इस यात्रा-वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें।
20 मई 2017
पुरोला से सुबह साढ़े आठ बजे चल दिये। बाज़ार में चहल-पहल थी। देहरादून की बस भी खड़ी थी। कुछ ही आगे नौगाँव है। यमुना किनारे बसा हुआ। यमुना नदी पार करते ही हम नौगाँव में थे।
नौगाँव समुद्र तल से लगभग 1100 मीटर ऊपर है, इसलिये खूब गर्मी थी। नहाने का मन था, लेकिन नहीं नहाये।
नौगाँव पार करते ही एक रेस्टॉरेंट पर रुक गये।
“क्या खाओगे भाई जी?”
“आलू की पकौड़ियाँ।”
“मिल जायेंगी। मिक्स बना दें? आलू और प्याज की।”
“बना दो।”
कुछ देर बाद...
“भाई जी, आलू ही नहीं हैं। मार्किट से लाने पड़ेंगे।”
“ले आओ। ये लो बाइक की चाबी।”
“नहीं, हमारे पास है। हम ले आते हैं।”
कुछ देर बाद...
“भाई जी, आप छोले भठूरे क्यों नहीं ले लेते?”
“छोले भठूरे भी हैं क्या?”
“हाँ जी, रेड़ी हैं।”
“तो लाते क्यों नहीं? इसमें भी कुछ पूछने की बात है।”
वैसे हम पकौड़ियाँ ही खाना चाहते थे। नौगाँव बाज़ार में नहीं दिखीं तो बड़कोट में अवश्य लेते। लेकिन छोले भठूरे भी कौन-सा विदेशी भोजन है, जो हमें पचेगा नहीं।
बड़कोट एक बड़ा शहर है। यह वैसे तो उत्तरकाशी जिले में है, लेकिन कई बार लगता है कि उत्तरकाशी से बड़ा है। खूब चहल-पहल और खूब गाड़ियाँ। दो किलोमीटर आगे बड़कोट बैंड़ है। यहाँ से एक सड़क धरासू बैंड़ जाती है। चूँकि यमुनोत्री समेत चारों धामों के कपाट खुल चुके थे, तो यात्रा सीजन आरंभ हो चुका था। हरिद्वार-ऋषिकेश से ही ज्यादातर श्रद्धालु अपनी यात्रा आरंभ करते हैं। यमुनोत्री पहला धाम है। हरिद्वार से यमुनोत्री धरासू बैंड़ और बड़कोट बैंड़ होते हुए ही जाया जाता है। बड़ी भीड़ थी। कुछ रजिस्ट्रेशन जैसा भी हो रहा था। बड़ी मारामारी थी। पुलिस वाले अलग से परेशान। हमने एक पुलिसवाले से पूछा - “भाई, यह भीड़ क्यों है इतनी?”
“बायोमेट्रिक हो रहा है।”
“तो हमें भी कराना पड़ेगा क्या? यमुनोत्री जा रहे हैं हम भी।”
“नहीं, आपको कोई ज़रूरत नहीं है।”
हमें ज़रूरत नहीं है, यह सुनते ही हमने जानकीचट्टी की ओर दौड़ लगा दी। किसे बायोमेट्रिक की ज़रूरत होती है, यह जानने की ज़रूरत नहीं समझी।
ट्रैफिक बहुत ज्यादा तो नहीं था, लेकिन काफ़ी था। सिंगल सड़क है।
रास्ते में एक जलधारा के पास दम लेने रुके। यह जलधारा छोटे-छोटे झरने बनाती हुई तेजी से बह रही थी, बड़े-बड़े पत्थरों से होती हुई। कुछ बच्चे आये और जलधारा के बराबर-बराबर ऊपर चढ़ने लगे।
रणविजय - “ओये, कहाँ जा रहे हो?”
बच्चे - “ऊपर, नहाने।”
रणविजय - “झील है क्या ऊपर?”
बच्चे - “हाँ, झील है।”
रणविजय (मुझसे) - “गुरूदेव, झील है ऊपर। चलें क्या?”
मैं - “मर्जी है भाई तुम्हारी। मेरी तो इच्छा ना है।”
नरेंद्र - “वापसी में देख लेंगे।”
रणविजय - “हाँ, वापसी में देख लेंगे।”
कुछ देर बाद...
नरेंद्र - “ ओये, देखो वे बच्चे हमें बुला रहे हैं।”
रणविजय, जोर से, बच्चों से - “हाँ, क्या है?”
बच्चे, जो कि 20-30 मीटर ऊपर थे - “आ जाओ।”
रणविजय - “झील वहीं है क्या?”
बच्चे - “हाँ।”
हम, आपस में - कुंड़ होगा कोई। झील तो नहीं हो सकती। नहाया जा सकता होगा। पानी ठंड़ा तो नहीं होगा। बहुत ठंड़ा होगा। बच्चे नहा रहे हैं। वे लोकल हैं। हम कम हैं क्या? चलो, नहाते हैं। वापसी में नहायेंगे। मुझे नहीं नहाना।
तभी दो मोटरसाइकिलें आकर रुकीं। चार लड़के थे। बाहर के थे। यू.पी. के। देखते ही देखते एक लड़का जलधारा में पत्थरों पर चढ़ने लगा। बाकी तीन उसे रोकने लगे - “ओये, मत जा। गिर पड़ेगा। मत चढ़।” लेकिन वह नहीं माना। हाथ में मोबाइल था। एक पत्थर पर चढ़कर सेल्फी लेता। दूसरे पर जाकर सेल्फी लेता। हम तो सोच भी नहीं सकते थे कि कोई इन पत्थरों पर चढ़ भी सकता है।
रणविजय - “भाई, मत चढ़। गिर पड़ेगा।”
आवाज़ जलधारा के शोर में दब गयी। उस तक नहीं पहुँची। या शायद पहुँची भी हो, उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखायी।
मैं - “रणविजय चुप, बाकी तीन लड़के भी उसे रोक रहे हैं। तुम्हें क्या लगता है? वो उनकी सलाह अनसुनी करके तुम्हारी सलाह मानेगा?”
रणविजय - “वो खतरे में है।”
मैं - “हाँ, लेकिन वो नासमझ बच्चा भी नहीं है।”
कुछ देर बाद वो नीचे उतर आया तो बाकियों ने उसे बड़ा लताड़ा। लेकिन उनमें से भी एक को लगने लगा कि शक्तिमान बना जा सकता है। दूसरा लड़का भी चढ़ने लगा। लेकिन जब पहले ही पत्थर पर चढ़कर जलधारा का बहता पानी, भयानक शोर और दूसरे पत्थर की दूरी, चिकनाहट देखी तो वहीं से सेल्फी लेकर लौट आया। समझदार था।
चारों जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। हम तीनों इनकी आलोचना करने को यहीं रह गये।
...
जानकीचट्टी
बड़ी भारी भीड़। गाड़ियाँ। खच्चर वाले। पैदल यात्री। जाम। शोर। धूल।
अभी दोपहर ही हुई थी। हमें आज ऊपर यमुनोत्री रुकना था। लेकिन पहले आलू की पकौड़ियाँ खायेंगे। और पकौड़ियाँ ढूँढ़ते-ढूँढ़ते जानकीचट्टी की गहराईयों में घुस गये। सिर्फ़ जाम। कारों के होर्न। अच्छा, कार वाले सोचते हैं कि उनके होर्न बजाते ही जाम खुल जायेगा और उनके आगे खड़ी गाड़ी अपना स्थान छोड़कर या तो आगे बढ़ जायेगी, या उनके आगे से हट जायेगी। गाज़ियाबाद से आया एक कार वाला जब टैं-टैं-ठैं-ठैं होर्न बजाता ही रहा तो मैंने टोक दिया। मैं अमूमन किसी को टोकता नहीं हूँ। लेकिन होर्न की अति हो गयी थी। उसके आगे एक बस खड़ी थी और बस के आगे भी लंबी लाइन थी। सड़क पर अच्छी-खासी चढ़ाई भी थी। मैंने टोका तो उत्तर मिला - “अरे इस बस वाले ने कैसे ढलान पर बस रोक रखी है? प्लेन में रोकनी चाहिये थी।”
आलू की पकौड़ियाँ तो नहीं मिलीं, लेकिन आलू की टिक्कियाँ मिल गयीं। ले लीं। रोल मिल गये, ले लिये। और भी कई चीजें मिलीं, ले लीं। यह दुकान वाला बड़कोट का रहने वाला था। ध्यान नहीं कितने में ठेका मिला था इसे इस दुकान का। अच्छी जगह थी और इसने अपनी टीम के साथ प्रबंधन भी बहुत अच्छा कर रखा था। जगह के एक-एक मिलीमीटर का इस्तेमाल किया था।
भीड़ देखकर यमुनोत्री जाने का मेरा मन डोलने लगा। कई साल पहले जब मैं यमुनोत्री गया था तो कपाट खुलने से पहले गया था। तब कोई भीड़ नहीं थी। वहाँ गर्म पानी में नहाने का लालच था, लेकिन भीड़ में कुंड़ ही नहीं मिलेगा। तो मेरे मन की बात रणविजय ने जान ली। अपने-आप।
“गुरूदेव, मैं तो यमुनोत्री नहीं जाऊँगा, आप दोनों हो कर आ जाओ।”
“ओके, ठीक है।”
एक जगह कमरा देखा - डेढ़ हज़ार का। दूसरी जगह देखा - हज़ार का। और ऐसे ख़राब कि 200 लायक भी नहीं। इतनी भीड़ जब होगी तो हज़ार-डेढ़ हज़ार से कम थोड़े ही मिलेंगे? तभी रणविजय बोला - “खरसाली चलते हैं। जब हज़ार का ही कमरा लेना है, तो क्यों न कम भीड़ में लें?
दस मिनट भी नहीं लगे हमें ऊपर खरसाली पहुँचने में। हेलीपैड़ पर सड़क समाप्त हो जाती है, तो हमने बाइकें वहीं रोक दीं। तुरंत ही कई बच्चों ने आ घेरा। इधर-उधर की बातें हुईं। और बच्चों से बात करता हुआ रणविजय एक बच्चे रोहित को लेकर वहीं बनी कुछ ‘हट्स’ में चला गया। रेट पता करने। लौटा तो दूर से ही चेहरा बता रहा था कि हमारी ‘पहुँच’ वहाँ तक नहीं है।
अब बच्चे तो बच्चे ठहरे। हम दोनों की मोटरसाइकिलों पर बंदरों की तरह चढ़ गये। सैर कराओ हमें। हेलीपैड़ का एक चक्कर लगवाया। गाँव भर के बच्चे आ गये। मोटरसाइकिलों पर बैठने को लेकर धक्कामुक्की शुरू हो गयी - “मैं बड़ा हूँ, मैं पहले बैठूँगा।” रणविजय ने ऐलान किया - “जो सबसे छोटा है, उसे ही पहले बैठाऊँगा।” इतना सुनते ही सब बड़े, छोटे बन गये।
बूँदें पड़ने लगीं तो ध्यान आया कि हमें कमरा भी लेना है। बच्चों को उतार दिया - “बेटा, अब हमें ठहरने के लिये कमरा ढूँढ़ना है।” कुछ बच्चों ने रोहित का नाम लिया - “अंकल जी, आप इनके घर में ठहर जाओ। इन्होंने यात्रियों के लिये कमरे बना रखे हैं।”
“क्यों रोहित? आपके यहाँ कमरे हैं?”
रोहित (कुछ सोचता हुआ और आँखें मिलाने से बचता हुआ) - “हाँ जी, हैं।”
रणविजय - “तो पहले क्यों नहीं बताया? हम कितनी देर से परेशान हैं? और तुम्हें ही लेकर उन ‘हट्स’ में भी गये थे।”
रोहित - “मैंने सोचा कि आप जब इन आलीशान ‘हट्स’ में रुकेंगे, तो हमारे साधारण कमरे आपको शायद पसंद न आएँ।”
“ओये यार, हमें साधारण ही तो चाहिये।”
हैलीपैड़ की उत्तर-पूर्व दिशा में लगभग पचास मीटर दूर ही खेतों में एक अकेला घर बना था।
नरेंद्र - “कितने का कमरा है?”
“दो सौ रुपये का।”
“दो सौ का?”
“हाँ जी।”
“बहुत अच्छा कमरा है और लोकेशन भी बड़ी शानदार है। हम इसके आपको तीन सौ देंगे।”
सामान ला पटका और मोटरसाइकिलें हेलीपैड़ के ही एक कोने में खड़ी कर दीं। कमरे के सामने बरामदा था और खेत थे। खेतों के पार गहरी यमुना घाटी थी। उसी में जानकीचट्टी था। दूर लाउड़स्पीकर पर कीर्तन की आवाज़ आ रही थी। मई के महीने में भीड़ भरे जानकीचट्टी के पास ऐसी सस्ती और शांत जगह भी मिल सकती है, अभी तक यकीन नहीं होता।
ऐसा कमरा मिला हो तो यमुनोत्री किसे जाना था अब? नरेंद्र की इच्छा थी जाने की, तो तय हुआ कि मैं और नरेंद्र कल सुबह जायेंगे और दोपहर तक लौट आयेंगे। लेकिन अब नहीं।
खरसाली में एक भंड़ारा लगा था। एक बाबाजी इसके संयोजक थे। मैंने और रणविजय ने केवल चाय पी, जबकि नरेंद्र ने भरपेट भोजन किया। मैं कुर्सी पर बैठा केवल देखता रहा। पूरी दुनिया के दर्शन हो गये। कौन हैं ये लोग जो पंगत में बैठकर भोजन कर रहे हैं? कौन हैं ये लोग जो साधुओं जैसे वस्त्र पहने हैं? और कौन है वो बाबाजी जो इसके संयोजक हैं? उत्तर ढूँढ़ने की कोशिश करता रहा और मिल भी गया।
बताना आवश्यक नहीं।
कभी-कभी मौन भी बना रहना चाहिये।
पुरोला में यहीं रुके थे... |
यमुना नदी... |
बड़कोट बैंड़ से दूरियाँ... |
रणविजय फोटोग्राफी का उस्ताद है... |
नरेंद्र... |
जानकीचट्टी में प्रवेश |
खरसाली में कमरे के बाहर के नज़ारे का अवलोकन करते हुए... |
इसी मकान में हम रुके थे... |
खरसाली से दिखता जानकीचट्टी का नज़ारा... |
खरसाली में पकौड़ी-तलन |
अगला भाग: बाइक यात्रा - खरसाली से दिल्ली
इस यात्रा के सभी भाग:
1. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी
2. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग दो
3. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग तीन (त्यूणी और हनोल)
4. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग चार (हनोल से पुरोला)
5. बाइक यात्रा: पुरोला से खरसाली
6. बाइक यात्रा: खरसाली से दिल्ली
7. ‘कुमारहट्टी से जानकीचट्टी’ यात्रा की वीडियो
भाई आपकी लिखने की शैली में परिवर्तन आया है. वाक्य छोटे होते हैं अब. फोटो तो खैर बढ़िया हैं ही. कुल मिला कर शानदार है मामला.
ReplyDeleteएक और अच्छी प्रविष्टि सोमवार सुबह के लिए पढ़ना चाहिए.लगता है जैसे मैंने अभी इस जगह का दौरा किया है। बहुत धन्यवाद नीरज भाई
ReplyDeleteगुरुदेव
ReplyDeleteबच्चे के संग Nerander भाई गए थे वो आलीशान huts देखने, मेरा तो बाइक से उतरना मुश्किल था वानर सेना (बच्चों के चलते) की वजह से
पूरी यात्रा में कमरे का मोलभाव करने का जिम्मा आपने नरेंदर भाई को ही सौंपा था।
वाह बढ़िया लेखन...
ReplyDeleteमंत्रमुग्ध हो गए...
सुधाकर मिश्रा जी के शब्दों से पूर्ण सहमत। मूल कहानी को बदल दिया। (रण विजय के कमेंट द्वारा
ReplyDelete