिकट लिया हो। यहाँ से भी वापस भाग लिए। वापस होटल आए और “हाय गर्मी, हाय गर्मी” कहते सो गए। हालाँकि ऊटी में गर्मी नहीं थी।

दक्षिण के जंगलों में बाइक यात्रा

6 मार्च 2019 हम मैसूर में थे और इतना तो फाइनल हो ही गया था कि अब हम पूरा केरल नहीं घूमेंगे और कन्याकुमारी तक भी नहीं जाएँगे। यहाँ गर्मी बर्दाश्त से बाहर होने लगी थी और हिमालय से बर्फबारी की खबरें आ रही थीं। मुझे चेन्नई निवासी शंकर राजाराम जी की याद आई। आजकल वे हिमालय में थे और जनवरी में हिमालय जाते समय वे हमारे यहाँ भी होकर गए थे। और उस समय वे चेन्नई की गर्मी से परेशान थे और बार-बार कह रहे थे कि उन्हें भी साउथ की गर्मी बर्दाश्त नहीं होती। अब जैसे-जैसे दिन बीतते जा रहे हैं, हमें शंकर सर भी याद आ रहे हैं और साउथ की गर्मी भी उतनी ही भयानक लगती जा रही है। लेकिन दीप्ति की इच्छा ऊटी देखने की थी। ऊटी समुद्र तल से 2000 मीटर से ज्यादा ऊँचाई पर है और इतनी ऊँचाई पर तापमान काफी कम रहता है। लेकिन हम कितने दिन ऊटी में बिता सकते हैं? ऊटी के चारों तरफ ढलान है और चारों ही तरफ नीचे उतरने पर भयानक गर्मी है। हम दो-चार दिन ऊटी में रुक सकते हैं, लेकिन आखिरकार कहीं भी जाने के लिए इस भयानक गर्मी में एंट्री मारनी ही पड़ेगी। इसलिए मुझे ऊटी भी आकर्षक नहीं लग रहा था। अब जब दीप्ति की इच्छा के कारण मैसूर...

प्राचीन मंदिरों के शहर: तालाकाडु और सोमनाथपुरा

5 मार्च 2019 कुछ दिन पहले जब हमारे एक दोस्त मधुर गौर मैसूर घूमने आए थे, तो उन्होंने अपनी वीडियो में तालाकाडु और सोमनाथपुरा का भी जिक्र किया था। इससे पहले इन दोनों ही स्थानों के बारे में हमने कभी नहीं सुना था। फिर जब हम विस्तार से कर्नाटक घूमने लगे और बादामी, हंपी, बेलूर, हालेबीडू जैसी जगहों पर घूमने लगे, तो बार-बार सोमनाथपुरा और तालाकाडु का नाम सामने आ ही जाता। तो इसी के मद्देनजर हम आज जा पहुँचे पहले तालाकाडु और फिर सोमनाथपुरा। तालाकाडु कावेरी नदी के किनारे स्थित है और मैसूर से लगभग 50 किलोमीटर दूर है। किसी जमाने में यह एक अच्छा धार्मिक स्थान हुआ करता था, लेकिन कालांतर में कावेरी में आई बाढ़ों के कारण यह पूरा शहर रेत के नीचे दब गया, जो आज भी दबा हुआ है। कुछ मंदिर रेत के नीचे से झाँकते दिखते हैं, जिनमें पातालेश्वर मंदिर, कीर्तिनारायण मंदिर, मरालेश्वर मंदिर और वैद्येश्वर मंदिर प्रमुख हैं। तालाकाडु से 25 किलोमीटर और मैसूर से 33 किलोमीटर दूर सोमनाथपुरा स्थित है। इसे होयसला राजाओं ने 13वीं शताब्दी में बनवाया था। मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है और इसकी दीवारों व छतों पर...

मैसूर पैलेस: जो न जाए, पछताए

3 मार्च 2019 मैसूर रिंग रोड पर हमें एक मल्टी-स्टार होटल में 600 रुपये में अत्यधिक शानदार कमरा मिल गया। इसे हमने तीन दिनों के लिए ले लिया। ओयो की मेहरबानी थी, अन्यथा हम इसकी तरफ कभी न देखते। दूर से ही साष्टांग नमस्कार कर लेते। तो जिस समय हम धूप में जल-भुनकर कूर्ग से मैसूर आए तो शाम होने वाली थी और मेरी इच्छा एसी रूम में कम्पलीट रेस्ट करने की थी, जबकि दीप्ति को मैसूर पैलेस देखने की जल्दी थी। मैंने उसे टालने को तमाम तरह के बहाने बनाए, मसलन “बड़ी लंबी लाइन लगी मिलेगी टिकट की।” “मैं लेडीज लाइन में जाकर जल्दी टिकट ले लूँगी।” “शहर में भयानक जाम लगा मिलेगा।” “ज्यादा दूर नहीं है। पाँच-छह किलोमीटर ही दूर है। वैसे भी गूगल मैप सड़क खाली दिखा रहा है।” “शाम पाँच बजे तक ही एंट्री होती है। ये देख, गूगल मैप पर।”

कूर्ग में एक दिन

2 मार्च 2019 अब तक गर्मी इतनी ज्यादा होने लगी थी कि हमने यात्रा में बदलाव करने का पक्का मन बना लिया था। अब हम न केरल जाएँगे, न तमिलनाडु। लेकिन कूर्ग का लालच अभी भी हमें यात्रा जारी रखने को कह रहा था, अन्यथा उडुपि से दिल्ली चार-पाँच दिन की मोटरसाइकिल यात्रा पर स्थित है। उधर हिमालय से बर्फबारी की खबरें आ रही थीं और हम गर्मी में झुलस रहे थे, तो बड़े गंदे-गंदे विचार मन में आ रहे थे। क्या सोचकर गर्मी में साउथ का प्रोग्राम बनाया था? हम नहीं लिखेंगे इस यात्रा पर किताब। और अगर किताब लिख भी दी, तो उसमें गर्मी के अलावा और कुछ नहीं होगा। और फिर... भारत वास्तव में विचित्रताओं का देश है। इधर से उधर या उधर से इधर आने में ही कितना कुछ बदल जाता है! न इधर के लोगों को उधर के मौसम का अंदाजा होता है और न ही उधर के लोगों को इधर के मौसम का। सबकुछ जानते हुए भी हम एक जैकेट लिए घूम रहे थे, जिसका इस्तेमाल घर से केवल नई दिल्ली रेलवे स्टेशन तक पहुँचने में किया गया था। वातानुकूलित ट्रेन थी और हमने जैकेट निकालकर बैग में रख ली थी और ट्रेन में मिलने वाला कंबल ओढ़कर सो गए थे। गोवा उतरे तो सर्दी दूर की चीज थी...

सैंट मैरी आइलैंड की रहस्यमयी चट्टानें

1 मार्च 2019 जैसे ही प्रतीक ने सैंट मैरी आइलैंड का नाम लिया, तुरंत गूगल किया और मेरे सामने थे आइलैंड के बहुत सारे फोटो। जितना पढ़ सकता था, पढ़ा और फाइनली तय किया कि यहाँ जरूर जाएँगे। हम उडुपि में थे और हमें दक्षिण की ओर जाना था। लेकिन प्रतीक ने हमें उडुपि के उत्तर में 50 किलोमीटर दूर मरवंते बीच जाने का भी लालच दे दिया। गर्मी बहुत ज्यादा होने लगी थी और हम दक्षिण की इस यात्रा को विराम दे देना चाहते थे। उडुपि से मरवंते जाकर फिर से उडुपि लौटना पड़ता। हम जाना भी चाहते थे और नहीं भी जाना चाहते थे। लेकिन सैंट मैरी आइलैंड के बारे में कोई कन्फ्यूजन नहीं था। होटल से सीधी सड़क जाती थी, नाक की सीध में। पहले उडुपि शहर और उसके बाद मालपे। मालपे पार करने के बाद हमारे सामने समुद्र था और यहीं पर एक पार्किंगनुमा जगह पर कुछ गाड़ियाँ खड़ी थीं, जिनमें दो बसें भी थीं। इन बसों से अभी-अभी स्कूली छात्र उतरे थे, जो सैंट मैरी आइलैंड जाएँगे। 300 रुपये प्रति व्यक्ति टिकट था आने-जाने का। मैंने 1000 रुपये देकर दो टिकट लिए और बाकी 400 रुपये लेना भूल गया, लेकिन जल्द ही कन्नड, हिंदी और इंगलिश में आवाजें ...