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Showing posts from 2017

सूरत से भुसावल पैसेंजर ट्रेन यात्रा

इस यात्रा-वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें । 25 अगस्त 2017 कल बडनेरा से ट्रेन नंबर 18405 एक घंटा लेट चली थी। मैंने सोचा सूरत पहुँचने में कुछ तो लेट होगी ही, फिर भी साढ़े तीन का अलार्म लगा लिया। 03:37 का टाइम है सूरत पहुँचने का। 03:30 बजे अलार्म बजा तो ट्रेन उधना खड़ी थी, समझो कि सूरत के आउटर पर। मेरे मुँह से निकला, तुम्हारी ऐसी की तैसी मध्य रेल वालों। फिर तीन घंटे जमकर सोया। पौने सात बजे उठा तो भगदड़ मचनी ही थी। सात बीस की ट्रेन थी और अभी नहाना भी था, टिकट भी लेना था और नाश्ता भी करना था। दिनभर की बारह घंटे की पैसेंजर ट्रेन में यात्रा आसान नहीं होती। कुछ ही देर में आलस आने लगता है और अगर बिना नहाये ही ट्रेन में चढ़ गये तो समझो कि सोते-सोते ही यात्रा पूरी होगी। इसलिये टिकट से भी ज्यादा प्राथमिकता होती है नहाने की। टिकट का क्या है, अगले स्टेशन से भी मिल जायेगा। पश्चिम रेलवे वाले अच्छे होते हैं। पंद्रह मिनट में टिकट भी मिल गया और नहा भी लिया। इतने में राकेश शर्मा जी का फोन आ गया। वे स्टेशन पहुँच चुके थे। जिस प्लेटफार्म पर ट्रेन आने वाली थी, उसी प्लेटफार्म पर इत्मीनान से मिले।

शकुंतला रेलवे: मुर्तिजापुर से अचलपुर

इस यात्रा-वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें । 24 अगस्त 2017 आज की योजना थी मुर्तिजापुर से यवतमाल जाकर वापस मुर्तिजापुर आने की। इसलिये दो दिनों के लिये कमरा भी ले लिया था और एडवांस किराया भी दे दिया था। कल अर्थात 25 अगस्त को मुर्तिजापुर से अचलपुर जाना था। लेकिन कल रात अचानक भावनगर से विमलेश जी का फोन आया - "नीरज, एक गड़बड़ हो गयी। मैंने अभी मुर्तिजापुर स्टेशन मास्टर से बात की। यवतमाल वाली ट्रेन 27 अगस्त तक बंद रहेगी।" मैं तुरंत स्टेशन भागा। वाकई यवतमाल की ट्रेन बंद थी। लेकिन अचलपुर की चालू थी। अब ज्यादा सोचने-विचारने का समय नहीं था। यवतमाल तो अब जाना नहीं है, तो कल मैं अचलपुर जाऊंगा। यवतमाल के लिए फिर कभी आना होगा। अब एक दिन अतिरिक्त बचेगा, उसे भी कहीं न कहीं लगा देंगे। कहाँ लगायेंगे, यह अचलपुर की ट्रेन में बैठकर सोचूंगा। टिकट लेकर नैरोगेज के प्लेटफार्म पहुँचा तो दो-चार यात्री इधर-उधर बैठे थे। ट्रेन अभी प्लेटफार्म पर नहीं लगी थी।

नागपुर-अमरावती पैसेंजर ट्रेन यात्रा

22 अगस्त 2017 मैं केरल एक्स में हूँ, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि केरल जा रहा हूँ। सुबह चार बजे नागपुर उतरूँगा और पैसेंजर ट्रेन यात्रा आरंभ कर दूँगा। कल क्या करना है, यह तो कल की बात है। तो आज क्यों लिखने लगा? बात ये है कि बीना अभी दूर है और मुझे भूख लगी है। आज पहली बार ऑनलाइन खाना बुक किया। असल में मैंने ग्वालियर से ही खाना बुक करना शुरू कर दिया था, लेकिन मोबाइल को पता चल गया कि अगला खाने की फ़िराक में है। नेट बंद हो गया। सिर्फ टू-जी चल रहा था, वो भी एक के.बी.पी.एस. से भी कम पर। झक मारकर मोबाइल को साइड में रख दिया और नीचे बैठी हिंदू व जैन महिलाओं की बातें सुनने लगा। पता चला कि सोनागिर एक जैन तीर्थ है और जैन साधु यहाँ चातुर्मास करते हैं। कहीं पहाड़ी की ओर इशारा किया और दोनों ने हाथ भी जोड़े। हाँ, हाथ जोड़ने से याद आया। सुबह सात बजे जब मैं ऑफिस से घर पहुँचा तो देखा कि दीप्ति जगी हुई है। इतनी सुबह वह कभी नहीं जगती। मैं आश्चर्यचकित तो था ही, इतने में संसार का दूसरा आश्चर्य भी घटित हो गया। बोली - “आज हनुमान मंदिर चलेंगे दोनों।” कमरे में गया तो उसने दीया भी जला रखा था और अगरबत्ती भी। मैं समझ गया

तीसरी किताब: पैडल पैडल

आज हम बतायेंगे कि मेरी तीसरी किताब ‘पैडल पैडल’ की क्या हिस्ट्री रही और यह कैसे अस्तित्व में आयी। पहली किताब छपी थी अप्रैल 2016 में, नाम था ‘लद्दाख में पैदल यात्राएँ’। उसी समय सोच लिया था और बहुत सारे मित्रों की भी इच्छा थी कि लद्दाख साइकिल यात्रा को भी पुस्तकाकार बनाना चाहिये। लद्दाख में साइकिल चलाना वाकई एक विशिष्ट अनुभव होता है और इसकी किताब भी अवश्य प्रकाशित होनी चाहिये। लेकिन जून 2016 में एवरेस्ट बेसकैंप की ट्रैकिंग कर ली और वहाँ से लौटकर उसके अनुभवों को लिखने में लग गया। वह मार्च 2017 में पूरी हुई और हिंदयुग्म प्रकाशन को भेज दी। मैं चाहता था कि अप्रैल में ही एवरेस्ट वाली किताब आ जाये, लेकिन तय हुआ कि यह किताब जुलाई 2017 में आयेगी। अब मैं लगभग खाली था। ‘लद्दाख साइकिल यात्रा’ फिर से याद आयी। यह यात्रा पहले ब्लॉग पर प्रकाशित हो चुकी थी। इसके शब्द गिने - लगभग 30000 मिले। इतने शब्दों में 200 पृष्ठों की किताब नहीं बन सकती। इसका अर्थ है कि शब्द बढ़ाने पड़ेंगे। और ऐसे कहने से ही शब्द नहीं बढ़ते। वो वृत्तांत चार साल पहले लिखा था। अब तक मेरी लेखन शैली में भी कुछ परिवर्तन आ चुका था। यह परिवर्त

ऋषिकेश से दिल्ली काँवड़ियों के साथ-साथ

19 जुलाई 2017 आज का पूरा दिन हमारे पास था और हमें दिल्ली पहुँचने की कोई जल्दी नहीं थी। मैंने सोच लिया था कि आज अपनी काँवड़ यात्रा के दिनों को पूरी तरह जीऊँगा। मैं चार बार हरिद्वार से मेरठ और एक बार हरिद्वार से पुरा महादेव तक पैदल काँवड़ ला चुका हूँ। तो मैं भावनात्मक रूप से इस यात्रा से जुड़ा हुआ हूँ। आप अगर कभी भी काँवड़ नहीं लाये हैं तो समझ लीजिये कि इस यात्रा की खामियों और खूबियों को मैं आपसे बेहतर जानता हूँ। आज का समय न्यूज चैनलों का है और वे बदमाशों को काँवड़ियों का नाम देकर आपको दिखा देते हैं और आप मान लेते हैं कि काँवड़िये बदमाश होते हैं। मेरे लिये केवल पैदल और साइकिल यात्री ही काँवड़िये हैं; बाकी बाइक वाले, डाक काँवड़ वाले केवल उत्पाती लोग हैं। और इन्हीं लोगों के कारण पवित्र काँवड़ यात्रा अपमानित होती है। चूँकि हम भी बाइक पर ही थे, इसलिये इस श्रेणी में हम भी आसानी से आ सकते हैं, लेकिन हमारा काँवड़ यात्रा से कोई संबंध नहीं था। न हम गंगाजल लिये थे, न हमें किसी शिवमंदिर में जाना था और न ही हम अपनी यात्राओं के लिये सावन के मोहताज़ थे। हमारी बाइक पर साइलेंसर भी लगा था, सिर पर हेलमेट भी था और ब

