15 जुलाई 2017
सुबह उठे तो मौसम ख़राब मिला। निश्चय करते देर नहीं लगी कि आज फूलों की घाटी जाना स्थगित। क्या पता कल सुबह ठीक मौसम हो जाये। तो कल फूलों की घाटी जाएंगे। आज हेमकुंड साहिब चलते हैं। कल भी मौसम ख़राब रहा तो परसों जायेंगे। यह यात्रा मुख्यतः फूलों की घाटी की यात्रा है, जल्दी कुछ भी नहीं है। तो हम केवल साफ मौसम में ही घाटी देखेंगे। वैसे जुलाई तक मानसून पूरे देश में कब्जा जमा चुका होता है, तो साफ मौसम की उम्मीद करना कुछ ज्यादा ही था, लेकिन हिमालय में अक्सर मौसम साफ ही रहता है। दोपहर बाद बरस जाये तो उसे खराब मौसम नहीं कहते। सुबह ही बरसता मिले तो खराब कहा जायेगा। अभी खराब मौसम था।
इंतज़ार करते रहे। इसका यह अर्थ न लगाया जाये कि हमने बालकनी में कुर्सियाँ डाल लीं और चाय की चुस्कियों के साथ बारिश देखते रहे। इंतज़ार करने का अर्थ होता है रजाईयों में घुसे रहना और जगे-जगे सोना व सोते-सोते जगना। नींद आ गयी तो आँख कुछ मिनटों में भी खुल सकती है और कुछ घंटों में भी। हाँ, एक बार बाहर झाँककर अवश्य देख लिया था। सिख यात्री नीचे गोविंदघाट से आने शुरू हो गये थे। सुबह कब चले होंगे वे? और हो सकता है कि इनमें से कुछ आज ही हेमकुंड भी पहुँच जायें। ज्यादातर यात्री नीचे लौटने की तैयारियों में थे। घोड़ों, खच्चरों व कंडी वालों से मोलभाव कर रहे थे। बारिश में ही।
बारिश रुक गयी, मौसम भी अचानक खुल गया तो नौ बजे उठ गये व साढ़े नौ बजे चल दिये। एक पराँठा खाकर व चाय पीकर। घांघरिया में बड़े-बड़े आलीशान होटल हैं। ऐसे होटलों की मैने कल्पना भी नही की थी। दीप्ति ने कहा, “यह तो नामचे बाजार का छोटा भाई है।”
तकरीबन एक किलोमीटर बाद फूलों की घाटी का रास्ता अलग हो जाता है। एक बोर्ड भी लगा था - फूलों की घाटी, तीन किलोमीटर। चार यात्री फूलों की घाटी की तरफ से आये और सुस्ताते हुए आपस में कहने लगे - “फूलों की घाटी भी हो गया। अब हेमकुंड़ साहिब चलते हैं।”
मैं और दीप्ति यह सुनकर हँस पड़े - इनके एक ही दिन में दोनों स्थान ‘हो’ जायेंगे।
यहाँ बड़ा शानदार झरना था। मानसून के इस मौसम में तो इसमें और भी ज्यादा पानी था, तो इसकी रौनक का वर्णन नहीं किया जा सकता। कुछ फोटो लेने की कोशिश की, कुछ वीडियो बनाने की कोशिश भी की, ताकि आपको इस रौनक का थोड़ा-सा अंश दिखाया जा सके।
चढ़ाई पर जब हम हाँफते हुए चल रहे थे तो पीछे से कुछ सरदार खच्चरों पर बैठे हुए आये, “भाई जी, एक बजे के बाद एंट्री नहीं होती उधर। खच्चर कर लो।” शायद उन्होंने ठीक कहा हो। हो सकता है कि एक बजे के बाद यात्रियों को वापस भेजने लगते हों। और वैसे भी अगर एंट्री बंद होगी तो गुरुद्वारे में ही होगी। झील तक तो कोई नही रोकेगा। हाँ, मौसम खराब है। जितना समय बीतता जाएगा, बारिश की संभावना बढ़ती जाएगी।
“खच्चर चईये जी, खच्चर खच्चर?” ऊपर से खाली खच्चरों को लेकर लौटता हुआ प्रत्येक खच्चर वाला पूछता।
“घोड़ा बोलो जी, घोड़ा।”
मैनें चुपके से बोल दिया, “घोड़ा।” दीप्ति हँस पड़ी।
चढ़ाई वाकई ज़ोरदार है। दो घंटे तक चलने के बाद एक दुकान में बैठ गए। चाय बिस्कुट ले लिए। खड़े पहाड़ों के कारण जी.पी.एस. काम नहीं कर रहा था। हम 3100 मीटर से चले थे और हेमकुंड 4200 मीटर पर है। यानी हमें 1100 मीटर चढ़ना ही है। दूरी है 6 किमी। यानी प्रति किमी पर लगभग 200 मीटर की चढ़ाई। यह बड़ी ही विकट चढ़ाई होती है। फिर भी हम दोनों को कोई खास परेशानी नही हो रही थी। हम धीरे-धीरे ही सही, लेकिन लगातार चल रहे थे। थक ज़रूर गए थे। तो जब 2 घण्टे हो गए, तो हमें लगा कि 4 किमी आ गए। 2 किमी बाकी है। जी.पी.एस. चलता तो हमे ऊँचाई पता चल जाती और दूरी का भी अंदाज़ा हो जाता। और मौसम साफ होता तो नीचे घांघरिया को देखकर भी अंदाज़ा लग जाता।
तो दुकान वाले से पूछना पड़ा, “भाई जी, कितना दूर है अभी हेमकुंड?”
“चार किमी है जी। अभी आप दो किमी आये हो।” उत्तर मिला।
दो घंटे में दो किमी! बस!! तो बाकी चार किमी चलने में तो 5 घंटे लगेंगे। इस गणना से थोड़ी-सी नहीं, बहुत-सी निराशा हुई।
एक बजे के बाद एंट्री बंद - यह दिमाग मे चलने लगा। मेरी क्षमता एक दिन में अधिकतम 1000 मीटर चढ़ने की है। यह अधिकतम क्षमता है। 800 मीटर पर ही काम तमाम होने लगता है। फिर आज तो 1100 मीटर चढ़ना है। यानी आखिरी 300 मीटर मेरे लिए बेहद मुश्किल होंगे। ज़ाहिर है कि समय भी ज्यादा लगेगा। हमसे पीछे भी कोई नहीं, आगे भी कोई पैदल यात्री नहीं। नीचे उतरते यात्री ही मिल रहे हैं। यानी हम गलत समय पर निकले हैं। सुबह 5 या 6 बजे ही निकल जाना चाहिए था।
इसी निराशा को आशा में बदलने के लिए मैंने पूछा, “भाई जी, हमसे आगे जो भी पैदल यात्री गए हैं, वे कितनी देर पहले गए थे?”
“कम से कम 2 घंटे पहले।”
मुझे यकीन था कि कोई न कोई ग्रुप हमसे थोड़ा ही आगे होगा। उन्हें हम कुछ ही देर में पीछे छोड़ देंगे और तब हम निराशा से बाहर निकल जाएंगे। लेकिन दो घंटे बहुत ज्यादा होता है। हम उन्हें पीछे नही छोड़ सकते। हमें सुबह जल्दी ही निकलना चाहिए था। पता नही जल्दी निकलने की आदत कब पड़ेगी?
ऊपर से खच्चरों पर बैठकर लौट रहे कुछ सरदारों ने स्पष्ट कह दिया कि एक बजे गुरुद्वारे के द्वार बंद हो जाएंगे, फिर हम दर्शन नहीं कर पाएंगे। इसलिए या तो घोड़ा कर लो या वापस लौट जाओ। एक ने दीप्ति से कहा कि आपको तो 5 बजे ही निकल जाना चाहिए था, तब आप एक बजे पहुँचतीं।
“चुप बे, अच्छा-खासा संड़ होकर गधे पे बैठकर यात्रा कर रहा है और हमें ज्ञान दे रहा है।” हम दोनों ने मन ही मन में सोचा।
लेकिन हम चुप ही रहे। इन सब बातों का सबसे सकारात्मक पक्ष यह रहा कि हम फिर से खुद को उत्साहित महसूस करने लगे। गुरुद्वारे से हमें कोई लगाव नहीं था। उसकी बजाय मंदिर होता और मंदिर के भी द्वार बंद होते, तब भी हम निराश नहीं होते। इन मंदिरों से, गुरुद्वारों से हम बंधे हुए नही थे। हमें केवल वहाँ जाना भर था। हेमकुंड झील के किनारे खड़े होना था। वहाँ की पवित्रता को, शीतलता को महसूस करना था। गुरुद्वारे के द्वार बंद हो जाएंगे, लेकिन हेमकुंड के द्वार बंद नहीं होंगे। हम सबसे पीछे जा रहे थे, सबसे पीछे ही लौटेंगे। एकदम अकेले। क्या फ़र्क पड़ेगा?
2 किमी पहले ही गुरुद्वारे के लाउडस्पीकर की आवाज़ आने लगी। ‘वाहेगुरू, वाहेगुरू’ और कीर्तन की आवाज़। गुरुद्वारों में यह आवाज़ कभी भी बंद नहीं होती, लेकिन शायद हेमकुंड साहिब में एक बजे बंद हो जाये। साफ़ मौसम होता तो शायद दूर से गुरुद्वारा दिख जाता; लेकिन हम बादलों के बीच थे, घनी धुंध थी; इसलिए कुछ नही दिखा।
“भाई जी, नहीं जा पाओगे। वापस चलो और कल सुबह आना। अब तो घोड़ा-खच्चर करने का भी फायदा नहीं।” कुछ सरदार लड़के नीचे उतर रहे थे, उन्होंने सलाह दी।
एक किमी पहले एक दुकान के सामने से सीढ़ियाँ ऊपर जाती दिख रही थीं। यह ऊपर जाने का शार्ट कट था। दीप्ति ने पूछा - “यहाँ से चलें क्या?” मैंने मना कर दिया - “नहीं, सीधे रास्ते चलो। अब ऊपर चढ़ने की हिम्मत नही रही। शार्ट कट से नही चढ़ा जाएगा।”
अब बहुत तेज चढ़ाई भी नहीं थी, लेकिन रास्ता कुछ घूमकर था। बादल घने हो गये थे व फुहारें पड़ने लगी थीं। रेनकोट पहन लिये। यहाँ ब्रह्मकमल इतने थे कि बिना गौर किये ही दिख गये। एक तो बूंदाबांदी, फिर भयंकर थकान; ब्रह्मकमल के फोटो नहीं लिये। हम आज लगभग 1100 मीटर चढ़ चुके थे। साँसों का संतुलन बनाने को हर कदम पर रुकना पड़ रहा था। सोचा कि वापसी में ब्रह्मकमल के फोटो खींचेंगे।
डेढ़ बजे गुरुद्वारे पहुँचे। यह अभी भी खुला था और कीर्तन चल रहा था। हमने मत्था टेका और वहीं बैठ गए। बाहर भीषण सर्दी थी, यहाँ अच्छा लग रहा था। कंबलों के ढेर थे। ज्यादातर श्रद्धालु कंबल ओढ़े बैठे थे।
दो बजे घोषणा हुई कि अब सभी लोग वापस चले जाएँ। इसके बाद लाउडस्पीकर भी बंद हो गया। हमने प्रसादस्वरूप मिलने वाला गरमागरम हलुआ लिया। इसे हथेली में दबाकर पहले तो गर्माहट ली और फिर खाते हुए बाहर निकल आये। बूंदाबांदी हो ही रही थीं। अब बादल व धुंध और भी घने हो गए थे। सरोवर के किनारे खड़े होकर गुरुद्वारा तक भी नही दिख रहा था। तो सरोवर के उतने अच्छे फोटो नही आये।
गुरुद्वारे के सामने लंगर था। भूख भी लगी थी। लेकिन हमने गुरुद्वारे से निकलकर जूते पहन लिये। लंगर जाने के लिये दोबारा उतारने पड़ते। इतनी ठंड़ में यह काम मुझसे नहीं हुआ। लंगर छोड़ दिया।
एक विदेशी नंगे पैर घूमता दिखा। बगल में ही लोकपाल लक्ष्मण मंदिर है। उसने मंदिर के सामने बने शिवलिंग पर माथा टेका। जिज्ञासा हुई - “यह कौन है?” वहीं खड़े एक हरियाणवी श्रद्धालु ने उत्तर दिया - “अमेरिका का है। जूते के बारे में पूछने पर बोला कि नो नीड ऑफ शूज़।” न ठंड से काँप रहा और न परेशान दिख रहा। बहुत थोड़े-से कपड़े और एक कंबल।
इस बार शार्ट कट से नीचे उतरे। 200 मीटर की उतराई। पैर दुख गए। और ब्रह्मकमल भी रह गये। यहाँ भी ब्रह्मकमल होंगे, लेकिन धुंध बहुत ज्यादा हो गयी थी व बूंदाबांदी भी बढ़ गयी थी।
दुकान में बहुत सारे श्रद्धालु बैठे थे। सभी नीचे उतरने वाले। बूंदाबांदी और तेज हो गयी थी। रेनकोट पहन ही रखा था। ज्यादातर लोगों ने पन्नियों वाले रेनकोट पहन रखे थे, जो ‘वन टाइम ओनली’ होते हैं। बहुत जल्दी फटते हैं। पहने-पहने भी फट जाते हैं। कईयों के फट गए थे। उन्होंने सिर व सामान बचाने को कूड़े में पड़े पूर्ववर्तियों के रेनकोट ज्यों-त्यों करके लपेट लिए थे।
पूरे रास्ते थोड़ी-थोड़ी दूरी पर सफाईकर्मी खड़े मिले। इनके कारण रास्ता साफ रहता है। अन्यथा घोड़ों खच्चरों की लीद से पट जाए। लेकिन ये आने-जाने वाले प्रत्येक व्यक्ति से पैसे मांगते हैं। देना न देना आपके ऊपर है। कई बार तो इतने मार्मिक डायलॉग बोलते हैं कि दया आ जाती है।
नीचे उतरते हुए बहुत सारे श्रद्धालु मिले। एक सिख बाबाजी कदमों के साथ ‘वाहेगुरू’ बोलते उतर रहे थे। कुछ आगे चलकर वे लड़के भी मिले, जिन्होंने हमसे आज वापस लौटने और कल आने को कहा था। मैं उनकी तरफ मुस्कुराते हुए आगे निकल गया। उनमें से एक ने दूसरों से कहा - “ओ तारी पैण दा टणा। खच्चरों पर बैठकर आ तो गये, लेकिन अब उतर नहीं रहे। वे बंदे (हम) जब ऊपर जा रहे थे, तब भी हम नीचे ही उतर रहे थे और दो घंटे बाद वे दर्शन करके भी आ गये, अब भी हम नीचे ही उतर रहे हैं।” उसने पंजाबी में कहा था, लेकिन मुझे सिर्फ ‘पैण दा टणा’ ही याद रहा। बाकी का हिंदी अनुवाद कर दिया।
जब पाँच बजे घांघरिया लौटे तो जबरदस्त भूख लग रही थी। जाते समय हमने यहाँ कुछ स्थानों पर गोलगप्पे, इडली-डोसे व चाट-समोसे आदि देखे थे। सोच रखा था कि जाते ही सबसे पहले फलां दुकान पर गोलगप्पे मारेंगे, उसके बाद ये और उसके बाद वो। मेरी और दीप्ति की लिस्ट अलग-अलग थी, लेकिन गोलगप्पे दोनों की लिस्टों में थे। जब उस दुकान में बैठकर गोलगप्पे खाने लगे तो...। खा तो लिये किसी तरह, लेकिन फिर कुछ और खाने की हिम्मत नहीं हुई। सूजी के गोलगप्पे और बिल्कुल सीले हुए। होटल तो बहुत बड़ा था, लेकिन रसोई छोटी-सी थी। सफाई अच्छी थी। तो इस छोटी-सी रसोई में कई रसोईये काम कर रहे थे। एक नीचे झुककर दही ले रहा था तो दूसरे ने उसके ऊपर तेल डाल दिया। दोनों हँस पड़े। अगली बार पहला दूसरे के ऊपर कुछ डाल देगा, या फिर आज दूसरे ने बदला लिया हो। तो कुल मिलाकर बड़ी ही अव्यवस्था थी। महंगाई भी। बेकार गोलगप्पे। बाद में दूसरे होटल में जाकर पनीर डोसे लिये, तब जीभ का जायका लौटा।
चटोरे तो हम एक नंबर के हैं।
हेमकुंड 3 किमी |
हेमकुंड अब दूर नहीं |
हेमकुंड पथ से दिखता फूलों की घाटी का मुहाना |
फूलों की घाटी का प्रवेश द्वार और जाती पगडंडी |
बेकार गोलगप्पे |
अगला भाग: फूलों की घाटी
1. चलो फूलों की घाटी!
2. कार्तिक स्वामी मंदिर
3. गोविंदघाट से घांघरिया ट्रैकिंग
4. यात्रा श्री हेमकुंड साहिब की
5. फूलों की घाटी
6. फूलों की घाटी के कुछ फोटो व जानकारी
7. फूलों की घाटी से वापसी और प्रेम फ़कीरा
8. ऋषिकेश से दिल्ली काँवड़ियों के साथ-साथ
अहाहा ! पुरानी यादें ताज़ा हो गईं ! इसी पवित्र कुंड में पांच डुबकियां लगाईं थी ! लेकिन सुना था कि ढाई बजे तक एंट्री होती है !!
ReplyDeleteनीरज भाई एक बार मे ही पूरा लिखा करो बीच मे अधूरा मत छोड़ा करो मज़ा खराब होजा है
ReplyDeleteपूरा ही तो लिखा है भाई... हेमकुंड़ साहिब का पूरा वृत्तांत ही लिख दिया...
Deleteऔर अगर आठ दिनों की पूरी यात्रा को एक बार में ही लिख दूँगा तो फिर नियमितता नहीं रहेगी... नियमितता बनी रहे, इसलिये ज़रूरी है कि सब एक साथ न लिखकर थोड़ा-थोड़ा लिखता रहूँ...
june 2013 me mai waha par tha.... bhayankar drishy tha
DeleteAbbi tak gaya to nahi. Par Jane Ki ikchha teevra ho gayi hai...
ReplyDeleteBahut khoob likha bhai....punjab se hu to kafi dfa geya hu..
ReplyDeleteमजेदार यात्रा लेख.....☺
ReplyDeleteमजा आ गया भाई जी। हेमकुंड साहिब जाने का सबसे सही रास्ता क्या होगा बताइयेगा।
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 108वां जन्मदिवस : डॉ. होमी जहाँगीर भाभा - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया भाई जी
ReplyDeleteShaandarrrrr
ReplyDeletebarish mein photo na le payen to bada afsos hota hai............
बहुत सुंदर एवं रोचक यात्रा वृत्तांत.शुभकामनाएँ !
ReplyDeleteAapne sahi kaha
ReplyDeleteगजब स्टेमिना खच्चर से तेज उतर गए,
ReplyDeleteशानदार
भाई तेरा ब्लॉग पढ़ पर अपनी यात्रा की याद ताजा हो गयी।
ReplyDeletevery nice and real neeraj ji, thanks
ReplyDeleteजैसा रास्ता दिख रहा है पूरा रास्ता ऐसा ही है या फिर कच्चा रास्ता भी है?
ReplyDeleteजैसा दिख रहा है, रास्ता वैसा ही है... कच्चा नहीं है...
Deleteशानदार वर्णन 🙏👍👍👍
ReplyDeleteवैसे कुण्ड में तो नहाया होगा?