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बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग दो

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18 मई 2017
हम सुबह ही उठ गये। मतलब इतनी सुबह भी नहीं। फ्रेश होने गये तो एहसास होने लगा कि 500 रुपये का कमरा लेकर ठगे गये। चार-पाँच कमरों का एक साझा टॉयलेट ही था। उसमें भी इतनी गंदगी कि मामला नीचे उतरने की बजाय वापस ऊपर चढ़ गया। होटल मालिक हालाँकि अब नशे में तो नहीं था, लेकिन आँखें टुल्ल ही थीं। वह पूरे दिन शायद पीता ही रहता हो।
सैंज समुद्र तल से लगभग 1400 मीटर की ऊँचाई पर है। जब छैला तिराहे पर पहुँचा तो मैं आगे था। मुझसे आगे एक बस थी, जिसे ठियोग की तरफ़ जाना था। तिराहे पर वह एक ही फेरे में नहीं मुड़ सकी तो ड्राइवर उसे बैक करके दोबारा मोड़ने लगा। इतने में रणविजय और नरेंद्र तेजी से पीछे से आये और ठियोग की तरफ़ मुड़कर चल दिये। मैं जोर से चीखा - “ओये।” लेकिन दोनों में से किसी पर कुछ भी असर नहीं हुआ।
फोन किया - “वापस आओ।”
आज्ञाकारी शिष्यों की तरह दोनों लौट आये।
“शिमला जाने का मन था क्या?”



“वो सड़क शिमला जाती है?”
“हाँ, और मैंने तुम्हें आवाज़ भी लगायी थी।”
“हमने सुन तो ली थी, लेकिन सोचा कि बस का कंडक्टर ड्राइवर को रोकने को कह रहा है।”
तभी रणविजय बोला - “इसीलिये हम आगे नहीं चलते गुरूदेव। जब भी हम आगे बढ़कर किसी सड़क पर चलने का मौसम बनाते हैं, तभी पता चलता है कि गलत रास्ते पर आ गये।”
“तो तिराहे पर रुक जाया करो। बीचोंबीच। मैं दूर से ही इंडिकेटर दिखा दिया करूँगा। आगे रहना सीखो।”
रास्ता अभी भी गिरि नदी के साथ-साथ था। यह काफ़ी लंबी नदी है और कहीं भी इसका ज़िक्र नहीं आता। इसके जैसी बस्पा, रूपिन, पब्बर और तीर्थन जैसी नदियाँ प्रसिद्धि पा गयी हैं, लेकिन इसे कोई नहीं पूछता। यह खड़ापत्थर के पास से लगभग 3000 मीटर की ऊँचाई से निकलती है और पौंटा साहिब के पास यमुना में जा मिलती है। शिमला शहर में पानी की आपूर्ति इसी नदी से होती है। रेणुका झील इसी के पास स्थित है।
सड़क दो-लेन की है और बहुत अच्छी बनी है। लेकिन कहीं-कहीं ख़राब भी मिल जाती है। और ख़राब मिलती तो ऐसी ख़राब मिलती कि मेरे प्राण सूख जाते और रणविजय नरेंद्र को बाइक से नीचे उतार देता - “पैदल आओ।”
कीचड़ जबरदस्त। और ऐसा रास्ता उन दोनों के लिये इस मायने में वरदान साबित होता, क्योंकि वे फेसबुक पर लाइव चला देते। पता नहीं कोई इसे देखता या नहीं, लेकिन दोनों खुश तो हो ही जाते।
जब खड़ापत्थर दो-तीन किलोमीटर रह गया और ऊँचाई 2600 मीटर पहुँच गयी और देवदार का मनोहारी जंगल आ गया तो एक जगह रुकना पड़ा। सड़क से थोड़ा ऊपर वे लोग पता नहीं दूसरी सड़क बना रहे थे या इसे चौड़ा करने को पहाड़ तोड़ रहे थे। एक जे.सी.बी. मशीन ऊपर चढ़ी हुई थी और पत्थर नीचे गिरा रही थी। दोनों तरफ़ ट्रैफिक रोक रखा था। जब टनों वजनी चट्टान नीचे गिरायी जाती तो रोंगटे खड़े कर देने वाला नज़ारा होता। अभी यह मलबा ऊपर से यहाँ सड़क पर गिराया जा रहा है, कुछ देर में इसे सड़क से हटाकर नीचे गिरा दिया जायेगा। इसमें कम से कम दो घंटे लगेंगे। वापस चलो।
दो किलोमीटर पीछे एक ढाबा था। आमलेट बनवा लिया, चाय बनवा ली, बिस्कुट ले लिये, खा भी लिये और सो भी लिये; लेकिन सड़क खुलने की कोई आहट नहीं सुनायी पड़ी। खड़ापत्थर की तरफ़ से कोई भी गाड़ी नहीं आयी।
हाँ, इस बीच एक बात तो बताना भूल ही गया। ‘बॉन’ का य्यै बड़ा बिस्कुट का पैकेट, जिसमें हम तीनों का पेट भर गया, मात्र बीस रुपये का मिला। इसकी एम.आर.पी. भी बीस रुपये ही थी। यही पैकेट मनाली और मसूरी जैसी जगहों पर पचास रुपये का बिकता है। कारण, अजी पहाड़ पर चढ़ाना पड़ता है, पैसे बढ़ ही जाते हैं। और टूरिस्ट भी “हाँ, पहाड़ पर तो चढ़ाना ही पड़ता है, मेहनत का काम है”, इसके खुशी-खुशी पचास रुपये दे देते हैं।
दो घंटे बाद ऊपर से एक कार आयी। दूर से कार आते देख ही दोनों साथियों ने मुझ बेचारे को सोते से जगा दिया - “ओये उठ, सड़क खुल गयी है।”
“ओये यार, सड़क तब खुलेगी, जब ऊपर से कोई गाड़ी आयेगी। अभी सोने दो मुझे।”
“सड़क खुल गयी है। कार आ रही है उधर से।”
“तीन-चार गाड़ियाँ और आने दो। तब चलेंगे।”
कार वाले से पूछा - “भाई जी, सड़क खुल गयी ना?”
“नहीं जी, मैं तो एक घंटा लाइन में खड़ा होकर वापस लौट रहा हूँ।”
मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। अभी और सोने को मिलेगा।
लेकिन सड़क कितनी देर बंद रहती? खुल गयी और हम चल दिये।
यह वो जगह थी, जो यार लोग खड़ापत्थर-खड़ापत्थर कहकर दिखाते हैं और डराते हैं। एकदम खड़ा पहाड़, सिंगल कीचड़ वाली सड़क। यूँ नीचे झाँको, तो लगेगा कि पाताललोक में गिर पड़ेंगे।
वन-वे ट्रैफिक चल रहा था। मेरे आगे हिमाचल परिवहन की एक बस थी। तभी एक कार वाला सामने से उसके आगे आ गया। दोनों के बचने की जगह नहीं थी। वो कार तो पीछे हट सकती थी, क्योंकि उसके पीछे कोई गाड़ी नहीं थी। लेकिन बस पीछे नहीं हट सकती थी। बस के पीछे मैं जो खड़ा था। अरे नहीं, मैं तो हटने को तैयार था, लेकिन मेरे पीछे भी पाँच-छह गाड़ियाँ थीं।
तो उस कार वाले और बस वाले में लड़ाई हो गयी। कार वाला शायद सेब के किसी बड़े फार्म का मालिक था और बस वाला सरकारी आदमी था। लड़ाई हो गयी तो ये पक्का हो गया कि दोनों में से कोई भी पीछे नहीं हटने वाला। तभी मेरे पीछे खड़ी गाड़ी में से दो लोग बाहर निकले और कार वाले को समझाने लगे - “भाई जी, आप इधर साइड़ में कर लो। बस निकल जायेगी, तभी रास्ता खुलेगा, अन्यथा आप भी यहीं खड़े रहेंगे और हम भी।”
“इधर साइड़ में कैसे कर लूँ? पत्थर पड़े हैं, कार में टकरा जायेंगे।”
“ओ कोई बात नी भाई जी। ये लो, हम पत्थर हटा देते हैं।... लो जी, हट गये पत्थर। अब साइड़ में कर लो।”
“तुम्हारा दिमाग तो ठीक है ना? उधर खाई में गिर पड़ा तो?”
“देखो भाई जी, हटना तो आपणे ही पड़ेगा। साइड़ होओ या पीछे हटो।”
आख़िरकार उसे कार साइड में लगानी पड़ी। और हिमाचली ड्राइवरों की तारीफ़ तो पूरी दुनिया करती है, ओबामा जी भी करते थे और अब ट्रम्प जी भी करते हैं। सिर घुसाने भर की जगह चाहिये, फिर चाहे पहाड़ हो, खाई हो, कीचड़ हो, ढलान हो, चढ़ाई हो, रगड़े, फिसले, जो भी हो... निकाल ले जाते हैं। ठीक इसी समय बस में बैठा एक बूढ़ा, जो अभी-अभी नीचे उतरा था और मौका-ओ-माहौल देखकर शुरू हो गया। लघुशंका के बहाने झरने की धार को कई सौ मीटर नीचे गिरते देख रहा था। बस चल पड़ी तो झरना-वरना भूलकर बस के पीछे दौड़ पड़ा और कीचड़ में सनते-सनाते आख़िरकार चढ़ने में कामयाब रहा।
पीछे-पीछे हम भी निकल लिये।
2700 मीटर की ऊँचाई पर खड़ापत्थर है। यह एक दर्रा है। अब हम गिरि घाटी छोड़कर पब्बर घाटी में प्रवेश कर जायेंगे। लेकिन भोजन करने के बाद।
बारिश होने लगी और हम भोजन करने लगे। रणविजय ने अचानक कहा - “यह जो रेस्टोरेंट का मालिक है, हमारी ही तरफ़ का रहने वाला है, यानी लखनऊ की तरफ़ का।”
मैं अड़ गया, पता नहीं क्यों - “ना, यह लखनऊ से 100 किलोमीटर से भी ज्यादा दूर का है।”
रणविजय - “लगाओ शर्त, दस दस रुपये की। लखनऊ के 100 किलोमीटर के भीतर ही भीतर का है।”
तभी उसने किसी से कुछ कहा। मैंने आव देखा न ताव, शर्त मंज़ूर कर ली - “अरे वाह, जाओ, तुम्हारे लिये और आसानी कर देता हूँ। यह लखनऊ के 200 किलोमीटर से भी बाहर का है।”
आपको क्या लगता है?
शर्त किसने जीती होगी? जाटराम ने?
लेकिन नहीं। मैं शर्त हार गया। वो अमेठी की दिशा में 80 किलोमीटर दूर का था। कई सालों से यहीं रह रहा था। किराये की दुकान है, लेकिन मौके पर है और अच्छी चलती है।
हमें आज चांशल के नीचे लडोट में रुकना था। लेकिन इतना भी पता था कि चांशल की सड़क अत्यधिक ख़राब है। आज जिस ख़राब सड़क पर हम चले, उससे भी ज्यादा ख़राब। फिर 3700 मीटर तक की ऊँचाई और ख़राब मौसम। मन डाँवाडोल होने लगा। चांशल जायें, न जायें। रणविजय से पूछा - “क्या इरादा है?”
“हम तो जी, तुम्हारे पीछे-पीछे हैं। जहाँ ले जाओगे, चले जाएँगे।”
मुझे अक्सर ऐसे उत्तर अच्छे नहीं लगते। अपने सहयात्रियों से मैं उनके मन की बात जानना चाहता हूँ। ठीक है कि मैं कुछ कहूँगा, तो वे मना नहीं करेंगे। लेकिन फिर भी आपके मन में क्या चल रहा है, वो मैं जानना चाहता हूँ।
मैंने उत्तर पाने की आशा में कुरेदा - “देखो, तुम्हारी बाइक में भी समस्या है। आगे और भी ख़राब रास्ता आने वाला है। ऊँचाई, ठंड़ और बारिश। क्या लगता है आपको?”
रणविजय और नरेंद्र - “जैसा आप कहो।”
“तो चांशल नहीं चलते।”
तपाक से रणविजय बोला - “यही ठीक है गुरूदेव। चाहता तो मैं भी यही हूँ। लेकिन जहाँ आप चलोगे, वहीं हम जायेंगे।”
“अरे तो बोल नहीं सकते थे? मैं इतनी देर से पूछ रहा हूँ। याद रखो, यात्राओं में मैं कभी भी अपने सहयात्रियों से अलग नहीं जाता।”
खड़ापत्थर के बाद रास्ता ढलान वाला है। अच्छा बना है और एकाध जगह ही ख़राब है। कुछ ही देर में हाटकोटी जा पहुँचे। बाकी दोनों मुझसे पहले ही आ गये थे।
मैंने कहा - “अब हम ऐसी जगह पर हैं, जहाँ से एक रास्ता चांशल जाता है और दूसरा रास्ता उत्तराखंड़। अगर हम चांशल नहीं जायेंगे तो उत्तराखंड़ जायेंगे। अब भी आप अपने मन की स्पष्ट बता दो कि आपका मन क्या कहता है। चांशल चलना है या नहीं। उतना भी मुश्किल नहीं है, हम जा सकते हैं। हाँ या ना।”
दोनों चुप।
“तो तुम ऐसे नहीं बताओगे। ये लो पेन और अपनी हथेली पर लिखो - हाँ या ना। गुप्त मतदान।”
सबसे पहले मैंने अपनी हथेली पर लिखा - ना। मुट्ठी बंद कर ली और जेब में रख ली। रणविजय ने भी कुछ लिखा। नरेंद्र बोला - “मैं धर्मसंकट में फँस गया।”
“अरे नहीं, कोई धर्मसंकट में नहीं फँसा है। मानना, न मानना, सहमति, असहमति होना अलग बात है।”
“नहीं, फिर भी अगर मैंने ‘हाँ’ लिख दिया और तुमने...”
“ऐसा कुछ नहीं है। सारी परिस्थिति मैंने समझा दी है। अब तुम्हारा मन क्या कहता है, हाँ या ना, बस केवल इतना ही लिखना है। कहाँ जायेंगे, वो बाद की बात है।”
उसने हथेली पर कहानी लिख दी। मुझे पता था कि उसने ‘हाँ’ या ‘ना’ नहीं लिखा है, बल्कि कुछ और ही लिखा है, इसलिये मतगणना के समय जब तीनों ने एक साथ अपनी-अपनी हथेलियाँ सामने रखीं तो मैंने दूसरी हथेली खोली, जिस पर कुछ नहीं लिखा था। जो मैं कहूँगा, नरेंद्र वही लिख देगा। मतदान का कोई लाभ नहीं होगा।
फिर नरेंद्र का मत जानने के लिये हम दोनों को जो मेहनत करनी पड़ी, उससे कम मेहनत में चांशल चले जाते। आख़िरकार उसने ‘हाँ’ लिख दिया। रणविजय ने भी ‘हाँ’ ही लिखा था।
“तो चलो, चांशल ही चलते हैं।”
“अरे अपनी हथेली भी तो दिखा दो।”
“क्या करोगे उसे देखकर? अगर मैंने ‘ना’ भी लिखा होगा, तब भी बहुमत तो ‘हाँ’ के साथ है।”
“नहीं, अपनी हथेली दिखाओ।”
मैंने अपनी ‘ना’ लिखी मुट्ठी खोल दी।
“नहीं, हम भी चांशल नहीं जायेंगे।”
“अरे, आपका मन है तो चलते हैं। कुछ समस्याएँ ज़रूर आयेंगी, लेकिन हम चले ही जायेंगे।”
“नहीं, आपने अगर ‘ना’ लिखा है तो कुछ सोच-समझकर ही लिखा होगा। हम तो अनाड़ी हैं। हमें तो कुछ न कुछ लिखना था, सो लिख दिया - बिना सोचे-समझे।”
“देखो लो।”
“देख लिया।”
तो हाटकोटी से सीधे चलते रहे - त्यूनी की तरफ़। सिंगल सड़क है, लेकिन बहुत अच्छी बनी है। जब अचानक टूटी सड़क मिली तो हम समझ गये कि राज्य-परिवर्तन हो गया। हिमाचल पीछे रह गया, अब उत्तराखंड़ शुरू हो गया। यहीं गोलगप्पे का एक ठेला था। रणविजय की आवाज़ आयी - “गोलगप्पे।”
इतना सुनना था कि तुरंत मुड़े और दस-दस रुपये के छह-छह गोलगप्पे पार कर दिये।
“कौन-सी जगह बोर्डर है भाई?”
“यही नाला बोर्डर है जी।”
“अच्छा, तो आप हिमाचल में खड़े हो या उत्तराखंड़ में?”
“हिमाचल में।”
“रहते कहाँ हो?”
“छह किलोमीटर नीचे गाँव में।”
“तो रोज गोलगप्पे लेकर यहाँ आते हो?”
“हाँ जी।”



तभी हिमाचल परिवहन की हरिद्वार-रोहडू बस रोहडू की तरफ़ जाती मिली। इसके दस मिनट बाद ही उत्तराखंड़ परिवहन की भी हरिद्वार-रोहडू बस मिली। दोनों में नाममात्र की सवारियाँ। मैंने हरिद्वार में हिमाचल परिवहन की यह बस देखी थी, लेकिन सोचता था कि शायद देहरादून, शिमला होते हुए जाती होगी। लेकिन आज इसे यहाँ देखकर पता चला कि यह त्यूनी होते हुए जाती है। लेकिन अभी भी एक संदेह है। चकराता होते हुए आती है या पौंटा साहिब, शिलाई होते हुए। हिमाचल की बस है तो शायद शिलाई के रास्ते आती होगी। लेकिन अगले दिन जब पुरोला-मोरी सड़क पर यह बस दिखी तो आश्चर्य भी हुआ और सारा संदेह भी मिट गया। यह हरिद्वार से देहरादून, विकासनगर, नैनबाग, पुरोला, मोरी, त्यूनी होते हुए रोहडू जाती है। इसका मार्ग लंबा ज़रूर है, लेकिन जौनपुर-जौनसार के उन इलाकों को सीधे देहरादून व हरिद्वार तक की बस सेवा मिल जाती है, जहाँ से इनके अपने उत्तराखंड़ राज्य की भी एकाध ही बस है।
यह सड़क उत्तराखंड़ में भी अच्छी ही है, हालाँकि सीमा पर आधा किलोमीटर ख़राब है।
ठीक छह बजे त्यूनी में थे। कमरे के लिये नरेंद्र को भेजा। वापस लौटा तो कहानी सुनाने लगा। मैंने पूछा - “हाँ या ना।”
बोला - “हाँ।”
“तो कोई कहानी नहीं सुनानी। सामान खोलो और चलो।”
300 रुपये का कमरा था। साफ-सुथरा। अटैच बाथरूम और शौचालय। गीजर। टी.वी. तो हमें देखना नहीं था। सभ्य, सुशील, शालीन स्टाफ।
और डिनर में तो आनंद ही आ गया -
“तारीफ़ करूँ क्या उसकी, जिसने तुम्हें बनाया।”
220 रुपये में तीनों ने अपनी-अपनी पसंद का भोजन उंगली चाटते हुए किया।
कल ओच्छघाट में एच.एम. वाले लड़के की कही एक बात याद आ गयी - “भाई जी, हिमाचल और उत्तराखंड़ में एक ख़ास फ़र्क है। हिमाचल वालों को खाना बनाना नहीं आता। आप इस बार हिमाचल में खाना खाओ, अगली बार उत्तराखंड़ जाओगे तो वही खाना खाना। ज़मीन-आसमान का अंतर दिखेगा।”
पब्बर नदी पर एक झूला पुल बना हुआ है। हम खाना खाकर टहलने चल दिये। यहीं पुल के प्रवेश द्वार पर चार लड़के बैठे दारू पी रहे थे। हमें देखते ही बोले - “भाई जी, आ जाओ। आप भी पी लो।”
“बस भाई, धन्यवाद।”
शराबी लोग गाली-गलौच न करें, अनाप-शनाप न बोलें, चुपचाप एक कोने में बैठे रहें, तो बड़े अच्छे लगते हैं।
हिमाचल परिवहन की दो बसें खड़ी थीं। एक तो ऊना-त्यूनी बस थी, दूसरी का पता नहीं। दोनों के ड्राइवर-कंडक्टर सबसे पीछे वाली सीट को डबल डेकर बनाकर सोये पड़े थे। ऊना वाली बस यहाँ से सुबह साढ़े चार बजे चलेगी। यह हाटकोटी, शिमला होते हुए जाती है।





ऐसा नहीं है कि यहाँ केवल ख़राब सड़क ही है। अच्छी सड़क भी है।






बीस रुपये का बिस्कुट का पैकेट

खड़ापत्थर में


और हम हाटकोटी से त्यूणी की ओर चल दिये...

यही नाला उत्तराखंड़-हिमाचल की सीमा है। गोलगप्पे वाला और हम फिलहाल हिमाचल में खड़े हैं, बायें उत्तराखंड़ है।

नरेंद्र




रणविजय सिंह

हिमाचल में खड़ा होकर उत्तराखंड़ को देख रहा हूँ...




इस यात्रा के सभी भाग:
1. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी
2. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग दो
3. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग तीन (त्यूणी और हनोल)
4. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग चार (हनोल से पुरोला)
5. बाइक यात्रा: पुरोला से खरसाली
6. बाइक यात्रा: खरसाली से दिल्ली
7. ‘कुमारहट्टी से जानकीचट्टी’ यात्रा की वीडियो



Comments

  1. ye khada patthar ki sadak mai pichhle saal gaya tha tab bhi ban hi rahi thi. mai purola mori ki taraf se gaya tha.

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  2. akhiri photo ka caption yad aa gaya... jaatraam ko chaku ki nook par nehlane k liye majboor kara ja raha hai

    Photo kuch kam hain is post mein, or zyada photo honge to or acha lagega.

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  3. behatareen ghumakkari Neeraj Ji.

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  4. अंतिम वाला फ़ोटू सबसे कमाल का है 👻

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  5. http://inextlive.jagran.com/odd-and-funny-names-of-railway-stations-pictures-viral-on-social-media-201705130013?src=gg_home

    आपके स्टेशनों वाली पोस्ट दैनिक जागरण पर पहुँच गई

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    Replies
    1. चोरों ने क्रेडिट भी नहीं दिया

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  6. प्रणाम
    किसी भी संगठन, समूह या परिवार के टूटने की मुख़्य वजह उसके मुखिया के लिए हुए निर्णय तो होतें ही हैं किंतु उससे भी ज़्यादा बड़ा कारक उनके सदस्यों का मुखिया के प्रति आस्था और विश्वास की कमी रखना होता है। सदस्य अविश्वास के चलते उस स्तर पर सामूहिक रूप से नहीं रहते जिस स्तर पर बिगड़े काम भी बनाये जा सकते हैं आपसी तालमेल और सहयोग से। संयुक्त परिवार के सबसे छोटे सदस्य होने के नाते मैंने यही सीखा है कि मुखिया का निर्णय ही सर्वोच्च है, भले ही गलत हो, ऐसा करने से सामूहिकता बनी रहती है। और आगे चलके विपत्ति में भी पर्याप्त सकारात्मक बल की पूर्ति होती है।

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  7. और आप मे या किसी में भी विश्वास जताने से पहले मैं उस व्यक्ति के बारे में पर्याप्त (यथाशक्ति) रूप से जान लेता हूँ। और जितना जाना है उसका निष्कर्ष यही है कि आपके अनुभव मुझसे कहीं ज़्यादा है घुमक्कड़ी से संबंधित। इसलिए आपको अपना लीडर और गुरु बनाया है।

    खेल खतम, पैसा हज़म
    हा हा हा हा

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  8. NEERAJ BHAI MAI AUR MERA EK DOST DONO EK HI BIKE (100 CC HERO HONDA SPLENDOR PLUS)PER GANGAUTRI, KEDARNATH, BADRINATH JANA CHAHTE HAIN
    KYA YE BIKE JA PAYEGI
    PARKING AND BREAKING DOWN KI CONDITION ME KYA SCENCE RAHATA HAI JARA BATAYEN

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  9. मज़ेदार वृत्तांत। आपने सही कहा शराबी लोग शांति से शराब पीते दिखते हैं तो बड़े भले लगते हैं। उत्तराखंड और हिमाचल के खाने की बात एक generalization ही होगा। अच्छा बनाने वाले और बुरा बनाने वाले हर जगह हैं। वैसे मैं उत्तराखंड से ही हूँ।

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  10. क्या पहाड़ों की सर्दी से बचने के लिए शराब पीना जरूरी है? अथवा और भी कोई उपाय है? ( लोग कहते ह ठंड से बचाने के लिए वो शराब पीते हैं । ) पहाड़ी लोग सर्दी मे अनुकूलित रहने के लिए खाने पीने मे क्या लेते है ?
    कृपया मार्गदर्शन करें

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  11. कमाल का यात्रा वृत्‍तांत लिखते है आप वह भी एकदम सरलता और पूरी ईमानदारी के साथ। रणविजय सिंह जी की टिप्‍पणी भी बडी अच्‍छी लगी।

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  12. Bhaiya chakrata se tuini tk road condition bike ke liye kaisi hai

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब...