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लद्दाख साइकिल यात्रा के तकनीकी पहलू

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अभी पिछले दिनों लद्दाख साइकिल यात्रा का पूरा वृत्तान्त प्रकाशित हुआ। इसमें 19 दिन साइकिल चलाई और कुल 952 किलोमीटर की दूरी तय की। सच कहूं तो जिस समय मैं साइकिल खरीद रहा था, उस समय दिमाग में बस यही था कि इससे लद्दाख जाना है। मैं शारीरिक रूप से कमजोर और सुस्त इंसान हूं लेकिन मानसिक रूप से पूर्ण स्वस्थ।
साइकिल खरीदते ही सबसे पहले गया नीलकण्ठ महादेव। ऋषिकेश से नीलकण्ठ तक सडक मार्ग से चढाई ज्यादा नहीं है, फिर भी जान निकाल दी इसने। इससे पहली बार एहसास हुआ कि बेटा, लद्दाख उतना आसान नहीं होने वाला। यहां एक हजार मीटर पर साइकिल नहीं चढाई जा रही, वहां पांच हजार मीटर भी पार करना पडेगा। वापस आकर निराशा में डूब गया कि पन्द्रह हजार की साइकिल बेकार चली जायेगी।
एक योजना बनानी आवश्यक थी। दूसरों के यात्रा वृत्तान्त पढे, दूरी और समय के हिसाब से गणनाएं की। लेकिन वो गणना किस काम की, जहां अनुभव न हो। साइकिल यात्रा का पहला अनुभव मिट्टी में मिल गया। यह किसी काम नहीं आया। भला 600-700 मीटर की ऊंचाई पर साइकिल चलाना 4000-5000 मीटर पर चलाने की बराबरी कर सकता है? कभी नहीं।
उसके बाद राजस्थान ले गया साइकिल को। ढाई सौ किलोमीटर चलाई। लेकिन घर लौटा तो फिर से वही बात सामने आई। जयपुर से पुष्कर और वापसी में कहीं भी पहाड नहीं हैं। सीधी चकाचक सडक। लेकिन यहां एक अनुभव मिला कि लम्बी दूरी की साइकिल यात्रा में पिछवाडे की खैर नहीं।
सर्दी आ गई। पहाडों के सभी ऊंचे रास्ते बन्द हो गये लेकिन लद्दाख जाने की चाहत कम नहीं हुई। उन्हीं दिनों सांपला जाना पडा। दिल्ली से करीब पचास किलोमीटर है। वापस भी साइकिल से आया। दो चक्कर मेरठ के भी लगाये। हर बार साइकिल उठाने से पहले जबरदस्त उत्साह रहता, लेकिन तीस चालीस किलोमीटर चलते ही मन में आता कि कहीं फेंक दूं साइकिल। चलने से पहले लद्दाख दिखाई देता, लेकिन तीस चालीस किलोमीटर के बाद भाड में जाये लद्दाख।
इतनी यात्राओं ने एक अनुभव और दिया। वो यह कि अब लम्बी दूरी पर साइकिल नहीं चलानी है। जब साइकिल नहीं चलाता तो एक हसरत सी रहती कि ले चल इसे कहीं दूर, लेकिन जब ले चलता तो फेंक देने का मन करने लगता। सोच लिया कि बेटा, अगर लद्दाख जाना है तो किसी भी हालत में लम्बी दूरी पर मत चला। जिस दिन भी लम्बी दूरी पर चला ली, उसी दिन लद्दाख की हसरत मिट जायेगी। इस नियम का कडाई से पालन किया।
इसका सीधा यही नुकसान हुआ कि अभ्यास नहीं हो पाया। कोई बात नहीं। नीरज, तूने अभी तक जितनी भी साहसिक यात्राएं की हैं, सभी बिना अभ्यास के की हैं। मत कर अभ्यास। होने दे रोज हसरतों को इकट्ठा। ये एक दिन विस्फोट के साथ बाहर निकलेंगी और दुनिया देखेगी तुझे लद्दाख वाली सडक पर।
मार्च में मन में आया कि कुछ तो अभ्यास होना ही चाहिये। दुनिया की सबसे ऊंची सडक पर तुझे जाना है। जाने से पहले थोडा बहुत अभ्यास कर ले। हिमाचल में करसोग की योजना बना ली। छुट्टी भी ले ली। लेकिन ऐन समय पर सदबुद्धि आ गई। नहीं, अभ्यास बिल्कुल नहीं। थकान तो होगी ही। लेकिन अगर उम्मीद से ज्यादा थकान हो गई तो लद्दाख फिर भाड में चला जायेगा।
इसी दौरान विपिन गौड साहब ने भी साथ चलने की इच्छा जाहिर की। मैंने साफ मना कर दिया कि साइकिल को हाथ भी नहीं लगाऊंगा। क्यों? क्योंकि मेरे बसकी ना है। ब्लॉग पर, डायरी में खूब जोर शोर से लिखा कि मुझमें हिम्मत नहीं है, मुझमें ताकत नहीं है साइकिल को पहाडों पर ले जाने की। इस तरह की बात जितना ज्यादा लिखता, जितना ज्यादा पढता, उतना ही ज्यादा अन्दर कुलबुलाहट होती। बेटा, दुनिया के सामने कमजोर बना रह, मरियल बना रह। जिस दिन ये लोग तुझे ‘वहां’ देखेंगे, उस दिन का आनन्द ही निराला होगा।
जिस दिन पहली बार सूचना सार्वजनिक की कि साइकिल से लद्दाख जाना है, तो चारों तरफ से वाहवाही मिलने लगी। लेकिन जिस एक तरफ से वाहवाही मिलने की सबसे ज्यादा आवश्यकता थी, वहां से धिक्कारा गया मुझे। निराश करने की कोशिश की गई। सन्दीप पंवार साहब जो मोटरसाइकिल से वहां जा चुके हैं, जिनका परम कर्तव्य था मुझे मार्गदर्शन देना, मुझे रास्ते के बारे में, कठिनाईयों के बारे में समझाना; उन्होंने धिक्कारा कि इस उम्र में आकर साइकिल चलायेगा तू? साइकिल तो बच्चे चलाते हैं। मेरी जान-पहचान में दो ही ऐसे व्यक्ति हैं जो मोटरसाइकिल से लद्दाख जा चुके हों। सन्दीप साहब भी उनमें से एक हैं। लेकिन इससे और ज्यादा उत्साह पैदा हो गया।
आखिरकार ओखली में सिर डाल दिया गया। कहावत तो यह है कि ओखली में सिर डाला तो मूसल से क्या डरना? लेकिन जब सिर डालते ही मूसल पर मूसल पडने लगें, तो क्या करोगे? रोज लद्दाख को भाड में पहुंचाता। रोहतांग पार हो गया, केलांग पार हो गया, बारालाचा पार हो गया, सब धीरे धीरे पीछे छूटते चले गये लेकिन एक दिन भी ऐसा नहीं आया जब लद्दाख भाड में न गया हो। सामने से दिल्ली की बस आती दिखती, ट्रक आते दिखते तो तीव्र इच्छा होती कि डाल दूं साइकिल इसमें। कभी कभी मन में आता कि फेंक दूं साइकिल को किसी खाई में। ना रहेगा बांस, ना बजेगी बांसुरी।
लेकिन अब महसूस हो रहा है कि मैंने क्या हासिल कर लिया। अब एक विजेता का सा एहसास हो रहा है। लद्दाख चला गया मैं साइकिल से? पांच हजार मीटर ऊंचे रास्तों को लांघते हुए। उस ऊंचाई पर मैं साइकिल के साथ था जहां अच्छा खासा इंसान ऑक्सीजन सिलेण्डर मांगने लगता है। जहां हवाओं और इंसान के बीच जंग चलती रहती है। जहां धूप में बैठो तो जल जाओगे, छांव में बैठो तो जल जाओगे- धूप से और पाले से। जहां खतरनाक नाले हैं, जिनकी आवाज ही सारे मनोबल को धराशायी कर देने के लिये काफी है। दुनिया के इस सबसे ऊंचे और सबसे ठण्डे मरुस्थल में हवाएं बडी जानलेवा हैं। कहा तो यह जाता है कि यहां पसीना नहीं आता। लेकिन उन्हें क्या पता कि पसीना तो आता है लेकिन हवाएं इतनी प्यासी हैं कि शरीर के अन्दर से भी नमी को खींच निकालती हैं।
यह सब किसी डरावनी फिल्म की तरह लगता है लेकिन मुझे गर्व है कि मैं ऐसे रास्ते पर साइकिल से गया था। मैं लद्दाख साइकिल से गया था। हां।
कुछ मित्रों की जिज्ञासा है साइकिल के बारे में जानने की। मेरे पास जो भी मॉडल है, यह कोई मायने नहीं रखता। इसमें जो जो सुविधाएं हैं, वे मायने रखती हैं। सबसे मुख्य बात कि यह एल्यूमिनियम की बनी है। एल्यूमिनियम हल्का होता है लेकिन स्टील के मुकाबले महंगा भी है। अगर कोई साइकिल दस हजार से ऊपर की है तो समझिये कि वह एल्यूमिनियम की होगी। वैसे अब कार्बन फाइबर की भी साइकिलें आने लगीं हैं, जो एल्यूमिनियम से हल्का है लेकिन महंगा भी है। रिम भी एल्यूमिनियम के ही हैं। वैसे तो गियर वाली साइकिलें पांच साढे पांच हजार से शुरू हो जाती हैं, लेकिन वे निःसन्देह स्टील की होती हैं। यानी भारी। साइकिल अगर शहर में चलानी है या रोज की दिनचर्या में चलानी है तो स्टील बुरा नहीं है। गियर के गियर और सस्ती भी। लेकिन लद्दाख में जितनी हल्की हो, उतना अच्छा।
दूसरी चीज है इसमें गियर। 7x3 का गियर अनुपात है यानी इसमें 21 गियर हैं। सात गियर पीछे और तीन गियर आगे। कुछ साइकिलों में 18 गियर होते हैं यानी 6x3का अनुपात। अगर दैनिक कार्य के लिये साइकिल चाहिये तो गियर की कोई आवश्यकता ही नहीं है। पहाडों के लिये गियर उपयोगी हैं। जब पहली बार गियर वाली साइकिल लेते हैं तो यह खराब भी जल्दी हो जाती है। इसका कारण है कि गियरों के साथ अनावश्यक छेडछाड होती है। जैसे कि खडी हुई साइकिल के गियर बदलना। ऐसा करने से गियर तो नहीं बदले जा सकते लेकिन गियर शिफ्टिंग मशीन पर अनावश्यक दबाव पडता है, वह गुस्सा भी हो जाया करती है। हमेशा चलती साइकिल में ही गियर बदलने चाहिये। मैंने अपने आसपास के सभी लोगों को स्पष्ट चेतावनी दे रखी है कि अगर साइकिल चलाने का मन है तो मुझसे चाभी ले लो और खूब चलाओ। लेकिन कभी भी खडी साइकिल में उंगली मत करना। यही कारण है कि अभी तक गियर में कोई समस्या नहीं आई।
इसमें डिस्क ब्रेक हैं- दोनों पहियों में। दो तरह के ब्रेक होते हैं- एक डिस्क दूसरे पावर ब्रेक। आम साइकिलों में पावर ब्रेक होते हैं। कहा जाता है कि पहाडों के लिये डिस्क ब्रेक ज्यादा उपयोगी हैं। लेकिन मुझे नहीं लगता कि पावर ब्रेक कम उपयोगी हैं। एक तो पावर ब्रेक की मरम्मत करना बहुत आसान है। फिर डिस्क ब्रेक साइकिल की कीमत बढा देते हैं। दूसरी कमी है डिस्क ब्रेक की कि अगर इसमें कोई खराबी आ गई तो इसे ठीक करना आसान नहीं है। ब्रेक अगर घिस जायें तो उन्हें बदलना आसान नहीं। किसी भी साइकिल की क्षमता तभी आंकी जाती है, जब वह खराब हो जाये। मुझे भी इस डिस्क ब्रेक ने लद्दाख जाने से पहले तक बहुत परेशान किये रखा। कई महीनों तक साइकिल मात्र अगले ब्रेक पर ही चलाई। पिछले पहिये के खराब डिस्क ब्रेक ने कई मिस्त्रियों को फेल कर दिया। लेकिन आखिरकार मेरा मैकेनिकल इंजीनियर होना काम आया। लद्दाख जाने से पहले ब्रेक ठीक हो गये, गनीमत रही।
एक और खूबी है तुरन्त अलग किये जा सकने वाले पहिये। एक्सल के एक तरफ एक लीवर है जिसे मामूली सा घुमाने पर पहिया आसानी से निकाला जा सकता है। यह सुविधा इस साइकिल में दोनों पहियों में है। पंचर होने की दशा में यह तकनीक बडी कारगर है।
शॉकर केवल अगले पहिये में है। अगला पहिया साइकिल को गाइड करता है, इसलिये इसमें शॉकर होना ठीक ही है। पिछले में शॉकर न भी हो, तो कोई बात नहीं। और शहरों में, दैनिक कामों के लिये तो कभी भी शॉकर की आवश्यकता नहीं होती। साधारण साइकिल में शॉकर नहीं होते। शॉकर का फायदा केवल ऊबड खाबड रास्तों पर ही है। शॉकर का एक नुकसान और भी है। यह साइकिल की स्पीड को कम कर देता है। हम बल ज्यादा लगाते हैं, हमें स्पीड कम मिलती है। हालांकि ऐसा कुछ भी महसूस नहीं होता लेकिन यह बात तब मायने रखती है जब आप साइकिल दौड में हिस्सा ले रहे हों।
साइकिल में कुछ परिवर्तन भी करने पडे। सबसे पहले कैरियर लगाना पडा। इसमें पहले से कैरियर नहीं लगा था। जिस दुकान से साइकिल ली, उसी से कैरियर लगाने को कहा। सबसे पहले दिक्कत आई कि एक्सल पर्याप्त लम्बा नहीं था। इस पर एक तरफ गियर शिफ्टिंग मशीन लगी है और दूसरी तरफ डिस्क ब्रेक। इनकी वजह से एक्सल बिल्कुल भी अतिरिक्त बाहर नहीं निकला था। इसे हटाकर लम्बा एक्सल लगाया गया लेकिन वह भी पर्याप्त नहीं था। किसी तरह जोर-जबरदस्ती करके कैरियर लगा तो दिया लेकिन वह डिस्क ब्रेक से छेडछाड करने लगा। डिस्क ब्रेक समस्या करने लगा।
लद्दाख जाने के लिये न तो कैरियर हटा सकता था, न ही डिस्क ब्रेक। इसलिये दोनों की सुविधाओं का ध्यान रखा। देसी जुगाड करके कैरियर भी लगा दिया और डिस्क भी छेडछाड से आजाद हो गया। ऐसा करने से कैरियर सामान्य से पांच छह इंच ऊपर हो गया। इस पर सामान रखने से साइकिल का गुरुत्व केन्द्र भी सामान्य से ऊपर पहुंच गया। इसका नुकसान यह हुआ कि साइकिल सामान्य से कहीं अधिक असन्तुलित हो गई। इसके अलावा कोई अन्य विकल्प भी नहीं था।
साइकिल से दोस्ती करनी भी आवश्यक थी। इसे खोलना जोडना सीख लिया। पंचर भी लगाना सीखा। कई बार अभ्यास के लिये नकली पंचर भी लगाया। पिछले पहिये की रिमूवेबल एक्सल हटाकर उसकी जगह दूसरी लम्बी एक्सल लगाई थी, फिर इसमें पूरा गियर सिस्टम भी लगा था, इसलिये इसे खोलना व पुनः जोडना टेढा काम था। फिर भी मैं पिछले पहिये को निकालकर, पंचर लगाकर पुनः जोडने का काम पन्द्रह मिनट में करने में सफल हो गया। अगले पहिये को देखना तो दस मिनट का काम था। पंचर लगाने का पूरा सामान था अपने पास। हालांकि रास्ते में कहीं भी ऐसा करने की नौबत नहीं आई।
पिछले पहिये पर सर्वाधिक वजन रहता है। इस वजह से इसकी ट्यूब व टायर दोनों को बदला और नये लगाये। अगले पहिये को पुराना ही रहने दिया। जब पंचर लगाना आ गया तो टायर-ट्यूब बदलना भी आ गया। पुरानी ट्यूब को एहतियात के तौर पर अपने साथ ले लिया। हालांकि उसकी भी आवश्यकता नहीं पडी।
इस यात्रा में दिल्ली से दिल्ली तक कुल 11000 रुपये का खर्च आया। कहने को तो यह साइकिल यात्रा थी। सोचते होंगे कि फ्री में हो जानी चाहिये। लेकिन शारीरिक श्रम करने के बाद सामान्य से ज्यादा भोजन भी चाहिये। फिर मैं कोल्ड ड्रिंक व आमलेट भी लिया करता था। लद्दाख में खाना महंगा है। दूसरी बात कि मैं टैण्ट लेकर गया था लेकिन इसका प्रयोग केवल वहीं किया जहां कमरे की सुविधा नहीं हो सकती थी। स्लीपिंग बैग में घुसकर और रजाई में घुसकर सोने में जमीन आसमान का फरक है। स्लीपिंग बैग में अच्छी नींद नहीं आती। फिर दिल्ली से मनाली और श्रीनगर से दिल्ली की यात्रा बस से करने में तीन साढे तीन हजार तक का खर्च आ गया।
बहुत ज्यादा खर्च हो गये ना?
और हां, जाने से पहले मेरा वजन खाली पेट मात्र चड्ढी पहने 73 किलो था, वापस आने पर इन्हीं परिस्थितियों में 67 किलो मिला। यानी छह किलो वजन कम हो गया। पेट बाहर निकलने लगा था, अब लेवल में है।
बाकी कोई और जिज्ञासा हो, टिप्पणी सुविधा चालू है।

