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बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी

इस यात्रा को क्या नाम दूँ? समझ नहीं पा रहा। निकले तो चांशल पास के लिये थे, लेकिन नहीं जा सके, इसलिये चांशल यात्रा भी कहना ठीक नहीं। फिर दिशा बदलकर उत्तराखंड़ में चले गये, फिर भी उत्तराखंड़ यात्रा कहना ठीक नहीं। तो काफ़ी मशक्कत के बाद इसे यह नाम दिया है - कुमारहट्टी से जानकीचट्टी की यात्रा।
उत्तरकाशी यात्रा में मेरे सहयात्री थे रणविजय सिंह। यह हमारी एक साथ पहली यात्रा थी। बहुत अच्छी बनी हम दोनों में। इसी से प्रेरित होकर अगली यात्रा के लिये भी सबसे पहले रणविजय को ही टोका - “एक आसान ट्रैक पर चलते हैं 16 से 20 मई, बाइक लेकर।”
रणविजय - “भई वाह, बस बजट का थोड़ा-सा अंदाज़ा और बता दो।”
“हम खर्चा करते ही नहीं। बाइक का तेल और 2000 और जोड़ लो। 1000-1200 किलोमीटर बाइक चलेगी।”
रणविजय - “फ़िर तो ठीक है। चलेंगे।”
...
कुछ दिन बाद...
मैं - “एक मित्र पीछे बैठकर जाना चाहते हैं। मैं तो बैठाऊँगा नहीं। क्या तुम बैठा लोगे?”
रणविजय - “कौन मित्र हैं? नाम बताओ।”



मैं - “नरेंद्र। साढ़ू है मेरा, लेकिन याराना बहुत अच्छा है। पहले भी कई बार साथ जा चुका है। मेरी अच्छी बनती है। तुमसे भी अच्छी ही बननी चाहिये।”
...
तीन लोगों को जाते देख समालखा वाले विमल बंसल का भी मन डोल गया - “नीरज भाई, आप तीन लोग जा रहे हो। चौथे को भी ले लो।”
“अभी रहने दो भाई।”
“आपने पिछली बार वादा किया था कि अगली यात्रा में मुझे भी ले जाओगे।”
“अभी रुक जाओ भाई। अगली किसी यात्रा में साथ चलेंगे।”
उन्हें ख़राब तो अवश्य लगा होगा, लेकिन अपने वादे ऐसे ही होते हैं।
...
दिन में भयानक लू चल ही रही है। सवाल ही नहीं उठता बाइक चलाने का। विचार किया कि रात में चलेंगे। मैं और नरेंद्र तो निशाचरी जीव हैं, लेकिन रणविजय को परेशानी होगी। तो सुबह निकलेंगे तीन बजे या चार बजे। ताकि आठ-नौ बजे तक हिमाचल में प्रवेश कर जाएँ। फिर तो जितना आगे बढ़ते जायेंगे, उतनी ही शीतलता मिलती जायेगी।
...
चांशल जायेंगे। चांशल पास।
...
“रणविजय, तुम 16 मई की रात तक शास्त्री पार्क आ जाना। और नरेंद्र, तुम भी।”
“ठीक है।”
“ठीक है।”
दोनों की सहमति आ गयी।
नरेंद्र जब भी हमारे यहाँ आता है, तो कहीं से मसाला डोसा लेकर आता है। मज़ा आ जाता है। आज जब फिर नरेंद्र आ रहा था, तो डोसे की तलब लग गयी।
“नरेंद्र, खाली हाथ मत आना। डोसे लेते आना। डिनर डोसे से ही करेंगे।”
“लेकिन मेरे पास तो बाइक नहीं है। मैं या तो साइकिल से आऊँगा, या मेट्रो से।”
“मुझे कुछ नहीं पता। डोसे लाने हैं तो लाने हैं।”
“ठीक है, तुम मोटरसाइकिल से अक्षरधाम पहुँच जाना। मैं नोयड़ा से मेट्रो से आ जाऊँगा। फिर दोनों डोसे लेते हुए साथ ही चल पड़ेंगे।”
“हाँ, ठीक है।”
...
कुछ देर बाद...
नरेंद्र - “मैं नोयड़ा सिटी सेंटर मेट्रो स्टेशन के नीचे खड़ा हूँ। अंदर जा रहा हूँ।”
मैं - “ओके, अक्षरधाम मिलते हैं।”
मैंने गणित लगाया। सिटी सेंटर से गोल्फ कोर्स, बोटैनिकल गार्डन, सेक्टर 18, 16, 15, अशोक नगर, मयूर विहार एक्सटेंशन, मयूर विहार और अक्षरधाम - कुल नौ स्टेशन। यानी 18 मिनट। 20 मिनट मान लेते हैं। तो 20 मिनट बाद वो अक्षरधाम पहुँच जायेगा। शास्त्री पार्क से सात किलोमीटर है। तुरंत निकल पड़ा।
एक फ्लाईओवर से नीचे उतरते हुए मेरे ठीक आगे चल रही एक स्कूटी को एक लड़की चला रही थी, एक महिला पीछे बैठी थी। हेलमेट किसी ने नहीं लगा रखा था। ट्रैफिक भी बहुत ज्यादा नहीं था। अचानक स्कूटी गिर पड़ी और दोनों पंद्रह-बीस मीटर तक घिसटती चली गयीं। मैं तुरंत रुका। एक-दो बाइक वाले भी रुक गये। सहारा देकर उन्हें खड़ा किया। कपड़े थोड़े-से फट गये थे। टूटा-टाटा किसी का कुछ नहीं। लड़की के घुटने मुड़ नहीं रहे थे, हालाँकि सलामत थे। पास की ही वे रहने वाली थीं। अपने घर पर फोन कर दिया। एक ने उन्हें पानी पिला दिया। सबने सांत्वना दी। इतनी सहायता काफ़ी थी।
अक्षरधाम की तरफ़ पुनः चल पड़ा। लग रहा था कि नरेंद्र पहुँच चुका होगा और मेरी प्रतीक्षा कर रहा होगा। मुझे न किसी की प्रतीक्षा करना पसंद है और न ही प्रतीक्षा कराना। एक-एक मिनट का हिसाब रखता हूँ। अगर किसी से मिलने जाना है और बीस मिनट का रास्ता है तो तीस मिनट बताता हूँ। अगला तीस मिनट के लिये निश्चिंत हो जाता है और मैं पच्चीस मिनट लगने के बावज़ूद भी पाँच मिनट पहले पहुँच जाता हूँ।
“नरेंद्र, कहाँ पहुँचा भाई?”
“बस पहुँच ही गया।”
सुकून मिला कि उसे प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी।
“फिर भी कहाँ तक पहुँच गया?”
“यमुना बैंक से एक स्टेशन पहले हूँ।”
“यमुना बैंक से एक स्टेशन पहले तो अक्षरधाम ही है। तो क्या तू अक्षरधाम पहुँच गया?”
“नहीं, अक्षरधाम से एक-दो स्टेशन पहले ही हूँ।”
मुझे संदेह हुआ। नरेंद्र झूठ बोल रहा है। इसका मतलब पौन घंटे पहले वो सिटी सेंटर नहीं था। अभी भी झूठ ही बोल रहा है। वो एक-दो स्टेशन पहले नहीं है।
“सही सही बता। किस स्टेशन से निकली है ट्रेन अभी?”
“अरे मेट्रो में ही हूँ मैं। देख, एनाउंसमेंट भी सुनायी पड़ रहा होगा।”
“स्टेशन बता।”
“एक स्टेशन पहले हूँ।”
“स्टेशन का नाम बता।”
“नोयडा से निकल गया हूँ, दिल्ली में प्रवेश कर गया हूँ।”
“एकदम सच-सच बता। मुझसे झूठ बोलने में तुझे क्या फ़ायदा मिल रहा है?”
“सेक्टर अठारह।”
मन किया वापस शास्त्री पार्क चला जाऊँ। डोसे न मिलेंगे, न सही। पता नहीं लोगों को क्या आनंद आता है ऐसे झूठ बोलने में? दस बजे की बजाय साढ़े दस बजे आ जायेगा, ग्यारह बज जायेंगे। क्या फ़र्क पड़ेगा? बोल दो कि बारह बजे आऊँगा। कम से कम सामने वाला निश्चिंत तो रहेगा।
कहाँ तो वो अभी यमुना बैंक से पहले स्टेशन पर था, कहाँ अचानक नोयड़ा सेक्टर अठारह पहुँच गया।
लेकिन मिलते ही हाथ जोड़ लिये - “भाई, मुझे नहीं पता था कि चोरी पकड़ी जायेगी। जब मैंने कहा था कि सिटी सेंटर मेट्रो स्टेशन में प्रवेश कर रहा हूँ, उस समय मैं कमरे से ही नहीं निकला था। फिर नोयड़ा का ट्रैफिक। इसलिये देर हो गयी।”
“नहीं, देर नहीं हुई है। तुम्हें बता देना चाहिये था कि आधे घंटे बाद कमरे से निकलोगे। मुझे पता है कि तुम्हारे कमरे से भारी ट्रैफिक में भी मेट्रो तक आने में कितना समय लगेगा और मेट्रो के अंदर कितना समय लगेगा। मैं उसी हिसाब से आता। अब तुम्हारी सज़ा है कि डोसों का सारा खर्चा तुम करोगे।”
...
छह पनीर डोसे लिये। खाने वाले चार थे और स्वाद बन गया तो बाकी डोसे काम आयेंगे। लेकिन 110 रुपये का एक डोसा ऐसा-वैसा नहीं था। एक ही खाना भारी हो गया। आख़िरकार तीन डोसे फ्रिज में रखने पड़े। सुबह चलते समय खा लेंगे।
...
साढ़े चार बजे शास्त्री पार्क से चल दिये और दो घंटे में पानीपत टोल पर जा पहुँचे। ‘पब्लिक कनवेनियेंस’ के बोर्ड के नीचे खड़े होकर तीनों मूतने की जगह ढूँढ़ने लगे। सबसे पहले मेरी अकेले की निगाह गयी इस बोर्ड पर और कुछ दूर जाकर मामला रफ़ा-दफ़ा कर आया। लौटा तो दोनों हँसने लगे - “हो आये? क्या मिला? बाबाजी का ठुल्लू? वहाँ बैरियर के पार कौन-सा शौचालय है भाई?”
“ज्यादा मत बनो। करना हो, करो जाकर। नहीं तो बाइक स्टार्ट करो।”
“हाँ, हम तो आगे ही कर लेंगे।”
लेकिन दबाव अच्छे-अच्छों को तोड़ देता है। दोनों में से एक टूट गया। मज़ाक बनने के भय को दरकिनार करके वो भी हो आया और आते ही शौचालय की तारीफ़ करनी शुरू कर दी। यह सुनकर तीसरा धर्मसंकट में पड़ गया - “तुम दोनों मिले हुए हो। तुमने करा-धरा कुछ नहीं है और वाह-वाह करते आ रहे हो, ताकि मैं वहाँ जाऊँ और मेरी मज़ाक उड़ाओ। लेकिन मैं बुद्धू नहीं हूँ। तुम्हारे झाँसे में नहीं आने वाला।”
बाइक स्टार्ट हो गयीं। तभी तीसरा बोला - “मैं भी घूम ही आता हूँ उधर। तुम दोनों गये थे, तो मैंने हँसी उड़ायी थी। अब मैं चला जाऊँगा, तो तुम हँस लोगे। शौचालय नहीं मिलेगा तो ऐसे संतुष्टि हो जायेगी, मिल जायेगा तो वैसे संतुष्टि मिलेगी।”
पूरे पंद्रह मिनट बाद लौटा। चेहरे पर हँसी उभर तो रही थी, लेकिन अब हँसे तो किस पर हँसे?
...
रात बारिश हुई थी। मौसम खुशनुमा हो गया था। ऊपर अभी भी बादल थे, लेकिन बारिश नहीं हुई।
अंबाला में नरेंद्र का एक मित्र रहता है। फोन मिलाया और हमारे चाय-नाश्ते का इंतज़ाम हो गया। उसने बताया कि कालका चौक पहुँचकर फोन करो। कालका चौक उसी जगह के आसपास होना चाहिये, जहाँ से चंड़ीगढ़ की सड़क अलग होती है। सीधे उसी तिराहे पर रुके।
“अंकल जी, कालका चौक कहाँ है?”
“वो सामणे फ्लाईओवर पर चढ़ जाओ। थोड़ा ही आगे है।”
यह अमृतसर वाली सड़क थी। चंड़ीगढ़ वाली सड़क उसी फ्लाईओवर के नीचे से निकल गयी थी। कुछ आगे जाकर फिर एक तिराहा मिला। वहीं बैठे एक मज़दूर से पूछा - “भाई, कालका चौक कहाँ है?”
“कहाँ जाईयेगा?”
“अबे कालका चौक जाना है।”
“तो इधर काहे आ गये? पीछे जो तिराहा है, वहाँ से चंड़ीगढ़ वाली सड़क पर चलियेगा, तभिये कालका पहुँचियेगा।”
“हाँ, ठीक है। अता ना पता कुछ तुझे।”
थोड़ा ही आगे गोल चक्कर है। यही कालका चौक है। फोन करने की ज़रूरत नहीं पड़ी। नरेंद्र का मित्र अब हमारा भी मित्र था और यहीं खड़ा था।
अब यह तो बताने की ज़रूरत नहीं कि हमने चाय पी, हमने मठड़ी खायीं, हमने बर्फी खायीं। या है ज़रूरत?
...
साढ़े नौ बजे अंबाला से चल दिये। चंड़ीगढ़ हाईवे पर चढ़े भी नहीं थे कि नरेंद्र का फोन आ गया - “हमारी बाइक में पंचर हो गया है।”
वापस मुड़ा। रणविजय बाइक को हैंडल पकड़कर धकेल रहा था और नरेंद्र पीछे से सहारा दे रहा था। चेहरे पर बारह बजे थे। नारायणगढ़ रोड़ पर थोड़ा चलते ही एक मिस्त्री इसे ठीक करने को तैयार हो गया। पहिया और ट्यूब खोलकर देखा तो इसका वाल्व टूटा मिला।
“नयी ट्यूब पड़ेगी जी इसमें।”
“है तुम्हारे पास?”
“नहीं जी।”
“कहाँ मिलेगी?”
“वो उधर वहाँ चले जाओ। वहाँ न मिले तो वहाँ चले जाना और वहाँ भी न मिले तो वहाँ चले जाना।”
मेरी बाइक ली और रणविजय चला गया।
आधे घंटे बाद फोन आया - “चार जगहों पर देख ली। कहीं ना मिली।”
मिस्त्री बोला - “वापस आ जाओ। इसे कामचलाऊ बना देता हूँ। बाद में कहीं ट्यूब मिलेगी तो डलवा लेना।”
रणविजय लौट आया। रास्ते में जीरकपुर या पंचकुला या कालका या शिमला में जहाँ भी एवेंजर की ट्यूब मिलेगी, डलवा लेंगे।
तभी अजय सिंह राठौर जी का मैसेज आया - “नीरज भाई, अंबाला में कहाँ हो? मिलते हैं कुछ देर के लिये।”
मैंने तुरंत उत्तर दिया - “आ जाओ, सर जी। हम तो अंबाला में एंजोय कर रहे हैं। नारायणगढ़ रोड़, सेठी मार्किट, पंचर की दुकान पर।”
और दो या तीन मिनट ही लगी होंगी। चार मिनट तो कतई नहीं लगी। अजय भाई आ गये। सबसे मिले। फिर से नाश्ते का दौर चला। हम जितने आनंदित थे और सेल्फियाँ ले रहे थे, रणविजय उतना ही उदास।
...
ग्यारह बज गये। आसमान से बादल सब सफ़ाचट हो गये और गर्मी व लू शुरू हो गयी। पंचकुला पार करके पिंजौर बाईपास पर रुके।
“देखो रणविजय भाई, इधर है कालका और इधर है बाईपास। कालका में ट्यूब मिल सकती है।”
“देखो नीरज भाई, हमने ये सोचा है। मतलब अंबाला से यहाँ तक सोचते सोचते ही आ रहे हैं। कि जिस जगह पर ट्यूब में पंचर हुआ था, उस जगह पर अब तो दोबारा नहीं होगा। ठीक है ना?”
“हाँ, ठीक है।”
“तो अगर आगे रास्ते में कहीं पंचर होता है तो वो नयी ट्यूब में भी हो जायेगा।”
“सही बात है।”
“तो ट्यूब क्यों बदलवायें? इससे अच्छा तो दिल्ली लौटकर ट्यूबलेस करवा देंगे।”
...
“गर्मी बहुत हो रही है। यह गर्मी कहाँ तक मिलेगी?”
“अब पहाड़ शुरू हो गये हैं। जैसे-जैसे ऊपर चढ़ते जायेंगे, वैसे वैसे गर्मी कम होती जायेगी। लेकिन बीस-तीस किलोमीटर तक तो गर्मी रहेगी ही।”
“बुरी हालत है।”
“चलो, तुम्हें धरमपुर में सेब का जूस पिलाता हूँ। पियोगे ना?”
उत्तर तो नहीं दिया, लेकिन आँखें ज़रूर दिखा दीं।
...
शिमला तक इस सड़क को चार लेन बनाया जा रहा है। पहाड़ तोड़ा जा रहा है। अच्छा तो नहीं लग रहा, लेकिन इसे रोक भी नहीं सकते। कोई विकल्प भी नहीं है। जनसंख्या बढ़ेगी, शहरीकरण होगा, तो मार्ग भी चौड़े होंगे। कोई सरकार, कोई एन.जी.टी. अगर रोकने की कोशिश करेगा, तब भी नहीं रोक सकते। कुछ समय, कुछ साल तक रोक सकते हैं, लेकिन आख़िरकार ... मार्ग ... चौड़े ... करने ... ही ... पड़ेंगे।
धरमपुर में दो बोतलें सेब के जूस की और एक बोतल चेरी के जूस की ले लीं। एक-एक लीटर की बोतलें। कतई दारू की बोतलों जैसी। अगले ने सामने तीन गिलास रख दिये।
मैंने होटल मालिक से पूछा - “यह हाईवे शिमला तक ही बनेगा ना चार लेन का?”
“हाँ जी।”
“तो आपका होटल भी टूटेगा क्या?”
“नहीं, हमारा होटल नहीं टूटेगा। उस तरफ़ से पहाड़ तोड़ा जायेगा। उस तरफ़ वाली सभी दुकानें और घर टूटेंगे। इधर कुछ नहीं टूटेगा।”
...
साथी लोग पी कम रहे थे, सेल्फियाँ ज्यादा ले रहे थे। मैंने कहा - “चलो, जल्दी निपटाओ। तुम्हें फिर रेल का स्टेशन दिखाऊँगा।”
रणविजय ने नशे में हँसने जैसा अभिनय करते हुए कहा - “हा हा हा, रेल का स्टेशन... जाटराम हमें रेल का स्टेशन दिखायेगा... यहाँ... पहाड़ों में... सेब का रस ही चढ़ गया इसे तो।”
नरेंद्र - “क्या यहाँ स्टेशन है?”
मैं - “हाँ, पास में ही है। सड़क के एकदम बगल में - धरमपुर हिमाचल।”
नरेंद्र - हाँ तो जल्दी चलो, देखेंगे।”
मैं - “रणविजय को चप्पलें भी दिला देंगे।”
रणविजय जो जूते पहनकर आया था, वे उसे काट रहे थे। बाइक पर बैठे-बैठे भी। उसे उन्हें पहने रखना मुश्किल हो रहा था। अब पहाड़ों में जबकि बार-बार ब्रेक और गियर लगाने पड़ रहे थे, तो मुश्किलें और भी बढ़ गयी थीं।
मैंने मोबाइल में देखा - “ओये, पाँच मिनट में कालका से शिमला जाने वाली ट्रेन आने वाली है। जल्दी करो।”
तभी नरेंद्र बालकनी में चला गया - “अरे इधर आओ। रेल की लाइन तो यह रही।”
बाकी दोनों भी बालकनी में पहुँचे। बीस-तीस मीटर नीचे रेल की लाइन थी। मैंने कहा - “तो यहीं से ट्रेन को देखेंगे।”
नरेंद्र - “मैं तो फेसबुक पर लाइव वीडियो चलाऊँगा।”
और जैसे ही लाइव प्रसारण आरंभ हुआ, सात डिब्बों वाली ट्रेन आ गयी। नया इंजन लगा था। बहुत अच्छा लगा।
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धरमपुर बाज़ार में जूतों की दुकान ढूँढते रहे। दुकान अवश्य रही होगी, लेकिन हमें नहीं दिखी। इससे आगे ही कुमारहट्टी है। यहाँ भी कोई दुकान न दिखी।
अब तक इरादा बदल गया था। गूगल मैप पर एक रास्ता यहाँ से सीधे ठियोग की ओर जाता दिख रहा था, जिसमें शिमला रास्ते में नहीं पड़ेगा। यह रास्ता गिरि नदी के साथ साथ है। लेकिन इस पर जाने में एक डर था। हिमाचल की ग्रामीण सड़कें बेहद ख़राब अवस्था में हैं। यह भी ख़राब ही होगी। लेकिन चूँकि कुछ नया देखने को मिलेगा, इसलिये इसी से चलने का निर्णय ले लिया।
कुमारहट्टी से जो सड़क नाहन की ओर जाती है, उसी पर छह-सात किलोमीटर चलने के बाद बायें मुड़ जाते हैं। नाहन वाली सड़क टू-लेन है, जबकि यह सड़क सिंगल लेन की है। अच्छी बनी है। ओच्छघाट से कुछ पहले मानव रचना यूनीवर्सिटी है। यहाँ तक तो बेहतरीन सड़क है, लेकिन इसके बाद कहीं-कहीं पर ख़राब है। फिर भी बाइक 40-45 की स्पीड़ से चल देती है।
ओच्छघाट पहुँचे। रणविजय ने निश्चय किया - “अब तो चप्पलें लेनी ही लेनी है। नहीं तो मर जाऊँगा।”
रणविजय की आवाज़ भयंकर तेज है। आप कहीं किसी कार्यक्रम में लाउड़स्पीकर लगाने की योजना बना रहे हैं, तो खर्चा करने की ज़रूरत नहीं है। रणविजय को बुला लेना। ओच्छघाट में प्रवेश करते ही सड़क के उस पार खड़े एक व्यक्ति से पूछा - “हाँ भाई, यहाँ कहीं जूते-चप्पल की दुकान है क्या?”
उत्तर सौ मीटर दूर खड़े व्यक्ति ने दिया - “आगे मिलेगी।”


थोड़ी ही देर में पूरे ओच्छघाट के डाल-डाल, पात-पात को मालूम चल गया कि किसी को जूते-चप्पल की दुकान चाहिये। आख़िरकार एक मोमो वाले ने कहा - “भाई जी, बाइक यहीं खड़ी कर दो और उस परचून वाली दुकान पर जाओ।”
उसने बाइक यहीं खड़ी कर दी और मुझे रखवाली को बैठा दिया व नरेंद्र को साथ लेकर परचून की दुकान पर चप्पलें लेने चला गया। मैं मोमो वाले से बात करने लगा -
“आप यहीं ओच्छघाट के रहने वाले हो?”
“हाँ जी। मैंने सोलन से एच.एम. किया हुआ है। डेढ़ साल बेंगलौर में ट्रेनिंग करने के बाद यहाँ अपनी दुकान खोल ली।”
मैंने सर्वज्ञ बनते हुए कहा - “बहुत अच्छा। तो कहीं बाहर ही अपनी दुकान क्यों नहीं खोली? सोलन में, शिमला में या चंड़ीगढ़ में?”
“अपना गाँव ही मुझे बड़ा पसंद है। आमदनी कम है, लेकिन सुकून की ज़िंदगी है।”
अब तक मैं एच.एम. की फुल फॉर्म खोजने में अपनी बुद्धि लगा रहा था। इसका पूरा अर्थ पता चले तो आगे बात करने में फायदा है। लेकिन नहीं पता चल सका।
“वैसे... यह एच.एम. होता क्या है?”
“होटल मैनेजमेंट।”
“ओ हो... भाई जी, बहुत बढ़िया। तो यहाँ क्या स्कोप है आगे भविष्य में?”
“यहाँ ओच्छघाट में दुकान ठीकठाक चलती है।”
“तो बेंगलौर में आपने क्या ट्रेनिंग ली?”
“हा हा हा... भाई जी, बेंगलौर की ट्रेनिंग यहाँ हिमाचल में किसी काम की नहीं। वहाँ मैं ‘सी फूड़’ में एक्सपर्ट बन गया और हिमाचल में सी फूड़ को कोई नहीं पूछता। हिमाचली मछली भी नहीं खाते।”
“तो आपने अपने काम को आगे बढ़ाने का भी सोचा है कुछ?”
“मेरे भाई सोलन में होटल चलाते हैं। लेकिन मुझे गाँव में ही रहना पसंद है।”
“नाम क्या है आपका?”
“विराज।”
“तो विराज भाई, आपके बारे में तो मैं लिखूँगा ज़रूर। और अपने उत्तराखंड़ी मित्रों को भी बताऊँगा। उनकी पढ़ाई ख़त्म नहीं होती और देहरादून व दिल्ली भाग जाते हैं। फिर कभी अपने गाँव नहीं लौटते। देहरादून व दिल्ली में ही बैठे-बैठे पलायन पर य्यै बड़ी-बड़ी बातें करते हैं।”
“हिमाचल में ऐसा नहीं है भाई जी। यहाँ तो ज्यादातर लोग अपने गाँव में ही रहना और खाना पसंद करते हैं। सरकार तो हर जगह एक-सी है। हिमाचल में भी वही सरकार, उत्तराखंड़ में भी वही सरकार। यहाँ भी सरकार बदलती है, वहाँ भी सरकार बदलती है। तो सरकारों को दोष देना ठीक नहीं। हम हिमाचली काम करना जानते हैं।”
“हाँ सही कहा आपने। हिमाचल पहले पंजाब में था, तो पंजाबी संस्कृति भरी पड़ी है। कमाओ, खाओ, दारू पीयो और ऐश करो। जबकि उत्तराखंड़ पहले यू.पी. में था तो वही संस्कृति है - सरकार को गाली दो, भाग जाओ, लौटो मत और बातें बनाओ।”
“हाँ भाई जी, बिल्कुल यही बात है। आप आगे रोहड़ू की तरफ़ जाओगे, तो उधर सेब ने लोगों को मालामाल बना रखा है। उन्हें कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं।”
...
रणविजय को चप्पलें मिल गयी थीं।
मैंने पूछा - “मोमो खाओगे?”
“सुबह से तुमने भूखा मार रखा है, अब क्या मोमो भी नहीं खाने दोगे?”
“अच्छा, अंबाला में दो बार नाश्ता किया, धरमपुर में एक लीटर ‘दारू’ पी गये। सब कहाँ गया?”
“एक बार मूतते ही सब निकल गया। कुछ सॉलिड़ तो अभी तक मिला ही नहीं।”
“तो सी फूड़ खाना हो तो बताओ। भाई ने एच.एम. किया हुआ है।”
मुझे लगा कि रणविजय भी मेरी तरह बुद्धू ही होगा और एच.एम.की फुल फॉर्म पूछेगा।
रणविजय - “अच्छा? तो लगा दो केकड़े झींगे।”
मैं - “लगा दो केकड़े झींगे - यह क्या बात हुई? एच.एम. का मतलब भी पता है?”
रणविजय - “होटल मैनेजमेंट।”
बगलें झाँकने की बारी मेरी थी - “हाँ, ठीक है, ठीक है। मोमो लगाओ भाई तीन प्लेट। और चाय भी।”
...
थोड़ा ही आगे यशवंत नगर है - गिरि नदी के किनारे। सड़क बहुत अच्छी बनी है। शायद आगे राजगढ़ या नोहराधार या हरिपुरधार तक अच्छी ही हो। पिछली बार जब मैं इधर आया था, तो बड़ी ख़राब सड़क थी। हिमाचल में अब अच्छी सड़कें बनने लगी हैं।
छैला यहाँ से पचास किलोमीटर दूर है। रास्ता गिरी नदी के साथ-साथ ही है। आज छैला ही रुकेंगे। यह ठियोग-रोहड़ू सड़क पर है। सिंगल और ख़राब सड़क है। ट्रैफिक बिल्कुल नहीं। यहीं आसपास के ग्रामीण ही इस रास्ते से आते-जाते हैं। छैला के उस तरफ़ वाले शिमला या चंड़ीगढ़ या दिल्ली आने-जाने के लिये ठियोग होते हुए राष्ट्रीय राजमार्ग से जाते हैं। बसें भी उधर से ही जाती हैं। हालाँकि इधर भी कुछेक बसें चलती हैं। फिर भी 35 तक की स्पीड़ से हम चल रहे थे।
अंधेरा होते-होते सैंज पहुँचे। यहाँ से एक सड़क चौपाल जाती है। सैंज और छैला लगभग मिले हुए हैं। सैंज में एक होटल के आगे बाइक रोक दी। रात यहीं रुकेंगे। 500 रुपये का एक कमरा था, लेकिन चाभी नहीं मिल रही थी। आधे घंटे तक उन्होंने हमें बाहर ही बैठाये रखा। आख़िर में मालिक आया - नशे में टुल्ल। उसने चाभी दी। हम अगर सामान खोलकर न रखते तो कभी के यहाँ से विदा हो गये होते। खाने में आलू-चने की सब्जी बनायी। इसमें इन्होंने आलू की बजाय नमक डाल दिया और नमक की बजाय आलू। तीनों के 300 रुपये खाने के लिये। हमारा 800 रुपये का नुकसान हो गया। भरपेट भोजन भी नहीं किया और कमरा भी मालिक की तरह ‘टुल्ल’ ही था।

पानीपत टोल के पास...

अंबाला में नरेंद्र के मित्र के साथ नाश्ता...

पंचरग्रस्त बाइक





अजय सिंह राठौर जी के साथ

धरमपुर में

कुमारहट्टी-छैला सड़क



नेरीपुल













अगला भाग: बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग दो


इस यात्रा के सभी भाग:
1. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी
2. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग दो
3. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग तीन (त्यूणी और हनोल)
4. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग चार (हनोल से पुरोला)
5. बाइक यात्रा: पुरोला से खरसाली
6. बाइक यात्रा: खरसाली से दिल्ली
7. ‘कुमारहट्टी से जानकीचट्टी’ यात्रा की वीडियो



Comments

  1. Aisa laga kaise aapki yatra hamare samne live chal rahi ho. Photo achhe hai.

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  2. हमेशा की तरह शानदार लेखनी भाई

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  3. बेहतरीन. अगले भाग का इन्तजार है.

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  4. bahut hi badhiya yatra, bahut acha laga padhkar
    rahichaltaja.blogspot.in

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  5. शानदार यात्रा वृतांत नीरज भाई ,
    एवेंजर का ट्यूब अम्बाला जैसी सिटी में नहीं मिला

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  6. fb vieo ka link kaam nahi kr raha

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एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब