19 मई 2017
तो हम उठे आराम से। बड़े आराम से। रात बारिश हुई थी तो मौसम सुहावना हो गया था, अन्यथा त्यूणी 900 मीटर की ऊँचाई पर बसा है, खूब गर्म रहता है। मानसून और सर्दियों में आने लायक जगह है त्यूणी। रणविजय ने कहा - “गुरूदेव, त्यूणी मुझे पसंद आ गया। गर्मी छोड़कर यहाँ कभी भी आया जा सकता है। 300 रुपये का शानदार कमरा और स्वादिष्ट भोजन और दो नदियों का संगम... इंसान को और क्या चाहिये ज़िंदगी में? बच्चों को लेकर आऊँगा अगली बार।”
इंसान ‘अगली बार’ कह तो देता है, लेकिन ‘अगली बार’ आसानी से आता नहीं।
तो अब हमारे सामने प्रश्न था - आगे कहाँ जाएँ? अभी हमारे हाथ में तीन दिन और थे। एक ने कहा - “चकराता चलो।” मैंने ऑब्जेक्शन किया - “तीन दिन चकराता में? अभी तो टाइगर फाल में भी पानी रो-रो कर आ रहा होगा।”
तो दो विकल्प हमारे पास थे। या तो शिलाई की ओर या हनोल की ओर। शिलाई की ओर जायेंगे तो चूड़धार जा सकते थे। हालाँकि मैं पहले चूड़धार जा चुका था, लेकिन दोबारा जाने के लिये भी अच्छी जगह है। तब मैं नोहराधार से चढ़ा था और हरिपुरधार की ओर उतरा था। इस बार चौपाल से चढ़ा जा सकता था। पैदल रास्ता कितना है, पता नहीं। स्थानीयों ने बताया कि छह किलोमीटर ही पैदल है। इनके छह किलोमीटर सोलह किलोमीटर से भी ज्यादा होते हैं। और यदि छह किलोमीटर ही है तो चढ़ाई भयंकर वाली होगी। रणविजय ज्यादा पैदल नहीं चल सकता था। खींच-तान कर छह किलोमीटर तो चल देता, लेकिन इससे ज्यादा नहीं। और भयंकर चढ़ाई में तो उतना भी नहीं। हालाँकि मैंने कभी रणविजय को ट्रैकिंग में आजमाया नहीं था, लेकिन रणविजय स्वयं ही इतनी जानकारियाँ दे दिया करता था।
तो मेरा निर्णय ये है कि शिलाई की तरफ़ नहीं जा रहे।
अब एक ही विकल्प बचा - हनोल की तरफ़ चलो। कहाँ? हर की दून उधर ही है, लेकिन उसके लिये ज्यादा समय चाहिये और रणविजय भी नहीं होना चाहिये। तो हर की दून कैंसिल। टोंस घाटी से उधर यमुना घाटी है। यमुनोत्री चलते हैं।
लेकिन ऑब्जेक्शन करना केवल मुझे थोड़े ही आता था। रणविजय ने आपत्ति की - “तो अगर हम यमुनोत्री जायेंगे, तो क्या हम और ज्यादा दूर नहीं जा रहे दिल्ली से? क्या आख़िरी दिन हमें बहुत ज्यादा नहीं चलना पड़ेगा?”
मैंने समझाया - “हमारी यात्राओं में पहला और आख़िरी दिन खींचतान का होता है। बीच के दिन आराम के होते हैं।”
और सब मान गये। मानना पड़ा। मानना पड़ता।
...
चाय की दुकान पर पहुँचे। इससे पहले कि रणविजय बोलता - “मीठा कम रखना", मैंने बोल दिया - “तेज मीठा रखना।" रणविजय तेज मीठे की चाय पी तो लेता है, लेकिन नख़रे पचास करता है।
चायवाला एकदम मस्तमौला आदमी था। स्टील के गिलास ऐसे भरकर दे दिये कि पकड़े भी नहीं गये। ऐसे में रणविजय ने झूमते हुए आदेश दिया - “आओ, पुल पर चलते हैं।” बगल में ही पब्बर पर बना झूला पुल था। मैंने मना किया, नरेंद्र ने मना किया, लेकिन अपने से 10 साल बड़े का आदेश मानना पड़ा। वही चाय, वही गिलास, उसी हाथ में, वैसे ही पकड़कर चलना पड़ा। मन तो बहुत किया कि सड़क पर ही बैठ जाऊँ और चाय पीकर उठूँ। लेकिन बड़े भाई की इज़्ज़त का ख़्याल बार-बार आ जाता।
तो चाय लेकर हम पुल पर चढ़ गये। झूला पुल हिलते हैं। बड़ी परेशानी हुई पार करने में। पुल के एक-दो फट्टे टूटे थे, लेकिन फिर भी यह पार करने के लिये सुरक्षित था। लोग-बाग आ-जा भी रहे थे। हम फोटो खींच रहे थे। चाय पी रहे थे। एक-दूसरे को उंगल कर रहे थे। और आते-जाते लोग-लुगाई, बाल-बच्चे विस्मय और खुशी दोनों भावों से हमें देख भी रहे थे।
भला हिमालय में 900 मीटर की ऊँचाई पर मई के महीने में कभी हरियाली होती है? यहाँ भी नहीं थी। पहाड़ सूखे थे। वैसे भी भावर-जौसनार के पहाड़ सूखे ही होते हैं। बहुत साल पहले, मतलब 12-13 साल पहले हरिद्वार में एक बस वाले से बातचीत हो रही थी। मैं बसों में बोनट पर बैठने का शौकीन था और ड्राइवर बातूनी था-
“देखो भाई, मैंने पूरे उत्तरांचल में बसें चलायी हैं। लेकिन जो सबसे बेकार इलाका है, वो है त्यूणी का इलाका। न हरियाली है और न आबादी। एकदम सूखा। बीस-बीस, पचास-पचास किलोमीटर तक सड़क पर आदमी तक नहीं दिखता।”
विकास ने एक किस्सा सुनाया था -
“मेरे पिताजी उस समय त्यूणी में मास्टर थे, जब यह यू.पी. का हिस्सा था। उनकी पोस्टिंग त्यूणी के पास एक गाँव में थी। पैदल का रास्ता था। पगडंडी का। वे उसी गाँव में रहते थे। एक बार जब वे छुट्टी काटकर गाँव लौट रहे थे तो शाम हो गयी थी, दिन छिप गया था और अंधेरा होना बाकी था। रास्ते में दूर-दूर तक कोई नहीं था। तभी उन्हें एक छोटा बच्चा दिखा - एकदम नंगा। थोड़ा ही आगे पगडंडी के बगल में खड़ा हुआ उन्हें ही देख रहा था। लेकिन जब वे उसके नज़दीक गये तो वह उन्हें नहीं दिखायी पड़ा। आसपास ख़ूब ढूँढा, लेकिन नहीं मिला। गाँव पहुँचकर जब उन्होंने इसका ज़िक्र किया तो पता चला कि एक महिला ने कुछ साल पहले अपने बच्चे के साथ आत्महत्या कर ली थी। तब से वह महिला और उस बच्चे की आत्मा वहीं भटकते रहते हैं। देर-सवेर आने-जाने वालों को दिखते हैं।”
पता नहीं यह किस्सा कितना सच्चा है। शायद विकास ने झूठ बोला हो। लेकिन मैंने कभी भी उसके पिताजी से इसकी सत्यता के बारे में नहीं पूछा। इसका कारण है। अगर किस्सा झूठा हुआ, तब तो कोई बात नहीं। लेकिन अगर सच्चा हुआ, तो मेरी हालत ख़राब हो जायेगी। मैं वैसे तो दिन में भूतों को नहीं मानता, लेकिन रात में भूतों का अस्तित्व मानना पड़ता है। जो मित्र भूतों को नहीं मानते, वे कभी हिमालयी सुनसान जंगल में अकेले रात बिताकर दिखा दें। और मुझे अक्सर ऐसा करना पड़ता है। और जंगल में अकेले रात बिताने में मेरी बहुत फटती है। इसे ही मैं भूत कहता हूँ।
तो कुल मिलाकर बात यह है कि मैं भूतों को मानता हूँ। तो अगर विकास के पिताजी ने कह दिया कि यह किस्सा सच है, तो भविष्य में जब भी कभी जंगल में रात बितानी पड़ेगी, तो यही किस्सा याद आया करेगा। और भूत जीवंत हो उठेंगे।
मुझे भूतों के किस्से पसंद नहीं, बिल्कुल भी पसंद नहीं, कतई पसंद नहीं; क्योंकि बाद में बहुत डर लगता है।
तो पब्बर का पुल दोबारा पार किया और हम वापस बाज़ार में पहुँच गये। यहाँ हिमाचल परिवहन की चौपाल-जुब्बल बस खड़ी थी।
...
इस बार टोंस नदी पार कर ही ली। कुछ साल पहले जब हम श्रीखंड़ महादेव से लौट रहे थे और चकराता जाने वाले थे, तो त्यूणी से सीधे ही चलते रहे और टोंस पार नहीं की। लेकिन इस बार ऐसी गलती नहीं की और टोंस पार कर ली। अगले बैंड़ पर मुड़ गये और हनोल की तरफ़ चल दिये।
हनोल पहुँचे। यहाँ महासू देवता का मंदिर है। महासू अर्थात महाशिव। तो महासू का इतना प्रभाव है यहाँ कि इस बहुत बड़े इलाके को महासू ही कहा जाता है। आप नक्शा देखेंगे, तो शिमला से पूरब का सारा हिमाचल; यानी रोहडू, चौपाल और चूड़धार भी महासू क्षेत्र में आता था। फिर टोंस नदी है और टोंस-यमुना के बीच का इलाका जो कि जौनसार कहलाता है, महासू में ही आता था। तो महासू देवता का यहाँ बहुत ज्यादा प्रभाव है। कुछ अन्य स्थानों पर भी महासू के मंदिर हैं, लेकिन सबसे बड़ा हनोल में ही है।
आज हम हनोल में थे। समुद्र तक से लगभग 1100 मीटर ऊपर। तेज धूप थी।
मंदिर की पौराणिक कथा क्या है, यह नहीं बताऊँगा। भारत के प्रसिद्ध यायावर और ब्लॉगर श्री तरुण गोयल इसके बारे में लिखते हैं- “Mahasu Hanol temple is a new world in itself. This is one of the most beautiful Pagoda Temples I have seen.”
...
रणविजय - “मुझे नहाना है टोंस में।”
नरेंद्र - “मैं भी नहाऊँगा।”
मैं - “अरे नहीं, मत नहाओ। वैसे भी यह शापित नदी है। इसमें नहीं नहाना चाहिये।”
रणविजय - “नहीं, नहाऊँगा मैं तो।”
और तौलिया लेकर चलने को तैयार हो गया। हमारा वार्तालाप एक स्थानीय भी सुन रहा था।
बोला - “भाई जी, कोई दिक्कत नहीं है नहाने में। हम भी नहाते हैं।”
मैं (आँख मारते हुए) - “ओये चुप, नदी में नहीं नहाना चाहिये।”
स्थानीय - “हाँ जी, सही कह रहे हो। पता नहीं कब पानी अचानक बढ़ जाये और आपको बहाकर ले जाये।”
रणविजय - “ऐसा भी होता है क्या?”
स्थानीय - “हाँ जी, ऐसा कई बार हुआ है। यह नदी बलि लेती है हर साल। कोई न कोई इसमें डूबता है। कोई आत्महत्या करता है, कोई फिसलता है, कभी बस ही गिर जाती है। लेकिन अगर नदी की भूख शांत नहीं हुई तो आदमी स्वेच्छा से भी डूबकर मर जाता है इसमें।”
नरेंद्र - “मैं तो नहीं नहाऊँगा फिर इसमें। क्या पता पैर-वैर ही फिसल जाये। हमारा तो बालक भी बेचारा अभी कुछ ही महीने का है।”
स्थानीय ने मामला बख़ूबी संभाल लिया। नतीज़ा यह रहा कि रणविजय भी पीछे हट गया।
...
मंदिर प्रांगण में दो गोले पड़े हैं। बड़े वाला तकरीबन एक फुट व्यास का है और दूसरा इससे तनिक ही छोटा। किसी भारी धातु के गोले हैं, शायद सीसे के हों। बहुत भारी हैं। लोगबाग इन्हें उठाने की कोशिश करते हैं। लेकिन कोई उठा लेता है, कोई नहीं उठा पाता। मैंने तो कोशिश ही नहीं की। बाकी दोनों ने कोशिश की, बल्कि कोशिशें कीं। छोटा गोला उठ गया, लेकिन बड़ा गोला नहीं उठ सका। इनका किसी पाप-पुण्य से कोई संबंध नहीं।
बलि तो ज़रूर ही होती होगी यहाँ। लेकिन पहले होती थी, अब नहीं होती। अब जिसकी भी श्रद्धा होती है, वो बकरे लेकर आता है, पूजा-पाठ करता है और बकरों को यहीं छोड़ जाता है। ये बकरे पूरे मंदिर में, अंदर-बाहर निर्बाध घूमते रहते हैं। घास चरते रहते हैं, प्रसाद खाते रहते हैं।
समाज में जो बुराईयाँ हैं, वे जितनी जल्दी समाप्त हों, उतना अच्छा। बलि प्रथा एक बुराई ही है।
त्यूणी में पब्बर नदी |
पब्बर पर बना झूला पुल |
त्यूणी से दूरियाँ |
त्यूणी-हनोल सड़क |
महासू मंदिर प्रांगण में धातु के भारी गोले |
महासू देवता मंदिर, हनोल |
अगला भाग: बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग चार (हनोल से पुरोला)
इस यात्रा के सभी भाग:
1. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी
2. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग दो
3. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग तीन (त्यूणी और हनोल)
4. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग चार (हनोल से पुरोला)
5. बाइक यात्रा: पुरोला से खरसाली
6. बाइक यात्रा: खरसाली से दिल्ली
7. ‘कुमारहट्टी से जानकीचट्टी’ यात्रा की वीडियो
भूतों के किस्से ओर वो भी पहाड़ो में भूतों के किस्से। ये मेरा सबसे प्रिये विषय है। और हो तो बताया करे। नही तो कोई और लिंक या जगह हो जहाँ ऐसे किस्से मील तो भाई जरूर बताओ,,,दुआयें} निकलेगी दिल से
ReplyDeleteलो भाई, आनंद करो। http://sokhababa.blogspot.com/
Delete♥♥♥
DeleteDear Neeraj Ji, Just seen Jubbal on Bus. Just like to tell you Jubbal is world famous for Apples. From there Apple supplied to All India and neighboring countries.
ReplyDelete