यही थी वो साइकिल

कैरियर लगाने का जुगाड

कैरियर लगाने का जुगाड। इसका नुकसान हुआ कि कैरियर सामान्य से ऊंचा हो गया।


यह है अगले पहिये का रिमूवेबल एक्सल

लीवर घुमाओ, हल्का सा जोर लगाओ और...

... पहिया बाहर





यह है गियर शिफ्टिंग मशीन

पिछले पहिये में सात गियर हैं। अभी चेन छठें गियर पर लगी है।

आगे तीन गियर हैं।

पिछला पहिया


गियर शिफ्ट करने का कण्ट्रोल





...
इस यात्रा के अनुभवों पर आधारित मेरी एक किताब प्रकाशित हुई है - ‘पैडल पैडल’। आपको इस यात्रा का संपूर्ण और रोचक वृत्तांत इस किताब में ही पढ़ने को मिलेगा।
आप अमेजन से इसे खरीद सकते हैं।



मनाली-लेह-श्रीनगर साइकिल यात्रा
1. साइकिल यात्रा का आगाज
2. लद्दाख साइकिल यात्रा- पहला दिन- दिल्ली से प्रस्थान
3. लद्दाख साइकिल यात्रा- दूसरा दिन- मनाली से गुलाबा
4. लद्दाख साइकिल यात्रा- तीसरा दिन- गुलाबा से मढी
5. लद्दाख साइकिल यात्रा- चौथा दिन- मढी से गोंदला
6. लद्दाख साइकिल यात्रा- पांचवां दिन- गोंदला से गेमूर
7. लद्दाख साइकिल यात्रा- छठा दिन- गेमूर से जिंगजिंगबार
8. लद्दाख साइकिल यात्रा- सातवां दिन- जिंगजिंगबार से सरचू
9. लद्दाख साइकिल यात्रा- आठवां दिन- सरचू से नकी-ला
10. लद्दाख साइकिल यात्रा- नौवां दिन- नकी-ला से व्हिस्की नाला
11. लद्दाख साइकिल यात्रा- दसवां दिन- व्हिस्की नाले से पांग
12. लद्दाख साइकिल यात्रा- ग्यारहवां दिन- पांग से शो-कार मोड
13. शो-कार (Tso Kar) झील
14. लद्दाख साइकिल यात्रा- बारहवां दिन- शो-कार मोड से तंगलंगला
15. लद्दाख साइकिल यात्रा- तेरहवां दिन- तंगलंगला से उप्शी
16. लद्दाख साइकिल यात्रा- चौदहवां दिन- उप्शी से लेह
17. लद्दाख साइकिल यात्रा- पन्द्रहवां दिन- लेह से ससपोल
18. लद्दाख साइकिल यात्रा- सोलहवां दिन- ससपोल से फोतूला
19. लद्दाख साइकिल यात्रा- सत्रहवां दिन- फोतूला से मुलबेक
20. लद्दाख साइकिल यात्रा- अठारहवां दिन- मुलबेक से शम्शा
21. लद्दाख साइकिल यात्रा- उन्नीसवां दिन- शम्शा से मटायन
22. लद्दाख साइकिल यात्रा- बीसवां दिन- मटायन से श्रीनगर
23. लद्दाख साइकिल यात्रा- इक्कीसवां दिन- श्रीनगर से दिल्ली
24. लद्दाख साइकिल यात्रा के तकनीकी पहलू




Comments

  1. Thankyou neerajbhai comment box on kiya . Mejab aapke ghar aaya tha or aap bole ki cycle chalani he to chalao mene na bola iska afasos aaj ho raha he .super hero kon?????????????????????????????????????????????
    ????????????????????or kon AAP .

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  2. साइकील का आपना अलग मजा होता है

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  3. Gear wali cycle se fayada kya hota hai?

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    1. जाहिर है आपने पूरा यात्रा वृत्तान्त नहीं पढा।

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  4. नीरज भाई...
    वह कहते हैं ना सुनो सबकी पर करो अपनी...
    लद्दाख यात्रा वैसे भी साहसिक काम है और ऊपर से साइकिल पर और बिना किसी सपोर्ट के अपने बलबूते...
    ऐसे यह यात्रा आपकी ८०००/- की है, बहुत कम खर्छुये हैं...
    एक बार फिर बधाई...

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  5. thnx neeraj bhai for u open comment box.

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  6. वाह नीरज भाई । आखिर लद्दाख़ फतह कर ही लिया। बड़े साइकिलबाज आते हैं लेकिन ज्यादातर फिरंगी
    आपने सिद्ध कर दिया की भारतीय भी साहसिक शौक रखते हैं। लद्दाख की सफल यात्रा पर बधाई। अनुभवों
    के लिए सादर आभार।

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  7. chal na paye jo mere jese kamjor irado wale .... rah kagaj pe chalne ki banate rahe .. or jane wale irado ki badolat himmat ke sahare cycle se bhi ja aye . bahut sundar varnan

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  8. राम राम जी, सम्पूर्ण भारत में कुछ ही लोग होंगे जो ऐसी हिम्मत रखते है, आप भी उनमे से एक हैं. हम आपको सलाम करते हैं...बढ़ते रहो....वन्देमातरम...

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  9. में और मेरी साईकिल। एक सुंदर वर्णन , चित्र। आपको कभी कम नहीं आँका।
    केदारनाथ जी की यात्रा के बाद लगातार ब्लॉग देखा जाता है। घूमतें रहे , लिखते रहें।
    पढते रहें। …। 25-50 वाले जीवन का भी ख्याल करें।

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  10. भाई कुछ लोगों को आपकी साइकिल यात्रा से ईर्ष्या हुई थी लेकिन इस लेख को पढने के बाद उन्हें ये अवश्य महसूस होगा की कोई भी काम साधारण नहीं होता ... व्यक्ति का समर्पण उस सामान्य काम को भी असाधारण बना देता है.... मोटरसाइकिल चलाने और साइकिल चलाने में बहुत फर्क है... छोटे छोटे टाबर दिन में 200 - 300 किमी मोटरसाइकिल चला लेते हैं लेकिन 20 किमी साइकिल चलाने की नौबत आये तो हाथ पाँव ढीले छोड़ देते हैं... kudos to you...

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  11. वाह, अभी हल्की साइकिलों पर शोध चल रहा है, आपके अनुभवीय पक्ष निसंदेह सबके काम आयेंगे।

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  12. बहुत ही उपयोगी जानकारियाँ।
    नीरज भाई, इस बीच मैं भी लदाख हो आया। लेकिन वायु मार्ग में वो रोमांच नहीं था जैसा की आपकी साइकल यात्रा में रहा, फिर भी लदाख तो जन्नत है। मैंने अपने छाया-चित्र myladakhtour.blogspot.in पर डालें हैं।
    - Anilkv

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  13. प्रणाम ही कर सकता हूं आपको

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  14. This comment has been removed by the author.

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  15. नीरज भाई साईकिल पर तो आपने पीएचडी ही कर ली आखिर इंजिनियर होने का फायदा मिला कुछ ही दिनों में आपको
    डिस्कवरी चैनल वाले ढून्ढ ही लेंगे अगला प्रोग्राम क्या है साउथ का टूर कर लो

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  16. Kudos to you dear Neeraj!
    Reading your blog gives feeling that the reader is also riding with you all the way. Your writing style is superb.Just keep on going to all the places.

    An idea clicked in my mind when watching your cycle photos. You can solve the height problem of your cycle carrier. Just cut the required length of the main rod at the bottom of the carrier near the axle and get it wielded again.I think this job can be done at any road side wielding shop.

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    Replies
    1. सुनील साहब, आपका आइडिया तो अच्छा है। असल में मैंने भी सोचा था कि वेल्डिंग करा लूं। लेकिन इन साइकिलों को जितना फ्लेक्सिबल रखो, उतना ही अच्छा। पता नहीं कब क्या खोलना और क्या बांधना पड जाये, इसकी गुंजाइश हमेशा रहनी चाहिये। आप यकीन नहीं करोगे। मैंने पूरी साइकिल खोलकर एक बोरे में बांध दी थी, मात्र यह देखने के लिये कि ट्रेन में ले जाई जा सकती है या नहीं। सफल रहा और अब इसे ट्रेन में ले जाने के लिये लगेज में बुक कराने की आवश्यकता नहीं है। खोलो और सीट के नीचे रख लो।

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    2. सुनील का सुझाव अच्‍छा है वो कैरियर को साइकल से वेल्‍ड करना का परामश्र नहीं दे रहे वरन कैरियर की रॉड जो नीचे कसी गई है उसे छोटी कर लेने की राय रख रहे हैं। मुझे लगता है इससे सेंटर आफ ग्रेविटी की दिक्‍कत का हल भी होगा व सुविधा भी बढ़ेगी जबकि पैसा भी बहुत कम ही लगेगा।

