मुझे तीन दिन बाद दिल्ली पहुँचना था और मैं आज खिर्सू के पास मेलचौरी गाँव में था। यूँ तो समय की कोई कमी नहीं थी, लेकिन अनदेखे पौड़ी को देखने के लिए यह समय काफी कम था। पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड के 13 जिलों में से वह जिला है, जो पर्यटन नक्शे में नहीं है। पौड़ी गढ़वाल जिले का सबसे प्रसिद्ध पर्यटन स्थल लक्ष्मणझूला है, जो आधा टिहरी के साथ साझा हो जाता है और आधा देहरादून के साथ और नाम होता है हरिद्वार का। बद्रीनाथ और केदारनाथ जाने वाले यात्री श्रीनगर से होकर गुजरते हैं, जो पर्यटक स्थल कम, सिरदर्द ज्यादा होता है। अब ले-देकर पौड़ी में लैंसडाउन बचता है और थोड़ा-सा खिर्सू, जो प्रसिद्धि पा रहे हैं। जबकि पौड़ी बहुत बड़ा है और मध्य हिमालय में स्थित होने के बावजूद भी यहाँ 3000 मीटर से भी ऊँची चोटियाँ विराजमान हैं। 2000 मीटर से ऊपर के तो कई स्थान हैं, जो बिल्कुल भी प्रसिद्ध नहीं हैं। और सबसे खास बात - 1500 मीटर ऊँची अनगिनत ‘खालों’ से हिमालयी चोटियों का जो नजारा दिखता है, वो अविस्मरणीय है।
आज मुझे 2400 मीटर ऊँची चौंरीखाल नामक ‘खाल’ से होते हुए थलीसैंण जाना था। कल थलीसैंण से लैंसडाउन की सड़क नापनी थी और परसों दिल्ली पहुँचना था।
तभी सत्य रावत जी का फोन आया - “सुना है तुम खिर्सू में हो?”
“हाँ जी, सही सुना है।”
“आगे का क्या प्लान है?”
“आज थलीसैंण रुकूँगा।”
“हम्मम्म... इसका मतलब चौंरीखाल से होकर जाओगे।”
“हाँ जी।”
“तो एक काम करो... थलीसैंण जाने की बजाय रीठाखाल आ जाओ।”
“उधर कौन है?”
“अरे, मैं ही हूँ...”
“अरे वाह... तो फटाफट फोन काटो... मैं पहुँच रहा हूँ रीठाखाल।”
“कैसे-कैसे आओगे?”
“गूगल मैप से।”
“गूगल तो तुम्हें मेन रोड से लाएगा... तुम ऐसा करो... कि चौंरीखाल से चोबट्टाखाल पहुँचकर फोन करो... आगे का रास्ता तुम्हें तभी बताऊँगा।”
मैंने फटाफट गूगल मैप खोला। दूरी और समय का अंदाजा लगाने लगा। मुझे पहाड़ों में रात में बाइक चलाने में कोई दिक्कत नहीं होती है, लेकिन नवंबर के आखिर में मैं इस क्षेत्र में रात में बाइक नहीं चलाना चाहता था। और 2000 मीटर से ऊपर तो कतई नहीं। कारण - ब्लैक आइस का डर।
दोपहर बाद के दो बज चुके थे और साढ़े पाँच बजे तक सूर्यास्त हो जाएगा। चौंरीखाल पहुँचने में चार बजेंगे। चौंरीखाल से चोबट्टाखाल 30 किलोमीटर है... डेढ़ घंटा... साढ़े पाँच... चोबट्टाखाल से रीठाखाल 25 किलोमीटर है... एक से डेढ घंटा... और यह आखिरी 25 किलोमीटर मुझे अंधेरे में तय करने पड़ेंगे... चोबट्टाखाल 1800 मीटर पर है और रीठाखाल 1100 मीटर पर... इन दोनों स्थानों को जोड़ने वाली सड़क पहाड़ के दक्षिणी ढलान से होकर गुजरेगी, इसलिए रात में ब्लैक आइस का कोई डर नहीं रहेगा। यानी इस रास्ते जाया जा सकता है।
तो आपको लगता होगा कि हम अपनी यात्राओं में लापरवाही बरतते हैं और अपनी जान खतरे में भी डालते हैं, लेकिन भाई लोगों, ऐसा नहीं है। अपनी जान सबको प्यारी होती है और हम कभी भी खतरा मोल नहीं उठाते। यह सारी कैलकुलेशन हमने आपको इसलिए बताई है, ताकि आप समझ जाओ कि हम अपनी यात्राओं में सुरक्षा को लेकर कितने सचेत रहते हैं और तकनीक का कितना प्रयोग करते हैं। आपको शायद यकीन न हो, लेकिन मैं गूगल मैप देखकर ही सड़क के बारे में सारी जानकारी पता कर लेता हूँ - लाइव ट्रैफिक, जाम, संकरी सड़क, चौड़ी सड़क, अच्छी सड़क, टूटी सड़क... और गलत सड़क भी...।
यानी सत्य रावत जी द्वारा बताए रास्ते से जाया जा सकता था... लेकिन...
मैंने मेन रास्ता ही चुना। क्यों? चलिए, विस्तार से बताता हूँ।
उत्तराखंड के इन दूर-दराज के इलाकों में लुटने-पिटने का कोई डर नहीं है। लोग हमेशा आपकी सहायता करते हैं और आपका मनोबल ऊँचा रखते हैं। जैसे लोग उत्तराखंड के इन दूर-दराज के इलाकों में बसते हैं, वैसे आपको शायद ही कहीं मिलें। मुझे लोगों से किसी भी प्रकार का डर नहीं था।
कम ऊँचाई और दक्षिणी ढलान देखकर ब्लैक आइस का डर भी समाप्त हो गया।
लेकिन पूरे हिमालय में हर जगह... जी हाँ, हर जगह तेंदुए मिलते हैं। और हर जंगल में काले भालू मिलते हैं। उत्तराखंड के गाँव वैसे भी छोटे-छोटे हैं और पलायन भी अत्यधिक है, इसलिए सड़क पर मानव आबादी न के बराबर होती है। अंधेरा होने पर आपको कोई भी नहीं दिखेगा। और चोबट्टाखाल से रीठाखाल वाली सड़क तो वैसे भी एक लोकल सड़क है... स्थानीय ग्रामीण सड़क... यह पता मुझे गूगल मैप देखकर ही हो गया था (हो सकता है मैं गलत भी होऊँ)। 25 किलोमीटर की यह सड़क किसी भी बड़े शहर या बड़े गाँव से होकर नहीं गुजरती है, इसलिए इस सड़क पर मुझे एक भी वाहन नहीं मिलेगा। वैसे तो उत्तराखंड की सभी ग्रामीण सड़कें अच्छी बनी हैं, लेकिन क्या पता यह खराब हो। गूगल मैप के अनुसार यह अच्छी सड़क है (और वास्तव में यह अच्छी है भी), लेकिन हो सकता है कि खराब भी हो।
ऐसे में मुझे एक ही बात का डर था - तेंदुओं और कुत्तों का। एक चलती सड़क के पास रहने वाले और हमेशा सुनसान सड़क के इर्द-गिर्द रहने वाले तेंदुओं और कुत्तों में जमीन-आसमान का अंतर होता है। चलती सड़क वाले जानवर थोड़े सहिष्णु होते हैं और वे आपको रात दस-बारह बजे तक का मार्जिन दे देते हैं... लेकिन सुनसान सड़क वाले जानवर अंधेरा होते ही खतरनाक हो जाते हैं।
इसलिए तय किया कि मेन रोड से ही चलते हैं। बुवाखाल से कोटद्वार वाली सड़क पर मुड़ गया। दो-लेन की पर्याप्त चौड़ी इस सड़क पर आप 50-60 की स्पीड़ से बाइक दौड़ा सकते हो। सतपुली के पास से रीठाखाल की सड़क अलग होती है। जिस समय शाम छह बजे रीठाखाल पहुँचा, उस समय भी परचून की एकमात्र दुकान खुली थी। रावत साहब का फोन नहीं लगा और एक महीना पहले ट्रांसफर होकर आने के कारण दुकानवाला उनको नाम से नहीं जानता था। मोबाइल में जब फोटो दिखाया, तो घर तक छोड़कर आया।
मुख्य कहानी तो इतनी ही थी। मैं असल में खिर्सू से रीठाखाल पहुँचने की बात बताने को उत्सुक था। बात बता दी, उत्सुकता समाप्त हो गई। आगे की कहानी ये है कि सत्य रावत साहब जलागम विभाग में कार्यरत हैं और इन्हें जलस्रोतों की मरम्मत व रक्षा के लिए अत्यधिक दुर्गम स्थानों की यात्रा करनी पड़ती है - ज्यादातर पैदल। ग्रामीणों को जागरुक भी करना पड़ता है। अगले दिन ऐसे ही एक जागरुकता शिविर में एकेश्वर के पास एक गाँव सिमरखाल जाना हुआ, जहाँ 50-60 गाँवों की कार्यकत्रियाँ आई हुई थीं। रावत साहब ने उन्हें होमस्टे और डेयरी से संबंधित बात बताई और उनकी तमाम जिज्ञासाओं का समाधान किया।
आगे आप फोटो देखिए... वीडियो देखिए और कुछ जानना हो, तो कमेंट करके पूछ लेना। लेकिन उत्तराखंड का यह इलाका आज भी पर्यटन से अछूता है और यहाँ पर्यटन की अपार संभावाएँ हैं। यह जानकर मुझे दुख हुआ कि रीठाखाल में कोई होटल नहीं है, सिमरखाल में भी ठहरने की कोई सुविधा नहीं है। हो सकता है कि बड़े गाँव एकेश्वर में कोई होटल हो। एकेश्वर और सिमरखाल दोनों ही स्थानों से हिमालयी चोटियाँ दिखती हैं और रीठाखाल से नयार नदी का शानदार विहंगम नजारा दिखता है। यहाँ नयार नदी शानदार U-टर्न बनाती है और सूर्यास्त के समय सबसे शानदार दिखती है।
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मेलचौरी से दिखता पौड़ी शहर... |
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रीठाखाल के पास |
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रीठाखाल से दूरियाँ |
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रीठाखाल के पास नयार नदी |
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सिमरखाल से दिखती चौखंबा |
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सिमरखाल में जागरुकता शिविर |
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सिमरखाल |
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एकेश्वर मंदिर |
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रीठाखाल |
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