पुस्तक-चर्चा: पग पग सनीचर

एक व्हाट्सएप घुमक्कड़ी ग्रुप है। और जैसा कि व्हाट्सएप के सभी ग्रुपों में होता है, इसमें भी देशभर के कुछ घुमक्कड़ मिलकर एक-दूसरे की टांग-खिंचाई में तल्लीन रहते थे। किसी जमाने में मैं भी इस ग्रुप का सदस्य था और दूसरों की खूब टांग खींचा करता था और जब दूसरा कोई मेरी खिंचाई कर देता, तो मैं ग्रुप छोड़कर भाग जाता था। तो ऐसे ही यह ग्रुप चल रहा था। चूँकि इसके सदस्य देशभर में रहते हैं तो कोई कहीं भी घूमने जाता, कंपनी मिल ही जाती थी। फिर इस ग्रुप में प्रवेश हुआ ललित शर्मा जी का। और उन्होंने नारा दिया - “कुछ अलग-सा करते हैं।” और अलग-सा करते-करते यह किताब बन गयी - पग पग सनीचर। इसमें उस ग्रुप के तीस सदस्यों के यात्रा-वृत्तांत व यात्रा-लेख हैं। यह संग्रह इसलिये भी खास है, क्योंकि दो-तीन लेखक ही इससे पहले ब्लॉग या समाचार-पत्रों में नियमित लिखते थे। बाकी ज्यादातर ने कभी भी सीरियसली नहीं लिखा। और इस किताब में सभी ने वाकई सीरियसली लिखा है। उम्मीद है कि इसके सभी लेखक आगे भी इसी तरह लिखते रहेंगे और हमें भविष्य में बहुत सारे यात्रा-वृत्तांत पढ़ने को मिलेंगे।

मेरी दूसरी किताब: हमसफ़र एवरेस्ट

जून 2016 में एवरेस्ट बेसकैंप की यात्रा से लौटने के बाद बारी थी इसके अनुभवों को लिखने की। अमूमन मैं यात्रा से लौटने के बाद उस यात्रा के वृत्तांत को ब्लॉग पर लिख देता हूँ, लेकिन इस बार ऐसा नहीं किया। इरादा था कि इसे पहले किताब के रूप में प्रकाशित करेंगे। लिखने का काम मार्च 2017 तक पूरा हुआ। अब बारी थी प्रकाशक ढूँढ़ने की। सबसे पहले याद आये हिंदयुग्म के संस्थापक शैलेश भारतवासी जी। पिछले साल जब मैं ‘लद्दाख में पैदल यात्राएँ’ लिख चुका था, तब भी शैलेश जी से ही संपर्क किया था। तब हिंदयुग्म नया-नया शुरू हुआ था और बुक पब्लिशिंग में ज्यादा आगे भी नहीं था। तब उन्होंने कहा था - “नीरज, अभी हमारा मार्केट बहुत छोटा-सा है। अच्छा होगा कि तुम किसी बड़े प्रकाशक से किताब प्रकाशित कराओ।” और ‘लद्दाख में पैदल यात्राएँ’ दस हज़ार रुपये देकर सेल्फ पब्लिश करानी पड़ी थी। तो इस बार भी शैलेश जी से ही सबसे पहले संपर्क किया। अब तक हिंदयुग्म एक बड़ा प्रकाशक बन चुका था और बाज़ार में अच्छी पकड़ भी हो चुकी थी। इनकी कई किताबें तो बिक्री के रिकार्ड तोड़ रही थीं।

फूलों की घाटी से वापसी और प्रेम फ़कीरा

17 जुलाई 2017 आज का दिन कहने को तो इस यात्रा का आख़िरी दिन था, लेकिन छुट्टियाँ अभी भी दो दिनों की बाकी थीं। तो सोचने लगे कि क्या किया जाये? एक दिन और कहाँ लगाया जाये? इसी सोच-विचार में मुझे उर्गम और कल्पेश्वर याद आये। दीप्ति से कहा - “चल, आज तुझे एक रमणीक स्थान पर ले चलता हूँ।” पेट भरकर नौ बजे के आसपास घांघरिया से वापस चल दिये। मौसम एकदम साफ था। कुछ सरदार घांघरिया की तरफ जा रहे थे। आपस में बात कर रहे थे - “हिमालय परबत इदरे ही है क्या?” दूसरे ने उत्तर दिया - “नहीं, मनाल्ली की तरफ है। इदर केवल हेमकुंड़ जी हैं।”

फूलों की घाटी के कुछ फोटो व जानकारी

फूलों की घाटी है ही इतनी खूबसूरत जगह कि मन नहीं भरता। आज कुछ और फोटो देखिये, लेकिन इससे पहले थोड़ा-बहुत पढ़ना भी पड़ेगा: बहुत सारे मित्र फूलों की घाटी के विषय में पूछताछ करते हैं। असल में अगस्त वहाँ जाने का सर्वोत्तम समय है। तो अगर आप भी अगस्त के महीने में फूलों की घाटी जाने का मन बना रहे हैं, तो यह आपका सर्वश्रेष्ठ निर्णय है। लेकिन अगस्त में नहीं जा पाये, तब भी कोई बात नहीं। सितंबर में ब्रह्मकमल के लिये जा सकते हैं। और जुलाई भी अच्छा समय है। बाकी समय अच्छा नहीं कहा जा सकता। तो कुछ बातें और भी बता देना उचित समझता हूँ: 1. जोशीमठ-बद्रीनाथ मार्ग पर जोशीमठ से 20 किलोमीटर आगे और बद्रीनाथ से 30 किलोमीटर पीछे गोविंदघाट है। यहाँ से फूलों की घाटी का रास्ता जाता है। हरिद्वार और ऋषिकेश से गोविंदघाट तक बेहतरीन दो-लेन की सड़क बनी है। दूरी, समय और जाने के साधन के बारे में आप स्वयं निर्णय कर लेना।

पुस्तक-चर्चा: बादलों में बारूद

मज़ा आ गया। किताब का नाम देखने से ऐसा लग रहा है, जैसे कश्मीर का ज़िक्र हो। आप कवर पेज पलटोगे, लिखा मिलेगा - यात्रा-वृत्तांत। लेकिन अभी तक मुझे यही लग रहा था कि कश्मीर का यात्रा-वृत्तांत ही होगा। लेकिन जैसे ही ‘पुस्तक के बारे में’ पढ़ा, तो मज़ा आ गया। इसमें तो झारखंड़ के जंगलों से लेकर लद्दाख और सुंदरवन तक के नाम लिखे हैं। पहले सभी यात्राओं का थोड़ा-थोड़ा परिचय करा दूँ: 1. जंगलों की ओर झारखंड़ में छत्तीसगढ़ सीमा के एकदम पास गुमला जिले में बिशुनपुर के पास जंगलों की यात्रा का वर्णन है।

फूलों की घाटी

16 जुलाई 2017 आज का दिन तो बड़ा ही शानदार रहा। कैसे शानदार रहा? बताऊंगा धीरे-धीरे। बताता-बताता ही बताऊंगा। रात 2 बजे आँख खुली। बाहर बूंदों की आवाज़ आ रही थी। बारिश हो रही थी। सोचा कि सुबह तक मौसम अच्छा हो जाएगा। सो गया। फिर 6 बजे आँख खुली। बारिश अभी भी हो रही थी। उठकर दरवाजा खोलकर देखा। बादल और रिमझिम बारिश। इसके बावजूद भी यात्रियों का आना-जाना। कुछ यात्री नीचे गोविंदघाट भी जा रहे थे और कुछ ऊपर हेमकुंड भी जाने वाले थे। हमें किसी भी तरह की जल्दी नही थी। कल ही सोच लिया था कि बारिश में कहीं भी नही जाएंगे। न फूलों की घाटी और न गोविंदघाट। वापस दरवाजा लगाया और सो गया। आठ बजे आँख खुली। उतनी ही बारिश थी, जितनी दो घंटे पहले थी। लेकिन इस बार मैं नीचे चला गया और एक बाल्टी गर्म पानी को कह आया। साथ ही यह भी कह दिया कि आज भी हम यहीं रुकेंगे। होटल मालिक बड़ी ही विचित्र प्रकृति का है। आप कुछ भी कहें, वह आपका उत्साह ही बढ़ाएगा। मसलन आप बारिश में हेमकुंड जाना चाह रहे हैं, वह आपको जाने को कहेगा। और बारिश की वजह से नहीं जाना चाह रहे हैं, तो आपसे रुक जाने को कह देगा। तो मुझसे भी उसने कह दिया कि बारिश में नहीं

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब

यात्रा श्री हेमकुंड साहिब की

15 जुलाई 2017 सुबह उठे तो मौसम ख़राब मिला। निश्चय करते देर नहीं लगी कि आज फूलों की घाटी जाना स्थगित। क्या पता कल सुबह ठीक मौसम हो जाये। तो कल फूलों की घाटी जाएंगे। आज हेमकुंड साहिब चलते हैं। कल भी मौसम ख़राब रहा तो परसों जायेंगे। यह यात्रा मुख्यतः फूलों की घाटी की यात्रा है, जल्दी कुछ भी नहीं है। तो हम केवल साफ मौसम में ही घाटी देखेंगे। वैसे जुलाई तक मानसून पूरे देश में कब्जा जमा चुका होता है, तो साफ मौसम की उम्मीद करना कुछ ज्यादा ही था, लेकिन हिमालय में अक्सर मौसम साफ ही रहता है। दोपहर बाद बरस जाये तो उसे खराब मौसम नहीं कहते। सुबह ही बरसता मिले तो खराब कहा जायेगा। अभी खराब मौसम था। इंतज़ार करते रहे। इसका यह अर्थ न लगाया जाये कि हमने बालकनी में कुर्सियाँ डाल लीं और चाय की चुस्कियों के साथ बारिश देखते रहे। इंतज़ार करने का अर्थ होता है रजाईयों में घुसे रहना और जगे-जगे सोना व सोते-सोते जगना। नींद आ गयी तो आँख कुछ मिनटों में भी खुल सकती है और कुछ घंटों में भी। हाँ, एक बार बाहर झाँककर अवश्य देख लिया था। सिख यात्री नीचे गोविंदघाट से आने शुरू हो गये थे। सुबह कब चले होंगे वे? और हो सकता है कि इनमे

पुस्तक चर्चा: आख़िरी चट्टान तक

पता नहीं किस कक्षा में मोहन राकेश का एक यात्रा-वृत्तांत था - आख़िरी चट्टान। उस समय तो इसे पढ़ने और प्रश्नों के उत्तर देने के अंक मिलते थे, इसलिये कभी भी यह अच्छा नहीं लगा, लेकिन आज जब यह पूरी किताब पढ़ी तो आनंद आ गया। आनंददायक यात्रा-वृत्तांत वे होते हैं, जिनमें गतिशीलता भी होती है और रोचकता भी होती है। ‘आख़िरी चट्टान तक’ ठीक इसी तरह की एक किताब है। लेखक ज्यादा देर कहीं ठहरता नहीं है। फटाफट एक वाकया सुनाता है और आगे बढ़ जाता है। गतिशीलता बरकरार रहती है। यात्रा सन 1952 के आख़िरी सप्ताह और 1953 के पहले सप्ताह में की गयी है। भारत नया-नया आज़ाद हुआ और गोवा भी भारत का हिस्सा नहीं था। लेखक ने उस दौरान गोवा की भी यात्रा की। तब दूधसागर जलप्रपात के नीचे से होकर मीटरगेज की ट्रेन भारत से गोवा जाया करती थी। भारत का आख़िरी स्टेशन था केसलरॉक और गोवा का पहला स्टेशन था कुलेम। दोनों ही स्टेशनों पर गाड़ी दो-दो घंटे रुका करती थी - कस्टम जाँच के लिये।

गोविंदघाट से घांघरिया ट्रैकिंग

14 जुलाई 2017 सुबह चमोली से चलकर पीपलकोटी बस अड्डे पर रुके। पिछली बार भी यहीं रुककर पकौड़ियाँ खायी थीं। अक्सर ऐसा होता है। आपको एक बार एक जगह एक चीज अच्छी लगे तो चाहे आप दस साल बाद आएँ, आप उसे याद भी रखेंगे और दोहराना भी चाहेंगे। चमोली से पीपलकोटी की सड़क बड़ी खराब है। बी.आर.ओ. पूरे रास्ते काम कर रहा है और इनका काम कभी खत्म नही होगा। हालाँकि पीपलकोटी से जोशीमठ और आगे गोविंदघाट तक बहुत अच्छी सड़क है। हमें नहीं पता था कि गोविंदघाट से अलकनंदा के पार भी सड़क है और बाइक जा सकती है। एक जगह पार्किंग में बाइक खड़ी भी कर दी थी, पर्ची कटने ही वाली थी कि दीप्ति की निगाह नदी के उस पार घांघरिया जाने वाले रास्ते पर आती-जाती बाइकों और गाड़ियों पर पड़ी। इस बारे में पार्किंग वाले से बात की तो उसने इस अंदाज़ में उत्तर दिया कि मुझे लगने लगा कि अगर हम वहाँ बाइक ले गए तो पछतायेंगे। वो तो भला हो दीप्ति का कि हम यहाँ से बाइक लेकर चल दिये।

पुस्तक-चर्चा: हिमाचल के शिखरों में रोमांचक सफर

इस पुस्तक की तारीफ़ कैसे करूँ, कुछ समझ नहीं पा रहा। यात्रा-वृत्तांत विधा का यह एक हीरा है। आपको यदि यात्रा-वृत्तांत पसंद हैं, तो यह पुस्तक आपके पास होनी ही चाहिये। लेखक कुल्लू-निवासी डॉ. सूरत ठाकुर आपको हिमाचल के अप्रचलित स्थानों पर ट्रैकिंग कराते हैं। ऐसे स्थान कि आज इंटरनेट के जमाने में भी ढूंढ़े से नहीं मिलेंगे। चलिये, प्रत्येक चैप्टर का आपको परिचय करा देते हैं: 1. भृगुतुंग से मलाणा यात्रा अगस्त 1983 में की। इन्होंने अपनी यात्रा मनाली से गुलाबा बस से और उसके बाद पैदल शुरू की। गुलाबा से दशौर झील, भृगु झील, वशिष्ठ, मनाली, नग्गर, चंद्रखणी जोत और मलाणा। रास्ते में पड़ने वाले सभी गाँवों, स्थानों का अच्छा वर्णन।

कार्तिक स्वामी मंदिर

13 जुलाई 2017 रुद्रप्रयाग में दही समोसे खा रहे थे तो प्लान बदल गया। अब हम पोखरी वाले रास्ते से जाएंगे। उधर दो स्थान दर्शनीय हैं। और दोनों के ही नाम मैं भूल गया था। बाइक उधर ही मोड़ दी। अलकनन्दा पार करके दाहिने मुड़ गए। चढ़ाई शुरू हो गयी। मोबाइल ख़राब था और नक्शा सामानों में कहीं गहरे दबा हुआ था। जगह का नाम याद नहीं आया। कहीं लिखा भी नहीं मिला और किसी से पूछ भी नहीं सकते। बाद में ध्यान आया कि एक जगह तो कोटेश्वर महादेव थी। रुद्रप्रयाग के नज़दीक ही अलकनन्दा के किनारे। कितनी नज़दीक? पता नहीं। कितनी दूर? पता नहीं। हम चलते रहे। ऊँचाई बढ़ती रही और अलकनंदा गहरी होती चली गयी। दूरियाँ लिखी आ रही थीं - चोपता, पोखरी, गोपेश्वर इतने-इतने किलोमीटर। लेकिन उस मंदिर का जिक्र नही आया। सोच लिया कि पोखरी पहुँचकर पूछूँगा किसी से। शायद पोखरी के बाद है वो मंदिर।

चलो फूलों की घाटी!

12 जुलाई 2017 थक गए। और थकान होगी ही। नींद भी आएगी। सुबह तीन बजे के उठे हुए और साढ़े चार के चले हुए। अब शाम छह बजे श्रीनगर पहुँचे। कमरा लिया। दीप्ति तो गीले कपड़े धोने और सुखाने में व्यस्त हो गयी, मैं खर्राटे लेने में। मुझे कोई होश नहीं कि दीप्ति ने कितना काम किया। सात बजे कपड़ों से फुरसत पाकर उसने मुझे जगाया, “चलो, कुछ खा आएँ।” मैंने नींद में बुदबुदा दिया, “मुझे कुछ नहीं खाना। तू खा आ।” वह अकेली कपड़े तो धो सकती है, लेकिन खाना नहीं खा सकती। एक घंटे और सोने दिया। फिर तो उठा ही दिया। इडली उपलब्ध हो तो यह उसका प्रिय भोजन है। उंगलियाँ सानकर ही खाती है। मुझे भी इडली अच्छी लगती है, लेकिन अगर पनीर का भी विकल्प हो, तो मैं पनीर लेना पसंद करूँगा। रास्ते मे बहुत सारे लंगर लगे मिले थे। सरदारों वाले लंगर। हेमकुंड साहिब के तीर्थयात्रियों के लिए। स्प्लेंडर पर दो-दो तीन-तीन सरदार। पगड़ी वालों को तो हेलमेट की ज़रूरत नहीं, लेकिन बिना पगड़ी वाले भी बिना हेलमेट लगाये। सब मोटरसाइकिलों पर एक डंडा बंधा हुआ और डंडे पर नीला झंडा। वाहेगुरु दा खालसा। हम सभी लंगरों को नज़रअंदाज़ करते आ रहे थे, लेकिन एक जगह रुकना पड़ गया -

पंचचूली बेसकैंप यात्रा की वीडियो

पंचचूली बेसकैंप यात्रा का संपूर्ण वृत्तांत आपने पढ़ा... सराहा... आनंद आ गया... यात्रा के दौरान हम छोटी-छोटी वीडियो भी बनाते चलते हैं... और लौटकर कैमरे से लैपटॉप में कॉपी-पेस्ट कर देते हैं... और भूल जाते हैं... कभी-कभार इनकी याद आती है तो दो-दो, चार-चार वीडियो को जोड़कर या बिना जोड़े ही समय-समय पर आपको फेसबुक पेज और यूट्यूब के माध्यम से दिखा भी देते हैं... इन वीडियो की गुणवत्ता तो ख़राब ही रहती है, लेकिन आप चूँकि लाइक करते हैं, वाहवाही करते हैं; तो मुझे लगता है कि उतनी ख़राब भी नहीं होतीं... तो पंचचूली यात्रा की ऐसी ही सभी वीडियो को आपके सामने पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ... आपने शायद यूट्यूब वाली वीडियो न देखी हों, क्योंकि मैंने इनका प्रचार नहीं किया... फेसबुक पेज वाली तो निश्चित ही देख रखी होंगी... इन्हें देखने के बाद या न देखने के बाद आप फेसबुक पेज को लाइक करना न भूलें... और यूट्यूब चैनल को भी सब्सक्राइब अवश्य करें... बड़ी मुश्किल से अपने ही यूट्यूब चैनल का लिंक मिला है... यूट्यूब वीडियो में आपको विज्ञापन भी दिखेंगे, तो यह मत समझ लेना कि धनवर्षा हो रही होगी... अभी 136 सब्सक्राइबर्स हैं...

288 रेलवे स्टेशन हैं मुंबई और हावड़ा के बीच में

पिछले दिनों मैंने महाराष्ट्र में कुछ रेलमार्गों पर पैसेंजर ट्रेनों में यात्रा की थी। उनमें से अकोला से नागपुर का रेलमार्ग भी शामिल था। इस पर यात्रा करने के साथ ही मेरे पैसेंजर नक्शे में मुंबई और हावड़ा भी जुड़ गये। यानी मैं मुंबई-हावड़ा संपूर्ण रेलमार्ग पर पैसेंजर ट्रेनों में यात्रा कर चुका हूँ। ये यात्राएँ कई चरणों और कई वर्षों में हुईं।  1. छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस मुंबई से भुसावल (20 फरवरी, 2012) 2. भुसावल से अकोला (18 फरवरी 2012) 3. अकोला से बडनेरा (26 अगस्त 2017) 4. बडनेरा से नागपुर (23 अगस्त 2017) 5. नागपुर से गोंदिया (5 अक्टूबर 2008) 6. गोंदिया से बिलासपुर (11 सितंबर 2014) 7. बिलासपुर से झारसुगुड़ा (25 अगस्त 2011) 8. झारसुगुड़ा से टाटानगर (10 सितंबर 2014) 9. टाटानगर से खड़गपुर (9 सितंबर 2014) 10. खड़गपुर से हावड़ा (22 अगस्त 2011)

जागेश्वर और वृद्ध जागेश्वर की यात्रा

15 जून 2017 दन्या से जागेश्वर जाने में भला कितनी देर लगती है? आप ‘ट्यण-म्यण बाट, हिटो माठूँ-माठ’ पढ़ते-पढ़ते जागेश्वर पहुँच जाते हैं। कुमाऊँनी में लिखी इन बातों का अर्थ हमें नहीं पता। शायद ‘ट्यण-म्यण बाट’ का अर्थ होता होगा - टेढ़े-मेढ़े रास्ते। बाकी पता नहीं। सोच रहा हूँ कि अगर इसे मेरठी में लिखा जाये तो “ऐंड़े बेंड़े रस्ते” लिखा जायेगा। जिस दिन ‘हिटो माठूँ-माठ’ का अर्थ पता चल जायेगा, उस दिन उसे भी मेरठी में अनुवादित कर दूँगा। मुख्य मार्ग से जब जागेश्वर के लिये मुड़े तो देवदार का जंगल आरंभ हो गया। एक होता है चीड़ का जंगल और दूसरा होता है देवदार का जंगल। चीड़ का जंगल भी निःसंदेह खूबसूरत होता है, लेकिन देवदार की बात ही कुछ और है।

पुस्तक-चर्चा: पिघलेगी बर्फ

पुस्तक मेले में घूम रहे थे तो भारतीय ज्ञानपीठ के यहाँ एक कोने में पचास परसेंट वाली किताबों का ढेर लगा था। उनमें ‘पिघलेगी बर्फ’ को इसलिये उठा लिया क्योंकि एक तो यह 75 रुपये की मिल गयी और दूसरे इसका नाम कश्मीर से संबंधित लग रहा था। लेकिन चूँकि यह उपन्यास था, इसलिये सबसे पहले इसे नहीं पढ़ा। पहले यात्रा-वृत्तांत पढ़ता, फिर कभी इसे देखता - ऐसी योजना थी। उन्हीं दिनों दीप्ति ने इसे पढ़ लिया - “नीरज, तुझे भी यह किताब सबसे पहले पढ़नी चाहिये, क्योंकि यह दिखावे का ही उपन्यास है। यात्रा-वृत्तांत ही अधिक है।”  तो जब इसे पढ़ा तो बड़ी देर तक जड़वत हो गया। ये क्या पढ़ लिया मैंने! कबाड़ में हीरा मिल गया! बिना किसी भूमिका और बिना किसी चैप्टर के ही किताब आरंभ हो जाती है। या तो पहला पेज और पहला ही पैराग्राफ - या फिर आख़िरी पेज और आख़िरी पैराग्राफ।

पाताल भुवनेश्वर की यात्रा

13 जून 2017 हम मुन्स्यारी में थे और सोते ही रहे, सोते ही रहे। बारह बजे उठे। आधी रात के समय यहाँ बड़ी चहल-पहल मची थी। गाड़ी भरकर पर्यटक आये थे। उनकी गाड़ी कहीं ख़राब हो गयी थी तो लेट हो गये। और उन्होंने जो ऊधम मचाया, उसका नतीज़ा यह हुआ कि हम दोपहर बारह बजे तक सोते रहे। उठे तो आसमान में बादल थे और बर्फ़ीली चोटियों का ‘ब’ भी नहीं दिख रहा था। आज हमें मुन्स्यारी के आसपास ही घूम-घामकर वापसी के लिये चल देना था और थल के आसपास कहीं रुकना था। अब साफ़ मौसम नहीं था तो मुन्स्यारी घूमने का इरादा त्याग दिया और वापस चल दिये। बड़े दिनों से इच्छा थी मुन्स्यारी देखने की। वो इच्छा तो पूरी हो गयी, लेकिन घूम नहीं पाये। इच्छा कहीं न कहीं अधूरी भी रह गयी। इसे पूरा करने फिर कभी आयेंगे।

पुस्तक-चर्चा: चुटकी भर नमक, मीलों लंबी बागड़

पुस्तक मेले में घूमते हुए एक पुस्तक दिखायी पड़ी - चुटकी भर नमक, मीलों लंबी बागड़। कवर पेज पर भारत का पुराना-सा नक्शा भी छपा था, तो जिज्ञासावश उठाकर देखने लगा। और खरीद भी ली। ब्रिटिश राज में नमक पर कर लगा करता था। बंगाल रेजीडेंसी में यह सर्वाधिक था - साल में आम जनता की लगभग दो महीने की आमदनी के बराबर। तो बंबई रेजीडेंसी व राजपूताना की तरफ से इसकी तस्करी होने लगी। इस तस्करी को रोकने के लिये अंग्रेजों ने 1500 मील अर्थात 2400 किलोमीटर लंबी एक बाड़ बनवायी। यह बाड़ इतनी जबरदस्त थी कि कोई इंसान, जानवर इसे पार नहीं कर सकता था। यह बाड़ मिट्टी और कँटीली झाड़ियों की बनायी गयी। बीच-बीच में द्वार बने थे। केवल द्वारों से होकर ही इसे पार करना होता था - वो भी सघन तलाशी के बाद।

बाइक यात्रा: नारायण आश्रम से मुन्स्यारी

12 जून 2017 ग्यारह बजे नारायण आश्रम से चल दिये। आज मुन्स्यारी पहुँचना था, जो यहाँ से करीब 150 किलोमीटर दूर है। कल रात के समय हम यहाँ आये थे। अब दिन के उजाले में पता चल रहा था कि यह रास्ता कितना खूबसूरत है। ख़राब तो है, लेकिन खूबसूरत भी उतना ही है। शुरू में जंगल है, फिर थानीधार के बाद विकट खड़े पहाड़ हैं। थानीधार पांगु के पास है। धारचूला से पांगू तक नियमित जीपें चलती हैं। थानीधार से पूरब में थोड़ा ऊपर नारायण आश्रम का बड़ा ही शानदार दृश्य दिखता है। यहाँ एक सूचना-पट्ट लगा था - तवाघाट से थानीधार मोटर-मार्ग का निर्माण। और यह मार्ग 14 किलोमीटर लंबा होने वाला था। हमें नहीं पता था कि यह पूरा बन गया या नहीं। तो हम इसी पर चल दिये। अगर पूरा बन गया होगा, तो 10-12 किलोमीटर कम चलना पड़ेगा और अगर पूरा नहीं बना होगा तो वापस यहीं लौट आयेंगे। जरा ही आगे एक गाँव में पता चल गया कि यह मार्ग अभी पूरा नहीं बना है, तो वापस उसी रास्ते लौट आये।

नारायण स्वामी आश्रम

11 जून 2017 अभी ढाई ही बजे थे और हमें बताया गया कि दुकतू से जल्द से जल्द निकल जाओ, अन्यथा यह अनिश्चित समय तक सड़क मार्ग से कट जायेगा। सी.पी.डब्लू.डी. सड़क की खुदाई कर रहा था, इसलिये सड़क बंद होने वाली थी। हमें याद आया कि वहाँ सड़क थी ही नहीं, जीप वालों ने इधर-उधर से निकालकर आना-जाना शुरू कर दिया था। अब वे लोग जब पहाड़ खोदेंगे तो जीप वालों की वह लीक भी बंद हो जायेगी और कोई भी दुकतू न तो आ सकेगा और न ही जा सकेगा। हम दुकतू में एक दिन और रुकना चाहते थे, लेकिन अनिश्चित समय के लिये फँसना नहीं चाहते थे। सामान बाँधा और निकल पड़े। लेकिन हम यह देखकर हैरान रह गये कि उन्होंने खुदाई शुरू कर दी थी। गुस्सा भी आया कि बताने के बावज़ूद भी दस मिनट हमारी प्रतीक्षा नहीं की इन्होंने। लीक बंद हो चुकी थी। लेकिन एक संभावना नज़र आ रही थी। यहाँ पहाड़ ज्यादा विकट नहीं था और सड़क के बराबर में खेत थे। हम खेतों-खेत जा सकते थे।

पुस्तक चर्चा: पाकिस्तान में वक्त से मुलाकात

श्याम विमल द्वारा लिखित यह पुस्तक उनका एक यात्रा-संस्मरण है। लेखक का जन्म 1931 में मुलतान के शुजाबाद कस्बे में हुआ था। जब ये 16 बरस के थे, तब देश का बँटवारा हो गया और इन्हें सपरिवार अपनी जन्मभूमि छोड़कर भारत आना पड़ा। 75 साल की उम्र में ये अपनी जन्मभूमि देखने पाकिस्तान गये - 2005 में और अगले ही साल पुनः 2006 में। वहाँ जो इन्होंने देखा, महसूस किया; सब पुस्तक में लिख दिया। अपने बचपन को जीते रहे। एक-एक स्थान की, एक-एक गली की, एक-एक पडोसी की, एक-एक नाम की इन्हें याद थी और खुलकर सबके बारे में लिखा। और कमाल की बात यह थी कि इनके पुश्तैनी घर में अब मुहाज़िर लोग रह रहे थे। यानी भारत छोड़कर गये हुए मुसलमान। अधिकांश भिवानी व हाँसी के आसपास के मुसलमान। “ पूछने पर बताया गया कि जब वे मुहाजिर होकर इस घर में रहने आये थे तो यह घर लुटा-पिटा उन्हें मिला था। चौखटों के कपाट भी उखाड़ लिये गये थे। शायद वे स्थानीय या आसपास के गाँवों के मुसलमान रहे होंगे, जो बलवे के दिनों में लूटपाट करने आये होंगे। मुझे स्मरण है कि हम तो इस घर को भरा-पूरा छोड़ आये थे। इसी घर में बड़े भाई की शादी में मिले दहेज का सामान भी रखा गय

