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केदारकंठा ट्रैक भाग-3 (केदारकंठा चोटी तक)

केदारकंठा ट्रैक भाग-1 केदारकंठा ट्रैक भाग-2 सुबह 6 बजे ही उठ गए थे, क्योंकि आज हमें बहुत ज्यादा चलना था। आज हम 2800 मीटर की ऊँचाई पर स्थित जूड़ा लेक पर थे और पहले 3800 मीटर की ऊँचाई पर स्थित केदारकंठा चोटी पर जाना था और उसके बाद सांकरी भी लौटना था। जूड़ा लेक से चोटी तक पहुँचने में हमें कम से कम 5 घंटे लगने थे और चोटी से नीचे सांकरी तक उतरने में 4 घंटे लगने थे। इस प्रकार आज हमें कम से कम 9 घंटे तक ट्रैक करना था। चाय बनाने के बाद खिचड़ी बनाई। निकलते-निकलते 9 बज गए। थोड़ा लेट जरूर हो गए। सारा सामान आज यहीं टैंटों में छोड़ दिया। अपने साथ केवल थोड़ा-सा भोजन और पानी ही रखा। बारिश होने के कोई लक्षण नहीं दिख रहे थे, इसलिए रेनकोट भी यहीं छोड़ दिए। कई गर्म और भारी-भरकम कपड़े भी छोड़ दिए और टैंट लगा रहने दिया। कोई चोरी-चकारी नहीं होती है। लेकिन चोरी का एक उदाहरण दूँगा। यह चोरी हमने की। हुआ ये कि कल जब हम जूड़ा लेक पर आए थे, तो एक लोकल ढाबे वाले ने अपना टैंट लगा रखा था। उसका ढाबा अभी तक तैयार नहीं हुआ था, इसलिए उसने काफी सामान अपने टैंट में रख रखा था। किसी काम से वह वापस सांकरी चला गया। वह हमारे गाइड़ अवतार ...

तीसरा दिन: जैसलमेर में मस्ती तो है

13 दिसंबर 2019 कुछ साल पहले जब मैं साइकिल से जैसलमेर से तनोट और लोंगेवाला गया था, तो मुझे जैसलमेर में एक फेसबुक मित्र मिला। उसने कुछ ही मिनटों में मुझे पूरा जैसलमेर ‘करा’ दिया था। किले के गेट के सामने ले जाकर उसने कहा - “किले में कुछ नहीं है... आओ, आपको हवेलियाँ दिखाता हूँ।” फिर हवेलियों के सामने भी ऐसा ही कहा और इस प्रकार मैंने पूरा जैसलमेर कुछ ही मिनटों में देख लिया। मुझे यह सब बड़ा खराब लगा था और बाद में मैंने उसे फेसबुक पर ब्लॉक कर दिया। हमारा अपना एक फ्लो होता है, अपनी रुचि होती है, अपना समय होता है, तब हम कहीं घूमने या न घूमने का निर्णय लेते हैं। अक्सर जब हम किसी शहर में जाते हैं, तो उस शहर के मित्र हमारी रुचि, फ्लो और समय का ध्यान न रखते हुए अपनी मर्जी से शहर घुमाने लगते हैं... हम मना करने में संकोच कर जाते हैं और इस प्रकार हमारा वह समय भी बर्बाद हो जाता है और हमारे मन में उस शहर की भी छवि खराब होती है। ऐसा ही जैसलमेर के साथ था। फिर हमने परसों जोधपुर का किला देखा... वहाँ हमारा मन नहीं लगा, तो लग रहा था कि कहीं जैसलमेर के किले में भी ऐसा न हो। लेकिन जैसलमेर आए हैं...

धराली सातताल ट्रैक, गुफा और झौपड़ी में बचा-कुचा भोजन

ये पराँठे बच गए हैं... इन्हें कौन खाएगा?... लाओ, मुझे दो... 24 जून 2018 कल किसी ने पूछा था - सुबह कितने बजे चलना है? अगर सुबह सवेरे पाँच बजे मौसम खराब हुआ, तो छह बजे तक निकल पड़ेंगे और अगर मौसम साफ हुआ, तो आराम से निकलेंगे। क्यों? ऐसा क्यों? क्योंकि सुबह मौसम खराब रहा, तो दोपहर से पहले ही बारिश होने के चांस हैं। ऊपर सातताल पर सिर ढकने के लिए कुछ भी नहीं है। तो इसीलिए आज मुझे भी पाँच बजे उठकर बाहर झाँकना पड़ा। मौसम साफ था, तो लंबी तानकर फिर सो गया। ... आप सभी ने पराँठे खा लिए ना? हमने ऊपर सातताल में झील किनारे बैठकर खाने को कुछ पराँठे पैक भी करा लिए हैं और स्वाद बनाने को छोटी-मोटी और भी चीजें रख ली हैं। अभी दस बजे हैं। धूप तेज निकली है। कोई भी आधी बाजू के कपड़े नहीं पहनेगा, अन्यथा धूप में हाथ जल जाएगा। संजय जी, आप बिटिया को फुल बाजू के कपड़े पहनाइए। क्या कहा? फुल बाजू के कपड़े नहीं हैं? तो तौलिया ले लीजिए और इसके कंधे पर डाल दीजिए। हाथ पर धूप नहीं पड़नी चाहिए। और अब सभी लोग आगे-आगे चलो। मैं पीछे रहूँगा। बहुत आगे मत निकल जाना। निकल जाओ, तो थोड़ी-थोड़ी देर में हमारी प्रतीक्षा करना। सभी साथ ही...

धराली सातताल ट्रैकिंग

12 जून 2018 मैं जब भी धराली के पास सातताल के बारे में कहीं पढ़ता था, तो गूगल मैप पर जरूर देखता था, लेकिन कभी मिला नहीं। धराली के ऊपर के पहाड़ों में, अगल के पहाड़ों में, बगल के पहाड़ों में, सामने के पहाड़ों में जूम कर-करके देखा करता, लेकिन कभी नहीं दिखा। इस तरह यकीन हो गया कि धराली के पास सातताल है ही नहीं। यूँ ही किसी वेबसाइट ने झूठमूठ का लिख दिया और बाकी वेबसाइटों ने उसे ही कॉपी-पेस्ट कर लिया। फिर एक दिन नफेराम यादव से मुलाकात हुई। उन्होंने कहा - “हाँ, उधर सातताल झीलें हैं।” “झीलें? मतलब कई झीलें हैं?” “हाँ।” “लगता है आपने भी वे ही वेबसाइटें पढ़ी हैं, जो मैंने पढ़ी हैं। भाई, उधर कोई सातताल-वातताल नहीं है। अगर होती, तो सैटेलाइट से तो दिख ही जाती। फिर आप कह रहे हो कि कई झीलें हैं, तो एकाध तो दिखनी ही चाहिए थी।” “आओ चलो, तुम्हें दिखा ही दूँ।” उन्होंने गूगल अर्थ खोला। धराली और... “ये लो। यह रही एक झील।” “हाँ भाई, कसम से, यह तो झील ही है।” “अब ये लो, दूसरी झील।”

जंजैहली से छतरी, जलोड़ी जोत और सेरोलसर झील

इस यात्रा वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें । पिछली पोस्ट ‘ शिकारी देवी यात्रा ’ में मित्र आलोक कुमार ने टिप्पणी की थी - “एक शानदार यात्रा वृतांत... वरना हिमाचल में हम लोग कुल्लू-मनाली और शिमला के अलावा जानते ही क्या हैं!” बिल्कुल सही बात कही है आलोक जी ने। और इसी बात को आगे बढ़ाते हुए आज हम आपको हिमाचल के एक ऐसे स्थान की यात्रा कराएँगे, जिसके बारे में मुझे भी नहीं पता था। आज 1 अप्रैल 2018 था। यात्रा कार्यक्रम के अनुसार तय था कि ब्रेकफास्ट के बाद नीरज मिश्रा जी हमसे विदा ले लेंगे और शाम तक आराम से मंडी पहुँचकर दिल्ली की बस पकड़ लेंगे। शाम आठ बजे उनकी बस थी। वे बड़े आराम से इसे पकड़ लेते। और हम क्या करते? हमारे पास मोटरसाइकिल थी। क्या हम आज का पूरा दिन जंजैहली से दिल्ली लौटने में खर्च करते? यह बात जँच नहीं रही थी। मई में हमें फिर से कुछ मित्रों को इधर लाना है और उनकी यात्रा में जंजैहली के साथ-साथ जलोड़ी जोत के साथ-साथ तीर्थन घाटी को भी शामिल करना है, तो हमें उधर जाना ही पड़ेगा।

फोटो-यात्रा-14: गोक्यो और गोक्यो-री

इस यात्रा के फोटो आरंभ से देखने के लिये यहाँ क्लिक करें । 24 मई 2016 “आज हमारा इरादा गोक्यो-री जाने का था। ‘री’ का अर्थ होता है चोटी। गोक्यो के पास 5300 मीटर से ऊँची एक चोटी है, इसे ही गोक्यो-री कहा जाता है। इस पर चढ़ना आसान है, हालाँकि अत्यधिक ऊँचाई का असर तो पड़ता ही है। दीप्ति ने पहले तो ना-नुकूर की, लेकिन बाद में चलने को राज़ी हो गयी। हम लगभग 4700 मीटर पर थे। ऐसे इलाके में 600 मीटर चढ़ना भी बेहद मायने रखता है। मुझे दीप्ति पर लगातार निगाह रखनी पड़ेगी। वह अभी भी पूरी तरह ठीक नहीं हुई है। और ऊपर जाने पर उसकी तबियत और ज्यादा ख़राब हो सकती है।” “ख़ूब आवाजाही होते रहने के कारण स्पष्ट पगडंड़ी बनी थी और भटकने का कोई डर नहीं था। हमारे पीछे-पीछे दो विदेशी और आ रहे थे। लेकिन वे भी उच्च पर्वतीय बीमारी से पीड़ित प्रतीत हो रहे थे। दीप्ति को भी बार-बार बैठना पड़ रहा था। वह थोड़ी देर बैठती, फिर दो कदम चलती और फिर बैठ जाती। आख़िरकार जब हम लगभग 5100 मीटर पर थे, उसने हिम्मत छोड़ दी - “अब और आगे नहीं जा सकती।”

फोटो-यात्रा-13: एवरेस्ट बेस कैंप - फंगा से गोक्यो

इस यात्रा के फोटो आरंभ से देखने के लिये यहाँ क्लिक करें । 23 मई 2016 आज हम धरती के सबसे खूबसूरत स्थानों में से एक पर थे - गोक्यो झील पर। “हिमालय में 4000 मीटर से ऊपर वाली सभी झीलें बेहद खूबसूरत होती हैं। मुझे ऐसी झीलें बहुत आकर्षित करती हैं। फिर गोक्यो में तो पाँच झीलें हैं।” “अपनी-अपनी रजाइयों में पड़े हुए यही महसूस करते रहे कि इतने दिनों बाद - आठ दिनों की ट्रैकिंग के बाद - हमने एक पड़ाव पा लिया है। गोक्यो झील इस यात्रा का एक अहम पड़ाव था। बेसकैंप केवल एवरेस्ट के कारण प्रसिद्ध है, लेकिन असली नैसर्गिक सुंदरता तो झीलों में ही होती है। वह यहाँ आकर पता भी चल रहा था।”

यात्रा श्री हेमकुंड साहिब की

15 जुलाई 2017 सुबह उठे तो मौसम ख़राब मिला। निश्चय करते देर नहीं लगी कि आज फूलों की घाटी जाना स्थगित। क्या पता कल सुबह ठीक मौसम हो जाये। तो कल फूलों की घाटी जाएंगे। आज हेमकुंड साहिब चलते हैं। कल भी मौसम ख़राब रहा तो परसों जायेंगे। यह यात्रा मुख्यतः फूलों की घाटी की यात्रा है, जल्दी कुछ भी नहीं है। तो हम केवल साफ मौसम में ही घाटी देखेंगे। वैसे जुलाई तक मानसून पूरे देश में कब्जा जमा चुका होता है, तो साफ मौसम की उम्मीद करना कुछ ज्यादा ही था, लेकिन हिमालय में अक्सर मौसम साफ ही रहता है। दोपहर बाद बरस जाये तो उसे खराब मौसम नहीं कहते। सुबह ही बरसता मिले तो खराब कहा जायेगा। अभी खराब मौसम था। इंतज़ार करते रहे। इसका यह अर्थ न लगाया जाये कि हमने बालकनी में कुर्सियाँ डाल लीं और चाय की चुस्कियों के साथ बारिश देखते रहे। इंतज़ार करने का अर्थ होता है रजाईयों में घुसे रहना और जगे-जगे सोना व सोते-सोते जगना। नींद आ गयी तो आँख कुछ मिनटों में भी खुल सकती है और कुछ घंटों में भी। हाँ, एक बार बाहर झाँककर अवश्य देख लिया था। सिख यात्री नीचे गोविंदघाट से आने शुरू हो गये थे। सुबह कब चले होंगे वे? और हो सकता है कि इनमे...

देवरिया ताल

1 नवंबर, 2016 सुबह पौड़ी से बिना कुछ खाये-पीये चले थे, अब भूख लगने लगी थी। लेकिन खाना खायेंगे तो नींद आयेगी और मैं इस अवस्था में बाइक नहीं चलाना चाहता था। पीछे बैठी निशा को बड़ी आसानी से नींद आ जाती है और वह झूमने लगती है। इसलिये उसे भी भरपेट भोजन नहीं करने दूँगा। इसलिये हमारी इच्छा थी थोड़ी-बहुत पकौड़ियाँ चाय के साथ खाना। रुद्रप्रयाग में हमारी पकौड़ी खाने की इच्छा पूरी हो जायेगी। लेकिन रुद्रप्रयाग से आठ किलोमीटर पहले नारकोटी में कई होटल-ढाबे खुले दिखे। चहल-पहल भी थी, तो बाइक अपने आप ही रुक गयी। स्वचालित-से चलते हुए हम सबसे ज्यादा भीड़ वाले एक होटल में घुस गये और 60 रुपये थाली के हिसाब से भरपेट रोटी-सब्जी खाकर बाहर निकले। यहाँ असल में लंबी दूरी के जीप वाले रुकते हैं। जीप के ड्राइवरों के लिये अलग कमरा बना था और उनके लिये पनीर-वनीर की सब्जियाँ ले जायी जा रही थीं। बाकी अन्य यात्रियों के लिये आलू-गोभी की सब्जी, दाल-राजमा, कढी और चावल थे। हाँ, खीर भी थी। खीर एक कटोरी ही थी, बाकी कितना भी खाओ, सब 60 रुपये में। 

नचिकेता ताल

18 फरवरी 2016 आज इस यात्रा का हमारा आख़िरी दिन था और रात होने तक हमें कम से कम हरिद्वार या ऋषिकेश पहुँच जाना था। आज के लिये हमारे सामने दो विकल्प थे - सेम मुखेम और नचिकेता ताल।  यदि हम सेम मुखेम जाते हैं तो उसी रास्ते वापस लौटना पड़ेगा, लेकिन यदि नचिकेता ताल जाते हैं तो इस रास्ते से वापस नहीं लौटना है। मुझे ‘सरकुलर’ यात्राएँ पसंद हैं अर्थात जाना किसी और रास्ते से और वापस लौटना किसी और रास्ते से। दूसरी बात, सेम मुखेम एक चोटी पर स्थित एक मंदिर है, जबकि नचिकेता ताल एक झील है। मुझे झीलें देखना ज्यादा पसंद है। सबकुछ नचिकेता ताल के पक्ष में था, इसलिये सेम मुखेम जाना स्थगित करके नचिकेता ताल की ओर चल दिये। लंबगांव से उत्तरकाशी मार्ग पर चलना होता है। थोड़ा आगे चलकर इसी से बाएँ मुड़कर सेम मुखेम के लिये रास्ता चला जाता है। हम सीधे चलते रहे। जिस स्थान से रास्ता अलग होता है, वहाँ से सेम मुखेम 24 किलोमीटर दूर है।  उत्तराखंड के रास्तों की तो जितनी तारीफ़ की जाए, कम है। ज्यादातर तो बहुत अच्छे बने हैं और ट्रैफिक है नहीं। जहाँ आप 2000 मीटर के आसपास पहुँचे, चीड़ का जंगल आरंभ हो जाता है। चीड़ के जंगल मे...

लद्दाख बाइक यात्रा- 19 (शो कार-डेबरिंग-पांग-सरचू- भरतपुर)

21 जून 2015 आराम से सोकर उठे- नौ बजे। नाश्ते में चाय, आमलेट के साथ एक-एक रोटी खा ली। कल जितना मौसम साफ था, आज उतना ही खराब। बूंदाबांदी भी हो जाती थी। पिछली बार यहां आया था, तब भी रात-रात में मौसम खराब हो गया था, आज भी हो गया। पेट्रोल की बात की तो दुकान वाले ने आसपास की दुकानों पर भागादौडी की लेकिन पेट्रोल नहीं मिला। कहा कि डेबरिंग में मिल जायेगा। बाइक कल ही रिजर्व में लग चुकी थी, अब बोतल का दो लीटर पेट्रोल भी खाली कर दिया। दस बजे यहां से चल दिये। रात हमने बाइक से सामान खोला ही नहीं था। केवल टैंक बैग उतार लिया था। खोलने में तो मेहनत लगती ही है, सुबह बांधने में और भी ज्यादा मेहनत लगती है।

लद्दाख बाइक यात्रा- 18 (माहे-शो मोरीरी- शो कार)

20 जून 2015 साढे आठ बजे सोकर उठे और नौ बजे तक यहां से निकल लिये। बारह किलोमीटर आगे सुमडो है जहां खाने पीने को मिलेगा, वहीं नाश्ता करेंगे। सुमडो का अर्थ होता है संगम। गांव का नाम है पुगा और दो धाराओं के संगम पर बसा होने के कारण बन गया- पुगा सुमडो। लेकिन आम बोलचाल में सुमडो ही कहा जाता है। यहां से एक रास्ता शो मोरीरी जाता है और दूसरा रास्ता शो-कार । आपको याद होगा कि शो-कार झील लेह-मनाली रोड के पास स्थित है। हमें आज पहले शो मोरीरी जाना है, फिर वापस सुमडो तक आकर शो-कार वाले रास्ते पर चल देना है। शो-कार की तरफ चलने का अर्थ है मनाली की ओर चलना और मनाली की ओर चलने का अर्थ है दिल्ली की ओर चलना। इस प्रकार जैसे ही आज हम शो-मोरीरी से वापस मुडेंगे, दिल्ली के लिये वापसी आरम्भ कर देंगे। सुमडो से थोडा आगे एक दुकान है। हम यहीं रुक गये। दस बजने वाले थे, हम पेट भर ही लेना चाहते थे लेकिन यहां ज्यादा कुछ नहीं मिला। चाय, बिस्कुट में काम चलाया। कोई बात नहीं, आगे शो-मोरीरी पर बहुत कुछ खाने को मिलेगा।

लद्दाख बाइक यात्रा- 15 (पेंगोंग झील: लुकुंग से मेरक)

17 जून 2015 दोपहर बाद साढे तीन बजे हम पेंगोंग किनारे थे। अर्थात उस स्थान पर जहां से पेंगोंग झील शुरू होती है और लुकुंग गांव है। इस स्थान को ‘पेंगोंग’ भी कह देते हैं। यहां खाने-पीने की बहुत सारी दुकानें हैं। पूरे लद्दाख में अगर कोई स्थान सर्वाधिक दर्शनीय है तो वो है पेंगोंग झील। आप लद्दाख जा रहे हैं तो कहीं और जायें या न जायें लेकिन पेंगोंग अवश्य जायें। अगर शो-मोरीरी छूट जाये तो छूटने दो, नुब्रा छूटे तो छूटने दो लेकिन पेंगोंग झील नहीं छूटनी चाहिये। यह एक साल्टवाटर लेक है यानी नमक के पानी की झील है। नमक का पानी होने का यह अर्थ है कि इसका पानी रुका हुआ है, बहता नहीं है। हिमालय में अक्सर बहते पानी के रास्ते में कोई अवरोध आता है तो वहां झील बन जाती है। जब पानी का तल अवरोध से ऊंचा होने लगता है तो पानी बह निकलता है, रुकता नहीं है। लेकिन पेंगोंग ऐसी झील नहीं है। इसमें चारों तरफ से छोटे छोटे नालों से पानी आता रहता है और जाता कहीं नहीं है। तेज धूप पडती है तो उडता रहता है और खारा होता चला जाता है।

लद्दाख बाइक यात्रा- 14 (चांग ला - पेंगोंग)

17 जून 2015 शोल्टाक से हम सवा दस बजे चले। तीन किलोमीटर ही चले थे कि दाहिनी तरफ एक झील दिखाई दी। इसका नाम नहीं पता। हम रुक गये। यह एक काफी चौडी घाटी है और वेटलैण्ड है यानी नमभूमि है। चांगला और अन्य बर्फीली जगहों से लगातार पानी आता रहता है और नमी बनी रहती है। साथ ही हरियाली भी। ऐसी जगहें लद्दाख में कई हैं। मनाली रोड पर डेबरिंग तो विश्व प्रसिद्ध है। डेबरिंग की पश्मीना भेडों का बडा नाम है। कहीं भेडपालन होता है, कहीं याकपालन। यहां जहां रात हम रुके थे, वहां याकपालन हो रहा था। पानी के रास्ते में थोडा सा अवरोध आते ही वो झील का रूप ले लेता है। यहां भी इसी तरह की झील बनी है। अच्छी लगती है। हो सकता है कि पेंगोंग के चक्कर में आपने यह झील न देखी हो। अगली बार पेंगोंग जाना हो तो इसे अवश्य देखना। पेंगोंग अपनी जगह है लेकिन यह भी खूबसूरती में कम नहीं है। इससे आगे रास्ता भी बेहद खूबसूरत है। हरी घास कालीन की तरह बिछी है और लद्दाख के बंजर में आंखों को अच्छी लगती है। थोडा ही आगे यह नदी दुरबुक की तरफ से आती एक नदी में मिल जाती है और दोनों सम्मिलित होकर श्योक में मिलने चल देती हैं। जहां इसका और श्योक का संगम ...

डोडीताल यात्रा- दिल्ली से उत्तरकाशी

डोडीताल का तो आपने नाम सुना ही होगा। नहीं सुना होगा तो कोई बात नहीं। आप स्वयं ही गूगल पर सर्च करेंगे कि डोडीताल क्या है। इस बार मैं नहीं बताऊंगा कि यह क्या है, कहां है, कैसे जाया जाता है। बस, चलता जाऊंगा और लौट आऊंगा। आपको अन्दाजा हो जायेगा। दिल्ली से दोनों मियां-बीवी निकल पडे सुबह छह बजे। बाइक पर सामान बांधा और चल दिये। सामान भी बहुत ज्यादा हो गया। आखिर ट्रेकिंग थी और अभी ट्रेकिंग का मौसम शुरू नहीं हुआ था इसलिये टैंट भी ले लिया, स्लीपिंग बैग भी ले लिया, ढेर सारे गर्म कपडे ले लिये और कुछ नमकीन बिस्कुट भी। दो रकसैक थे- एक मेरे लिये, एक निशा के लिये।

रोहांडा से कमरुनाग

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 12 मई 2014, सोमवार बताते हैं, पांच हजार साल पहले कोई रतन यक्ष था। उसने भगवान विष्णु को गुरू मानकर स्वयं ही प्रचण्ड युद्धकला सीख ली थी। उसे जब पता चला कि महाभारत का युद्ध होने वाला है, तो उसने भी युद्ध में जाने की ठानी। लेकिन वह चूंकि प्रचण्ड योद्धा था, उसने तय किया कि जो भी पक्ष कमजोर होगा, वह उसकी तरफ से लडेगा। यह बात जब कृष्ण को पता चली तो वह चिन्तित हो उठे क्योंकि इस युद्ध में कौरव ही हारने वाले थे और रतन के कारण इसमें बडी समस्या आ सकती थी। कृष्ण एक साधु का रूप धारण करके उसके पास गये और उसके आने का कारण पूछा। सबकुछ जानने के बाद उन्होंने उसकी परीक्षा लेनी चाही, रतन राजी हो गया। कृष्ण ने कहा कि एक ही तीर से इस पीपल से सभी पत्ते बेध दो। इसी दौरान कृष्ण ने नजर बचाकर कुछ पत्ते अपने पैरों के नीचे छुपा दिये। जब रतन ने सभी पत्ते बेध दिये तो कृष्ण ने देखा कि उनके पैरों के नीचे रखे पत्ते भी बिंधे पडे हैं, तो वे उसकी युद्धकला को मान गये। जब उन्होंने उसके गुरू के बारे में पूछा तो यक्ष ने भगवान विष्णु का नाम लिया। चूंकि कृष्ण स्वयं व...

मिज़ोरम साइकिल यात्रा- तमदिल झील

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 26 जनवरी 2014 यानी गणतन्त्र दिवस... इसी दिन के मद्देनजर हमने मिज़ोरम यात्रा का कार्यक्रम बनाया था। इच्छा थी यह देखने की कि देश की मुख्यधारा से सैंकडों किलोमीटर दूर मिज़ोरम में गणतन्त्र दिवस पर क्या होता है। होने को यहां हमें तिरंगे के दर्शन की भी उम्मीद नहीं थी क्योंकि इस बार गणतन्त्र दिवस रविवार को था। रविवार को मुख्यभूमि पर भी कोई उल्लास नहीं होता। देश की राजधानी के आस-पास भी कोई रविवार को स्कूल या कार्यालय नहीं जाना चाहता। खूब देखा है कि ऐसे में ज्यादातर तो गणतन्त्र दिवस एक दिन पहले मना लिया जाता है, कभी-कभार अगले दिन भी मनाया जाता है। हम स्वयं भी रविवार को स्कूल जाना पसन्द नहीं करते थे। फिर मिज़ोरम ईसाई प्रधान है। यहां रविवार का दूसरा ही अर्थ है। रविवार अर्थात पूर्ण छुट्टी, पूर्ण बन्दी। यह धार्मिक दिन है और इस दिन सभी लोग चर्च जाते हैं। इसलिये मुझे मिज़ोरम में तिरंगा दिखने की कोई उम्मीद नहीं थी। तीसरी बात, हमारे आसपास कोई बडा शहर नहीं था। बडा क्या, छोटा भी नहीं था। आठ किलोमीटर आगे कीफांग गांव है। गांव में क्या गणतन्त्र द...

शो-कार (Tso Kar) झील

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । शाम चार बजे शो-कार के लिये चल पडा। पहले तो मामूली सी चढाई है, उसके बाद मामूली ढलान। 16 किलोमीटर तक यही ढलान पैडल नहीं मारने देता। सिंगल सडक है और कोई आवागमन नहीं। झील काफी दूर से ही दिखने लगती है। लेकिन नजदीकी मानव बस्ती थुक्जे गोम्पा 16 किलोमीटर दूर है। यहां से भी करीब चार किलोमीटर और आगे चलकर झील के नजदीक तक पहुंचा जा सकता है। जब मैं थुक्जे से करीब 7-8 किलोमीटर दूर था तो दूर सामने से चार मोटरसाइकिल वाले आ रहे थे। सडक पर मामूली ढलान अवश्य है लेकिन यह पहाडी सडक नहीं है। झील क्षेत्र काफी विशाल है। पानी एक कोने में ही है, बाकी क्षेत्र विशाल मैदान है। 7-8 किलोमीटर दूर से ही थुक्जे दिख रहा था। तो मोटरसाइकिल वाले आ रहे थे, उनसे करीब 100 मीटर दूर सडक से हटकर चार-पांच जानवर भी बडी तेजी से दौड लगा रहे थे। काफी दूरी होने से जानवर पहचान में नहीं आ रहे थे। वे मोटरसाइकिलों के साथ साथ भाग रहे थे तो जाहिर है मेरी तरफ आ रहे थे। मुझे लगा कुत्ते हैं। लद्दाखी कुत्ते कुछ बडे होते हैं। पता नहीं मुझसे क्या खता हो गई कि वे मेरी तरफ आ रहे हैं। मैं...

छत्तीसगढ यात्रा- मोडमसिल्ली बांध

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 28 फरवरी 2013 मैं राजेश तिवारी जी के घर पर था और सुबह आठ बजे तक डब्बू को आ जाना था। अब मुझे अगले तीन दिनों तक डब्बू के ही साथ घूमना है। मेरी यह यात्रा डब्बू की वजह से ही सम्पन्न हुई, नहीं तो मानसून के अलावा छत्तीसगढ घूमना मैं सोच भी नहीं सकता था। दस बजे डब्बू जी आये और हम शीघ्र ही तिवारी जी को अलविदा कहकर चलते बने। भोरमदेव जाने की योजना थी, जो जल्दी ही रद्द करनी पडी। तय हुआ कि सिहावा चलो। डब्बू ने बताया कि सिहावा में महानदी का उद्गम है। इसके अलावा उसी दिशा में सीतानदी अभयारण्य, राजिम, बारनावापारा और सिरपुर भी पडेंगे। सभी जगहें एक ही झटके में देख लेंगे। यह खबर तुरन्त ही फेसबुक पर प्रसारित कर दी। इसे देखकर कसडोल के रहने वाले सुनील पाण्डे जी ने आग्रह किया कि सिरपुर आओ तो याद करना। मैंने पूरी यात्रा भर इस आग्रह को याद रखा। हालांकि बाद में समयाभाव के कारण सिरपुर जाना नहीं हो पाया।

टहला बांध और अजबगढ

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । जब नीलकंठ महादेव से वापस जयपुर जाने के लिये चल पडे तो टहला से कुछ पहले अपने बायें एक बडी झील दिखाई पडी। इसमें काफी पक्षी आनन्द मना रहे थे। सर्दियां आने पर उत्तर भारत में पक्षियों की संख्या बढ जाती है। ये बढे हुए पक्षी सुदूर उत्तरी ध्रुव के पास यानी साइबेरिया आदि ठण्डे स्थानों से आते हैं। विधान ने बिना देर किये मोटरसाइकिल सडक से नीचे उतारकर झील के पास लगा दी। इसका नाम या तो मंगलसर बांध है या फिर मानसरोवर बांध। हमें देखते ही बहुत से पक्षी इस किनारे से उडकर दूर चले गये। मैं और विधान अपने अपने तरीके से इनकी फोटो खींचने की कोशिश करने लगे। मैं ना तो पक्षी विशेषज्ञ हूं, ना ही बडा फोटोग्राफर। फिर भी इतना जानता हूं कि पक्षियों की तस्वीरें लेने के लिये समय और धैर्य की जरुरत होती है। चूंकि कोई भी पक्षी हमारे आसपास नहीं था, सभी दूर थे, इसलिये मनचाही तस्वीर लेने की बडी परेशानी थी। मैं चाहता था कि एक ऐसी तस्वीर मिले जिसमें पक्षी पानी में तैरने के बाद उडने की शुरूआत करता है। उसके पंख उडने के लिये फैले हों और पैर पानी में हों। हा...