Skip to main content

बिहार यात्रा और ट्रेन में जुरमाना

बात पिछले साल की है। नवम्बर में मैं गोरखपुर जा पहुंचा। 21 नवम्बर को रेलवे की परीक्षा थी। मैं पहुँच गया 19 को ही। कायदा तो ये था कि 20 तारीख को पूरे दिन पढना चाहिए था। लेकिन मन नहीं लगा। सुबह-सुबह गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर पहुँच गया। सोचा कि चलो बिहार राज्य के दर्शन कर आयें। छपरा का टिकट लिया और जा बैठा मौर्या एक्सप्रेस (5028) में। यह गोरखपुर से ही चलती है।
यह रूट भारत के व्यस्त रूटों में से एक है। बिहार, पश्चिम बंगाल और असोम जाने वाली काफी सारी ट्रेनें इसी रूट से गुजरती हैं। लेकिन इस रूट की सबसे बड़ी कमी है कि लखनऊ से ही यह सिंगल लाइन वाला है, यानी कि अप व डाउन दोनों दिशाओं को जाने वाली ट्रेनें एक ही ट्रैक से गुजरती हैं। इसी कारण से अधिकाँश ट्रेनें लेट हो जाती हैं। चार-चार, पांच-पांच घंटे लेट होना तो साधारण सी बात है। तो जाहिर सी बात है कि सुपरफास्ट ट्रेनों को ज्यादा प्राथमिकता दी जाती है। और पैसेंजर ट्रेनों का तो सबसे बुरा हाल होता है। मेल/एक्सप्रेस को भी कहीं भी रोक लिया जाता किसी दूसरी ट्रेन को पास करने के लिए।

पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार में नदियों का जाल सा बिछा है। इसकी हालत देखकर मैंने जान लिया कि बिहार में ज़रा सी बारिश होते ही बाढ़ क्यों आ जाती है। नेपाल से आने वाली नदियाँ बिहार के मैदानों में छोटी-छोटी धाराओं में बहने लगती हैं। इनका कोई निश्चित पथ भी नहीं होता। जिधर मन हुआ, उधर को ही बह जाती हैं।
अच्छा तो, दोपहर बाद तक सीवान होते हुए छपरा जा पहुंचा। ट्रेन से उतरते ही देख लिया था कि प्लेटफार्म नंबर एक पर बाघ एक्सप्रेस (3019) खड़ी है। यह ट्रेन हावडा से काठगोदाम जाती है। चूंकि वापस गोरखपुर तो जाना ही था, बिना देर किये मेल/एक्सप्रेस का (यानी कि बाघ एक्सप्रेस का) टिकट ले लिया। इतने में पीछे से वैशाली एक्सप्रेस (2553) आ गयी। जाहिर सी बात है कि वैशाली सुपर फास्ट ट्रेन है। फिर भी मैं जानबूझकर वैशाली में जा चढा। सोचा कि सुपर फास्ट है, बाघ से कम से कम एक डेढ़ घंटा पहले पहुँच जायेगी।
जैसा कि हर बार होता है, मेरे पास एक बैग था। बैग में रेलवे का टाइम टेबल व कपडे थे। टाइम टेबल के अन्दर कुछ करारे करारे "बड़े" नोट रखे थे। पचास तक की रेंज जेब में ही थी। बैग को ऊपर रेक पर रख दिया व खुद खिड़की पर खडा हो गया। चौकस था कि कहीं टीटी ना जाये। नहीं तो जेब में से कम से कम सौ रूपये माइनस होने तय थे।
ट्रेन सीवान रुकी। फिर देवरिया रुकी। मैंने देखा कि दो टीटी बराबर वाले डिब्बे में चढ़ रहे हैं। बड़ा खुश हुआ कि मैं बच गया। क्योंकि मैं था जनरल डिब्बे में और जनरल डिब्बे एक दुसरे से इंटर कनेक्ट नहीं होते। अगला स्टोपेज गोरखपुर ही था। ये तो तय लग रहा था कि गोरखपुर तक तो टीटी आएगा नहीं और ट्रेन रुकने से पहले ही मैं उतर जाऊंगा।
किसी ने कंधे पर हाथ रखा और बोला -"टिकट"। पीछे देखा तो फुल्ली ड्रेस धारी टीटी साहब खड़े थे। उन्हें देखते ही जी सूख गया। ये कहाँ से आ टपका? टिकट लिया और ना लिया भी बराबर हो गया। इससे अच्छा तो ना ही लेता। खैर, डरते डरते जेब से निकालकर दे दिया उसे। जैसा कि होना था, वो बोला कि यह तो मेल/एक्सप्रेस का है।
मैंने बचाव करते हुए कहा - "तो क्या?"
"यह ट्रेन सुपर फास्ट है। और तुम्हारे पास एक्सप्रेस का टिकट है।"
"भाई, मैंने तो वहां से ये कहकर माँगा था कि वैशाली एक्सप्रेस का दे दो।"
"तो मुझे क्या? फटाफट निकाल पेनल्टी।"
"कितने?"
"250 रूपये।"
"और कम कर लो।"
"चल सौ रूपये दे दे।" इतनी बात करते करते वो मुझे डिब्बे में अन्दर ले गया। मैंने कहा कि वहां रेक पर मेरा बैग रखा है। उसमे हैं पैसे। तो बोला कि मुझे पागल मत बना। एक मिनट रुक, मैं खिड़की बंद कर दूं। कहीं तू खिड़की से ही ना कूद जाये।
खैर, होते होते वो पचास रूपये में मान गया था।
एक बार पानीपत में भी जुरमाना लगा था।

Comments

  1. लगता है आपको ट्रेन में में बैठे रहने का बड़ा शौक है. नहीं तो कोई अच्छी जगह घूम आते . गया पास ही रहा होगा.

    ReplyDelete
  2. रेल मे सफ़र करने का अलग ही आनंद है,कभी हम भी मज़ा लिया करते थे,अब तो रेल मे सफ़र बंद सा हो गया है। आनंद आ गया।

    ReplyDelete
  3. पचास रुपये में ही छूट गए और सबक सीखा सो अलग...दिलचस्प वर्णन.

    नीरज

    ReplyDelete
  4. हाँ हिंदुस्तान में ट्रेन का सफ़र और बिना टिकट का यात्रा करना उतना ही आनंद दायक होता है | एक बात मुझे समझ में नहीं आयी. शीर्षक में आपने बिहार यात्रा लिखा है | आपके साथ जो वार्त्दात हुआ वो उत्तर प्रदेश में हुआ | जो टी टी चढा वो सिवान में नहीं बल्कि देवरिया में चढा | देवरिया जो है वो उत्तर प्रदेश में पड़ता है | मैं जानता हूँ की आप बिहार का नाम बदनाम करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं लेकिन पहली नज़र में ऐसा ही लगता है |
    खैर देवरिया (उत्तर प्रदेश)में तो टी टी ने ५० लेकर छोर दिया, मुग़ल sarai (उत्तर प्रदेश ) में टी टी सब गरीब मजदूरो को मार मार कर उनके पोक्केट से पैसा निकाल लेते हैं (टिकट रहने के बावजूत)

    ReplyDelete
  5. Ab to aapko 'Bihar yatra' ki jhalak bhi dikhlani hi padegi.

    ReplyDelete
  6. अरर! बात बे-टिकट से बिहार - उत्तरप्रदेश पर उतर रही है।
    असल में यह चरित्र कमोबेश सब जगह पाया जा सकता है - टीटीई का और यात्री का!

    ReplyDelete
  7. अच्छा लगा यात्रा विवरण पढ़कर :-)

    ReplyDelete
  8. पचास रुपये में ही छूट गए

    बधाई हो !!!

    ReplyDelete
  9. अगर टीटी खिड़की बंद ना करता तब क्या पचास रुपये बच जाते?

    ReplyDelete
  10. BHAI TUJKO MANA KIYA THA NA KI KBHI BHI WITHOUT MAT CHALNA OR TERE KO MALOM HAI KI HUM EK BAAR PANIPAT BHI PAKDE GAYE THE

    ReplyDelete
  11. अरे टीटी तो कभी कभी १० रुपये तक में छोड़ देता है

    ReplyDelete
  12. दिलचस्प वर्णन है । मै ने तो सुना है बिहार मे लोग डिब्बों मे न बैठ कर इंजन पर बैठने कि कोशिश करते है ।

    ReplyDelete
  13. नमस्कार...
    परेशानी के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ...
    सम्माननीय दोस्तों को पढ़ने में परेशानी होने की वजह से बड़े फॉण्ट में इस प्रिंट को पुनः प्रकाशित कर रहा हूँ। आशा करता हूँ की यह तरीका सुलभ रहेगा, परेशानी के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ......

    ReplyDelete
  14. अरे हाँ, एक बात तो कहना हो भूल गया था...
    ये टिकिट नहीं लेना आपकी फितरत हैं या फिर शेतानियाँ करने का सिर्फ एक उपाय...
    मान गए यार कि... ये U.P,BIHAR वाले भाई तो बड़े शेतान होते हैं.. लेकिन शिल्पा तो कह रही थी...
    मै आई हूँ U.P,BIHAR लुट कर,

    कैसे लूटा होगा उस बेचारी ने...
    समझ नहीं आ रहा हैं...

    मै भी ना फालतू में ही बक बक किये जा रहा हूँ...

    अबे तुम्हारा यार हूँ...
    नाम:दिलीप कुमार गौड़
    अब लग रहा है कि नाम सुनकर तो तुम मेरी सारी शेतानियाँ माफ़ कर ही दोगे....

    ReplyDelete
  15. भाई हेडिंग लगाया बिहार यात्रा वाली और बिहार में ट्रेन से उतरे भी नहीं...ये कैसी यात्रा थी आपकी. ट्रेन से आने जाने को ही यात्रा कहते है आप. ताज्जुब है.

    ReplyDelete
  16. dear, kafi dilchasp blog hai aap ka but note:
    1- Bihar yatra me chapra tak ja ker lout aye, ye adhura hai,
    2- yatra ker ke us state ki chulture, bhasha and experiance jarur shair karen, becouse, bharat multi cultre and language country hai,,
    only train me jana and aana , nothing
    Riyadh, from Bihar

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब