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पंचचूली बेस कैंप यात्रा - दुकतू

10 जून 2017
उत्तराखंड़ के इस इलाके को दारमा घाटी कहते हैं। इसका उत्तरी सिरा तिब्बत की सीमा से मिला है। पश्चिम में रालम धुरा पार करके रालम घाटी में जाया जा सकता है। 1962 से पहले इस इलाके का तिब्बत के साथ बहुत व्यापार होता था, लेकिन अब यह बंद है।
हम बाइक से सामान भी नहीं उतार पाये कि एक आदमी ने हमें घेर लिया - “भाई जी, पंचचूली बेस कैंप जाओगे?”
“हाँ जी।”
“तो कल मैं आपको ले जाऊँगा। अब तो जाना ठीक नहीं। दो-तीन घंटे में हो जायेगा।”
“पैसे कितने लोगे?”

“वैसे तो हम हज़ार रुपये लेते हैं, लेकिन आपसे सात सौ ले लेंगे।”




चूँकि हम एकदम अभी-अभी यहाँ आये थे। माहौल भी नहीं देखा-परखा था। तो फिलहाल ‘कुछ देर में बताते हैं’ कहकर टाल दिया। लेकिन उसने नहीं टाला। हमारे पीछे ही लगा रहा। हमने चाय पी, कमरा लिया और सामान भी कमरे में ला पटका।
“भाई जी, सुबह जल्दी निकलेंगे, ताकि पंचचूली पर सूर्योदय की पहली किरणें हमें मिल जायें। पाँच बजे आ जाऊँगा। घंटे भर में पहुँच जायेंगे।”
मैंने कहा - “लेकिन भाई जी, वहाँ जाना तो आसान है, गाइड़ की आवश्यकता भी नहीं है। तो हम आपको नहीं ले जायेंगे।”
बोला - “आप इधर पहली बार आये हो। आपको कुछ पता भी नहीं है, तो गाइड़ ले जाना ठीक रहेगा।”
मैंने कहा - “नहीं, हम गाइड़ नहीं लेंगे और अकेले जायेंगे।’’
“ठीक है भाई जी, जैसी आपकी मर्जी।”
वह चला गया और फिर कभी हमें दुकतू में नहीं दिखायी दिया।
...
यहाँ जिनके घर में हम रुके थे, उनका साला आया हुआ था। बगल में दांतू गाँव के रहने वाले थे। उनसे ख़ूब सारी बातें हुईं:
मैं - “तो आदि कैलाश के बारे में बताईये कुछ।”
वह - “यह यात्रा अगस्त में होता है। मेला भी लगता है। अगस्त में ही।”
“कितनी तारीख को?”
“अगस्त में पंद्रह तारीख के बाद को।”
“पंद्रह तारीख के बाद।”
उंगलियों पर हिसाब लगाते हुए - “पंद्रह को रात में मंदिर में बैठेंगे। सोलह, सत्रह, अठारह... इक्कीस तक पूरा मेला रहता है।”
“तो यहाँ से फिर आदि कैलाश जाते हैं?”
“यहाँ से आपको जो है, आपका लास्ट है, बीदंग। बीदंग से आपको जो है, एक रास्ता पड़ता है, कुटी जाने के लिये। मलब ब्याँस के लिये। तो वहाँ पर ... आदि कैलास हो गये थे ना आप? मलब छोटा कैलास जो हुआ?”
“हाँ, हाँ।”
“छोटा कैलास जो है... एक बड़ा तो मानसरोवर वाला हो गया, उस रास्ते से ओम पर्वत तक आप जाओगे। इस रास्ते भी जाता है, उस रास्ते भी जाता है। तो आपको धारचूला से लिखके लाना पड़ेगा कि हमें इस रास्ते से जाना है। मलब दारमा के रास्ते जाना है।”
“अच्छा, इसे दारमा बोलते हैं।”
“हाँ, इसे दारमा बोलते हैं। उसे ब्याँस बोलते हैं। लेकिन इधर से कठिन है जाना। गुंजी से जाना आसान है। उधर तो गाड़ी से जाओगे, पैदल जाओगे, आते-जाते मिलेंगे। लेकिन इधर आपको आदमी चाहिये। रास्ता बना हुआ है, लेकिन आदमी चाहिये। यहाँ तक सड़क है, इससे आगे पैदल। बीदंग में आई.टी.बी.पी. है, उससे आगे बालिंग में है। उससे आठ किलोमीटर आगे चाईना है।”
“तो हम अगस्त में आयेंगे। आपका आदि कैलाश भी देख लेंगे और मेला भी देख लेंगे।”
“हाँ जी। तो कल आप रेस्ट तो करोगे ना?”
“हाँ जी, कल हम इधर ही रहेंगे।”
“लेकिन मुझे अभी जाना है। उधर खेती का भी कुछ देखना है।”
“अभी क्या बो रखा है?”
“अभी आलू, राजमा, मूली...।”
“चौलाई होती है इधर?”
“चौलाई मलब सब्जी, हरी सब्जी ना?”
“हाँ।”
“वो यहाँ नहीं होती। लेकिन अभी हम कूट बोयेंगे। अभी वो हमने बोया नहीं है, एक हप्ते बाद बोयेंगे।”
“कूट?"
“दिल्ली में भी खाते हो आप।”
“कुट्टू का आटा?”
“हाँ जी, एक हफ्ता बचा है बोने में। हल चला दिया है।”
“तो कुट्टू का आटा अच्छा बिकता है?”
“हाँ, ठीक ही बिकता है। एक सौ पचास रुपये किलो...।”
“यह तो मार्किट रेट है।”
“यहाँ भी ऐसा ही होता है तकरीबन।”
“तो आपके यहाँ आलू तो लाल रंग का होता है?”
“लाल भी होता है और सफेद भी। आदमी जब खेत में जाता है ना, तो सोचता है कि फल ज्यादा ही हो। तो इस तरह हम दोनों ही बो देते हैं। क्या पता कौन-सा ज्यादा पैदा हो जाये। और मटर भी बो दिया है हमने।
“तो क्या नीचे भी खेत हैं आपके?”
“कहाँ, माइग्रेसी में?”
गौरतलब है कि ये लोग सर्दियों में धारचूला की तरफ चले जाते हैं और इन गाँवों में कोई नहीं रहता। उधर कई गाँव हैं, जिनमें केवल दारमा घाटी वाले ही सर्दियों में रहते हैं। गर्मियाँ आते ही ये ऊपर अपने मूल गाँवों में लौट आते हैं।
“वहाँ खेत नहीं हैं। केवल थोड़ा-मोड़ा बचीगा टाइप का बनाया हुआ है। ... तो पहले जब रोड़ नहीं थी तो ठेकेदार लोग ले जाते थे, पच्चीस रुपये किलो में। भला इसमें क्या आमदनी होगी? तो हम उसे पीसकर बेचते थे। पाँच किलो में दो किलो ही आटा निकलता है, लेकिन एक सौ अस्सी रुपये किलो तक बिकता है। इसके अलावा शंखदाना भी होता है। दिल्ली में एक हज़ार रुपये किलो बिकता है। वो भी बोते हैं। अभी नहीं बोते, बाद में बोते हैं। वो दवाईयों के काम आता है। शुगर में काम आता है, बच्चों को सर्दी-जुकाम हो गया, कुछ हो गया, उसमें भी काम आता है।”
और चलते समय धीरे से कहता गया - “एक बात और बताऊँ भाई जी। बेस कैंप के लिये गाइड़ की जरुरत नहीं है। लेकिन हर आदमी चाहता है कि कुछ आमदनी हो जाये, इसलिये वो आपके पास आया था। आप सुबह निकलना, बहुत अच्छा रास्ता है और आते-जाते लोग भी मिलते हैं। पाँच बजे के बाद तो कीड़ा जड़ी वाले भी जाने लगते हैं।”




अब बात करते हैं कीड़ा जड़ी की। इसे स्थानीय तौर पर यारसा गुम्बा कहते हैं। अंग्रेजी नाम पता नहीं। शक्तिवर्धक दवाईयाँ बनाने के काम आती है और बाज़ार में बहुत महँगी बिकती है। हिमालय में कुछ ही स्थानों पर मिलती है। जहाँ भी मिलती है, वे सभी स्थान 3500 मीटर से ऊपर स्थित हैं। साल में ज्यादातर समय बर्फ़ जमी रहती हैं। मई-जून में जब बर्फ़ पिघलने लगती है तो अन्य घासों व फूलों के साथ यह भी उगना शुरू होती है। इसी समय इसे चप्पे-चप्पे पर ढूँढ़-ढूँढ़कर खोदा जाता है। नेपाल में भी काफ़ी मिलती है और नेपाल से सटे भारतीय इलाके में भी। भारत में और कहाँ मिलती है, मुझे नहीं पता।
और कमाल की बात है कि दुकतू के ऊपर पहाड़ों पर कीड़ा जड़ी मिलती है, लेकिन नदी के उस पार दांतू के ऊपर नहीं। इसलिये केवल दुकतू वाले ही इसकी खुदाई कर सकते हैं। बताते हैं कि दांतू वाले कीड़ा जड़ी के इलाके में जा भी नहीं सकते।
पहाड़ों में परंपरागत घरों की ऊँचाई वैसे भी ज्यादा नहीं होती, लेकिन यहाँ तो यह और भी कम है। पत्थर व मिट्टी की मोटी-मोटी दीवारें हैं। संकरी सीढ़ियाँ हैं। हमें सीढ़ियों के बगल में एक खिड़की के पास थोड़ा-सा खाली स्थान रहने को दे दिया गया। इसमें दरवाजा भी नहीं था। हालाँकि बराबर में दरवाजे वाला एक कमरा था, जिसमें सड़क बनाने वाले मज़दूर रह रहे थे। गाँव में बिजली नहीं है ... शायद है, ध्यान नहीं। लेकिन सोलर पैनल हर घर में हैं। वर्षा विमुख क्षेत्र में होने के कारण बारिश बहुत ज्यादा नहीं होती, अच्छी धूप निकलती है, तो सोलर पैनल की बैटरियाँ हमेशा चार्ज ही रहती हैं। इनसे ये लोग रोशनी भी करते हैं और टी.वी. भी चलाते हैं।
सर्दियों में यहाँ कोई नहीं रहता, लेकिन अब एक-दो परिवार रहने लगे हैं। उनकी देखा-देखी आने वाले समय में और भी परिवार रहने लगेंगे। नीचे धारचूला के पास जहाँ इन्हें जमीनें दी गयी हैं, वहाँ अब हर घर में ताला लगा है। भला कहाँ ये 3000 मीटर से ऊपर रहने वाले और कहाँ धारचूला 1000 मीटर से भी नीचे? सर्दियों में तो किसी तरह ये रह भी लेते होंगे, लेकिन गर्मियों में तो कतई नहीं रह सकेंगे। सर्दियों में रहना शुरू करेंगे तो आमदनी का कोई ज़रिया भी ढूँढ़ ही लेंगे। आख़िर हिमालय में इनसे भी दुर्गम परिस्थितियों में लोग रहते हैं।
मीट सुखाकर रख लेते हैं। बाद में आवश्यकतानुसार खाते रहते हैं।
यहाँ जसूली देवी का भी जिक्र करना आवश्यक है। वे दांतू की रहने वाली थीं। तब देश में अंग्रेजी राज था। काफी धनवान महिला थीं वे। पहले उनके पति की मृत्यु हुई और फिर उनके इकलौते पुत्र की। इस वियोग से पीड़ित होकर वे अपनी सारी दौलत खच्चरों पर लादकर गंगा में प्रवाहित करने निकल पड़ीं। उसी दौरान उन्हें कुमाऊँ के तत्कालीन कमिश्नर मिले। कमिश्नर ने सलाह दी कि इस धन को आप जन-कल्याण में लगाईये। तब जसूली देवी ने कुमाऊँ, पश्चिमी नेपाल और तिब्बत तक में यात्रियों में लिये सराय बनवा दीं। बताते हैं कि ऐसी कुछ सराय अभी भी अस्तित्व में हैं। जसूली देवी की याद में धारचूला में एक छोटा-सा पार्क भी है और दांतू में मंदिर भी है।
...
सुबह पाँच बजे ही चल देने का इरादा था, ताकि साफ मौसम में पंचचूली पर पड़ रही सूर्योदय की नयी-नयी किरणों का अवलोकन किया जा सके। आँख भी खुल गयी, लेकिन बाहर बूंदाबांदी की आवाजें आ रही थीं। दीप्ति ने खिड़की से झाँककर देखा, मौसम ख़राब था। उसी समय मकान-मालिक भी जगाने आया, लेकिन ‘ऐसे मौसम में जाना ठीक नहीं’ कहकर वह भी चला गया। और हमने भी रजाईयाँ दुगुने उत्साह से ओढ़ीं और करवटें बदलकर सो गये।
पता नहीं फिर कब आँख खुलीं। मौसम साफ था और धूप भी निकली थी। कुदरत का साफ इशारा था कि निकल पड़ो।

























धारचूला में जसूली देवी पार्क






अगला भाग: पंचचूली बेस कैंप ट्रैक


1. पंचचूली बेस कैंप यात्रा: दिल्ली से थल
2. पंचचूली बेस कैंप यात्रा - धारचूला
3. पंचचूली बेस कैंप यात्रा - धारचूला से दुकतू
4. पंचचूली बेस कैंप यात्रा - दुकतू
5. पंचचूली बेस कैंप ट्रैक
6. नारायण स्वामी आश्रम
7. बाइक यात्रा: नारायण आश्रम से मुन्स्यारी
8. पाताल भुवनेश्वर की यात्रा
9. जागेश्वर और वृद्ध जागेश्वर की यात्रा
10. पंचचूली बेसकैंप यात्रा की वीडियो






Comments

  1. इस बार की पोस्ट छोटी भले ही हो लेकिन रुचिकर है
    मुर्गियों की फोटो और जसूली देवी की कहानी ने प्रभावित किया
    जय हो
    नीरज मुसाफिर जिंदाबाद
    जिंदाबाद जिंदाबाद

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  2. Pictures are great as always. Hope you have enjoyed the local stay. Off course story of Jasooli devi is inspiring.

    Regards,
    Neeraj Shukla

    ReplyDelete
  3. Bahut dino bad Pahadi Neeraj Musafir apni purani form me dikh rahe hain.

    ReplyDelete
  4. अनछुई -अनजानी सी जगह !! शानदार विवरण

    ReplyDelete

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