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बैजनाथ यात्रा श्रंखला
1. बैजनाथ यात्रा - कांगड़ा घाटी रेलवे
2. बैजनाथ मंदिर
3. बिलिंग यात्रा
4. हिमाचल के गद्दी
5. पालमपुर यात्रा और चामुंड़ा देवी
हिमाचल के घुमंतू चरवाहों को गद्दी कहते हैं। इनके पास घर तो होता है, पर ठिकाना नहीं होता। अपने घरों में इनका मन नहीं लगता। साल भर में चले जाते हैं एकाध बार। बाकी पूरे साल पहाडों पर जंगलों में ही रहते हैं। काम क्या करते हैं? भेड़-बकरियां पालते हैं और बेच देते हैं। भेडें ही इनकी संपत्ति होती हैं। इनके पास सैकडों की संख्या में भेडें होती हैं।
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कभी-कभी गाँव वाले भी इनको अपने ढोर-डंगर दे देते हैं। गद्दी लोग भेड़ों के साथ-साथ उनकी भी देखभाल कर लेते हैं। कुछ महीनों बाद गाँव वालों को वापस लौटा देते हैं। जंगल में खुले घूमने, खुलकर खाने से ढोर-डंगर तगडे हो जाते हैं। इससे गद्दियों को भी कुछ आमदनी हो जाती है।
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बिलिंग जाते समय हमारी मुलाकात एक गद्दी से हुई। सड़क के किनारे घास पर बैठा हुआ था। बहुत दूर पहाड़ पर भेडें चर रही थीं। उन भेड़ों को परिवार के बाकी सदस्य 'कंट्रोल' कर रहे थे। हम भी बैठ गए थोडी देर के लिए उसके पास।
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शेर जैसे जानवरों के बारे में पूछने पर उसने बताया कि यहाँ शेर तो नहीं है, ना ही चीता है। तेंदुआ, बाघ व भेडिये, भालू हैं। इन गर्मी के दिनों में वे और ऊपर चले जाते हैं। जाडों में बर्फ पड़ने पर वे नीचे आते हैं और भेड़ों को उठा ले जाते हैं। ये जानवर इंसान को कुछ नहीं कहते, शरमाते हैं और देखते ही छुप जाते हैं। इस कारण गद्दियों को इनकी उपस्थिति का पता भी नहीं चल पाता। पता तब चलता है जब भेड़ों की संख्या कम होने लगती है। तब इन्हें अधिक चौकसी बरतनी होती है। इनके पास हथियार भी होते हैं।
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जंगल से सूखी लकडियाँ और पत्ते इकट्ठे करके, उन्हें जलाकर खाना बना लेते हैं। जब हमने उससे पूछा कि क्या ऊपर बिलिंग में खाना मिलेगा? तो बताया कि खाना तो मुश्किल से ही मिलेगा। पता नहीं नीचे वापस जाने के लिए कोई वाहन भी मिले या ना मिले। अगर ना मिले तो वो देखो, वहां हमारा ठिकाना है, वहीं चले आना। मजे से खा-पीकर सोना और कल सुबह चले जाना। वैसे हमें वापसी में ऐसा करने की नौबत नहीं आयी।
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खैर, इन गद्दियों का जीवन कष्टसाध्य होता ही है। केवल भेड़-बकरियों का ही तो आसरा होता है।
अगला भाग: पालमपुर यात्रा और चामुंड़ा देवी
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कभी-कभी गाँव वाले भी इनको अपने ढोर-डंगर दे देते हैं। गद्दी लोग भेड़ों के साथ-साथ उनकी भी देखभाल कर लेते हैं। कुछ महीनों बाद गाँव वालों को वापस लौटा देते हैं। जंगल में खुले घूमने, खुलकर खाने से ढोर-डंगर तगडे हो जाते हैं। इससे गद्दियों को भी कुछ आमदनी हो जाती है।
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बिलिंग जाते समय हमारी मुलाकात एक गद्दी से हुई। सड़क के किनारे घास पर बैठा हुआ था। बहुत दूर पहाड़ पर भेडें चर रही थीं। उन भेड़ों को परिवार के बाकी सदस्य 'कंट्रोल' कर रहे थे। हम भी बैठ गए थोडी देर के लिए उसके पास।
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शेर जैसे जानवरों के बारे में पूछने पर उसने बताया कि यहाँ शेर तो नहीं है, ना ही चीता है। तेंदुआ, बाघ व भेडिये, भालू हैं। इन गर्मी के दिनों में वे और ऊपर चले जाते हैं। जाडों में बर्फ पड़ने पर वे नीचे आते हैं और भेड़ों को उठा ले जाते हैं। ये जानवर इंसान को कुछ नहीं कहते, शरमाते हैं और देखते ही छुप जाते हैं। इस कारण गद्दियों को इनकी उपस्थिति का पता भी नहीं चल पाता। पता तब चलता है जब भेड़ों की संख्या कम होने लगती है। तब इन्हें अधिक चौकसी बरतनी होती है। इनके पास हथियार भी होते हैं।
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जंगल से सूखी लकडियाँ और पत्ते इकट्ठे करके, उन्हें जलाकर खाना बना लेते हैं। जब हमने उससे पूछा कि क्या ऊपर बिलिंग में खाना मिलेगा? तो बताया कि खाना तो मुश्किल से ही मिलेगा। पता नहीं नीचे वापस जाने के लिए कोई वाहन भी मिले या ना मिले। अगर ना मिले तो वो देखो, वहां हमारा ठिकाना है, वहीं चले आना। मजे से खा-पीकर सोना और कल सुबह चले जाना। वैसे हमें वापसी में ऐसा करने की नौबत नहीं आयी।
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खैर, इन गद्दियों का जीवन कष्टसाध्य होता ही है। केवल भेड़-बकरियों का ही तो आसरा होता है।
अगला भाग: पालमपुर यात्रा और चामुंड़ा देवी
बैजनाथ यात्रा श्रंखला
1. बैजनाथ यात्रा - कांगड़ा घाटी रेलवे
2. बैजनाथ मंदिर
3. बिलिंग यात्रा
4. हिमाचल के गद्दी
5. पालमपुर यात्रा और चामुंड़ा देवी
ये तो बढ़िया जानकारी रही..
ReplyDeleteसही में बड़ा ही कष्टप्रद जीवन होता होगा. शायद उन्हें उसी में मजा आता हो. चित्र सुन्दर थे. आभार.
ReplyDeleteकम ही लोग इन खानाबदोशों की जिंदगी में झाँकने का समय निकल पते हैं. अच्छी जानकारी दी आपने. अगली कभी ऐसी मुलाकात में इनसे मेरी ओर से इनकी परम्पराओं आदि के बारे में भी बात करें. आशा है काफी नई जानकारियां मिलेंगीं.
ReplyDeleteमेहनत जी तोड़ करना पड़ता है घुमन्तुओं को।घर से दूर रह कर जीना काफ़ी कठीन है। अच्छी जानकारी दी आपने।चित्र तो बेहद खूबसूरत हैं।
ReplyDeleteगद्दी तो नहीं पता था ्भाई... हम तो एवड़ नाम से जानते थे...
ReplyDeleteकुछ समय पहले पढ़ा था इनके बारे में ..अच्छी रोचक जानकारी दी है आपने शुक्रिया
ReplyDeleteैअच्छी जानकारी है
ReplyDeleteAccha laga apka yatra vritant...
ReplyDeleteआपकी पोस्टें तो उत्तरोत्तर निखार पर हैं। बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteजानकारी बढ़िया दी है । वैसे ये लोग हमारे यहाँ भी बहुत होते है । जिन्हें चरवाहा कहा जाता है।
ReplyDeleteहिमाचल के घुमंतू चरवाहों को गद्दी कहते हैं।
ReplyDeleteपरन्तु उत्तराखण्ड के तराई के जंगलों में वनगूजर भी इसी तरह का जीवन यापन करते हैं।
बहुत अच्छी और रोचक जानकारी मिली...आप की जीवन शैली मुझे बहुत प्रभावित करती है...फक्कड़ जीवन...घूमना और खुश रहना...बहुत खूब...
ReplyDeleteनीरज
neeraj bhai aap to bahut ghumte ho main bhi edhar udhar muh marata ghumta rehta hu per aap se jyada nahi bahut achha laga aap ke lekh pad kar, phle main south side, orisa side goa side ghumta rahta tha aap ke lekh ped kr 1 sal se himachal ghum raha hu, aap se jarur melu ga. apne blog main hindi conversion bhi dal do. ROSHAN KALYAN, DELHI
ReplyDeleteaap itna ghume ho ek baar mani mahesh ho kar aao.
ReplyDeleteबाघ तो नही है हिमाचल में ,लेपर्ड, भालुओ की कोई कमी नही है , गद्दियों की वजह से भी जंगली जानवरों को कुछ न कुछ तो फायदा हो ही रहा है
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