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  17. Niraj jee aapki sahsik yatra ko namn,laddkh yatra pdhker bahut hi asim prerna mili.jin paristhitiyo me aap kam kharche me nidrtapurwak "Basudhiw kutubkam" ki soch ke sath yatra aapne puri ki usse aane wale samy me bahut se ghumakkro ke der ke gath ko aapne khol diya hai.aapki lekho ko pdhker maine khud kai yatrae safltapurwak puri ki hai.

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  18. Niraj jee aapki sahsik yatra ko namn,laddkh yatra pdhker bahut hi asim prerna mili.jin paristhitiyo me aap kam kharche me nidrtapurwak "Basudhiw kutubkam" ki soch ke sath yatra aapne puri ki usse aane wale samy me bahut se ghumakkro ke der ke gath ko aapne khol diya hai.aapki lekho ko pdhker maine khud kai yatrae safltapurwak puri ki hai.

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  19. साइकिल चाइना यानि चीन की FORMAT brand ब्रांड की ave 66 model है . http://formatbike.cn/cn/product/product-87.html वेबसाइट में साइकिल की 4.1 mb की फोटो भी देख सकते हैं . वेबसाइट चाइनीज भाषा में है .

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  20. FORMAT brand ब्रांड साइकिलों की english website http://www.formatbike.com/about/ है .

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  21. "मैं कोल्ड ड्रिंक व आमलेट भी लिया करता था।"
    क्या शाकाहारी ऐसी यात्रा नहीं कर सकता .सन्दीप पंवार साहब जी शाकाहारी हैं . इसलिए आपकी उनसे तुलना गलत है . हिम्मत है तो शाकाहारी बनकर ऐसी यात्रा करकर दिखाओ.

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  22. शाकाहारी जाट देवता के दैविक बल की और एक मांसाहारी के पाशविक-आसुरिक बल की कोई तुलना हो ही नहीं सकती. जाट देवता भोले हैं , उन्हें अण्डों के बल का क्या ज्ञान ? यही इस साइकिल यात्रा का मूल तकनीकी पहलू है .

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  23. शाकाहारी सन्दीप पंवार साहब जी जिन्हें उनके दोस्त यार प्यार से "जाट देवता" कहते हैं, उस "जाट देवता" के दैविक बल की और एक मांसाहारी नीरज के पाशविक-आसुरिक बल की कोई तुलना हो ही नहीं सकती. सन्दीप पंवार साहब जी "जाट देवता" भोले हैं , उन्हें अण्डों के बल का क्या ज्ञान ? यही इस साइकिल यात्रा का मूल तकनीकी पहलू है .सन्दीप पंवार साहब जी "जाट देवता" की बराबरी के लिए आपको सौ जन्म और लेनें होंगे .

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  24. neeraj bhai,

    aap ka aalekh pad kar aanand aa gaya,badhai .

    lalitya lalit
    editor,nbt india

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  25. नीरज जी,
    आपको वहुत वधाई. आपके व्लाग पढ़े. काफी अच्छा लगा. आपके अनुभव नये साहसिक साइकिल सवारो के बहुत काम आयेगी.
    मैने आपकी किताब 'पैडल पैडल' पढ़ी. लेकिन किताब में वही वाते है जो आपके web-site में उपलब्ध है. किताब का खरीदना लाभकारी नही रहा, उपर से किताब के पृष्ट औसत दर्जे के है. फोटो व्लैक- ह्वाइट है लेकिन बहुत ही सामान्य लगते हैं. आशा है आपकी आने वाली किताबें वेहतर होगी.
    आप सही मायने में एक साहसिक ब्यक्ति है. बच्चों के लिए आप प्रेरणा श्रोत है.
    Keep it up. Best wishes!

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एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब