14 अगस्त, जन्माष्टमी। जैसे ही ताऊ को पता चला कि मैं इंदौर में हूँ, तुरन्त ही निर्देश मिलने शुरू हो गए कि फलानी बस पकड़ और फलाने चौराहे पर उतर जा। खैर, फलाने चौराहे पर ताऊ ने किसी को भेज दिया और थोडी ही देर में मैं ताऊ के घर पर उनके सामने। देखते ही बोले -"अरे यार! तू तो बिलकुल वैसा का वैसा ही है, जैसा अपनी पोस्ट में दिखता है।" घाट तो मैं भी नहीं हूँ -"अजी ताऊ, मैं तो बिलकुल वैसा ही हूँ। लेकिन आपने क्यों रूप बदल लिया है? कौन सा मेकअप कर लिया है कि आज तो चिम्पैंजी की जगह आदमी नजर आ रहे हो?" "अरे ओये, चुप। यहाँ पर मुझे ताऊ मत बोलना।" (शायद मेड-इन-जर्मन का डर था)। खैर हमने फिर उन्हें पूरे दिन ताऊ नहीं बोला।
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फिर दोपहर को साढे बारह-एक बजे 'ब्रेकफास्ट' किया। यहीं ताई से हमारा सामना हुआ। पहले तो मैं सोच रहा था कि ताई वाकई 'ताई' जैसी होगी। लेकिन मेरा अंदाजा गलत निकला। इसके बाद पडोसी के घर की तरफ इशारा करके बोले कि वो देख, वो साला बीनू फिरंगी पड़ा हुआ है। अब तो खा-खाकर पड़ा रहता है। हमारा सैम नीचे बंधा हुआ है। और वो देख, वहां घास में थोडी सी मिटटी है ना, वहीं हमारी दोनों भैंसें चम्पाकली व अनारकली बंधी रहती थीं। जब से यमराज के भैंसे के साथ चक्कर चला है, तब से खूंटे समेत गायब हैं।
योजना बनी कि फिलहाल इंदौर शहर में घूमने चलते हैं, वापस आकर ही लंच करेंगे। दोनों ताऊ-भतीजे स्कूटर लेकर चल पड़े। रास्ते में ताऊ की नजर पड़ी एक हलवाई की दुकान पर। जी ललचा गया, स्कूटर एक तरफ खडा करके हो गए शुरू। मैं चूंकि नोर्मल कंडीशन में इन जगहों पर नहीं जाता हूँ, इसलिए अब मेरे याद नहीं कि क्या-क्या खाया था। वैसे भी कल शाम का तो याद नहीं, इतने दिन पुराना क्या याद रहेगा? हाँ, आखिर में लस्सी जरुर मारी थी- बिना दही की लस्सी।
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रेलवे लाइन पार करते समय ताऊ बोले कि कि अब नया इंदौर ख़त्म हो गया है, पुराना इंदौर आ गया है। चलते-चलते ही इंदौर का इतिहास बताने लगे। कुछ तो सुना नहीं, सुना तो पल्ले नहीं पड़ा, पल्ले भी पड़ा तो अब तक भूल गया हूँ। किसी दिन फुर्सत से खोज-खबर करूँगा, तब पूरा इतिहास छाप दूंगा। जा पहुंचे लालबाग पैलेस। मेन गेट बंद था, बाहर से पैलेस दिख नहीं रहा था। ताऊ बोले कि यार रोज तो यह खुला रहता है, पता नहीं आज क्यों बंद कर दिया है? मायूस परेशान होकर बोले कि ला भाई, कैमरा दे। तू गेट के सामने खडा हो जा, फोटो तो खिंचवा ही ले। इसी तरह से ही राजबाडे के सामने भी खड़े होकर फोटो खिंचवाए, और चलते बने। अच्छा हाँ, मैंने ताऊ से भी फोटू खिंचवाने को कहा तो बोले कि तू मेरा फोटू बिलकुल मत खींचना। अगर तू खींच लेगा तो सार्वजनिक कर देगा। इन हिदायतों व प्रतिबन्ध के बावजूद भी मैंने ताऊ के तीन फोटू खींच लिए। लेकिन ताऊ जी, चिंता की कोई बात नहीं है, आपकी आज्ञा के बिना उन्हें सार्वजनिक नहीं किया जायेगा।
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ताऊ जी, एक बात बताओ। वो बाजार सर्राफा बाजार ही था ना जहाँ हमने दोबारा लस्सी मारी थी? पचास रूपये की एक गिलास थी। गाढी भी इतनी कि पीने के बाद लगभग आधी तो गिलास में ही लगी रह गयी थी। मन तो कर रहा था कि उंगली से उसे भी सफाचट कर दूं। लेकिन बस रुक ही गया किसी तरह। अगर मैं अकेला होता तो कर देता, पक्का। फिर ये भी अंदाजा था कि घर पर ताई ने पता नहीं क्या-क्या बना रखा हो, उसके लिए भी तो थोडा स्पेस चाहिए था।
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उस दिन चूंकि जन्माष्टमी थी तो शहर में बड़ी-बड़ी झांकियां निकल रही थीं। ये तो कोई नई बात नहीं है। हर बड़े शहर में ऐसा ही होता है। घूम-फिरकर वापिस घर पहुंचे तो भोजन हमारा इन्तजार कर रहा था। अपना फ्यूल टैंक, ऊपर ढक्कन तक भरके फिर से ताऊ की कंप्यूटर लैब में जा बैठा। आज ताऊ को सपरिवार नासिक जाना था। योजना थी शाम चार बजे तक निकल लेने की। लेकिन पता नहीं मेरी उपस्थिति की वजह से या किसी और वजह से उनकी यह योजना बिगड़ गयी। नई योजना बनी कल सुबह जाने की। इसका प्रत्यक्ष फायदा मुझे मिल गया। अब मैं भी और ज्यादा समय तक यहाँ रुक सकता था।
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मेरा इरादा था कल मांडू जाने का। लेकिन इन्होने मना कर दिया। बोले कि तेरे लिए ओमकारेश्वर सही रहेगा। तुंरत ही ट्रेन ढूंढी गयी। रात डेढ़ बजे वाली से जाना तय हुआ। यानी कि रात एक बजे तक ताऊ के यहीं रुकना था। शाम को वे लग गए लेन-देन करने में। मतलब कि दूसरों के कमेन्ट पढ़कर उन्हें प्रकाशित करना, और दूसरों की पोस्ट पढ़कर उन्हें कमेन्ट भेजना। उस दिन इनकी पोस्ट छपी थी- ताऊ की शोले- भाग-2 । 25-30 कमेंटों को देखकर बोले कि लो भाई, हमारी तो सब्जी-भाजी जितनी बिकनी थी, बिक गयी। जब मैंने पूछा कि अभी तो शोले में कई रोल किसी को नहीं दिए गए हैं, मुझे कौन सा रोल देने का इरादा है? पहले तो सोचते रहे, सोचते रहे। फिर कुर्सी से उछलकर बोले- "तुझे दूंगा हरिराम नाई का रोल।" ओये होए, जाट कब से हजामत करने लगे हैं ताऊ?
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शाम को ताऊपुत्र भरत के साथ रेजीडेंसी की तरफ निकल गए। यहाँ पर अंग्रेज कालीन जेल व फांसी वाला पेड़ भी है। लेकिन सबसे आकर्षक हैं तीन-चार कल्पवृक्ष के पेड़। भरत ने मुझसे कहा कि उधर दो-तीन पेड़ ऐसे हैं- बहुत ही बड़े तने वाले, थोडा ऊपर जाकर तने से चारों दिशाओं में टहनियां निकल रहीं हैं। उन्हें देखकर मैंने अंदाजा लगाया कि ये पेड़ कल्पवृक्ष (बाओबाब) हो सकते हैं।
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रात को जब फिर खाना खाने बैठे तो ताऊ के पास आशीष खंडेलवाल का फोन आ गया। खाना ख़त्म होते ही फोन भी कट गया। इसके बाद ये तुंरत ही सोफे पर बैठे, सामने मेज पर पैर रखे, पैरों पर रखा लैपटॉप और हो गए शुरू। ताऊ पत्रिका की तैयारी चल रही थी। बोले कि देख, उसे देख रहा है ना अपनी ताई को। कभी-कभी तो लैपटॉप की वजह से बहुत गुस्सा हो जाती है अब तू ही बता, दिन भर तो मुझे टाइम मिलता नहीं है, शाम को या छुट्टी वाले दिन ही सभी पोस्टें लिखनी पड़ती हैं। एक ऊपर से पहेली, पत्रिका, परिचयनामा जैसी समय खाऊ पोस्टें भी छापनी पड़ती हैं। मेरा तो दिमाग खराब हो जाता है इतना हिसाब-किताब करने में। इन्हें बंद भी नहीं कर सकता। मतलब ये है कि अपने पाठकों को गुदगुदाने वाला ताऊ जब कोई पोस्ट लिख रहा होता है, तो उस समय उसका दिमाग खराब रहता है। है ना मजेदार बात?
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हमने भी इनसे दो-चार टेक्नीकल टिप्स लीं। वैसे ये बात अलग है कि इंदौर छोड़ते ही सभी टिप्स भूल गया। मध्यरात्री साढे बारह बजे जन्माष्टमी का प्रसाद खाकर हम निकल चले। भरत रेलवे स्टेशन तक छोड़ आया। चलते-चलते ताऊ ने आज्ञा दी कि भाई, हमारी आज की मुलाकात ऐतिहासिक रही है। इस मुलाकात को यात्रा वृत्तान्त समझकर अपने यहाँ छापना।
जो आज्ञा, ताऊ जी।
अगला भाग: ओमकारेश्वर ज्योतिर्लिंग
मध्य प्रदेश मालवा यात्रा श्रंखला
1. भीमबैठका- मानव का आरम्भिक विकास स्थल
2. महाकाल की नगरी है उज्जैन
3. इन्दौर में ब्लॉगर ताऊ से मुलाकात
4. ओमकारेश्वर ज्योतिर्लिंग
5. सिद्धनाथ बारहद्वारी
6. कालाकुण्ड - पातालपानी
जाट भाई यहाँ तो लोग "ताऊ कौन" पहेली में उलझे है और आप है कि साक्षात् ताऊ से मिलकर भी आ गए | वाह भाई मुक्कदर वाले हो |
ReplyDeleteआपकी रोचक यात्रा का हमने भी आनन्द ले लिया।
ReplyDeleteबधाई!
ये अच्छा है, हम भी ताऊ को फोन करते हैं। पर जाने की तारीख तो तय ही नहीं हुई।
ReplyDeleteमुसाफिर जी,
ReplyDeleteखूब मजे कर के आये हो ताऊ जी के यहाँ. आपसे शिकायत है कि आप फोटो कम चिपकाते हो, कम से कम आठ से दस फोटो तो लगा ही दिया करो.
हम तो सोचते ही रह गये और आप ताऊ से मिल भी आये।मानना पडेगा आपकी घुमक्कड़ी को।
ReplyDeletebahut hi achha vrutant raha,tauji se mile ,taiji se mile waah.
ReplyDeleteभाई तैं कौण से ताऊ तैं मिल्कै आया सै? जरा पता भेजणा उसका.:)
ReplyDeleteरामराम.
हम कैसे मान ले कि आप जिनसे मिले वो ही असली ताऊ है.. ताऊ तो खुद कन्फ्यूज होंकर पूछ रहे है किनसे मिल आये हो?
ReplyDeleteवैसे इतनी आवभगत सुनके तो ताऊ के यहाँ ब्लोगरो की लाईन लगने वाली है.. और ताई मेड इन जर्मन लट्ठ को तेल पिलाने में लगने वाली है..
कहीं घमण्डी की लस्सी तो नहीं खा आये? हां भाई घमण्डी की लस्सी इतनी गाढ़ी होती है कि उसे खाने की बजाय पीना कहना अधिक उचित होगा।
ReplyDeleteविवरण से पता चलता है कि मुलाकात अच्छी ही रही होगी ।
शानदार यात्रा वृत्तांत.. ताऊजी मैं कब आऊं???
ReplyDeleteनीरज भाई.. ऐसी आवभगत करने वाले और भी ब्लॉगर मेजबानों की जानकारी छापते रहो.. भारत भ्रमण का एक कार्यक्रम (बिना एक धेला खर्चे) बना ही लेते हैं :)
हैपी ब्लॉगिंग.
Now take a tip from me dear Neeraj:
ReplyDeleteIf u find that there is nothing very interesting in the landscape then look at the signboards of shop, govt. instructions and road side shops. U will always get something there.
A very nice write up . very interesting minus the pictures.
जो इंसान इत्ती एश करवा दे उसके यहाँ तो हम भी जायेंगे...जो जोखिम होगा उठाएंगे...इत्ता क्या इस से आधे के लिए भी हम रिस्क लेने को तैयार हैं....ताऊ मैं आ रहा हूँ......
ReplyDeleteनीरज
@ नीरज गोस्वामी जी,
ReplyDeleteएक नीरज मिल तो लिया, अब क्या सब नीरज ही मिलेंगे ताऊ जी से :)
Tau ji you are most welcome to visit us in Delhi .
ReplyDeleteभाई नीरज, जम्मीँ स्वाद सा आ गया,थारी यो पोस्ट पढकै......अर ताऊ की एक आध फोटू तो चिपकया ही देंदा...आढै के ताऊ लठ ले कै आण लाग रया सै..:)
ReplyDeleteनीरज जाट जी, करलो बात !! अब भारत मै नकली ताऊ भी मिलने लग गये, लेकिन नीरज जाट जी कोई बात नही खा पी तो मुफ़त मै लिया...ओर हमे पढ कर अप की यात्रा का विवरण मजा आ गया.
ReplyDeleteधन्यवाद
बहुत भाग्यशाली हो महाराज!! ताऊ से मिलना सबके लिए संभव नहीं है...आनन्द आ गया वृतांत पढ़कर.
ReplyDeleteHey JRS
ReplyDeletebata ke kyun nahi gaye..delhi ka sohan halva bejhtey taau ji ke liye.....:)
itna manoranjan va gyaanvardhan karten hain apne blog kee jariye ..
abhaar !!!
इन्दोर के राजबाड़ा में हमने भी ऐसे ही शिकंजी पी थी लेकिन उसे फिर चम्मच से खुरच खुरच कर खा लिया आखिर 10 रुपये का नुकसान कैसे सहते ?
ReplyDeleteभैया, हमने तो छप्पन दुकान में जो खाया फोकट में खाया! आपकी पोस्ट पढ़ी तो याद आ गया वह समय!
ReplyDeleteताऊ की फोटो सामने आनी चाहिये!
Jat bhai Ram-Ram
ReplyDeletenamskar neeraj ji
ReplyDeletejat bhai ko satender jat ki ram-ram..
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