दृश्य एक: ‘‘हेलो, यू आर फ्रॉम?” “दिल्ली।” “व्हेयर आर यू गोइंग?” “लद्दाख।” “ओ माई गॉड़! बाइ साइकिल?”
“मैं बहुत अच्छी हिंदी बोल सकता हूँ। अगर आप भी हिंदी में बोल सकते हैं तो मुझसे हिन्दी में बात कीजिये। अगर आप हिंदी नहीं बोल सकते तो क्षमा कीजिये, मैं आपकी भाषा नहीं समझ सकता।”
यह रोहतांग घूमने जा रहे कुछ आश्चर्यचकित पर्यटकों से बातचीत का अंश है।
दृश्य दो: “भाई, रुकना जरा। हमें बड़े जोर की प्यास लगी है। यहाँ बर्फ़ तो बहुत है, लेकिन पानी नहीं है। अपनी परेशानी तो देखी जाये लेकिन बच्चों की परेशानी नहीं देखी जाती। तुम्हारे पास अगर पानी हो तो प्लीज़ दे दो। बस, एक-एक घूँट ही पीयेंगे।” “हाँ, मेरे पास एक बोतल पानी है। आप पूरी बोतल खाली कर दो। एक घूँट का कोई चक्कर नहीं है। आगे मुझे नीचे ही उतरना है, बहुत पानी मिलेगा रास्ते में। दस मिनट बाद ही दोबारा भर लूँगा।”
यह रोहतांग पर बर्फ़ में मस्ती कर रहे एक बड़े-से परिवार से बातचीत के अंश हैं।
दृश्य तीन: “भाई, यहाँ इस गाँव में कोई कमरा मिल जायेगा क्या रात रुकने को?” “हाँ जी, हमारे ही यहाँ है, लेकिन टॉयलेट के लिये बाहर जाना पड़ेगा।” “कितने का है?” “आप पहले देख लो। पसंद आ जाये तो पैसे भी बता देंगे।” “नहीं, देखना नहीं है। कमरा है तो रुकना है। चाहे जितने का हो। फिर भी आप पैसे बता दो।” “पचास रुपये। लेकिन आप दूर से आये हैं, हम आपको उतनी अच्छी सुविधा तो नहीं दे पायेंगे। यहाँ से कुछ आगे जिस्पा है, जहाँ आपको हर तरह की सुविधा से युक्त कमरे आसानी से मिल जायेंगे।” “नहीं, आगे नहीं जाऊँगा। मेरी तरफ़ से फ़ाइनल है, चाहे जैसा भी कमरा हो।”
यह गेमूर गाँव में रात साढ़े आठ बजे हुई बातचीत के अंश हैं।
दृश्य चार: “हेलो, सर, पासपोर्ट प्लीज़।” “भाई, देसी हूँ। म्हारा पासपोरट ना हुआ करता।”
यह दारचा में चेकपोस्ट पर हुई बातचीत का अंश है।
दृश्य पाँच: “भाई, यहाँ खाने-वाने का इंतज़ाम कहाँ है?” “यहाँ नहीं है। बल्कि यहाँ से छह किलोमीटर और आगे है।” “हे भगवान! जिंगजिंगबार तो यही है। फिर यह धोखा क्यों? मेरी पिछले छह किलोमीटर से हालत ख़राब हुई पड़ी है। किसी तरह पैदल चलकर साइकिल को धकेलकर ला रहा हूँ कि जिंगजिंगबार में पहले आराम करूँगा, फिर चाय पीऊँगा, फिर ये खाऊँगा, फिर वो खाऊँगा। अब फिर छह किलोमीटर?” “कोई बात नहीं, हमारा ट्रक वहीं जा रहा है। साइकिल इसी पर रख दो।” “ठीक है। रखो भाई, तुम्हीं रखो। मुझमें इतनी भी ताकत नहीं बची कि साइकिल ऊपर रख सकूँ।” “कोई बात नहीं, चलो हम ही रख देते हैं।”
यह जिंगजिंगबार में बी.आर.ओ. के मज़दूरों से हुई बातचीत के अंश हैं।
दृश्य छह: “यार, आज दूसरा दर्रा पार किया है और इस बारालाचा ने तो जान निकाल दी। सोच रहा हूँ दिल्ली वाली बस पकड़ लूँ।” “नहीं, ऐसा कभी मत करना। ऐसी यात्राएँ हमेशा नहीं की जा सकतीं और हर कोई नहीं कर सकता। जब आप सफ़लतापूर्वक यात्रा पूरी कर लोगे तो आपके पास छाती चौड़ी करके यार-दोस्तों को सुनाने के लिये ऐसे-ऐसे अनुभव हो जायेंगे, जिन पर वे आसानी से यक़ीन नहीं कर सकेंगे।”
