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5 जून 2013
सुबह पाँच बजे बस मंड़ी पहुँची। ज्यादा देर न रुककर फिर चल पड़ी। औट के पास जलोड़ी जोत जाने वाला भोपाल से आने वाला साइकिलिस्ट उतर गया। भुंतर में सारपास वाले उतर गये। सारपास ट्रेक कसोल से शुरू होता है।
जो जाये कुल्लू, बन जाये उल्लू। कंडक्टर ने सभी सवारियाँ उतार दीं। बोला यह बस आगे नहीं जायेगी। दूसरी बस में बैठा दिया। मुझे कोई परेशानी नहीं थी, लेकिन एक बस से साइकिल उतारकर दूसरी बस पर चढ़ाना श्रमसाध्य कार्य था।
आठ बजे मनाली पहुँचे। अच्छी धूप, अच्छा मौसम, सैलानियों की भीड़। साथ ही होटल वालों की भी। बस से उतरा नहीं कि होटल वालों ने घेर लिया।
साइकिल का पहले निरीक्षण किया। फिर सारा सामान बांध दिया। बांधने के लिये पर्याप्त सुतली लाया था। पीछे कैरियर पर ही बांधा - बैग भी, टैंट भी और स्लीपिंग बैग भी। यह बड़ा पेचीदा काम था और किसी आपातकाल में आसानी से खोला भी नहीं जा सकता था। इसका बाद में नुकसान भी उठाना पड़ा।
कपड़े वही पहने रखे, जो दिल्ली से पहनकर आया था, हाफ़ पैंट व टी-शर्ट। मनाली लगभग 2000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। अच्छी धूप निकली होने के कारण ठंड़ का नामोनिशान तक नहीं था।
परसों साइकिल के दोनों धुरों में तेल डाला था। यह तेल बाहर बह गया और डिस्क पर फैल गया। दोनों पहियों में यही हुआ। ब्रेक लगने बंद। किसी तरह डिस्क की सफ़ाई की, तो ब्रेक थोड़े-थोड़े लगने लगे। अभी भी यही हाल था। ब्रेक अच्छी तरह नहीं लग रहे थे। कामचलाऊ थे। हालाँकि आज चढ़ाई भरा रास्ता है, ब्रेक की यदा कदा ही आवश्यकता पड़ेगी, लेकिन कल इसकी सफ़ाई सूक्ष्मता से करनी पड़ेगी क्योंकि कल मैं रोहतांग पार कर लूँगा।
ब्यास पार की और साइकिल यात्रा की विधिवत शुरूआत कर दी। करीब चार किलोमीटर बाद जब भूख बहुत लगने लगी तो चाय आमलेट खाये गये।
9 किलोमीटर दूर पलचान है - बारह बजे पहुँचा यानी तीन किलोमीटर प्रति घंटे की स्पीड़ से। आज इरादा था मढ़ी जाकर रुकने का। मढ़ी मनाली से 34 किलोमीटर दूर है। यानी अगर इसी स्पीड़ से चलता रहा तो ग्यारह घंटे लगेंगे, यानी रात आठ बजे के बाद ही पहुँचूंगा। अंधेरे में मैं चलना पसंद नहीं करता, इसलिय मढ़ी पहुँचना मुश्किल लगने लगा।
तरुण गोयल से बात हुई। वे हिमाचल के विशेषज्ञ हैं। उन्होंने बताया कि मढ़ी में कुछ भी खाने को नहीं मिलेगा। पहले मिल जाता था, लेकिन उच्च न्यायालय के आदेश के बाद अब नहीं मिलता। यह मेरे लिये बुरी ख़बर थी।
पलचान में चाऊमीन खाई। यहाँ गोयल साहब के कथन की पुष्टि हो गयी। लेकिन एक राहत की बात पता चली कि मढ़ी में शाम पाँच बजे तक ही मिलेगा, उसके बाद नहीं। मैं पाँच बजे से पहले किसी भी हालत में मढ़ी नहीं पहुँच सकता था, इसलिये यह राहत वाली बात मेरे किसी काम की नहीं थी।
पलचान से सोलांग जाने वाली सड़क अलग हो जाती है। रोहतांग के साथ-साथ सोलांग भी अत्यधिक भीड़ वाली जगह है। इसी वजह से इस तिराहे पर जाम लग जाता है।
पलचान से चार किलोमीटर आगे कोठी है। दो बजे पहुँचा। अब इतना तो पक्का हो ही गया है कि कोठी से आगे कुछ भी खाने को मिलने वाला नहीं। आलू के दो पराँठे पैक करा लिये। पौने तीन बजे यहाँ से चल पड़ा। आठ बजे तक मढ़ी पहुँचने का पक्का इरादा है।
रोहतांग से गाड़ियों का रेला वापस लौटने लगा। सिंगल सड़क, चढ़ाई, साइकिल की न्यूनतम गति व इस रेले ने परेशान किये रखा। चूँकि सभी गाड़ियाँ नीचे उतर रही थीं, इसलिये गोली की रफ़्तार से चल रही थीं।
कैरियर पर जो सारा सामान बांध दिया था, वो एक तरफ़ झुक गया। एक बार गाड़ियों की वजह से सड़क से नीचे उतरना पड़ गया, नीचे रास्ता बड़ा ऊबड़-खाबड़ था, साइकिल का अगला पहिया ऊपर उठ गया। एक तो पहले से ही रास्ता चढ़ाई वाला था, पिछले पहिये के मुकाबले अगला पहिया कुछ ऊपर था। फिर पिछले पहिये के ऊपर ही सारा सामान, बीस किलो से कम नहीं होगा। अगला पहिया भार-रहित था, ऊपर उठने के लिये पूरी तरह स्वतंत्र। यहाँ सोचा कि आगे रास्ता इससे भी ख़राब मिलने वाला है, तब कैसे होगा? अवश्य कुछ न कुछ करना पड़ेगा। अगले पहिये के ऊपर भी भार डालना पड़ेगा। लेकिन अगले पहिये पर तो मड़गार्ड़ तक नहीं है, सामान बांधना टेढ़ी खीर होगा।
उच्च हिमालय की एक बड़ी बुरी आदत है - दोपहर बाद बादल और शाम तक बारिश। बहुत बुरी आदत है यह, चूकता भी नहीं है कभी। साढ़े चार बजते-बजते बूंदाबांदी होने लगी। ऊपर मुँह उठाकर चारों तरफ़ देखा - काले-काले बादल। यानी भयंकर बारिश होने वाली है।
पाँच बजे तक गुलाबा पहुँच गया। अभी भी मढी 13 किलोमीटर दूर है। ख़राब मौसम को देखते हुए यहीं रुकने का फैसला कर लिया। यहाँ सीमा सड़क संगठन यानी बी.आर.ओ. का पड़ाव है। बी.आर.ओ. वालों से रुकने की बात की, उन्होंने मना कर दिया। टैंट लगाने का इरादा बना तो मूसलाधार बारिश होने लगी। मज़बूरन बी.आर.ओ. वालों के यहीं बारिश बंद होने तक रुके रहना पड़ा। गुलाबा में भी पहले रुकने व खाने-पीने का इंतज़ाम होता था, लेकिन उच्च न्यायालय के आदेश के बाद सब हट गये।
इसी दौरान तीन जने भीगते हुए आये। भले मानुसों ने - बी.आर.ओ. वालों ने - हमारे लिये चाय बना दी। ये लोग मोटरसाइकिलों पर थे और रोहतांग से लौट रहे थे। बारिश होने लगी तो यहाँ सिर बचाने को रुक गये। कम होने पर चले गये। साथ ही मेरी टोपी भी ले गये। मैंने अभी तक हेलमेट नहीं लगाया था, टोपी से ही काम चला रहा था। बूंदाबांदी में सिर बचाने को उन्होंने टोपी लेने की इच्छा ज़ाहिर की, मैंने सहर्ष दे दी। वे हालाँकि मोटरसाइकिलों पर थे, लेकिन एक के पास हेलमेट नहीं था। या फिर शर्म आ रही होगी उसे हेलमेट लगाते हुए।
मैंने बी.आर.ओ. वालों से रुकने के लिये फिर प्रार्थना की - खाने पीने को नहीं माँगूंगा व ओढ़ने-बिछाने को भी नहीं। उन्होंने अपनी मज़बूरी बताते हुए कहा कि हम साहब की आज्ञा के बिना आपको नहीं ठहरा सकते। साहब नीचे गये हैं, पता नहीं कब तक लौटेंगे। तो मुझे मज़दूरों के यहाँ ठहरा दो। वे मज़दूरों की झौंपड़ियों में गये, लेकिन उन्होंने भी मना कर दिया। ज्यादातर मज़दूर झारखंड़ी थे, मेरे हिमालय के होते तो मना नहीं करते।
अब टैंट लगाने के सिवा कोई चारा नहीं था। बारिश बंद होने पर कुछ ऊपर जाकर टैंट लगा भी दिया। टैंट लगा ही रहा था कि जंगल में से एक मज़दूर मेरे पास आया। उसने रोंगटे खड़े कर देने वाली सूचना दी - उधर जंगल में मत जाना। वहाँ जंगली कुत्ते हैं। कल वे एक बच्चे को खा रहे थे। किसके बच्चे को? पता नहीं। पहले तो हम सोचते थे कि बच्चे को भालू उठाकर ले गया होगा, लेकिन यह तो जंगली कुत्तों का काम निकला।
बच्चे के प्रति सहानुभूति तो जगी ही, लेकिन उससे भी ज्यादा जंगली कुत्तों व भालुओं का डर लगने लगा।
अंधेरा हो गया। नीचे आदमियों के बोलने की आवाजें भी मद्धम होने लगीं, उधर मेरा भी डर बढता रहा। तभी टैंट के बाहर बराबर में कुछ सरसराने की आवाज़ हुई। पक्के तौर पर यह कोई जानवर ही था। कुछ देर बाद उसने टैंट को सूंघा व शरीर भी रगड़ा। उसकी साँसें भी मुझे सुनायी दे रही थीं। मैं इतना डर गया कि काटो तो खून नहीं। यह भालू है और थोड़ी देर में टैंट को फाड़ देगा। बाहर झाँककर देखने की तो हिम्मत ही ख़त्म।
कुछ देर बाद पत्थर पर किसी चीज के टकराने की आवाज आयी। आधा डर तुरंत दूर हो गया। यह अपनी जानी पहचानी आवाज थी - खुर की आवाज। भालू के पंजे होते हैं, इसलिये वे ऐसी आवाज नहीं कर सकते। हिम्मत करके टैंट की चेन खोली। सिर बाहर निकाला। कुछ दूर कोई खड़ा था। टॉर्च की रोशनी मारी तो सारा डर खत्म। पाँच गायें थीं। इसके बाद तो उन्होंने टैंट के खूब चक्कर काटे। घास चरी, बाहर पड़ी साइकिल पर भी चढ़ीं। कोई डर नहीं लगा, इत्मीनान से सोया।
आज 21 किलोमीटर साइकिल चलाई। आज साइकिल चलाकर मैंने एक गलती भी की। आज ही दिल्ली से आया था। और आज ही साइकिल भी उठा ली। एक दिन मनाली में रुकना चाहिये था। शरीर आबोहवा के अनुकूल हो जाता।
सुबह पाँच बजे बस मंड़ी पहुँची। ज्यादा देर न रुककर फिर चल पड़ी। औट के पास जलोड़ी जोत जाने वाला भोपाल से आने वाला साइकिलिस्ट उतर गया। भुंतर में सारपास वाले उतर गये। सारपास ट्रेक कसोल से शुरू होता है।
जो जाये कुल्लू, बन जाये उल्लू। कंडक्टर ने सभी सवारियाँ उतार दीं। बोला यह बस आगे नहीं जायेगी। दूसरी बस में बैठा दिया। मुझे कोई परेशानी नहीं थी, लेकिन एक बस से साइकिल उतारकर दूसरी बस पर चढ़ाना श्रमसाध्य कार्य था।
आठ बजे मनाली पहुँचे। अच्छी धूप, अच्छा मौसम, सैलानियों की भीड़। साथ ही होटल वालों की भी। बस से उतरा नहीं कि होटल वालों ने घेर लिया।
साइकिल का पहले निरीक्षण किया। फिर सारा सामान बांध दिया। बांधने के लिये पर्याप्त सुतली लाया था। पीछे कैरियर पर ही बांधा - बैग भी, टैंट भी और स्लीपिंग बैग भी। यह बड़ा पेचीदा काम था और किसी आपातकाल में आसानी से खोला भी नहीं जा सकता था। इसका बाद में नुकसान भी उठाना पड़ा।
कपड़े वही पहने रखे, जो दिल्ली से पहनकर आया था, हाफ़ पैंट व टी-शर्ट। मनाली लगभग 2000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। अच्छी धूप निकली होने के कारण ठंड़ का नामोनिशान तक नहीं था।
परसों साइकिल के दोनों धुरों में तेल डाला था। यह तेल बाहर बह गया और डिस्क पर फैल गया। दोनों पहियों में यही हुआ। ब्रेक लगने बंद। किसी तरह डिस्क की सफ़ाई की, तो ब्रेक थोड़े-थोड़े लगने लगे। अभी भी यही हाल था। ब्रेक अच्छी तरह नहीं लग रहे थे। कामचलाऊ थे। हालाँकि आज चढ़ाई भरा रास्ता है, ब्रेक की यदा कदा ही आवश्यकता पड़ेगी, लेकिन कल इसकी सफ़ाई सूक्ष्मता से करनी पड़ेगी क्योंकि कल मैं रोहतांग पार कर लूँगा।
ब्यास पार की और साइकिल यात्रा की विधिवत शुरूआत कर दी। करीब चार किलोमीटर बाद जब भूख बहुत लगने लगी तो चाय आमलेट खाये गये।
9 किलोमीटर दूर पलचान है - बारह बजे पहुँचा यानी तीन किलोमीटर प्रति घंटे की स्पीड़ से। आज इरादा था मढ़ी जाकर रुकने का। मढ़ी मनाली से 34 किलोमीटर दूर है। यानी अगर इसी स्पीड़ से चलता रहा तो ग्यारह घंटे लगेंगे, यानी रात आठ बजे के बाद ही पहुँचूंगा। अंधेरे में मैं चलना पसंद नहीं करता, इसलिय मढ़ी पहुँचना मुश्किल लगने लगा।
तरुण गोयल से बात हुई। वे हिमाचल के विशेषज्ञ हैं। उन्होंने बताया कि मढ़ी में कुछ भी खाने को नहीं मिलेगा। पहले मिल जाता था, लेकिन उच्च न्यायालय के आदेश के बाद अब नहीं मिलता। यह मेरे लिये बुरी ख़बर थी।
पलचान में चाऊमीन खाई। यहाँ गोयल साहब के कथन की पुष्टि हो गयी। लेकिन एक राहत की बात पता चली कि मढ़ी में शाम पाँच बजे तक ही मिलेगा, उसके बाद नहीं। मैं पाँच बजे से पहले किसी भी हालत में मढ़ी नहीं पहुँच सकता था, इसलिये यह राहत वाली बात मेरे किसी काम की नहीं थी।
पलचान से सोलांग जाने वाली सड़क अलग हो जाती है। रोहतांग के साथ-साथ सोलांग भी अत्यधिक भीड़ वाली जगह है। इसी वजह से इस तिराहे पर जाम लग जाता है।
पलचान से चार किलोमीटर आगे कोठी है। दो बजे पहुँचा। अब इतना तो पक्का हो ही गया है कि कोठी से आगे कुछ भी खाने को मिलने वाला नहीं। आलू के दो पराँठे पैक करा लिये। पौने तीन बजे यहाँ से चल पड़ा। आठ बजे तक मढ़ी पहुँचने का पक्का इरादा है।
रोहतांग से गाड़ियों का रेला वापस लौटने लगा। सिंगल सड़क, चढ़ाई, साइकिल की न्यूनतम गति व इस रेले ने परेशान किये रखा। चूँकि सभी गाड़ियाँ नीचे उतर रही थीं, इसलिये गोली की रफ़्तार से चल रही थीं।
कैरियर पर जो सारा सामान बांध दिया था, वो एक तरफ़ झुक गया। एक बार गाड़ियों की वजह से सड़क से नीचे उतरना पड़ गया, नीचे रास्ता बड़ा ऊबड़-खाबड़ था, साइकिल का अगला पहिया ऊपर उठ गया। एक तो पहले से ही रास्ता चढ़ाई वाला था, पिछले पहिये के मुकाबले अगला पहिया कुछ ऊपर था। फिर पिछले पहिये के ऊपर ही सारा सामान, बीस किलो से कम नहीं होगा। अगला पहिया भार-रहित था, ऊपर उठने के लिये पूरी तरह स्वतंत्र। यहाँ सोचा कि आगे रास्ता इससे भी ख़राब मिलने वाला है, तब कैसे होगा? अवश्य कुछ न कुछ करना पड़ेगा। अगले पहिये के ऊपर भी भार डालना पड़ेगा। लेकिन अगले पहिये पर तो मड़गार्ड़ तक नहीं है, सामान बांधना टेढ़ी खीर होगा।
उच्च हिमालय की एक बड़ी बुरी आदत है - दोपहर बाद बादल और शाम तक बारिश। बहुत बुरी आदत है यह, चूकता भी नहीं है कभी। साढ़े चार बजते-बजते बूंदाबांदी होने लगी। ऊपर मुँह उठाकर चारों तरफ़ देखा - काले-काले बादल। यानी भयंकर बारिश होने वाली है।
पाँच बजे तक गुलाबा पहुँच गया। अभी भी मढी 13 किलोमीटर दूर है। ख़राब मौसम को देखते हुए यहीं रुकने का फैसला कर लिया। यहाँ सीमा सड़क संगठन यानी बी.आर.ओ. का पड़ाव है। बी.आर.ओ. वालों से रुकने की बात की, उन्होंने मना कर दिया। टैंट लगाने का इरादा बना तो मूसलाधार बारिश होने लगी। मज़बूरन बी.आर.ओ. वालों के यहीं बारिश बंद होने तक रुके रहना पड़ा। गुलाबा में भी पहले रुकने व खाने-पीने का इंतज़ाम होता था, लेकिन उच्च न्यायालय के आदेश के बाद सब हट गये।
इसी दौरान तीन जने भीगते हुए आये। भले मानुसों ने - बी.आर.ओ. वालों ने - हमारे लिये चाय बना दी। ये लोग मोटरसाइकिलों पर थे और रोहतांग से लौट रहे थे। बारिश होने लगी तो यहाँ सिर बचाने को रुक गये। कम होने पर चले गये। साथ ही मेरी टोपी भी ले गये। मैंने अभी तक हेलमेट नहीं लगाया था, टोपी से ही काम चला रहा था। बूंदाबांदी में सिर बचाने को उन्होंने टोपी लेने की इच्छा ज़ाहिर की, मैंने सहर्ष दे दी। वे हालाँकि मोटरसाइकिलों पर थे, लेकिन एक के पास हेलमेट नहीं था। या फिर शर्म आ रही होगी उसे हेलमेट लगाते हुए।
मैंने बी.आर.ओ. वालों से रुकने के लिये फिर प्रार्थना की - खाने पीने को नहीं माँगूंगा व ओढ़ने-बिछाने को भी नहीं। उन्होंने अपनी मज़बूरी बताते हुए कहा कि हम साहब की आज्ञा के बिना आपको नहीं ठहरा सकते। साहब नीचे गये हैं, पता नहीं कब तक लौटेंगे। तो मुझे मज़दूरों के यहाँ ठहरा दो। वे मज़दूरों की झौंपड़ियों में गये, लेकिन उन्होंने भी मना कर दिया। ज्यादातर मज़दूर झारखंड़ी थे, मेरे हिमालय के होते तो मना नहीं करते।
अब टैंट लगाने के सिवा कोई चारा नहीं था। बारिश बंद होने पर कुछ ऊपर जाकर टैंट लगा भी दिया। टैंट लगा ही रहा था कि जंगल में से एक मज़दूर मेरे पास आया। उसने रोंगटे खड़े कर देने वाली सूचना दी - उधर जंगल में मत जाना। वहाँ जंगली कुत्ते हैं। कल वे एक बच्चे को खा रहे थे। किसके बच्चे को? पता नहीं। पहले तो हम सोचते थे कि बच्चे को भालू उठाकर ले गया होगा, लेकिन यह तो जंगली कुत्तों का काम निकला।
बच्चे के प्रति सहानुभूति तो जगी ही, लेकिन उससे भी ज्यादा जंगली कुत्तों व भालुओं का डर लगने लगा।
अंधेरा हो गया। नीचे आदमियों के बोलने की आवाजें भी मद्धम होने लगीं, उधर मेरा भी डर बढता रहा। तभी टैंट के बाहर बराबर में कुछ सरसराने की आवाज़ हुई। पक्के तौर पर यह कोई जानवर ही था। कुछ देर बाद उसने टैंट को सूंघा व शरीर भी रगड़ा। उसकी साँसें भी मुझे सुनायी दे रही थीं। मैं इतना डर गया कि काटो तो खून नहीं। यह भालू है और थोड़ी देर में टैंट को फाड़ देगा। बाहर झाँककर देखने की तो हिम्मत ही ख़त्म।
कुछ देर बाद पत्थर पर किसी चीज के टकराने की आवाज आयी। आधा डर तुरंत दूर हो गया। यह अपनी जानी पहचानी आवाज थी - खुर की आवाज। भालू के पंजे होते हैं, इसलिये वे ऐसी आवाज नहीं कर सकते। हिम्मत करके टैंट की चेन खोली। सिर बाहर निकाला। कुछ दूर कोई खड़ा था। टॉर्च की रोशनी मारी तो सारा डर खत्म। पाँच गायें थीं। इसके बाद तो उन्होंने टैंट के खूब चक्कर काटे। घास चरी, बाहर पड़ी साइकिल पर भी चढ़ीं। कोई डर नहीं लगा, इत्मीनान से सोया।
आज 21 किलोमीटर साइकिल चलाई। आज साइकिल चलाकर मैंने एक गलती भी की। आज ही दिल्ली से आया था। और आज ही साइकिल भी उठा ली। एक दिन मनाली में रुकना चाहिये था। शरीर आबोहवा के अनुकूल हो जाता।
मनाली में यह दृश्य आम है। |
मनाली से दूरियां |
मनाली से एक किलोमीटर आगे |
अपने सफर के साथी |
ओहो! पलट गई। पहले फोटो खींचेंगे, बाद में सीधा करेंगे। |
सोलांग मोड पर लगा जाम |
और सोलांग मोड पर पडी अपनी साइकिल |
रोहतांग की ओर |
कोठी |
बीआरओ के ये नारे बडे कीमती हैं। |
हेलमेट आवश्यक है- चाहे साइकिल हो या कोई और दुपहिया वाहन- चाहे पुलिस वाला हो या न हो। जिन्दगी तो अपनी ही है। |
गुलाबा में अपना टैण्ट |
...
इस यात्रा के अनुभवों पर आधारित मेरी एक किताब प्रकाशित हुई है - ‘पैडल पैडल’। आपको इस यात्रा का संपूर्ण और रोचक वृत्तांत इस किताब में ही पढ़ने को मिलेगा।
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अगला भाग: लद्दाख साइकिल यात्रा- तीसरा दिन- गुलाबा से मढी
मनाली-लेह-श्रीनगर साइकिल यात्रा
1. साइकिल यात्रा का आगाज
2. लद्दाख साइकिल यात्रा- पहला दिन- दिल्ली से प्रस्थान
3. लद्दाख साइकिल यात्रा- दूसरा दिन- मनाली से गुलाबा
4. लद्दाख साइकिल यात्रा- तीसरा दिन- गुलाबा से मढी
5. लद्दाख साइकिल यात्रा- चौथा दिन- मढी से गोंदला
6. लद्दाख साइकिल यात्रा- पांचवां दिन- गोंदला से गेमूर
7. लद्दाख साइकिल यात्रा- छठा दिन- गेमूर से जिंगजिंगबार
8. लद्दाख साइकिल यात्रा- सातवां दिन- जिंगजिंगबार से सरचू
9. लद्दाख साइकिल यात्रा- आठवां दिन- सरचू से नकीला
10. लद्दाख साइकिल यात्रा- नौवां दिन- नकीला से व्हिस्की नाला
11. लद्दाख साइकिल यात्रा- दसवां दिन- व्हिस्की नाले से पांग
12. लद्दाख साइकिल यात्रा- ग्यारहवां दिन- पांग से शो-कार मोड
13. शो-कार (Tso Kar) झील
14. लद्दाख साइकिल यात्रा- बारहवां दिन- शो-कार मोड से तंगलंगला
15. लद्दाख साइकिल यात्रा- तेरहवां दिन- तंगलंगला से उप्शी
16. लद्दाख साइकिल यात्रा- चौदहवां दिन- उप्शी से लेह
17. लद्दाख साइकिल यात्रा- पन्द्रहवां दिन- लेह से ससपोल
18. लद्दाख साइकिल यात्रा- सोलहवां दिन- ससपोल से फोतूला
19. लद्दाख साइकिल यात्रा- सत्रहवां दिन- फोतूला से मुलबेक
20. लद्दाख साइकिल यात्रा- अठारहवां दिन- मुलबेक से शम्शा
21. लद्दाख साइकिल यात्रा- उन्नीसवां दिन- शम्शा से मटायन
22. लद्दाख साइकिल यात्रा- बीसवां दिन- मटायन से श्रीनगर
23. लद्दाख साइकिल यात्रा- इक्कीसवां दिन- श्रीनगर से दिल्ली
24. लद्दाख साइकिल यात्रा के तकनीकी पहलू
बहुत खूब, मनाली और आसपास के क्षेत्र को आपने बहुत खूबसूरती से दिखाया हैं...धन्यवाद, राम राम...
ReplyDeleteकहीं बाहर जाने के लिये वाहन और ठहरना ही मुख्य होता है, आपकी व्यवस्था देख कर बहुत ही अच्छा लगा..काश इतनी सुविधाभोगी भ्रमण न किये होते हमने।
ReplyDeletePehle se itmanan se sab photu dekhlu baad me pura lekh padhunga
ReplyDeleteमीठी ईर्ष्या हो रही है यह देख कर.
ReplyDeleteयात्रा तुमने की , परेशानी, कठिनाई उठा के .........मज़ा हमें आ रहा है।
ReplyDeleteबहुत ख़ूब!
ReplyDeleteआओ!
Bahut Badhiya Neeraj, yaatra vratant bahut achha hai aur photo bhi mast aaye hai...
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर फ़ोटो और बेहतरीन यात्रा वृतांत, मनाली, कोठी और रोहतांग में बिताया समय याद आ गया, बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
superlike
ReplyDeletekhoobsurat varnan . behtrin chitr . upar se bycycle ki sawari .kya baat he.
ReplyDeletejaat ram ko namshkaar.bahut badhiya yatra vratant.manali ek achi jagh hai ghante batho raho vyash nadhi ke pass.abh yatra rochak ho rahi hai.bahloo ka darr yahe bhi lag gya aapko.nice photos
ReplyDeleteAapka Tent aur aaspaas ka sundar vatavaran dekhkar rashk ho raha hai. Bahut khoob.
ReplyDeleteThanks.
बहुत अच्छा लगता है आपकी रोमांचक यात्रा को पढ़कर मेरा भी मन करता है आपके साथ यात्रा करने को
ReplyDeleteINCREDIBLE HIMACHAL... I LOVE IT
ReplyDeleteyarta lekhe padkar achha laga.sabhi pic bhi achhi hai.
ReplyDeleteबड़ी हिम्मत की तुमने जाट महाराज !! फ़िर आगे के पहिये पर लोड कैसे डाला ये भी तो बताओ.. ? और सुप्रीम कोर्ट ने खाने पर रोक क्यों लगाई, ये और बताओ..
ReplyDeleteJaldi Jaldi likho bhai maja Aa raha hai. VERY NICE
ReplyDeleteagli kist ka besabri se intezar
ReplyDeleteयात्रा वृत्तांत पढ़कर आफिस से भागने का मन कर रहा है, लेकिन प्राइवेट नौकरी होने से कही भी नही जा पाता हूँ। प्राइवेट नौकरी ऐसी जैसे किसी ने खूँटे में बाँध दिया गया हो।
ReplyDeleteपढ़ना बहुत अच्छा लगता है ,लेकिन कैसी-कैसी खतरनाक स्थितियों में फँस जाते हैं इस साइकिल यात्रा में!
ReplyDeleteJat Ram chaa gaye tum...
ReplyDeleteजित्ता ग़ज़ब और रोचक यात्रा वृतांत उत्ती ग़ज़ब और कमाल की फोटो ...तेरा जवाब नहीं रे जाट ...जियो .
ReplyDeleteनीरज
इस जज्बे को सलाम- सुशील
ReplyDeleteइस पोस्ट में आपकी फोटो न होने की वजेह से कुछ खाली खली लग रहा ..
ReplyDeleteyatra vivran thik hai par kuch jaldi -2 post kar do yatra neeraj ji or aapka friend jatdevta sandeep pawar kha chala gaya hai
ReplyDeleteवाह! लगता है आप ही एक है जो ज़िन्दगी का पूरा-पूरा मज़ा उठा रहे है .... इन जगहों पर हमें ले जाने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद्
ReplyDeleteबेहतरीन चित्र
ReplyDeleteशानदार वृतांत
मढी में अदालती रोक का कारण?
yatra ka dusra din mst chal raha hai ...manali dekh kar dil khush ho gaya ...
ReplyDelete