मई 2008 के पहले सप्ताह में एक लैटर आया। रेलवे सिकंदराबाद की तरफ़ से। कह रहे थे की भाई नीरज, हम 22 जुलाई को जूनियर इंजीनियर की परीक्षा का आयोजन कर रहे हैं, तू भी आ जाएगा तो और चार चाँद लग जायेंगे। मैं ठहरा ठलुवा इंसान। तुंरत ही तैयारी शुरू कर दी। इधर मैंने तो 19 जुलाई का दक्षिण एक्सप्रेस (गाड़ी नंबर 2722) का रिजर्वेशन कराया, उधर बापू ने हैदराबाद में मेरे रहने का इंतजाम भी कर दिया। हमारे पड़ोसी फौजी राजेन्द्र सिंह की तैनाती वही पर थी। वापसी का रिजर्वेशन कराया मैंने आन्ध्र प्रदेश संपर्क क्रांति एक्सप्रेस (गाड़ी नंबर 2707) से 23 जुलाई का। यानी कि मुझे हैदराबाद पहुँचते ही ख़ुद को राजेन्द्र भाई के हवाले कर देना था। आगे का सिरदर्द उन्ही का था।
हाँ तो, तैयार हो जाओ। 1660 किलोमीटर की यात्रा है, 30 घंटे का सफर है। रात को दस बजे दक्षिण एक्सप्रेस हजरत निजामुद्दीन स्टेशन से चलती है। तीसरे दिन सुबह को चार बजे सिकंदराबाद पहुँचती है। जब मैंने रिजर्वेशन कराया था, तो मेरा नाम वेटिंग लिस्ट में था। स्टेशन तक पहुँचते पहुँचते साढे नौ बज गए। प्लेटफोर्म पर जो आरक्षण चार्ट होता है, उस पर मार मुल्क की भीड़। मेरी अक्ल ने सोचा कि चल एक एक डिब्बे पर चिपके हुए आरक्षण चार्ट में देखता हूँ। मैंने पीछे वाले डिब्बे से शुरू कर दिया।
स्लीपर के सारे के सारे डिब्बे निकलते गए, अगले को कहीं अपना नाम नहीं मिला। जब आख़िरी डिब्बा रह गया, लिस्ट में नाम ढूँढने से पहले रोनी सूरत बनाकर भगवान् से रिक्वेस्ट की कि हे भगवान्, ख़ुद तो मौज ले रहे हो, क्यों मेरी यात्रा ख़राब करने पर तुले हो? इतनी लम्बी रेल है। बस, एक सीट दिला दो। और सीट नंबर चार पर नीरज जी विराजमान हो गए। सीट नंबर चार मतलब सबसे नीचे खिड़की के पास वाली सीट। अपनी तो मौज ही मौज हो गई।
डिब्बा नंबर बताऊँ? चलो बता ही देता हूँ। नहीं, पहले गैस करो। एस फॉर? नहीं। एस थ्री? नहीं। एस टू? अरे भाई, नहीं। तो फ़िर पक्का एस वन होगा। अजी नहीं जी। डिब्बा नंबर था एस जीरो। एस जीरो????? ये डिब्बा नंबर तो होता ही नहीं है। असल में रेलवे भर्ती की परीक्षा के मद्देनजर यह एक अतिरिक्त डिब्बा जोड़ा गया था। इसमे ज्यादातर परीक्षा देने वाले यात्री ही थे। मेरे सामने वाली बर्थ पर एक सज्जन थे। उन्हें झाँसी तक जाना था। मेरे ऊपर वाली बर्थ पर भी परीक्षार्थी ही था। वो तो आया, चुपचाप अपनी बर्थ पर गया और सो गया। ना किसी से राम ना रहीम।
निजामुद्दीन से चलकर ट्रेन रुकी फरीदाबाद। मैं अपनी आदत से मजबूर होकर बाहर निकला। देखा की बारिश पड़ रही है। एकदम अन्दर गया, खिड़की का शीशा नीचे गिराया और लम्बी तानकर सो गया। एक जगह शोर शराबा सुनकर आँख खुली। खिड़की से बाहर झाँककर एक चाय वाले से पूछा कि भाई, कौन सा स्टेशन है? बोला कि पाँच रूपये की एक कप। मैं बोला कि भाई, क्यों चाय पिलाकर नींद ख़राब कर रहा है। मैं तो स्टेशन पूछ रहा था। उसने बताया कि आगरा है।
फ़िर तो ऐसी नींद आई कि धौलपुर, मुरैना, ग्वालियर, दतिया कब निकल गए, पता ही नहीं चला। मुझे तो वैसे भी ट्रेन में बड़ी मस्त नींद आती है। जब ट्रेन पूरी स्पीड से चल रही होती है, उस समय ऐसा लगता जैसे किसी झूले में लेटे हो। आ हा हा !!! क्या मजा आता है उस समय। आँख खुली सुबह पाँच बजे झांसी पहुंचकर।
बाहर निकलकर देखा तो पता चला कि रात को अच्छी खासी बारिश हुई है। यहीं से एक अखबार लिया। पूरे अखबार के पेजों पर बारिश का ही वर्णन था। बुंदेलखंड में ज्यादातर जगहों पर बाढ़ आई हुई थी। घरों में पानी ही पानी, खेतों में भी पानी, सड़कों पर भी पानी। बस ये गनीमत थी कि रेलवे लाइन नहीं डूबी। झाँसी से निकलकर केवल दो ही चीजें दिख रही थी। बुंदेलखंड की नंगी बंजर पहाडियां और पानी। चारो तरफ़ हाहाकार। कहीं कहीं तो बाढ़ इतनी भयानक थी कि सामने क्षितिज तक पानी के सिवाय कुछ नहीं दिख रहा था।
चलो अब ट्रेन के अन्दर की बात करते हैं। झाँसी से इस डिब्बे में कई पढाकू लड़के बैठ गए। एक तरफ़ की खिड़की पर तो मेरा कब्जा था, दूसरी खिड़की पर वे बैठ गए। सबसे पहले तो उन्होंने खिड़की को ही बंद किया, फ़िर उस पर एक परदा भी लटका दिया। और शुरू कर दिया पढ़ना। मेरे सामने वाली सीट पर आगरा का एक लड़का आ जमा। उसे भी सिकंदराबाद ही जाना था। मेरी तरह वो भी जाट था। अब हम तो ठहरे बिल्कुल ठेठ बुद्धि। दोनों ने लोअर और टी शर्ट पहनी हुई थी। उसकी लोअर ढीली थी, इसलिए बार बार उसे ऊपर खींचना पड़ता था।
अब हमें ख़ुद तो पढ़ना था नहीं। दोनों ने अडोस पड़ोस के दो तीन लड़कों को बुलाकर वहीं पर महफ़िल जमा दी। मैं पहले ही लिख चुका हूँ कि यह डिब्बा रेलवे भर्ती स्पेशल था। इसमे सभी परीक्षार्थी ही थे। इसके एक तरफ़ तो इंजन लगा था। और दूसरी तरफ़ माल डिब्बा। तो यह डिब्बा बाकी पूरी ट्रेन से अलग थलग था।
हाँ तो, हमने जो महफ़िल जमाई, उसका सिंहासन मेरी ही सीट थी। एक ने कहा कि भाई, तुम घर से जो कुछ भी खाने की चीजें लाये हो, निकाल लो। हमला बोलो और आक्रमण करो वाले स्टाइल में हम टूट पड़े एक दूसरे की चीजों पर। हमारा हुडदंग देखकर उन "पढाकुओं" का मन तो उचटना ही था। उन्होंने हमसे कहा कि भाई, आप लोग परीक्षा देने जा रहे हो, थोड़ा बहुत पढ़ लो और हमें भी पढने दो। लेकिन उन्हें ये नहीं पता था कि मूर्खों को उपदेश देना बहुत महंगा पड़ता है।
अब जो मेरे "चेले" थे, उन्होंने उन्हें डपट दिया कि तुम कहीं के नवाब हो? तभी मैंने भी कटाक्ष सा मारते हुए कहा कि अरे ओये, बालक हैं, पढ़ लेने दो। मैंने अपने पास वाली दोनों खिड़कियाँ बंद कर दी, लाइट का स्विच भी मेरे पास ही था, लाइट भी बंद। देखा कि बगल वाली साइड से उन पर लाइट आ रही है। तो गैलरी में भी उनके दोनों तरफ़ चादरें लटका दी। बिल्कुल अँधेरा। हम सभी चुप हो गए। उनसे कह दिया कि भाई, पढ़ लो। हम तुम्हे डिस्टर्ब नहीं करेंगे। वे बोले कि लाइट तो तुमने बंद कर दी हैं। बीच में ही रोककर मैं बोला कि ओये, मेरे से सिर मत मार। पढ़ ले चुपचाप। फ़िर हम सभी उनकी तरफ़ को मुहं करके बिल्कुल सीधे सरल होकर बैठ गए। वे पढ़ें तो कैसे? थोडी थोडी देर में हममे से कोई भी उन्हें डांट देता था कि पढो।
अब उन पढाकुओं के आगे एक दिक्कत ये भी हो गई। उन्हें पढने का प्रकाश तो हमने बंद कर दिया था, वे क्या करते? चादर ओढी और सो गए या सोने का नाटक करने लगे। ललितपुर पहुंचकर पता चला कि ट्रेन आधे घंटे लेट है। मैं खुश हो गया कि जब अभी आधे घंटे लेट है तो सिकंदराबाद तक तो पहुँचते पहुँचते दो तीन घंटे लेट हो जायेगी। लेकिन चमत्कार, ट्रेन बीना स्टेशन पर अपने निर्धारित समय से पन्द्रह मिनट पहले ही पहुँच गई। तब वहां पर करीब आधे घंटे तक खडी रही।
बीना से चलकर ट्रेन ने भोपाल के लिए रास्ता पकड़ा। हमारे लिए नाश्ता भी बीना के बाद ही आया। अब तक तो हम हमला बोल, लूट खसोट वाली नीति अपना रहे थे। नाश्ते के बाद तो अगले को ऐसा नशा सा चढा कि दो घंटे तक निष्क्रिय हो गया। ट्रेन में सफर का मेरा तो मूलमंत्र है--बेफिक्री। मेरे बैग में एक चादर, दो जोड़ी कपड़े व एक किताब थी। बस। और हाँ, उस किताब में ही मेरा वापसी का टिकट व सौ सौ के कुछ नोट रखे थे। छोटी छोटी चिल्लर तो मेरी जेब में ही थी।
बैग में ताला भी नही लगता हूँ मैं। सोते समय सिर के नीचे रखा और सो गया। आँख खुली तो ट्रेन विदिशा में खड़ी थी। विदिशा यानी मौर्य कालीन नगरी। विदिशा से अगला ही स्टेशन है साँची । हाँ जी, वो ही साँची, स्तूप वाला । एक अच्छी हरी भरी पहाडी की तलहटी में बसा है साँची। इस पहाडी पर ऊपर स्तूप स्थित है। मुझे उस समय तो पता नही था कि स्तूप किस दिशा में है। बाद में विकीपीडिया से देखने से पता चला।
थोडी ही देर में भोपाल भी पहुँच गए। यहाँ से भी मैंने एक अख़बार खरीदा। हेड लाइन थी- "बुंदेलखंड में त्राहि त्राहि।" इस पर चार फोटो भी छपे थे। एक सागर जिले के एक घर का था, उसमे पानी भर गया था। दूसरा चित्र छतरपुर जिले का था। तीसरा चित्र था झाँसी के पास बेतवा नदी का। उफनती नदी का ‘बाढीला’ चित्र। चौथा चित्र जो था, उसे देखकर मन गर्व से भर गया। वह था उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले का। कुछ महिलाएं खेतों में धान की रोपाई कर रही थी। फोटो के नीचे लिखा था-" मुरादाबाद में अच्छी बारिश के बाद धान की रोपाई करती महिलाएं।" कहाँ तो बुंदेलखंड में त्राहि त्राहि और कहाँ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बल्ले बल्ले। यही तो भारतीय मानसून की लीला है।
मैंने विकीमैपिया पर पहले ही देख लिया था कि भोपाल के बाद इटारसी से पहले नर्मदा नदी पार करनी है। इसलिए हबीबगंज पार करते ही अपनी उपस्थिति खिड़की पर लगा दी। यहाँ से शुरू होती हैं सतपुडा की पहाडियां । नर्मदा पार की और हम पहुँच गए उत्तर भारत छोड़कर दक्षिण भारत में। इटारसी पहुंचे। मुंबई-हावडा और दिल्ली- चेन्नई के बीच प्रतिच्छेदन बिन्दु के रूप में है इटारसी ।
इटारसी सतपुडा की पहाडियों में मध्य प्रदेश का एक जंक्शन स्टेशन है। यहाँ से 67 किलोमीटर दूर जबलपुर की तरफ़ पिपरिया स्टेशन पड़ता है, जो कि प्रसिद्द हिल स्टेशन पचमढ़ी के नजदीक है। आप तो पचमढ़ी गए होंगे, मैं नहीं गया अभी तक।
और कुछ बताऊँ इटारसी के बारे में? ये लो... इसकी समुद्र तल से ऊँचाई 329.4 मीटर है। जो हरिद्वार से भी 35 मीटर ज्यादा है। यहाँ से एक लाइन मुंबई को, एक नागपुर को, एक इलाहाबाद को और एक दिल्ली की तरफ़ जाती है। ये चारों की चारों लाइनें ही विद्युतीय हैं और दोहरी भी हैं। दोहरी मतलब आने की अलग और जाने की अलग। मैंने इसके अलावा कोई ऐसा दूसरा स्टेशन नही देखा है, जहाँ पर चार लाइनें मिलती हों और चारों की चारों विद्युतीय हों और हाँ, डबल भी हों। दिल्ली का नाम मत लेना, क्योंकि अम्बाला, आगरा और अलीगढ वाली लाइनें ही ऐसी हैं, रोहतक वाली लाइन शकूर बस्ती से आगे विद्युतीय नहीं है।
चलो हो गई ग्रीन लाइट। इटारसी से चलते हैं। जैसे जैसे आगे बढ़ते हैं, सतपुडा के मनोहारी दृश्य दिखाई देने लगते हैं। समुद्र तल से ऊँचाई भी बढती जाती है। मैंने ये भी सुना है (पक्का विश्वास नहीं है) कि इस रूट पर ट्रेनों में दो दो इंजन लगाये जाते हैं। इस क्षेत्र में खनिजों की तो भरमार है ही। जगह जगह पर खनिज पत्थरों का चुगान भी हो रहा था। रेलवे सुरंगों की तो कोई गिनती ही नहीं है। इधर आमला, जौलखेडा और मुलताई स्टेशन तो समुद्र तल से साढे सात सौ मीटर से भी ज्यादा ऊँचाई पर हैं। हालांकि इसके बाद ऊँचाई कम होनी शुरू हो जाती है। नागपुर पहुँचते पहुँचते ऊँचाई तीन सौ मीटर से भी नीचे पहुँच जाती है।
जब नागपुर से चले तो अँधेरा होने लगा था। सेवाग्राम तक तो बढ़िया वाला अँधेरा कायम हो गया था। पूरे दिन खरदू मचाते मचाते हम भी शांत हो गए थे। अब तो वे "पढाकू" भी अपने को हमारे साथ ढाल चुके थे। बाहर लाइट के बल्बों के अलावा कुछ नहीं दिख रहा था। "पढाकुओं" ने हमसे कहा कि चलो अन्ताक्षरी खेलते हैं। नियम ये बन गया कि दोनों टीमें आपस में सामान्य ज्ञान के प्रश्न पूछेंगी। अंत में जिस टीम के ज्यादा सही उत्तर होंगे, वो विजयी मानी जायेगी।
मेरी टीम में वे थे जिन्हें ठै पै ठप से ज्यादा कुछ नही आता था। हमें पता था कि उनके प्रश्नों का उत्तर हम नहीं दे पाएंगे। अपना स्कोर बनाने का बढ़िया तरीका था कि उनसे बे सिर पैर के प्रश्न पूछे जायें। उन्होंने हमसे पूछा कि मिजोरम की राजधानी बताओ। वे पहले प्रश्न में ही गच्चा खा गए। उन्हें अगर पता होता कि इस टीम में मुसाफिर भी है तो इस प्रश्न को शायद ना पूछते। मैंने बता दिया फटाक से "आइजोल"। सही बताया ना?
इस खेल में किताब खोलने की पूरी छूट थी। लेकिन हमारे मन में ये बात बैठ गई थी कि उन्हें पूरी किताब की जानकारी है। इसलिए हमने किताब नहीं खोली। अब जब हमारा नंबर आया प्रश्न पूछने का तो दिमाग में कोई प्रश्न ही नहीं आया। हम चारों ने दिमाग की खूब खिचडी बना दी, लेकिन नो रिजल्ट। जो भी प्रश्न सोचते, पहले ही ये मान लेते कि उन्हें इसका उत्तर पता होगा। तभी मैंने पूछा-" भाई, न्यू बताओ। 'हम्बै' कुण सी भाषा का शब्द है?"
वे सोचने लगे। तभी हममे से एक ने कहा -" रे भाई, तमनै बेरा ना हो, तो बेशर्मों की ढाल चुपचाप क्यूँ बैठे हो? नाड हला दो अक नी बेरा हमनै।" उन्होने उसे डपट दिया कि हम यूपी के हैं, हमसे अपनी हरियाणा वाली भाषा में बात मत करो। मैने कहा-" रै ओये, तम कहीं के लाट साहब हो? यूपी का मै भी हूँ। तम ही न्यारे नहीं हो।" बोले कि कौन से जिले के हो? मैने बताया -" मेरठ का हूँ। देक्खा कदी?" बोले कि हाँ मेरठ वाले बदमाश होते ही हैं।
कोई सहन कर लेगा इतनी बात? चारों मे से मेरठ का मैं ही था। इसलिये पंगा मुझे ही लेना पडा। मैं बोला-" ओये, मेरठ वाले बदमाश होते ही नहीं हैं। बदमाशी दिखा भी देते हैं। रहण दे, अपणी चोंच नै बन्द ही कर ले, नी तो अभी थारी लंका सी उजड ज्यागी।" खैर वे चुप हो गए। अन्ताक्षरी ख़त्म। इसमे हम जीत गए। हमारे प्रश्न का जवाब तो उन्होंने दिया ही नहीं था।
रात दस बजे बलारशाह से जब ट्रेन चली तो हम सो गए। सुबह साढे चार बजे सिकंदराबाद पहुँचने पर ही आँख खुली। फोन करके मैंने राजेन्द्र भाई को भी बुला लिया। वे आए अपनी फौजी वर्दी में।
"कौन सा स्टेशन है? बोला कि पाँच रूपये की एक कप।"
ReplyDeleteबताने की ज़रूरत ही नहीं थी की आगरा होगा!
अजी फरीदाबाद पर बाहर निकले थे तो अपने भाई की सुसराल ही हो आते चंद कदम ही तो चलना पड़ता बस और मीलाई भी मिल जाती वो अलग। और हाँ दो अनुभव भी याद आ गए जब हम भी किसी रेलवे की परिक्षा में गए थे। मेल करके बताऊँगा। बाद में।
ReplyDeleteइस पोस्ट में झांसी तक, अगली पोस्ट में बीना तक या भोपाल?!
ReplyDeleteइंजन बदली जा रही है
ReplyDeleteमई 2008 के पहले सप्ताह में एक लैटर आया। रेलवे सिकंदराबाद की तरफ़ से। कह रहे थे की भाई नीरज, हम 22 जुलाई को जूनियर इंजीनियर की परीक्षा का आयोजन कर रहे हैं, तू भी आ जाएगा तो और चार चाँद लग जायेंगे।
ReplyDeleteभाई यो तो पक्का सै कि चार चांद तो तन्नै लगा ही दिये होंगे पर उन्होनें शायद इस चांद को कबूल नही किया. वर्ना ये ब्लागीवुड म्ह किस्से कौन सुनाता. लाग्या रह..अगला किस्सा जरा तावला ही लिखियो.
रामराम.
वाकई में मस्त नींद आती है यदि स्लीपर हो तो!!
ReplyDeleteAap ki yatraye to bari achhi rahti hai....
ReplyDeleteaage ka intzaar hai.
yatra vivran achcha hai
ReplyDeletebas likhna jarii rakhiye
पहले पता होता तो आपसे सिकंदराबाद में ही मिल लेता. तब मैं भी वहीँ था.
ReplyDeletebahut khoob
ReplyDeleteaage padhte rahenge
भाई मुसाफिर! थानै यो अपणा नाम घणा जोरदार अर सोच समझ कै राख्या सै.मन्नै तो यो लागै कि थारी जिन्दगी जणों सफर करते करते ही कट रही है
ReplyDeleteबस न्यूं ये लगे रहो.........अर अगला किस्सा जरा तावली लिखियो.
aapne bahut hi sundar likha hai,isi tarah aap likhte rahe,aap kabhi hamare blog par aaiye,aap ka swagat hai,
ReplyDeletehttp://meridrishtise.blogspot.com
aap aarkshan chart par apna naam dhoondhte ho,main ye dhoondhta hoon ki mere naam ke aas paas kaun se naam hai...kuchh ummedo ko dhyaan mein rakh kar
ReplyDeleteये घूम ककड़ी ही तो जिन्दगी मैं अनुभव की तरह आती है...सीखने के मौके देती है सुख-और दुःख से जूझने की हिम्मत भी ...badhai
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