यह भरतपुर में एक दुकानदार से हुई बातचीत के अंश हैं।
दृश्य सात: “भाई जी, आप हमारे घर जाना। हमारा घर चोगलमसर में है। आप दिल्ली में अफ़सर हो, बच्चे आपसे मिलकर बड़े खुश होंगे। मेरा नाम सेन्दुप सेरिंग है और घर का फोन नंबर यह है। आप उनसे बस इतना बता देना कि सेरिंग से मिला था।”
यह व्हिस्की नाले पर एक लद्दाखी दुकानदार से बातचीत के अंश हैं।
दृश्य आठ: “अरे भाई, आज रात यहीं रुक जाऊँ क्या?” “हाँ हाँ, रुक जाओ। मेरे स्लीपिंग बैग में सो जाना। बड़ा बैग है, दोनों आ जायेंगे।” “धन्यवाद भाई, मेरे पास स्लीपिंग बैग है। बस, जरा सी जगह चाहिये।” ...“तुम बड़े गधे हो। ऐसे बर्फ़ीले तूफान में तुम्हें आज निकलना ही नहीं चाहिये था।” “हाँ, ठीक कह रहे हो। लेकिन आज ही तंगलंग-ला पार करने की धुन थी, इसलिये निकल पड़ा और अब पछता रहा हूँ।”
यह तंगलंग-ला के पास तंबुओं में घुसे पड़े बी.आर.ओ. के झारखंड़ी मज़दूरों से बातचीत के अंश हैं।
दृश्य नौ: “भैया, खाना यहीं आपके कमरे में लाऊँ या अंदर चलकर खाओगे?” “यहीं ले आओ।” “नहीं भैया, मुझे काफ़ी सामान लाना पड़ेगा, आप अन्दर ही चलो, कोई समस्या नहीं है।”
यह ससपोल में एक गेस्ट हाउस में उनकी लड़की से बातचीत के अंश हैं।
दृश्य दस: “रुको भाई रुको। कहाँ से आये हो?” “मनाली से आया हूँ और अब श्रीनगर जा रहा हूँ।” “अरे बाप रे! हमारा प्रणाम स्वीकार करो। हमारी मोटरसाइकिलों पर ही हालत ख़राब हुई जा रही है और तुम साइकिल से इन पहाड़ों को पार कर रहे हो।” “अभी तो आपकी हालत बहुत अच्छी है। लेह से आगे निकलोगे, तब होगा असली हालात से सामना।”
यह फोतू-ला पार करके मिले कुछ मोटरसाइकिल वालों से बातचीत के अंश हैं।
दृश्य ग्यारह: “रुको भैया। आप कहाँ जा रहे हो?” “श्रीनगर।” “अब रात होने वाली है, कहाँ रुकोगे। चलो, हमारे घर चलो।” “तुम्हारे घर? कितनी दूर है?” “बस, वो थोड़ा-सा ऊपर।” कितने पैसे लोगे?” “ही ही ही, पैसे नहीं लेंगे।” “घर में कौन-कौन हैं?” “माँ-बाप और छोटे भाई बहन।” “माँ-बाप तुम्हें डांटेंगे तो नहीं।” “नहीं, बिल्कुल नहीं।” “यार बहुत ऊपर है तुम्हारा घर। रास्ता भी पगडंड़ी वाला है।” “कोई बात नहीं, साइकिल से बैग खोलो, मैं कंधे पर लटका लूँगा और साइकिल को धक्का मारेंगे, ऊपर चली जायेगी।” “चल, ठीक है।”
यह शम्शा में शाम सात बजे एक बच्चे अहमद से हुई बातचीत के अंश हैं।
दृश्य बारह: “कहाँ जाओगे?” “श्रीनगर।” “यार अभी बहुत चढ़ाई है। जोजीला बहुत दूर है। थक जाओगे।” “हाँ, लेकिन यह आख़िरी दर्रा है। मैंने मनाली से अभी तक सात दर्रे पार कर लिये हैं। इसे भी पार कर लूँगा।” “ह्म्म्म, ठीक है, तुम आगे चलो। पीछे-पीछे मैं ट्रक लेकर आ रहा हूँ। तुम्हें बैठाकर आज ही सोनमर्ग छोड़ दूँगा।”
यह रास्ते में एक ढाबे पर एक ट्रक वाले से हुई बातचीत के अंश हैं।
दृश्य तेरह: “सर, रुको रुको। आज हमारे गाँव में ही रुकना। आपके पास टैंट तो है ही, हम इसे अपने खेत में लगवाने में पूरी सहायता करेंगे।”
यह मटायन में कुछ बच्चों से हुई बातचीत के अंश हैं।
...
ये थे इस साइकिल यात्रा के कुछ छोटे-छोटे, लेकिन यादगार दृश्य। ऐसे न जाने कितने वाकयों से पाला पड़ा। कुदरत ने तो अच्छा साथ दिया ही, मनुष्यों ने भी साथ देने में कोई कसर नहीं छोडी। मनुष्य चाहे स्थानीय हों या बाहर से आने वाले घुमक्कड़ व पर्यटक।
साइकिल यात्रा वैसे तो कभी भी आसान नहीं होती, लेकिन दुनिया की सबसे ऊँची और ख़तरनाक सड़कों में से एक मनाली-लेह सड़क पर तो यह और भी चुनौती भरा काम है। चढ़ते रहो, चढ़ते रहो, बस चढ़ते ही रहो। साँस फूले, दम घुटे, हवा लगे, ठंड़ लगे, कुछ भी हो, एक ही काम होता है, चढ़ना। वैसे तो एक दर्रा पार करने के बाद नीचे भी उतरना होता है, लेकिन जितना तीन दिनों में जी-जान लगाकर चढ़ते हैं, उससे भी ज्यादा एक ही दिन में बिना जान लगाये उतर भी जाते हैं। तीन दिनों तक पसीना बहाने के बाद जब एक दिन की उतराई दिखती है तो कोई खुशी नहीं होती क्योंकि उसके बाद फिर तीन दिनों का पसीना तैयार खड़ा है। पाँच दर्रे हैं इस सड़क पर।
सबसे शानदार बात रही कि साइकिल ने पूरा साथ दिया, एक बार भी पंचर नहीं हुआ। बेचारी को अच्छी सड़क से लेकर महा-बेकार सड़क पर भी चलना पड़ा, नाले पार करने पड़े, कीचड़ में भी गयी, बर्फ़ का भी सामना किया, लेकिन कभी भी कोई समस्या प्रदर्शित नहीं की। अपनी यात्रा के इस एकमात्र साथी को शत-शत नमन।
टैंट व स्लीपिंग बैग को भी नमन। वैसे तो दिनभर साइकिल चलाने के बाद इतना थक जाता था कि शाम को टैंट लगाने का विचार तक नहीं आता था। जहाँ भी रुकने का इंतजाम मिला, पैसे देकर रुका। यथासम्भव टैंट लगाने से बचता रहा। लेकिन पाँच बार ऐसी परिस्थितियाँ बनीं कि टैंट लगाना पड़ा। टैंट की कीमत तो वसूल हो ही गयी, लेकिन पता भी चल गया कि इस यात्रा के लिये टैंट व स्लीपिंग बैग कितने कीमती हैं।
“मैं बहुत अच्छी हिंदी बोल सकता हूँ। अगर आप भी हिंदी में बोल सकते हैं तो मुझसे हिन्दी में बात कीजिये। अगर आप हिंदी नहीं बोल सकते तो क्षमा कीजिये, मैं आपकी भाषा नहीं समझ सकता।”
यह रोहतांग घूमने जा रहे कुछ आश्चर्यचकित पर्यटकों से बातचीत का अंश है।
दृश्य दो: “भाई, रुकना जरा। हमें बड़े जोर की प्यास लगी है। यहाँ बर्फ़ तो बहुत है, लेकिन पानी नहीं है। अपनी परेशानी तो देखी जाये लेकिन बच्चों की परेशानी नहीं देखी जाती। तुम्हारे पास अगर पानी हो तो प्लीज़ दे दो। बस, एक-एक घूँट ही पीयेंगे।” “हाँ, मेरे पास एक बोतल पानी है। आप पूरी बोतल खाली कर दो। एक घूँट का कोई चक्कर नहीं है। आगे मुझे नीचे ही उतरना है, बहुत पानी मिलेगा रास्ते में। दस मिनट बाद ही दोबारा भर लूँगा।”
यह रोहतांग पर बर्फ़ में मस्ती कर रहे एक बड़े-से परिवार से बातचीत के अंश हैं।
दृश्य तीन: “भाई, यहाँ इस गाँव में कोई कमरा मिल जायेगा क्या रात रुकने को?” “हाँ जी, हमारे ही यहाँ है, लेकिन टॉयलेट के लिये बाहर जाना पड़ेगा।” “कितने का है?” “आप पहले देख लो। पसंद आ जाये तो पैसे भी बता देंगे।” “नहीं, देखना नहीं है। कमरा है तो रुकना है। चाहे जितने का हो। फिर भी आप पैसे बता दो।” “पचास रुपये। लेकिन आप दूर से आये हैं, हम आपको उतनी अच्छी सुविधा तो नहीं दे पायेंगे। यहाँ से कुछ आगे जिस्पा है, जहाँ आपको हर तरह की सुविधा से युक्त कमरे आसानी से मिल जायेंगे।” “नहीं, आगे नहीं जाऊँगा। मेरी तरफ़ से फ़ाइनल है, चाहे जैसा भी कमरा हो।”
यह गेमूर गाँव में रात साढ़े आठ बजे हुई बातचीत के अंश हैं।
दृश्य चार: “हेलो, सर, पासपोर्ट प्लीज़।” “भाई, देसी हूँ। म्हारा पासपोरट ना हुआ करता।”
यह दारचा में चेकपोस्ट पर हुई बातचीत का अंश है।
दृश्य पाँच: “भाई, यहाँ खाने-वाने का इंतज़ाम कहाँ है?” “यहाँ नहीं है। बल्कि यहाँ से छह किलोमीटर और आगे है।” “हे भगवान! जिंगजिंगबार तो यही है। फिर यह धोखा क्यों? मेरी पिछले छह किलोमीटर से हालत ख़राब हुई पड़ी है। किसी तरह पैदल चलकर साइकिल को धकेलकर ला रहा हूँ कि जिंगजिंगबार में पहले आराम करूँगा, फिर चाय पीऊँगा, फिर ये खाऊँगा, फिर वो खाऊँगा। अब फिर छह किलोमीटर?” “कोई बात नहीं, हमारा ट्रक वहीं जा रहा है। साइकिल इसी पर रख दो।” “ठीक है। रखो भाई, तुम्हीं रखो। मुझमें इतनी भी ताकत नहीं बची कि साइकिल ऊपर रख सकूँ।” “कोई बात नहीं, चलो हम ही रख देते हैं।”
यह जिंगजिंगबार में बी.आर.ओ. के मज़दूरों से हुई बातचीत के अंश हैं।
दृश्य छह: “यार, आज दूसरा दर्रा पार किया है और इस बारालाचा ने तो जान निकाल दी। सोच रहा हूँ दिल्ली वाली बस पकड़ लूँ।” “नहीं, ऐसा कभी मत करना। ऐसी यात्राएँ हमेशा नहीं की जा सकतीं और हर कोई नहीं कर सकता। जब आप सफ़लतापूर्वक यात्रा पूरी कर लोगे तो आपके पास छाती चौड़ी करके यार-दोस्तों को सुनाने के लिये ऐसे-ऐसे अनुभव हो जायेंगे, जिन पर वे आसानी से यक़ीन नहीं कर सकेंगे।”
यह भरतपुर में एक दुकानदार से हुई बातचीत के अंश हैं।
दृश्य सात: “भाई जी, आप हमारे घर जाना। हमारा घर चोगलमसर में है। आप दिल्ली में अफ़सर हो, बच्चे आपसे मिलकर बड़े खुश होंगे। मेरा नाम सेन्दुप सेरिंग है और घर का फोन नंबर यह है। आप उनसे बस इतना बता देना कि सेरिंग से मिला था।”
यह व्हिस्की नाले पर एक लद्दाखी दुकानदार से बातचीत के अंश हैं।
दृश्य आठ: “अरे भाई, आज रात यहीं रुक जाऊँ क्या?” “हाँ हाँ, रुक जाओ। मेरे स्लीपिंग बैग में सो जाना। बड़ा बैग है, दोनों आ जायेंगे।” “धन्यवाद भाई, मेरे पास स्लीपिंग बैग है। बस, जरा सी जगह चाहिये।” ...“तुम बड़े गधे हो। ऐसे बर्फ़ीले तूफान में तुम्हें आज निकलना ही नहीं चाहिये था।” “हाँ, ठीक कह रहे हो। लेकिन आज ही तंगलंग-ला पार करने की धुन थी, इसलिये निकल पड़ा और अब पछता रहा हूँ।”
यह तंगलंग-ला के पास तंबुओं में घुसे पड़े बी.आर.ओ. के झारखंड़ी मज़दूरों से बातचीत के अंश हैं।
दृश्य नौ: “भैया, खाना यहीं आपके कमरे में लाऊँ या अंदर चलकर खाओगे?” “यहीं ले आओ।” “नहीं भैया, मुझे काफ़ी सामान लाना पड़ेगा, आप अन्दर ही चलो, कोई समस्या नहीं है।”
यह ससपोल में एक गेस्ट हाउस में उनकी लड़की से बातचीत के अंश हैं।
दृश्य दस: “रुको भाई रुको। कहाँ से आये हो?” “मनाली से आया हूँ और अब श्रीनगर जा रहा हूँ।” “अरे बाप रे! हमारा प्रणाम स्वीकार करो। हमारी मोटरसाइकिलों पर ही हालत ख़राब हुई जा रही है और तुम साइकिल से इन पहाड़ों को पार कर रहे हो।” “अभी तो आपकी हालत बहुत अच्छी है। लेह से आगे निकलोगे, तब होगा असली हालात से सामना।”
यह फोतू-ला पार करके मिले कुछ मोटरसाइकिल वालों से बातचीत के अंश हैं।
दृश्य ग्यारह: “रुको भैया। आप कहाँ जा रहे हो?” “श्रीनगर।” “अब रात होने वाली है, कहाँ रुकोगे। चलो, हमारे घर चलो।” “तुम्हारे घर? कितनी दूर है?” “बस, वो थोड़ा-सा ऊपर।” कितने पैसे लोगे?” “ही ही ही, पैसे नहीं लेंगे।” “घर में कौन-कौन हैं?” “माँ-बाप और छोटे भाई बहन।” “माँ-बाप तुम्हें डांटेंगे तो नहीं।” “नहीं, बिल्कुल नहीं।” “यार बहुत ऊपर है तुम्हारा घर। रास्ता भी पगडंड़ी वाला है।” “कोई बात नहीं, साइकिल से बैग खोलो, मैं कंधे पर लटका लूँगा और साइकिल को धक्का मारेंगे, ऊपर चली जायेगी।” “चल, ठीक है।”
यह शम्शा में शाम सात बजे एक बच्चे अहमद से हुई बातचीत के अंश हैं।
दृश्य बारह: “कहाँ जाओगे?” “श्रीनगर।” “यार अभी बहुत चढ़ाई है। जोजीला बहुत दूर है। थक जाओगे।” “हाँ, लेकिन यह आख़िरी दर्रा है। मैंने मनाली से अभी तक सात दर्रे पार कर लिये हैं। इसे भी पार कर लूँगा।” “ह्म्म्म, ठीक है, तुम आगे चलो। पीछे-पीछे मैं ट्रक लेकर आ रहा हूँ। तुम्हें बैठाकर आज ही सोनमर्ग छोड़ दूँगा।”
यह रास्ते में एक ढाबे पर एक ट्रक वाले से हुई बातचीत के अंश हैं।
दृश्य तेरह: “सर, रुको रुको। आज हमारे गाँव में ही रुकना। आपके पास टैंट तो है ही, हम इसे अपने खेत में लगवाने में पूरी सहायता करेंगे।”
यह मटायन में कुछ बच्चों से हुई बातचीत के अंश हैं।
...
ये थे इस साइकिल यात्रा के कुछ छोटे-छोटे, लेकिन यादगार दृश्य। ऐसे न जाने कितने वाकयों से पाला पड़ा। कुदरत ने तो अच्छा साथ दिया ही, मनुष्यों ने भी साथ देने में कोई कसर नहीं छोडी। मनुष्य चाहे स्थानीय हों या बाहर से आने वाले घुमक्कड़ व पर्यटक।
साइकिल यात्रा वैसे तो कभी भी आसान नहीं होती, लेकिन दुनिया की सबसे ऊँची और ख़तरनाक सड़कों में से एक मनाली-लेह सड़क पर तो यह और भी चुनौती भरा काम है। चढ़ते रहो, चढ़ते रहो, बस चढ़ते ही रहो। साँस फूले, दम घुटे, हवा लगे, ठंड़ लगे, कुछ भी हो, एक ही काम होता है, चढ़ना। वैसे तो एक दर्रा पार करने के बाद नीचे भी उतरना होता है, लेकिन जितना तीन दिनों में जी-जान लगाकर चढ़ते हैं, उससे भी ज्यादा एक ही दिन में बिना जान लगाये उतर भी जाते हैं। तीन दिनों तक पसीना बहाने के बाद जब एक दिन की उतराई दिखती है तो कोई खुशी नहीं होती क्योंकि उसके बाद फिर तीन दिनों का पसीना तैयार खड़ा है। पाँच दर्रे हैं इस सड़क पर।
सबसे शानदार बात रही कि साइकिल ने पूरा साथ दिया, एक बार भी पंचर नहीं हुआ। बेचारी को अच्छी सड़क से लेकर महा-बेकार सड़क पर भी चलना पड़ा, नाले पार करने पड़े, कीचड़ में भी गयी, बर्फ़ का भी सामना किया, लेकिन कभी भी कोई समस्या प्रदर्शित नहीं की। अपनी यात्रा के इस एकमात्र साथी को शत-शत नमन।
टैंट व स्लीपिंग बैग को भी नमन। वैसे तो दिनभर साइकिल चलाने के बाद इतना थक जाता था कि शाम को टैंट लगाने का विचार तक नहीं आता था। जहाँ भी रुकने का इंतजाम मिला, पैसे देकर रुका। यथासम्भव टैंट लगाने से बचता रहा। लेकिन पाँच बार ऐसी परिस्थितियाँ बनीं कि टैंट लगाना पड़ा। टैंट की कीमत तो वसूल हो ही गयी, लेकिन पता भी चल गया कि इस यात्रा के लिये टैंट व स्लीपिंग बैग कितने कीमती हैं।
बाकी तो यात्रा वृत्तांत विस्तार से छपेंगे ही, एक नज़र सभी दिनों की यात्रा पर भी मार ली जाये:
दिन | दिनांक | विवरण | दूरी |
---|---|---|---|
पहला दिन | 4 जून 2013 | दिल्ली से प्रस्थान | बस से |
दूसरा दिन | 5 जून 2013 | मनाली से गुलाबा | 21 किलोमीटर |
तीसरा दिन | 6 जून 2013 | गुलाबा से मढी | 13 किलोमीटर |
चौथा दिन | 7 जून 2013 | मढी से गोंदला | 64 किलोमीटर |
पांचवाँ दिन | 8 जून 2013 | गोंदला से गेमूर | 34 किलोमीटर |
छठा दिन | 9 जून 2013 | गेमूर से जिंगजिंगबार | 42 किलोमीटर |
सातवाँ दिन | 10 जून 2013 | जिंगजिंगबार से सरचू | 47 किलोमीटर |
आठवाँ दिन | 11 जून 2013 | सरचू से नकी-ला | 37 किलोमीटर |
नौवाँ दिन | 12 जून 2013 | नकी-ला से व्हिस्की नाला | 11 किलोमीटर |
दसवाँ दिन | 13 जून 2013 | व्हिस्की नाला से पांग | 28 किलोमीटर |
ग्यारहवाँ दिन | 14 जून 2013 | पांग से शो-कार व शो-कार मोड | 88 किलोमीटर |
बारहवाँ दिन | 15 जून 2013 | शो-कार मोड से तंगलंग-ला | 19 किलोमीटर |
तेरहवाँ दिन | 16 जून 2013 | तंगलंग-ला से उप्शी | 65 किलोमीटर |
चौदहवाँ दिन | 17 जून 2013 | उप्शी से लेह | 49 किलोमीटर |
पन्द्रहवाँ दिन | 18 जून 2013 | लेह से ससपोल | 62 किलोमीटर |
सोलहवाँ दिन | 19 जून 2013 | ससपोल से फोतु-ला | 70 किलोमीटर |
सत्रहवाँ दिन | 20 जून 2013 | फोतु-ला से मुलबेक | 59 किलोमीटर |
अठारहवाँ दिन | 21 जून 2013 | मुलबेक से शम्शा | 71 किलोमीटर |
उन्नीसवाँ दिन | 22 जून 2013 | शम्शा से मटायन | 46 किलोमीटर |
बीसवाँ दिन | 23 जून 2013 | मटायन से श्रीनगर | 126 किलोमीटर |
इक्कीसवाँ दिन | 24 जून 2013 | श्रीनगर से जम्मू व दिल्ली | सूमो व बस से |
...
इस यात्रा के अनुभवों पर आधारित मेरी एक किताब प्रकाशित हुई है - ‘पैडल पैडल’ आपको इस यात्रा का संपूर्ण और रोचक वृत्तांत इस किताब में ही पढ़ने को मिलेगा।
आप अमेजन से इसे खरीद सकते हैं।
अगला भाग: लद्दाख साइकिल यात्रा- पहला दिन- दिल्ली से प्रस्थान
मनाली-लेह-श्रीनगर साइकिल यात्रा
1. साइकिल यात्रा का आगाज
2. लद्दाख साइकिल यात्रा- पहला दिन- दिल्ली से प्रस्थान
3. लद्दाख साइकिल यात्रा- दूसरा दिन- मनाली से गुलाबा
4. लद्दाख साइकिल यात्रा- तीसरा दिन- गुलाबा से मढी
5. लद्दाख साइकिल यात्रा- चौथा दिन- मढी से गोंदला
6. लद्दाख साइकिल यात्रा- पांचवाँ दिन- गोंदला से गेमूर
7. लद्दाख साइकिल यात्रा- छठा दिन- गेमूर से जिंगजिंगबार
8. लद्दाख साइकिल यात्रा- सातवाँ दिन- जिंगजिंगबार से सरचू
9. लद्दाख साइकिल यात्रा- आठवाँ दिन- सरचू से नकीला
10. लद्दाख साइकिल यात्रा- नौवाँ दिन- नकीला से व्हिस्की नाला
11. लद्दाख साइकिल यात्रा- दसवाँ दिन- व्हिस्की नाले से पांग
12. लद्दाख साइकिल यात्रा- ग्यारहवाँ दिन- पांग से शो-कार मोड
13. शो-कार (Tso Kar) झील
14. लद्दाख साइकिल यात्रा- बारहवाँ दिन- शो-कार मोड से तंगलंगला
15. लद्दाख साइकिल यात्रा- तेरहवाँ दिन- तंगलंगला से उप्शी
16. लद्दाख साइकिल यात्रा- चौदहवाँ दिन- उप्शी से लेह
17. लद्दाख साइकिल यात्रा- पन्द्रहवाँ दिन- लेह से ससपोल
18. लद्दाख साइकिल यात्रा- सोलहवाँ दिन- ससपोल से फोतूला
19. लद्दाख साइकिल यात्रा- सत्रहवाँ दिन- फोतूला से मुलबेक
20. लद्दाख साइकिल यात्रा- अठारहवाँ दिन- मुलबेक से शम्शा
21. लद्दाख साइकिल यात्रा- उन्नीसवाँ दिन- शम्शा से मटायन
22. लद्दाख साइकिल यात्रा- बीसवाँ दिन- मटायन से श्रीनगर
23. लद्दाख साइकिल यात्रा- इक्कीसवाँ दिन- श्रीनगर से दिल्ली
24. लद्दाख साइकिल यात्रा के तकनीकी पहलू
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज सोमवार (08-07-2013) को मेरी 100वीं गुज़ारिश :चर्चा मंच 1300 में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर! जब भी आपकी यात्रा के किस्से पढ़ते हैं मन करता है निकल पड़ें। लेकिन ......:)
ReplyDeleteBrave Neeraj bhai or kya likhe pata hi nahi 1dam exciting story lagegi . Padhakar coment jo log nahi karege vo aapse jal rahe he . By maja aa gaya .
ReplyDeleteVery nice interesting. Great job
ReplyDeleteअगर साथ में मेप भी हो तो और मजा आ जाये
ReplyDeleteBravo Neerajbai
ReplyDeleteLast week Mcleodganj gaye the doston ke saathtab unko aapke baare main bataya tha
ReplyDeletetab dosto ne bola kuch badi baat nahi hai par jab dainik jagraan main chapa leh yatra aur cycle manali -srinagar yatra ke baare main bataya to unke muh bhi khule rah gaye aur wo bhi aapke fan ho gaye.
Amit Buwaniwala
नीरज जी राम राम, लद्दाख यात्रा के लिए बहुत बहुत बधाई...अब तो गिनीज बुक में नाम आ जाना चाहिए...लगे रहो..हमें गर्व हैं आप पर...वन्देमातरम...
ReplyDeleteपढकर ही पसीने आ रहे हैं...
ReplyDeleteबहुत खूब नीरज.
ReplyDeleteआगाज बिलकुल BLOCKBUSTER है...
वाह जाट राम, बहुत ही सुन्दर प्रारंभ किया है ..... तुझे और तेरी घुमक्कड़ी को शत शत प्रणाम।
ReplyDeleteलेख से ही चढाई चालू हो गई दम फुलने लगा है भाई अब जल्दी से उतराई का मजा दो
ReplyDeleteएक दिन में ८८ किलोमीटर, १२६ किलोमीटर साइकिल चलाना वो भी पथरीले रास्तो पर कोई आसान काम नहीं ..नीरजजी आपके हौसले को सलाम ..
ReplyDeleteअभी आईटीबीपी की साइकिल रैली चल रही थी वो लोग लेह से 300 किलोमीटर आगे से केवड़िया गुजरात तक गए वो लोग किसी किसी दिन 120 से लेकर 150 किलोमीटर तक की यात्रा करते थे
Deleteआपके हौंसले को नमन, अगली किश्त का बेसब्री से इन्तेजार है।
ReplyDelete- Anilkv
jai ho neeraj jaat ki
ReplyDeleteneeraj ji ram-ram.aapka y lekh padh kar is yatra ka pura varnan padhne ka abhi man kar reha hai aur y choote-choote kissa is yatra ko aur rochak bana rahe hai.abhi mera choota bhai bhi leh yatra kar k aaya h lakin aap to cycle se yakkin hi nahi hota.you r great men mr.neeraj..
ReplyDeleteTotal cycling 952 Km. woh bhi paharon ki chadai per. Unbelievable.