पंचचूली बेस कैंप ट्रैक

11 जून 2017 आप कभी कुमाऊँ गये होंगे मतलब नैनीताल, रानीखेत, मुक्तेश्वर, कौसानी, चौकोड़ी, मुन्स्यारी... तो आपने हिमालय की बर्फीली चोटियों के भी दर्शन किये होंगे। आपको इन चोटियों के नाम तो नहीं पता होंगे, तो इनके नाम जानने की उत्सुकता भी ज़रूर रही होगी। आप किसी स्थानीय से इनके नाम पूछते होंगे तो मुझे यकीन है कि वो नंदादेवी से भी पहले आपको पंचचूली चोटियों के बारे में बताता होगा - “वे पाँच चोटियाँ, जो एकदम पास-पास हैं, पंचचूली हैं।” आप इनके फोटो खींचते होंगे और सोने से पहले भूल भी जाते होंगे। लेकिन अब नहीं भूलेंगे। क्योंकि आप पढ़ रहे हैं इन्हीं पंचचूली के बेस कैंप जाने का यात्रा-वृत्तांत सचित्र। जहाँ से भी आपने पंचचूली देखी हैं, कल्पना कीजिये आप वहीं खड़े हैं और इन चोटियों को निहार रहे हैं। उधर त्रिशूल है, फिर नंदादेवी है और इनके दाहिने पंचचूली की पाँच चोटियाँ हैं। कर ली कल्पना? तो अब आपको बता दूँ कि हम पंचचूली के भी उस पार खड़े हैं। आपको बताया जाता होगा कि हिमालय के पार तिब्बत है, लेकिन ऐसा नहीं है। हिमालय के पार भी बड़ी दूर तक भारतीय इलाका है। हम भी उसी इलाके में खड़े हैं। आपके और हमारे बीच में

पंचचूली बेस कैंप यात्रा - दुकतू

10 जून 2017 उत्तराखंड़ के इस इलाके को दारमा घाटी कहते हैं। इसका उत्तरी सिरा तिब्बत की सीमा से मिला है। पश्चिम में रालम धुरा पार करके रालम घाटी में जाया जा सकता है। 1962 से पहले इस इलाके का तिब्बत के साथ बहुत व्यापार होता था, लेकिन अब यह बंद है। हम बाइक से सामान भी नहीं उतार पाये कि एक आदमी ने हमें घेर लिया - “भाई जी, पंचचूली बेस कैंप जाओगे?” “हाँ जी।” “तो कल मैं आपको ले जाऊँगा। अब तो जाना ठीक नहीं। दो-तीन घंटे में हो जायेगा।” “पैसे कितने लोगे?”

पंचचूली बेस कैंप यात्रा - धारचूला से दुकतू

10 जून 2017 धारचूला से तवाघाट की सड़क बहुत अच्छी बनी है। 19 किलोमीटर का यह रास्ता काली नदी के साथ-साथ ही है। बीच में एक और स्थान पर झूला पुल मिला। पुल के द्वार पर सशस्त्र सीमा बल का पहरा था। कल तक मेरे पास जो जानकारी थी, उसके अनुसार सड़क केवल सोबला तक ही बनी है। उसके बाद पैदल चलना था। लेकिन कल जीप वालों ने बता दिया कि दुकतू तक जीपें जा सकती हैं, तो बड़ी राहत मिली। दुकतू तो पंचचूली के एकदम नीचे है। कुछ ही घंटों में दुकतू से बेसकैंप घूमकर लौटा जा सकता है। लेकिन यह भी बताया कि कुछ बड़े नाले भी हैं। हमारे मोबाइल में भले ही नेटवर्क न आ रहा हो, लेकिन चलते समय मैंने इस इलाके का गूगल मैप लोड़ कर लिया था। उसका ‘टैरेन मोड़’ अब मेरे सामने था। इससे अंदाज़ा लगाते देर नहीं लगी कि कहाँ-कहाँ हमें कितने-कितने बड़े नाले मिलेंगे। सबसे बड़ा नाला तो सोबला के पास ही मिलेगा। तो अगर हम इसे पार नहीं कर सके, तो सोबला में बाइक खड़ी कर देंगे और पैदल चल पड़ेंगे। फिर भी मैंने यह पता करने की कोशिश की कि जिन ख़तरनाक नालों की बात सभी लोग कर रहे हैं, वे हैं कहाँ। लेकिन पता नहीं चल सका।

पंचचूली बेस कैंप यात्रा - धारचूला

9 जून 2017 थल समुद्र तल से लगभग 900 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। अच्छा-खासा कस्बा है। कुमाऊँ के ऐसे कस्बों में भी ठीक-ठाक चहल-पहल देखने को मिलती है। गढ़वाल और कुमाऊँ में मुझे यही अंतर देखने को मिला। कुमाऊँ ज्यादा जीवंत है। थल से निकलते ही एक तिराहा है। सीधी सड़क मुनस्यारी चली जाती है और दाहिने मुड़कर डीडीहाट। हम दाहिने मुड़ गये। हमें धारचूला जाना था। अगर सबकुछ ठीक रहा तो वापसी में मुनस्यारी से आयेंगे। डीडीहाट लगभग 1700 मीटर की ऊँचाई पर है, तो 25 किलोमीटर के इस रास्ते में चढ़ाई ही रहती है। सारा रास्ता पहाड़ के उत्तरी ढलान पर है, इसलिये घने जंगलों वाला है। वर्षावन। यहाँ चीड़ नहीं है। अगर कहीं है भी तो दूसरे अनगिनत प्रजाति के पेड़-पौधों के बीच में दुबका-सिकुड़ा-सा। जून होने के बावजूद भी यहाँ बेहतरीन हरियाली थी। अन्यथा हिमालय में मानसून के दौरान ही हरियाली आनी शुरू होती है। बाइक की स्पीड़ और कम कर ली, ताकि इस हरियाली का भरपूर आनंद लेते रहें। दो-तीन स्थानों पर नाले भी मिले, जिनका पानी सड़क पर आ गया था। कीचड़ भी मिली। रात बारिश हुई थी, तो पहाड़ से छोटे-छोटे पत्थर पानी के साथ सड़क पर आ गये थे। ये पत्थर अभी भ

पंचचूली बेस कैंप यात्रा: दिल्ली से थल

7 जून, 2017 ज़िंदगी एक बार फ़िर मेहरबान हो गयी और हमें मौका दे दिया हिमालय की ऊँचाईयों पर जाने का। कुमाऊँ हिमालय की ऊँचाईयों पर मैं कभी नहीं गया था, सिवाय कई साल पहले पिंड़ारी और कफ़नी ग्लेशियर की यात्राओं के। इस बार मिलम ग्लेशियर का इरादा बना तो दो सप्ताह की छुट्टियाँ मंज़ूर नहीं हुईं। मंज़ूरी मिली एक सप्ताह की और इतने में मिलम का भ्रमण नहीं हो सकता था। तो इस तरह पंचचूली बेस कैंप जाने पर मोहर लगी। चार जून को बिलासपुर, छत्तीसगढ़ से सुनील पांडेय जी बाइक पर लद्दाख के लिये निकले। उस दिन वे जबलपुर रुके। पाँच को मध्य प्रदेश की गर्मी ने उनकी हालत ख़राब कर दी और वे वापस लौटते-लौटते बचे। ओरछा रुके। छह तारीख़ की आधी रात को वे दिल्ली आये। उधर हमारी योजना रात के दो-तीन बजे निकल जाने की थी, ताकि हम भी दिन की गर्मी से निज़ात पा सकें। लेकिन सुनील जी के मद्देनज़र हम भी रुक गये। ऊपर से इंद्रदेव मेहरबान हो गये और अगले दिन भीषण गर्मी की संभावना समाप्त हो गयी।

पुस्तक चर्चा: “तिब्बत तिब्बत” और “एक रोमांचक सोवियत रूस यात्रा”

पिछले दिनों दो पुस्तकें पढ़ने को मिलीं। इन दोनों के बारे में मैं अलग-अलग लिखने वाला था, लेकिन एक कारण से एक साथ लिख रहा हूँ। पहले चर्चा करते हैं ‘तिब्बत तिब्बत’ की। इसके लेखक पैट्रिक फ्रैंच हैं, जो कि मूल रूप से ब्रिटिश हैं। हिंदी अनुवाद भारत पाण्डेय ने किया है - बेहतरीन उच्च कोटि का अनुवाद। लेखक की तिब्बत और अंतर्राष्ट्रीय मामलों में गहरी रुचि साफ़ झलकती है। वे भारत में मैक्लोड़गंज में तिब्बतियों से काफ़ी हद तक जुड़े हुए भी हैं और उनके साथ काफ़ी समय व्यतीत किया है। 1986 में उन्होंने पर्यटक बनकर तिब्बत की यात्रा की थी। तो यह पुस्तक मूलतः एक यात्रा-वृत्तांत ही है, लेकिन इसमें तिब्बत और चीन के साथ संबंधों पर सबकुछ लिखा गया है। कहीं भी लेखक भटकता हुआ महसूस नहीं हुआ। उन्होंने तिब्बत की यात्रा अकेले की और दूर-दराज़ में तिब्बतियों के साथ भी काफ़ी समय बिताया, जो तिब्बत में एक बहुत बड़ी बात थी। ऐसा होना आज भी बड़ी बात है। कुल चौबीस अध्याय हैं। शुरूआती अध्यायों में तिब्बत और निर्वासित तिब्बतियों से परिचय कराया गया है। लेखक चीन पहुँच जाता है और अपनी यात्रा भी आरंभ करता है। हम छठें अध्याय से चर्चा

‘कुमारहट्टी से जानकीचट्टी’ यात्रा की वीड़ियो

पिछले दिनों हमारी “ कुमारहट्टी से जानकीचट्टी ” यात्रा-श्रंखला प्रकाशित हुई। इस दौरान फ़ेसबुक पेज पर कुछ वीड़ियो भी अपलोड़ कीं। उन्हीं वीड़ियो को यहाँ ब्लॉग पर भी प्रकाशित किया जा रहा है। यदि आपने फेसबुक पेज पर वीड़ियो न देखी हों, तो यहाँ देख सकते हैं। इस यात्रा के सभी भाग: 1. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी 2. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग दो 3. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग तीन (त्यूणी और हनोल) 4. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग चार (हनोल से पुरोला) 5. बाइक यात्रा: पुरोला से खरसाली 6. बाइक यात्रा: खरसाली से दिल्ली 7. ‘कुमारहट्टी से जानकीचट्टी’ यात्रा की वीडियो

बाइक यात्रा: खरसाली से दिल्ली

इस यात्रा-वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें । 21 मई 2017 कल ही तय हो गया था कि मैं और नरेंद्र आज सुबह-सवेरे पाँच बजे यमुनोत्री जायेंगे और रणविजय यहीं रहेगा। लेकिन पाँच कब बज गये, किसी को भी पता नहीं चला। छह बजे तक आँखें तो तीनों की खुल गयीं, लेकिन उठा कोई नहीं। सात भी बज गये और रणविजय व नरेंद्र फ्रेश होकर फिर से रज़ाईयों में दब गये। तीनों एक-दूसरे को ‘उठो भई’ कहते रहे और समय कटता रहा। अचानक मुझे महसूस हुआ कि कमरे में मैं अकेला हूँ। बाकी दोनों चुप हो गये - एकदम चुप। मैंने कुछ देर तक ‘नरेंद्र उठ, रणविजय उठ’ कहा, लेकिन कोई आहट नहीं हुई। मुझे कुछ अटपटा लगा। मामला क्या है? ये दोनों सो तो नहीं गये। ना, सवाल ही नहीं उठता। मैं सो सकता हूँ, लेकिन अब ये दोनों नहीं सो सकते। इसका मतलब मुझसे मज़ाक कर रहे हैं। इनकी ऐसी की तैसी! पूरी ताकत लगाकर रणविजय की रज़ाई में घुटना मारा, लेकिन यह क्या! घुटना रणविजय की रज़ाई पार करता हुआ नरेंद्र की रज़ाई तक पहुँच गया। किसी को भी नहीं लगा।

बाइक यात्रा: पुरोला से खरसाली

इस यात्रा-वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें । 20 मई 2017 पुरोला से सुबह साढ़े आठ बजे चल दिये। बाज़ार में चहल-पहल थी। देहरादून की बस भी खड़ी थी। कुछ ही आगे नौगाँव है। यमुना किनारे बसा हुआ। यमुना नदी पार करते ही हम नौगाँव में थे। नौगाँव समुद्र तल से लगभग 1100 मीटर ऊपर है, इसलिये खूब गर्मी थी। नहाने का मन था, लेकिन नहीं नहाये। नौगाँव पार करते ही एक रेस्टॉरेंट पर रुक गये। “क्या खाओगे भाई जी?”

बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग चार (हनोल से पुरोला)

इस यात्रा-वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें । 19 मई 2017 हनोल से निकलते ही चीड़ का जंगल आरंभ हो गया और बगल में टोंस नदी। आनंदमय कर देने वाला वातावरण। पाँच-छह किलोमीटर आगे एक स्थान है - चीड़ समाधि। पता नहीं यह एशिया का सबसे ऊँचा पेड़ था या दुनिया का, लेकिन बहुत ऊँचा था। 60 मीटर से भी ज्यादा ऊँचा। 2007 में तूफ़ान के कारण यह टूटकर गिर पड़ा। इसकी आयु लगभग 220 वर्ष थी। पर्यावरण और वन मंत्रालय ने इसे ‘महावृक्ष’ घोषित किया हुआ था। अब जब यह टूट गया तो इसकी समाधि बना दी गयी। इसे जमीन में तो नहीं दफ़नाया, लेकिन इसे काटकर इसके सभी टुकड़ों को यहाँ संग्रहीत करके और सुरक्षित करके रखा हुआ है। चीड़ की एक कमी होती है कि यह किसी दूसरी वनस्पति को नहीं पनपने देता, लेकिन इसकी यही कमी इसकी खूबी भी होती है। सीधे खड़े ऊँचे-ऊँचे चीड़ के पेड़ एक अलग ही दृश्य उपस्थित करते हैं। हम ऐसे ही जंगल में थे। आनंदमग्न।

बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग तीन (त्यूणी और हनोल)

इस यात्रा-वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें । 19 मई 2017 तो हम उठे आराम से। बड़े आराम से। रात बारिश हुई थी तो मौसम सुहावना हो गया था, अन्यथा त्यूणी 900 मीटर की ऊँचाई पर बसा है, खूब गर्म रहता है। मानसून और सर्दियों में आने लायक जगह है त्यूणी। रणविजय ने कहा - “गुरूदेव, त्यूणी मुझे पसंद आ गया। गर्मी छोड़कर यहाँ कभी भी आया जा सकता है। 300 रुपये का शानदार कमरा और स्वादिष्ट भोजन और दो नदियों का संगम... इंसान को और क्या चाहिये ज़िंदगी में? बच्चों को लेकर आऊँगा अगली बार।” इंसान ‘अगली बार’ कह तो देता है, लेकिन ‘अगली बार’ आसानी से आता नहीं। तो अब हमारे सामने प्रश्न था - आगे कहाँ जाएँ? अभी हमारे हाथ में तीन दिन और थे। एक ने कहा - “ चकराता चलो।” मैंने ऑब्जेक्शन किया - “तीन दिन चकराता में? अभी तो टाइगर फाल में भी पानी रो-रो कर आ रहा होगा।”

बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग दो

इस यात्रा-वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें । 18 मई 2017 हम सुबह ही उठ गये। मतलब इतनी सुबह भी नहीं। फ्रेश होने गये तो एहसास होने लगा कि 500 रुपये का कमरा लेकर ठगे गये। चार-पाँच कमरों का एक साझा टॉयलेट ही था। उसमें भी इतनी गंदगी कि मामला नीचे उतरने की बजाय वापस ऊपर चढ़ गया। होटल मालिक हालाँकि अब नशे में तो नहीं था, लेकिन आँखें टुल्ल ही थीं। वह पूरे दिन शायद पीता ही रहता हो। सैंज समुद्र तल से लगभग 1400 मीटर की ऊँचाई पर है। जब छैला तिराहे पर पहुँचा तो मैं आगे था। मुझसे आगे एक बस थी, जिसे ठियोग की तरफ़ जाना था। तिराहे पर वह एक ही फेरे में नहीं मुड़ सकी तो ड्राइवर उसे बैक करके दोबारा मोड़ने लगा। इतने में रणविजय और नरेंद्र तेजी से पीछे से आये और ठियोग की तरफ़ मुड़कर चल दिये। मैं जोर से चीखा - “ओये।” लेकिन दोनों में से किसी पर कुछ भी असर नहीं हुआ। फोन किया - “वापस आओ।” आज्ञाकारी शिष्यों की तरह दोनों लौट आये।

बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी

इस यात्रा को क्या नाम दूँ? समझ नहीं पा रहा। निकले तो चांशल पास के लिये थे, लेकिन नहीं जा सके, इसलिये चांशल यात्रा भी कहना ठीक नहीं। फिर दिशा बदलकर उत्तराखंड़ में चले गये, फिर भी उत्तराखंड़ यात्रा कहना ठीक नहीं। तो काफ़ी मशक्कत के बाद इसे यह नाम दिया है - कुमारहट्टी से जानकीचट्टी की यात्रा। उत्तरकाशी यात्रा में मेरे सहयात्री थे रणविजय सिंह। यह हमारी एक साथ पहली यात्रा थी। बहुत अच्छी बनी हम दोनों में। इसी से प्रेरित होकर अगली यात्रा के लिये भी सबसे पहले रणविजय को ही टोका - “एक आसान ट्रैक पर चलते हैं 16 से 20 मई, बाइक लेकर।” रणविजय - “भई वाह, बस बजट का थोड़ा-सा अंदाज़ा और बता दो।” “हम खर्चा करते ही नहीं। बाइक का तेल और 2000 और जोड़ लो। 1000-1200 किलोमीटर बाइक चलेगी।” रणविजय - “फ़िर तो ठीक है। चलेंगे।” ... कुछ दिन बाद... मैं - “एक मित्र पीछे बैठकर जाना चाहते हैं। मैं तो बैठाऊँगा नहीं। क्या तुम बैठा लोगे?”

छत्तीसगढ़ में नैरोगेज ट्रेन यात्रा

29 अप्रैल 2017 को अचानक ख़बर मिली कि छत्तीसगढ़ की एकमात्र नैरोगेज रेलवे लाइन और भी छोटी होने जा रही है। किसी ज़माने में रायपुर जंक्शन से ट्रेनें आरंभ होती थीं, लेकिन पिछले कई सालों से तेलीबांधा से ट्रेनें चल रही हैं। रायपुर जंक्शन और तेलीबांधा के बीच में रायपुर सिटी स्टेशन था, जहाँ अब कोई ट्रेन नहीं जाती। तो ख़बर मिली कि 1 मई से यानी परसों से ये ट्रेनें तेलीबांधा की बजाय केन्द्री से चला करेंगी। यानी तेलीबांधा से केन्द्री तक की रेलवे लाइन बंद हो जायेगी और इनके बीच में पड़ने वाले माना और भटगाँव स्टेशन भी बंद हो जायेंगे। मैं इसलिये भी बेचैन हो गया कि रायपुर से केन्द्री तक इस लाइन का गेज परिवर्तन नहीं किया जायेगा। इसके बजाय रायपुर से मन्दिर हसौद और नया रायपुर होते हुए नयी ब्रॉड़गेज लाइन केन्द्री तक बनायी जा रही है। केन्द्री से आगे धमतरी और राजिम तक गेज परिवर्तन किया जायेगा। केन्द्री तक का यह नैरोगेज का मार्ग रायपुर प्रशासन को सौंप दिया जायेगा, जहाँ हाईवे बनाया जायेगा। अब जबकि केन्द्री तक नैरोगेज की यह लाइन बंद हो ही जायेगी, तो कभी भी इस पर हाईवे बनाने का काम आरंभ हो सकता है। यानी रायपुर स

धनबाद-राँची पैसेंजर रेलयात्रा

पिछले दिनों अचानक दिल्ली के दैनिक भास्कर में ख़बर आने लगी कि झारखंड़ में एक रेलवे लाइन बंद होने जा रही है, तो मन बेचैन हो उठा। इससे पहले कि यह लाइन बंद हो, इस पर यात्रा कर लेनी चाहिये। यह लाइन थी डी.सी. लाइन अर्थात धनबाद-चंद्रपुरा लाइन। यह रेलवे लाइन ब्रॉड़गेज है। इसका अर्थ है कि इसे गेज परिवर्तन के लिये बंद नहीं किया जायेगा। यह स्थायी रूप से बंद हो जायेगी। झरिया कोलफ़ील्ड़ का नाम आपने सुना होगा। धनबाद के आसपास का इलाका कोयलांचल कहलाता है। पूरे देश का कितना कोयला यहाँ निकलता है, यह तो नहीं पता, लेकिन देश की ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने में इस इलाके का अहम योगदान है। इधर आप जाओगे, आपको हर तरफ़ कोयला ही कोयला दिखेगा। कोयले की भरी हुई मालगाड़ियाँ अपनी बारी का इंतज़ार करती दिखेंगी। इसलिये यहाँ रेलवे लाइनों का जाल बिछा हुआ है। कुछ पर यात्री गाड़ियाँ भी चलती हैं, लेकिन वर्चस्व मालगाड़ियों का ही है।

हुसैनीवाला में बैसाखी मेला और साल में एक दिन चलने वाली ट्रेन

हुसैनीवाला की कहानी कहाँ से शुरू करूँ? अभी तक मैं यही मानता आ रहा था कि यहाँ साल में केवल एक ही दिन ट्रेन चलती है, लेकिन जैसे-जैसे मैं इसके बारे में पढ़ता जा रहा हूँ, नये-नये पन्ने खुलते जा रहे हैं। फिर भी कहीं से तो शुरूआत करनी पड़ेगी। इसकी कहानी जानने के लिये हमें जाना पड़ेगा 1931 में। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को लाहौर षड़यंत्र केस व अन्य कई मामलों में गिरफ़्तार करके फाँसी की सज़ा घोषित की जा चुकी थी। तय था कि 24 मार्च को इन्हें लाहौर जेल में फाँसी दे दी जायेगी। लेकिन उधर जनसाधारण में देशभक्ति की भावना भी भरी हुई थी और अंग्रेजों को डर था कि शायद भीड़ बेकाबू न हो जाये। तो उन्होंने एक दिन पहले ही इन तीनों को फाँसी दे दी - 23 मार्च की शाम सात बजे। जेल के पिछवाड़े की दीवार तोड़ी गयी और गुपचुप इनके शरीर को हुसैनीवाला में सतलुज किनारे लाकर जला दिया गया। रात में जब ग्रामीणों ने इधर अर्थी जलती देखी, तो संदेह हुआ। ग्रामीण पहुँचे तो अंग्रेज लाशों को अधजली छोड़कर ही भाग गये। लाशों को पहचान तो लिया ही गया था। इसके बाद ग्रामीणों ने पूर्ण विधान से इनका क्रिया-कर्म किया। आज उसी स्थान पर समाधि स्थल बन