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मेरी दूसरी किताब: हमसफ़र एवरेस्ट


जून 2016 में एवरेस्ट बेसकैंप की यात्रा से लौटने के बाद बारी थी इसके अनुभवों को लिखने की। अमूमन मैं यात्रा से लौटने के बाद उस यात्रा के वृत्तांत को ब्लॉग पर लिख देता हूँ, लेकिन इस बार ऐसा नहीं किया। इरादा था कि इसे पहले किताब के रूप में प्रकाशित करेंगे।

लिखने का काम मार्च 2017 तक पूरा हुआ। अब बारी थी प्रकाशक ढूँढ़ने की। सबसे पहले याद आये हिंदयुग्म के संस्थापक शैलेश भारतवासी जी। पिछले साल जब मैं ‘लद्दाख में पैदल यात्राएँ’ लिख चुका था, तब भी शैलेश जी से ही संपर्क किया था। तब हिंदयुग्म नया-नया शुरू हुआ था और बुक पब्लिशिंग में ज्यादा आगे भी नहीं था। तब उन्होंने कहा था - “नीरज, अभी हमारा मार्केट बहुत छोटा-सा है। अच्छा होगा कि तुम किसी बड़े प्रकाशक से किताब प्रकाशित कराओ।” और ‘लद्दाख में पैदल यात्राएँ’ दस हज़ार रुपये देकर सेल्फ पब्लिश करानी पड़ी थी।
तो इस बार भी शैलेश जी से ही सबसे पहले संपर्क किया। अब तक हिंदयुग्म एक बड़ा प्रकाशक बन चुका था और बाज़ार में अच्छी पकड़ भी हो चुकी थी। इनकी कई किताबें तो बिक्री के रिकार्ड तोड़ रही थीं।




आगे बढ़ने से पहले एक बात और बताना चाहता हूँ। अपनी पहली किताब प्रकाशित होने के बाद मुझे प्रकाशन के बारे में काफी जानकारी हो चुकी थी। यह भी पता चल चुका था कि प्रकाशक लेखक से दस हज़ार रुपये से लेकर पचास हज़ार रुपये तक लेते हैं। उन्हीं दिनों ऋषि राज जी की ‘देशभक्ति के पावन तीर्थ’ प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित हुई। तो जिज्ञासावश मैंने ऋषि राज जी से पूछ लिया - “आपके कितने पैसे लगे इसे प्रकाशित कराने में?”
“एक भी नहीं।”
“मतलब?”
“मतलब एक भी पैसा नहीं लगा।”
और उस दिन पहली बार समझ में आया कि किताबें फ्री में भी प्रकाशित हो सकती हैं। इससे पहले मैं यही मानता था कि प्रकाशन का एक न्यूनतम खर्च तो होता ही है। ज़रूरी नहीं कि उतनी किताबें बिक ही जायें कि उस खर्च की भरपाई हो जाये। तो प्रकाशक पहले ही लेखक से पैसे ले लेता है। किताब ठीक बिक गयी तो लेखक को रॉयल्टी मिल जायेगी, अन्यथा नहीं मिलेगी। 
और जब शैलेश जी ने एक चैप्टर पढ़ते ही कहा कि हम तुम्हारी किताब प्रकाशकीय खर्च से छापेंगे, तो कानों पर यक़ीन नहीं हुआ।
“क्या कहा सर? हमारे यहाँ नेटवर्क की समस्या है। दोबारा बताइये।”
“हम इस किताब को प्रकाशकीय खर्च से छापेंगे।”
“तो मतलब मुझे कम पैसे देने पड़ेंगे?”
“नहीं, एक भी पैसा नहीं देना।”
“मतलब फ्री में?”
“हाँ।”
उस दिन हमने पिज़्ज़े की दावत उड़ायी। 




“सर, एक रिक्वेस्ट थी। मैं चाहता हूँ कि किताब अप्रैल में ही आ जाये। क्योंकि यात्रा किये आठ-नौ महीने हो चुके हैं और मेरे सभी मित्र इस यात्रा के बारे में पढ़ना चाहते हैं। और अब गर्मियाँ भी शुरू हो रही हैं, ट्रैकिंग का सीजन भी शुरू हो रहा है, तो उधर जाने वालों के भी काम आयेगी यह किताब।”
“देखो नीरज, किताब एक महीने में आ तो सकती है। लेकिन ऐसा करना ठीक नहीं है। हम इसकी अच्छी मार्केटिंग करेंगे और नये प्रोडक्ट के लिये इसमें एक न्यूनतम समय तो लगेगा ही।”
और कुछ दिन बाद डिसाइड हुआ कि जुलाई 2017 में किताब मार्किट में आ जायेगी।
अक्टूबर आ गया और किताब का कोई पता नहीं। समय-समय पर याद भी दिलाता रहा, लेकिन किताब प्रकाशित होने की कोई संभावना नहीं दिखायी पड़ी। बहुत परेशान भी रहा। मैं अप्रैल में ही इसे लाना चाहता था, फिर जुलाई की योजना बनी और अक्टूबर तक इसमें कुछ भी नहीं हुआ। एडिटिंग तक नहीं हुई, प्रूफ-रीडिंग तो दूर की बात थी। पता नहीं कितना समय लगेगा। मन बना लिया कि इसे मैं स्वयं प्रकाशित करूंगा। दीप्ति के नाम से सिंगल-पर्सन कंपनी खोलकर वहीं से प्रकाशित करूंगा। फिर पता चला कि बिना ‘कंपनी’ के भी अपनी किताब प्रकाशित कर सकते हैं। अब सोचा कि ब्लॉग के नाम से प्रकाशित करूँगा। उस समय तक ब्लॉग का यूआरएल neerajjaatji.blogspot.in हुआ करता था। इसे बदलकर www.neerajmusafir.com किया। इसी नाम से प्रकाशित करूंगा। तब तक मैंने किताब का नाम ‘एवरेस्ट के चरणों में’ रखा हुआ था।
“www.neerajmusafir.com की प्रस्तुति
एवरेस्ट के चरणों में
लेखक: नीरज मुसाफ़िर”
अपने इस निर्णय के बारे में एक बार फिर सोचा। हिंदयुग्म जैसे बड़े प्रकाशन से पीछे हटने के अपने नुकसान थे। क्या फ़र्क पड़ेगा? कुछ प्रतियाँ कम बिकेंगी। हिंदयुग्म से हज़ार प्रतियाँ बिक जायेंगी, मैं दो सौ ही बेचूंगा। वैराग्य उत्पन्न हो गया। 
और आख़िरकार अक्टूबर के आरंभ में शैलेश जी को मेल कर दी - “साब जी, मैं नी जी। बस, म्हारी-थारी रामराम जी।”
कुछ ही देर में फोन आ गया - “ओ, कुछ दिन रुक यार। बड़ा आया रामराम वाला।”
और सचमुच कुछ दिन बाद फिर से फोन आया - “नीरज भाई, लड़की हुई है।”
“अरे वाह, मुबारक हो।”
“नाम रखा है ‘हमसफ़र ...’।”
“लड़की का यह कैसा नाम है?”
“नहीं रे, तेरी किताब का नाम है ‘हमसफ़र एवरेस्ट’।”
“वाह वाह, बहुत अच्छा नाम है। कितने महीने लगेंगे आने में?”
“महीने नहीं, अब तो दिन गिन।”
और इसके बाद जो काम शुरू हुआ, मज़ा आ गया। इधर मैं किताब की प्रूफ-रीडिंग कर रहा था, उधर अमेजन पर प्री-बुकिंग शुरू हो गयी। 10 नवंबर की तारीख़ निर्धारित कर दी। यह नवंबर का पहला सप्ताह चल रहा था। 7 नवंबर से हमें अरुणाचल के लिये निकलना था। और प्रकाशक ने बताया कि प्री-बुकिंग वालों को लेखक द्वारा हस्ताक्षरित प्रतियाँ मिलेंगी। मैं सोच में पड़ गया कि तीन-चार दिन बाद ही अरुणाचल के लिये निकलना है, दस तारीख़ को लांचिंग है, हस्ताक्षर कैसे होंगे!
और पता है? छह नवंबर की शाम सात बजे मैं प्रिंटिंग प्रेस में था, चारों तरफ ‘हमसफ़र एवरेस्ट’ के ही पन्ने बिखरे थे, खटाखट-खटाखट मशीनें चल रही थीं और मैं 300 प्रतियों पर हस्ताक्षर करने में जुटा था। साथ में कोई शुभकामना संदेश भी - ‘सैर कर दुनिया की’, ‘ज़िंदगानी फिर कहाँ’, ‘हिमालय बुला रहा है’, ‘यात्राएँ करते रहें’ इत्यादि।





...
वैसे तो इसमें एक दिन के हिसाब से एक चैप्टर बनाया गया है, लेकिन कुल मिलाकर इसे तीन भागों में बाँट सकते हैं। नंबर एक - दिल्ली से काठमांडू और उससे भी आगे फाफलू और ताकशिंदो-ला तक मोटरसाइकिल से यात्रा। नंबर दो - ताकशिंदो-ला से नामचे बाज़ार होते हुए गोक्यो झीलों की यात्रा और नंबर तीन - गोक्यो झीलों से चो-ला दर्रा पार करके एवरेस्ट बेसकैंप की यात्रा और वापस भारत लौटने की यात्रा। यात्रा करने का यह वो मार्ग है जो ट्रैकर्स में बिल्कुल भी लोकप्रिय नहीं है। इस मार्ग के यात्रा-वर्णन इंटरनेट पर भी बहुत कम मिलते हैं। ज्यादातर ट्रैकर्स काठमांडू से लुकला तक फ्लाइट से जाते हैं और उसके बाद अपनी यात्रा आरंभ करते हैं। कुछ ट्रैकर्स काठमांडू से जीरी तक बस से जाते हैं और फिर अपनी पैदल-यात्रा आरंभ करते हैं। फाफलू वाला मार्ग थोड़ा अलग है और बहुत कम ट्रैकर्स इस मार्ग का प्रयोग करते हैं। 





अब एक नज़र आम पाठक के नज़रिये से भी डाल लेते हैं:
1. किताब रोचक शैली में लिखी गयी है। आप कभी भी बोर नहीं होंगे। लेखक आपको यात्रा पर ले जाता है; जो स्वयं देखता है, वही आपको भी दिखा देता है। चलता रहता है, रुकता कम है, इसलिये भावनात्मक बातों का ज्यादा वर्णन नहीं है, लेकिन एक-दो स्थानों पर आप भावुक अवश्य हो जायेंगे। 
2. यात्रा से एक साल पहले नेपाल में महाविनाशकारी भूकंप आया था। इसका कोई वर्णन किताब में नहीं है, एकाध स्थानों पर मामूली ज़िक्र को छोड़कर। इसके अलावा नेपाल के जनजीवन का, लोगों के दुखों का वर्णन भी न के बराबर है। एक ही उद्देश्य था - एवरेस्ट बेसकैंप तक जाना। लेखक अपने उसी उद्देश्य पर डटा रहा। 
3. लेखक चूँकि साहसिक यात्राओं में, खासकर ट्रैकिंग में रुचि रखता है, इसलिये दूरी-ऊँचाई के आँकड़ों का समुचित प्रयोग किया है। कई बार आपको महसूस भी हो सकता है कि किताब में दूरी-ऊँचाई-खर्चे का ही वर्णन है।
4. किताब में केवल 12 चित्र हैं, वो भी ब्लैक एंड व्हाइट। रंगीन चित्र देखने के लिये आपको कुछ दिन प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। 2018 में ब्लॉग पर इस यात्रा के ज्यादातर चित्रों का प्रदर्शन किया जायेगा।
5. आप जान ही गये हैं कि नवंबर के पहले सप्ताह में किताब तैयार की गयी है और इसमें लेखक-प्रकाशक सभी ने दिन-रात काम किया है। इसलिये जल्दबाज़ी में नक्शा लगना छूट गया। पूरे ट्रैक रूट का नक्शा और दूरी-ऊँचाई नक्शा भी मुझे इसमें लगाना चाहिये था। लेकिन उम्मीद है कि किताब पढ़ते हुए आपको नक्शे की कमी महसूस नहीं होगी।

किताब फिलहाल अमेजन पर ही उपलब्ध है। जल्द ही मेरे पास भी उपलब्ध हो जायेगी और प्रकाशक भी अन्य कई प्लेटफार्मों पर उपलब्ध करा देगा। तो अमेजन से ही खरीद लीजिये। बाद में जैसा भी होगा, फेसबुक के माध्यम से आपको सूचित कर दूंगा। यदि अमेजन पर कोई समस्या आ रही है, तो नीचे कमेंट करके अवश्य सूचित करना।
लेटेस्ट अपडेट: किताब मेरे पास (शास्त्री पार्क, दिल्ली) भी उपलब्ध हैं।



...
और ठीक इसी दौरान मेरी दो अन्य किताबें भी प्रकाशित हुई हैं। इनमें एक है ‘पैडल पैडल’ जो कि मेरी लद्दाख साइकिल यात्रा पर आधारित है और दूसरी है ‘सुनो लद्दाख!’ जो कि पहली किताब ‘लद्दाख में पैदल यात्राएँ’ का ही नवीनतम, आकर्षक और सस्ता संस्करण है। आप इन सभी किताबों को एक साथ भी खरीद सकते हैं। 
‘पैडल पैडल’ और ‘सुनो लद्दाख!’ के बारे में अगले सप्ताह विस्तार से बताऊँगा।



Comments

  1. बधाई हो नीरज जी, हमें गर्व हैं आप पर, आज ही आपकी दोनों पुस्तके बुक कराई हैं...

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  2. किताब तो पहुँच गयी। किताब आने की कहानी जानकर अच्छा लगा।

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  3. पुस्तक डाक से कैसे प्राप्त करें जी।

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    Replies
    1. घर का पता बता दीजिये... फोन नंबर भी... मैं भेज दूंगा...

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    2. Likhmaram Juanita
      P.o.Lalgarh
      District.Churu (Rajasthan)
      PIN 331518
      हमसफर एवरेस्ट और लद्दाख साईकिल दोनों पुस्तकों की कीमत मय डाक खर्च और आपका बैंक खाता संख्या लिख भेजें। धन्यवाद।

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    3. लिखमाराम ज्याणी
      पोस्ट लालगढ जिला चुरू राजस्थान
      पिन 331518

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  4. नीरज जी इस किताब को गूगल प्ले स्टोर पर भी उप्लब्ध करा सकते है क्या

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  5. मेरी वाली में लिखा था यही समय है घूमने का ।

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  6. बहुत कमाल लिखा है आपने...वर्णन इतना रोचक है कि किताब छूट ती नहीं हाथ से...गजब कर दिया भाई...

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  7. में तो पूरी किताब पड़ते पड़ते,
    गूगल मैप पे यात्रा रुट देखता गया,
    हो गया नक्शा का काम

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  8. नमस्ते, आपकी यह प्रस्तुति "पाँच लिंकों का आनंद" ( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में गुरूवार 23-11-2017 को प्रकाशनार्थ 860 वें अंक में सम्मिलित की गयी है। प्रातः 4:00 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक चर्चा हेतु उपलब्ध होगा।
    चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर। सधन्यवाद।

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  9. वाह लंकी है आप ,मेरी एक किताब अमृता पर इधर उधर हो कर मेरे पास ही है वापस ,पैसे नही दे सकती 😊वैसे मेरे पास जो आपकी बुक में आपके द्वारा लिखा सन्देश आया है ,वह है सैर कर दुनिया की और फिलहाल आगे की ज़िंदगी का यही मकसद है 😊👍शुक्रिया

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  10. नीरज जी शास्त्री पार्क से ही ले लेंगे आपके पास से आपसे मुलाकात हो जाएगी एक कप चाय भी पी कर जाएंगे

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  11. Neeraj bhai AAP ne to Yatra vivrad Mai bahut bhabuk kar diya.par baat hai aapki Yatra romanchak bhi Hoti HAI aor agli Yatra ki path pradarsak bhi .badhayi ji AAP Hawa ki tarah badey aor Paani ki tarah chale.

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  12. बधाई हो नीरज, मुसाफिर चल चला चल......

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  13. बहुत बहुत बधाई नीरज भाई.. वैसे तो में आपके उन पाठको में से एक हु जो ब्लॉग पढ़के बिना दुआ सलाम ही कट लेते है.. पर क्योंकि ये किताब आज मेरे हाथ लगी है और इसमें आपका हस्ताक्षर भी.. तो आज के दिन बिना आपकी तारीफ के नहीं निकल पाउगा..

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  14. नीरज भाई..सबसे पहले तो बहुत बहुत बधाई.किताब पढ़ना शुरू कर चुका हूँ..बेहद रोचक है.हमेशा की तरह.हाँ एक बात बताऊं, यमुना एक्सप्रेसवे पर हर थोड़ी दूर पर स्पीड लिमिट लिखी है.कार 100 KM /hr . बस - 60 KM /hr .लेकिन लोग मानते कहाँ है..8 चैप्टर पढ़ चुका हूँ..आनंद आ रहा है. और कमेंट लिखूंगा.थोड़ा और पढ़ लूँ

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  15. ट्रेन में सफर करते हुए दिन भर में पूरी किताब पढ़ डाली। सफर का पता भी ना चला। अब आपके ब्लॉग पर इसके चित्रों का इन्तजार है।

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