ReplyDeleteमैंनें आपसे हाथ मिला रखा है, आपसे बात भी की है, इस फीलिंग से भी गर्व महसूस हो रहा है।
ReplyDeleteतेरह दृश्यों में बातचीत के अंश पढना मजेदार है। आज की पोस्ट वाकई बेहतरीन अनुभव संजोये हुये है।
व्हिस्की नाला कहां है, वहीं पडे रहेंगे हम तो कभी जा पाये तो वहां :-)
प्रणाम स्वीकार करें
व्हिस्की नाला जैसी पावन जगह पर तो हम भी चलेगें और पड़े नहीं, खड़े रहेगें। साथ अलबेला खत्री और राज भाटिया जी हो जाएं तो पुछना ही क्या है? :)
Deleteनीरज भाई , आप रोज डायरी मे लिखते हो, या आपकी मेमोरी इतनी तेज है, जो सभी बातें आपको याद रहती है।
ReplyDeleteये क्या ? बस इत्ती सी पोस्ट ? ये तो सरासर धोखा है ........हम तो सोच रहे थे की रोजाना की एक पोस्ट ........लम्बी ........एक एक अनुभव शेयर करेंगे आप ? .....waiting for the details .........but WELL DONE ........
ReplyDeleteजिस दिन आप लेह पहुँच रहे थे उसी दिन मेरी पत्नी भी मनाली से लेह गयी .......वहाँ MAARKHAA VALLEY TREK करने .......फिर खराब मौसम ,बारिश ,बर्फबारी की खबरें आने लगी .........उत्तराखंड में तबाही के समाचार आये .....आपकी एक मात्र खबर 6 जून को मिली थे फेसबुक पे ...फिर आप गायब हो गए .....हम चिंतित थे ....कहाँ रह गया जाट राम .......मैंने फेसबुक पे पूछा भी ......कि भाइयों , जाटराम की कोई खोज खबर है ?????? किसी ने जवाब नहीं दिया .........फिर हमने मान लिया की बड़ी सख्त जान है .........इतनी जल्दी नहीं मरेगा .........
ReplyDeleteneeraj ji aapne to ye lakh me to kamal kardeya kuch naya tareka istemal kiya hai aapne to ek dam jhakas
ReplyDeletekya baat hai neeraj,pahli post me hi itna romanch hai pata nahi aage kya hoga,bahut badai,dil khus kar diya yaar...........
ReplyDeleteनीरज भाई बहुत इंतज़ार के बाद आपकी पोस्ट पढ़ी थोड़ी थोड़ी रोज लिखा करो
ReplyDeleteजय हो, हमारे तो पढ़कर ही सीना फूल गया।
ReplyDelete.........इसमें तो कोई शक नहीं की ये ......फाडू चढ़ाई है। इन परिस्थितियों में वही यात्रा कर सकता है जिसमें इन पहाड़ों से ऊँचा हौसला हो।
ReplyDeleteनीरज भाई, पटकथा - लेखन बहुत ही शानदार !
ReplyDeleteशुरुआत इतनी बेहतरीन ! जय हो !
Hats off to you and your courage,daring and enthusiasm Neeraj Bhai. Waiting eagerly for coming posts.
ReplyDeletegazab shuruaat.
ReplyDeletewaiting for more.
शानदार... कभी अपने ही पुराने वृत्तांत पढ़ो तुम्हें खुशी होगी कि पहले से अब में वही जिंदादिली बचाते हुए खास परिपक्वता हासिल की है तुमने... बधाई दोस्त।
ReplyDeletevery nice to read your blog posts---full of life......keep it up! God bless you..
ReplyDeleteअद्भुत अनुभव
ReplyDeleteजाट साब का शत शत नमन, जाट साब अमर रहे और घूमते रहे :D
ReplyDeleteहिंदी में लिखना सीखो यारों
ReplyDeleteबल्ले ओए तेरे
ReplyDeleteadbhut..ascharyajanak...koi sabd nahi hi in lekho ke lie...bahut mehnat chahie in sab ke lie sath me or bhi bahut kuch..sab ke bas ki bat nahi ye....isilie sayad ap -ap hi...yatra jari rakhie .
ReplyDeleteajay pratap singh
Pratapgarh U.P.
बहूत सुन्दर यात्रा एवं वर्णन है.
ReplyDeleteBhoot sundar ....esa laga Mai bhi gum liya....😊😊😊😊😊😊
ReplyDeleteशानदार।
ReplyDeleteअद्भुत।
आपके जज़्बे को सलाम।
नीरज भाई आज यहाँ भी राम राम...
ReplyDeleteगज़ब ढा रखा है...
पोस्ट तो पोस्ट कमेन्ट भी सारे पढ़ डाले...
और वाही बात तो जो ऊपर भी किसी ने लिखी है....
पढ़ते ही मन करता है भाग चलूँ हिमालय की ओर पर............ ;)