हुसैनीवाला की कहानी कहाँ से शुरू करूँ? अभी तक मैं यही मानता आ रहा था कि यहाँ साल में केवल एक ही दिन ट्रेन चलती है, लेकिन जैसे-जैसे मैं इसके बारे में पढ़ता जा रहा हूँ, नये-नये पन्ने खुलते जा रहे हैं। फिर भी कहीं से तो शुरूआत करनी पड़ेगी।
इसकी कहानी जानने के लिये हमें जाना पड़ेगा 1931 में। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को लाहौर षड़यंत्र केस व अन्य कई मामलों में गिरफ़्तार करके फाँसी की सज़ा घोषित की जा चुकी थी। तय था कि 24 मार्च को इन्हें लाहौर जेल में फाँसी दे दी जायेगी। लेकिन उधर जनसाधारण में देशभक्ति की भावना भी भरी हुई थी और अंग्रेजों को डर था कि शायद भीड़ बेकाबू न हो जाये। तो उन्होंने एक दिन पहले ही इन तीनों को फाँसी दे दी - 23 मार्च की शाम सात बजे। जेल के पिछवाड़े की दीवार तोड़ी गयी और गुपचुप इनके शरीर को हुसैनीवाला में सतलुज किनारे लाकर जला दिया गया। रात में जब ग्रामीणों ने इधर अर्थी जलती देखी, तो संदेह हुआ। ग्रामीण पहुँचे तो अंग्रेज लाशों को अधजली छोड़कर ही भाग गये। लाशों को पहचान तो लिया ही गया था। इसके बाद ग्रामीणों ने पूर्ण विधान से इनका क्रिया-कर्म किया। आज उसी स्थान पर समाधि स्थल बना हुआ है। प्रत्येक वर्ष बैसाखी वाले दिन यानी 13 अप्रैल को यहाँ मेला लगता है।
भारत-पाकिस्तान की सीमा एकदम बगल से होकर गुज़रती है। जिस पुल से हम सतलुज नदी पार करते हैं, उसके पश्चिम में पाकिस्तान ही है। यहीं नदी पर बैराज भी है। एक नहर भी निकाली गयी है। नदी बैराज और पुल के नीचे से गुजरते ही पाकिस्तान में चली जाती है।
इसके बाद की कहानी 1947 में बनती है। इस दौर का यदि जीवंत वर्णन पढ़ना हो, तो खुशवंत सिंह जी की पुस्तक ‘पाकिस्तान मेल’ पढ़िए। यह एक उपन्यास है और इसमें विभाजन के दौर की और हुसैनीवाला के आसपास की ही कहानी लिखी गयी है। उस समय बड़ी भारी संख्या में शरणार्थी इधर से उधर आ-जा रहे थे। ट्रेनों में भर-भर कर। छतों पर भी। रेल के पुल पर लोग रस्सियाँ और जंजीरें बाँध देते थे, ताकि ट्रेन की छत पर यात्रा कर रहे दूसरे धर्मों के शरणार्थी नदी में गिरकर मर जायें। कहानी का मुख्य पात्र जग्गा अपनी मुसलमानी प्रेमिका के परिवार को बचाने के लिये ऐसे ही बाँधी गयी रस्सी काटता है और इसी के साथ ‘पाकिस्तान मेल’ समाप्त हो जाती है।
खुशवंत जी का यह उपन्यास भले ही काल्पनिक हो, लेकिन इसके शत प्रतिशत सच होने में कोई संदेह नहीं। सतलुज के उसी पुल के अवशेष मेरे सामने थे, जिस पर कभी जग्गा ने रस्सी काटी थी। उस समय फिरोज़पुर से रेलवे लाइन कसूर होते हुए लाहौर जाती थी। वर्तमान पंजाब मेल इसी रास्ते जाया करती थी। विभाजन के बाद इसने लाहौर जाना बंद कर दिया और फिरोज़पुर में ही अपनी यात्रा समाप्त करने लगी। मैं नई दिल्ली से इसी पंजाब मेल से फ़िरोज़पुर आया था। मन में एहसास अवश्य था कि किसी समय यह ट्रेन सतलुज पार करके लाहौर जाती थी।
ये दो ट्रेनें मुझे बड़ा भावुक कर देती हैं - पंजाब मेल और फ्रंटियर मेल। फ्रंटियर मेल को अब स्वर्ण मंदिर मेल यानी गोल्डन टेम्पल मेल कहा जाता है।
तो जब मैं पंजाब मेल से फ़िरोज़पुर छावनी उतरा, तो मन में यही इच्छा थी कि इसी ट्रेन को, इन्हीं डिब्बों को आगे हुसैनीवाला भेजा जाना चाहिये। साल में एक ही दिन हुसैनीवाला में ट्रेन चलती है। इसके लिये एक डी.एम.यू. ट्रेन का प्रबंध किया जाता है। मेरी इच्छा है कि एक चक्कर पंजाब मेल भी हुसैनीवाला का लगाकर आये। यह भी तो देखे कि इसकी पूर्वज किस रास्ते से लाहौर जाया करती थी।
हुसैनीवाला में पंजाब मेल की सीटी फिर से गूँजनी चाहिये।
बँटवारे के समय हुसैनीवाला, सतलुज पुल और समाधि स्थल पाकिस्तान के हिस्से में आये थे। पाकिस्तान ने इस शानदार पुल को तोड़ दिया। बाद में 1961 में जवाहरलाल नेहरू ने इस इलाके को भारत में शामिल किया, लेकिन उसके लिये इतना ही भारतीय इलाका पाकिस्तान को भी देना पड़ा। समाधि स्थल की मरम्मत की गयी। रेल का पुल तो दोबारा नहीं बनाया जा सका, लेकिन उसके जो भी अवशेष हैं, फिलहाल भारत में हैं। इन अवशेषों को देखना भी इतिहास में गहरी डुबकी लगाने जैसा है। पंजाब मेल गुज़रा करती थी इस पुल से।
इस पुल को ‘कैसर-ए-हिंद’ पुल कहा जाता था। यह नाम कैसे पड़ा, नहीं पता। इसके दोनों किनारों पर छोटे किले जैसी संरचना बनी है। सतलुज के उस पार जो संरचना है, वो समाधि स्थल परिसर में ही स्थित है। यह 1965 और 1971 की लड़ाईयों में काफ़ी टूट गया, लेकिन इस पार वाली संरचना काफ़ी हद तक सुरक्षित है। इसके ऊपर चढ़ने के लिये लोहे की सीढ़ी व अंधेरा जीना भी सुरक्षित है। ऊपर चढ़कर सतलुज नदी, उस पार दूर तक खंभों के अवशेषों और बायें पाकिस्तान का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है।
वर्तमान हुसैनीवाला स्टेशन पुराने स्टेशन से थोड़ा हटकर है। अब रेल की लाइन पुल तक नहीं जाती। इसे दोबारा बिछाकर कुछ बायें कर दिया गया है। जहाँ सड़क सतलुज की नहर को पार करती है, ठीक वहीं वर्तमान रेलवे लाइन भी समाप्त हो गयी है। ‘बफ़र स्टॉप’ पर लिखा हुआ है - उत्तर रेलवे समाप्त।
यहाँ भी अटारी सीमा की तरह रोज़ाना शाम को ध्वजावरोहण समारोह होता है, जिसे दोनों देशों के सैनिक मिलकर करते हैं। साल के बाकी दिन भले ही भीड़ न होती हो, लेकिन आज यहाँ भयंकर भीड़ थी। लंबी लाइन थी, जो खिसक नहीं रही थी। मैं भी कुछ देर लाइन में लगा, लेकिन फिर इरादा त्याग दिया।
हुसैनीवाला की रेलवे लाइन फ़िरोज़पुर सिटी से अलग होती है। सिटी से इसकी दूरी पाँच किलोमीटर है। इस दूरी को ट्रेन 20 की स्पीड़ से तय करती है। फिरोज़पुर छावनी से पहली गाड़ी सुबह 9 बजे चलती है और हुसैनीवाला से आख़िरी गाड़ी शाम 6 बजे। इस दौरान यही ट्रेन छह चक्कर लगाती है। रास्ते में पड़ने वाले ग्रामीण और बच्चे भी इसे जमकर निहारते हैं, क्योंकि एक साल पहले उनके गाँव से ट्रेन गुज़री थी और अब अगली ट्रेन पूरे एक साल बाद आयेगी।
आपने दैनिक ट्रेनें देखी होंगी, साप्ताहिक ट्रेनें भी देखी होंगी, लेकिन यदि वार्षिक ट्रेन देखनी है, तो अगले साल 13 अप्रैल को फ़िरोज़पुर पहुँच जाना।
बच्चे और ग्रामीण कौतूहल से वार्षिक ट्रेन को देखते हुए |
फ़िरोज़पुर सिटी से हुसैनीवाला तक ट्रेन 20 की स्पीड़ से चलती है। |
हुसैनीवाला में एक भी प्लेटफार्म नहीं है। ट्रेन ‘बफ़र स्टॉप’ यानी रेलवे लाइन के आख़िर में रुक जाती है। यात्रियों को ऐसे ही चढ़ना-उतरना पड़ता है। हाँ, टिकट घर अवश्य है। |
सतलुज नदी पर एक ज़माने में रेल का पुल हुआ करता था। अब उसके केवल यही अवशेष बचे हैं। |
सामने ही सीमा-द्वार दिख रहा है। |
सीमा की तारबंदी |
समाधि स्थल के पास पुल का एक सिरा अभी भी जीर्ण-शीर्ण हालत में है। इन बाबाजी ने अवश्य ही इस पुल पर रेल में यात्रा की होगी। अपने बीते दिनों को याद कर रहे हैं शायद। |
यह उसी पुल का कसूर की तरफ़ वाला द्वार है। |
पुल के अवशेष सतलुज किनारे खेतों में भी हैं। |
सीमा पर ध्वजावरोहण समारोह देखने के लिये लगी लाइन। |
पुल के फ़िरोज़पुर की तरफ़ वाले टावर में ऊपर चढ़ने के लिये लोहे की सीढ़ी। वैसे यहाँ एक अंधेरा जीना भी है ऊपर चढ़ने के लिये। |
ऊपर चढ़कर सतलुज और पुल के अवशेषों का विहंगम दृश्य। |
VIDEO
कमाल की जानकारी पंजाब मेल फिरोजपुर मुबई से फिरोजपुर चलती है क्या हुसैनी वाला बाकी दिनों में नही जाया जा सकता
ReplyDeleteहुसैनीवाला बाकी दिनों में भी जाया जा सकता है...
DeleteHusainivala nam se pakistan ka station lagta he . Read karate aapka jussa or trainyatra ke prati aapka lagav hame sath le jata he . Umesh joshi
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteअच्छी जानकारी
ReplyDeleteबहुत ही ज्ञानबर्धक जानकारी����
ReplyDeleteयह पोस्ट तो गजब की जानकारी वाला रोचकता और गंभीरता वाला है। हुसैनीवाला की यह एतिहासिक रुचिकर जानकारी और कहीं नहीं मिल सकती। यह एक तरह से टेलीफिल्म जैसी लगी। सभी फोटो खूबसूरती के साथ साथ तथ्यों को उजागर करने में सफल रहे है। फोटो के कैप्शन फोटो के बारे में सब कुछ कह दे रहे हैं।
ReplyDeleteपुल के साथ साथ लोहे की स्लीपर वाली रेल लाइन भी अपने इतिहास को बता रही है।
ReplyDeleteसाल में एकबार नहीं दो बार ट्रैन चलती है नीरज भाई जी, शहीदी दिवस और वैशाखी
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