मैं बीनू के यहाँ जयालगढ़ में पड़ा हुआ था और पड़ा ही रहता, अगर टैंट पर धूप न आती। धूप आने से टैंट ‘ग्रीन हाउस’ बन गया और अंदर तापमान तेजी से बढ़ गया। आँख खुल गई। नाश्ते के लिए आलू के पराँठे बने हुए थे। गुनगुनी धूप में बैठकर तिवारी जी के साथ आलू के पराँठे खाने का अलग ही आनंद था।
बाइक की सर्विस करानी थी और धुलाई भी। बल्कि अगर सर्विस न होती, तब भी बात बन जाती... लेकिन धुलाई जरूरी थी। पास में ही धुलाई सेंटर था और उसके पास सर्विस सेंटर। लेकिन मैं धुलाई वाले से सर्विस की बात करने लगा और उसने मुझे आगे भेज दिया। आगे सर्विस वाले से धुलाई की भी बात की, तो उसने सुझाव दिया कि पहले सर्विस करा लो, वापसी में जाते हुए धुलाई कराते चले जाना।
एक घंटे बाद वापस आया, तो धुलाई वाले का शटर गिरा हुआ था। इस प्रकार आज बाइक की सर्विस तो हो गई, लेकिन धुलाई फिर भी न हो सकी।
लगता है कहीं नाले में घुसाकर खुद ही धोनी पड़ेगी।
दोपहर बाद मैं खिर्सू के लिए निकल पड़ा। खिर्सू इसलिए क्योंकि वहाँ अपना एक मित्र आदित्य निगम भी पहुँच चुका था। आदित्य ने अभी-अभी आर्किटेक्ट की पढ़ाई पूरी की है और घुमक्कड़ तो एक नंबर का है। हम दोनों की अच्छी बनती है, इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि हम बात-बात में एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं और बुरा भी नहीं मानते।
“तो सीधे रास्ते से जाने की बजाय घुड़दौड़ी के रास्ते जाना।” बीनू ने सुझाव दिया। बीनू की हमेशा कोशिश रहती है कि पर्यटक उत्तराखंड के अनजाने पौड़ी गढ़वाल जिले को भी जाने। इस जिले में बहुत सारे स्थान 2000 मीटर से ऊपर हैं, जो अच्छे पर्यटक स्थल हो सकते हैं, लेकिन पर्यटक चारधाम, मसूरी, धनोल्टी, चोपता और औली के अलावा कुछ नया ट्राई भी नहीं करते। मैं ओके कहकर निकल गया।
कीर्तिनगर पुल पार करके श्रीनगर जाने की बजाय दाहिने मुड़ गया - घुड़दौड़ी जाने के लिए। लेकिन एक-दो किलोमीटर जाने पर एक ख्याल आया - एक घंटा यहाँ से घुड़दौड़ी जाने में लगेगा, फिर एक घंटा वहाँ से पौड़ी जाने में और फिर एक घंटा पौड़ी से खिर्सू जाने में। अभी शाम के पाँच बजे थे। यानी रात आठ बजे तक मैं खिर्सू पहुँचूँगा। रात में बाइक चलाने में मुझे कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन एक समस्या है। वो ये कि पौड़ी और खिर्सू के बीच में काफी बड़ा जंगल है। वह जंगल नोर्थ फेसिंग है, यानी उत्तरी ढलान पर है। पहाड़ों में उत्तरी ढलानों पर न्यूनतम धूप पड़ती है। यानी लगातार ठंड बनी रहती है। सड़क के कुछ कोने तो ऐसे भी होते हैं, जहाँ कभी भी धूप नहीं पड़ती है। ऐसे में कुछ स्थानों पर ब्लैक आइस जमी मिलेगी। दिन में ब्लैक आइस का अंदाजा हो जाता है, लेकिन रात में अंदाजा नहीं हो पाता। फिसलकर सड़क किनारे पड़े रहने और तेंदुओं व भालुओं का मेहमान बनने से अच्छा है कि सीधे रास्ते से उजाले-उजाले में खिर्सू पहुँचा जाए।
बाइक वापस मोड़ ली और श्रीनगर होते हुए सीधे रास्ते से खिर्सू पहुँच गया - अंधेरा होने से जस्ट पहले। आदित्य ने पहले से ही एक कमरा ले रखा था।
19 नवंबर 2019
हमें आज भी यहीं रुकना है, लेकिन कमरा खाली करना पड़ेगा। क्योंकि इनकी आज की बुकिंग है। इसलिए बेहतर है कि खिर्सू घूमने से पहले दूसरी जगह कमरा ढूँढ़ लिया जाए। हम दोनों बाइक पर लदे और निकल पड़े।
खिर्सू समुद्र तल से 1800 मीटर ऊपर एक छोटा-सा गाँव है। यहाँ से हिमालयी चोटियाँ एकदम सामने दिखाई देती हैं। चारों तरफ जंगल होने के कारण यह वाइल्डलाइफ और बर्डवाचिंग के शौकीनों के लिए भी जन्नत है। कोई भीड़ नहीं, कोई शोर-शराबा नहीं। ठहरने के लिए गढ़वाल मंडल विकास निगम का रेस्ट हाउस है और एक-दो होटल भी हैं। कल आदित्य ने चोपट्टा गाँव के पास एक होटल का बोर्ड लगा देखा था, जो किसी अन्य गाँव में स्थित है। हमने बाइक उसी तरफ दौड़ा दी।
तीन-चार किलोमीटर चलने के बाद हम एक नन्हें-से गाँव मेलचौरी पहुँच गए। गूगल मैप पर जिस स्थान पर इस होटल का नाम लिखा था, ठीक उसी स्थान पर हमने खुद को एक मकान की छत पर खड़े पाया। चेक-इन करने का काम आदित्य को सौंपकर मैं यहीं बैठ गया और सामने चौखंबा को निहारने लगा।
“यहाँ कोई होटल नहीं है।” आदित्य ने वापस आकर बताया।
मुझे इसमें कोई हैरानी नहीं हुई। हो सकता है कि पहले कभी होटल रहा हो, लेकिन अब न हो। कुछ देर यहाँ बैठकर खिर्सू लौट जाएँगे और अगर वहाँ भी न मिलेगा, तो पौड़ी भी ज्यादा दूर नहीं है। हमारे पास बाइक है और बाइक में पेट्रोल है।
हमारा यह वार्तालाप वहीं परचून की दुकान चलाने वाले एक सज्जन सुन रहे थे। उन्होंने कहा - “एक मिनट रुको... अभी शर्मा जी को बुलाता हूँ।”
“शर्मा जी कौन?”
“कोई नहीं... बस थोड़ी देर रुको।”
आदित्य बहुत बोलता है। उसका बीस किलो का शरीर देखकर ही आप अंदाजा लगा सकते हैं कि भगवान ने उसे केवल बोलने के लिए ही बनाया है। आप उसकी बात नहीं सुनते हो तो वह बुरा मान जाता है और ‘आप तो सुन ही नहीं रहे’ कहकर आधे घंटे तक आपको बोलने का मौका नहीं देता। एक बार मैंने वीडियो रिकार्डिंग के लिए उससे कहा - “तू कैमरे के सामने दो शब्द बोल... ताकि वीडियो और अच्छी बने।”
कैमरे में ‘मेमोरी फुल’ का मैसेज आ गया, लेकिन उसके दो शब्द पूरे नहीं हुए।
तो बहस छिड़ पड़ी कि वह सामने कौन-सी चोटी दिख रही है। आदित्य ने कहा - “त्रिशूल है।” लेकिन मुझे भरोसा था कि त्रिशूल नहीं है। मेरा भूगोल और दिशा-ज्ञान उससे अच्छा है। त्रिशूल रूपकुंड के ऊपर है और मैं अच्छी तरह जानता था कि खिर्सू से रूपकुंड किस दिशा में और कितनी दूर है। मैं भी अड़ गया और वह भी अड़ गया। परचून वाले अंकल जी ने दो बीड़ी खत्म कर दी, लेकिन हमारा फैसला नहीं हुआ।
चौखंबा को आधार बनाकर मैंने गूगल मैप सेट किया और उस चोटी की दिशा में मैप में देखा, तो यह हाथी पर्वत निकला, जो फूलों की घाटी की तरफ है। आदित्य त्रिशूल पर अड़ा रहा और मैं हाथी पर अड़ गया।
शर्मा जी कुछ किलोमीटर दूर खिर्सू गाँव से पैदल आ रहे थे और उन्हें आने में डेढ़ घंटा लगा। जिओ एकदम शानदार चल रहा था और इन डेढ़ घंटों में आदित्य ने ‘पीक फाइंडर’ एप से उस चोटी का पता लगा लिया।
“आप सही कह रहे हो... वह हाथी पर्वत ही है...” आदित्य ने कहा।
“अब मुझे गुरूजी बोल..."
“गुरूजी..."
“प्रणाम कर..."
“प्रणाम..."
“ऐसे नहीं... साष्टांग दंडवत...”
और वह सड़क पर ही लेट गया।
शर्मा जी मेरठ के रहने वाले हैं और यहाँ पंडिताई करते हैं। कभी-कभार ही मेरठ जाते हैं। एक नंबर के हँसमुख और मिलनसार। अच्छा खाना बनाते हैं और आपका बराबर ख्याल रखते हैं।
“शर्मा जी, चाय के लिए पूछना मत... जब भी आपका मन करे, चाय पिलाते रहना...”
फिर अगले चौबीस घंटों में हमने कम से कम अड़तालीस कप चाय पी... यहाँ से एक तरफ पौड़ी शहर का शानदार नजारा दिखता है, तो दूसरी तरफ दूर तक फैली हिमालयी चोटियों का भी।
शाम को हम अगले गाँव तक टहलने चल दिए। यूँ तो यहाँ प्रत्येक जगह से शानदार नजारा दिखता है, लेकिन हम और ज्यादा अच्छी लोकेशन के चक्कर में खूब दूर निकल गए।
हमारे पीछे सूर्यास्त हो रहा था और सामने की बर्फीली चोटियाँ लाल होने लगी थीं। समझ नहीं आ रहा था कि एक ही कैमरे से दोनों नजारों को कैसे कैप्चर करें। वैसे मैंने लाल होती बर्फीली चोटियों को चुना। आदित्य ने दोनों को चुना और दोनों के ही बहुत सारे शानदार फोटो खींचने में सफल रहा।
मैं अपने लेखों में हमेशा कहता रहा हूँ कि हिमालय में हर स्थान पर तेंदुए मिलते हैं। जी हाँ, प्रत्येक स्थान पर। तराई से लद्दाख-स्पीति तक - हर जगह तेंदुए मिलते हैं। और जंगलों में हर जगह काले भालू भी रहते हैं। खिर्सू चारों तरफ से जंगलों से घिरा है, तो जाहिर है कि यहाँ भी तेंदुए और काले भालू हैं। लेकिन ये दोनों जानवर दिखते बहुत कम हैं। डरने की कोई आवश्यकता नहीं है... आप लोग डरते बहुत हैं। भले ही यहाँ तेंदुए रहते हों, लेकिन अपने शहर से ज्यादा सुरक्षित रहोगे आप यहाँ पर।
मैंने अपनी यात्राओं में कई बार तेंदुए देखे हैं, लेकिन काला भालू कभी नहीं देखा। तेंदुआ समझदार होता है, लेकिन काला भालू समझदार नहीं होता। दोनों ही इंसान के सामने नहीं आते। भालू जंगल में ही गुजारा कर लेता है, लेकिन शाम को अंधेरा होने के बाद तेंदुआ अक्सर आबादी क्षेत्र में आता है। वहाँ उसे कुत्ते और मेमने मिल जाते हैं। इसी वजह से ग्रामीण लोग कुत्तों के गले में लोहे के काँटों वाला पट्टा लगाकर रखते हैं। इंसान को कोई खतरा नहीं है। हाँ, अगर तेंदुआ नरभक्षी हो, तो खतरा है। लेकिन नरभक्षी तेंदुए की खबर बड़ी तेजी से फैलती है और ऐसा होने पर लोग सावधान हो जाते हैं और बेसमय बाहर नहीं निकलते।
आज यहाँ कोई नरभक्षी तेंदुआ नहीं था। हम अपने होटल से दूर थे और सूर्यास्त हो चुका था। जल्द ही अंधेरा हो गया और हम धीरे-धीरे पैदल अपने ठिकाने की ओर जाने लगे। तेंदुए को दूर रखने का एक ही तरीका है - आवाज करते हुए चलो। और अगर आपके साथ आदित्य हो, तो आपको यह तरीका अपनाने की आवश्यकता नहीं है। आदित्य के मुँह से आवाज हमेशा निकलती रहती है। ऑटोमेटिकली...
सुबह शर्मा जी ने बताया - “रात आपके कमरे की छत पर तेंदुआ टहल रहा था। मैंने किचन से देखा।”
“क्या बात कर रहे हो!!... कितने बजे??”
“तीन बजे..."
“फोन क्यों नहीं किया??”
“तीन बजे मैं क्यों जगाऊँगा किसी को?? वो भी तेंदुआ देखने?? आज रात किचन में रुक जाना... आपको तेंदुआ दिख जाएगा... वह तो अक्सर आता रहता है।”
“ठीक किया आपने... अगर आप फोन करते भी, तब भी हम नहीं उठने वाले थे।”
नाश्ता करके आदित्य कौसानी की ओर चला गया। वैसे खिर्सू और कौसानी में कोई कनेक्शन नहीं है। पूरा दिन लग जाता है खिर्सू से कौसानी जाने में। इसमें कोई तुक भी नहीं है। लेकिन आदित्य को कौन समझाए??
और मेरे पास सत्य रावत जी का फोन आ रहा है... वे सतपुली की तरफ रहते हैं कहीं...
VIDEOS:
बहुत बढ़िया... हम भी बीनू के कहने पर उसी रास्ते से घुड़दौड़ी गये.. बहुत सुंदर रास्ता था और हिमालय के जबरदस्त दर्शन...वापसी पर बीनू से कहा कि जाम से बचना है तो नये रास्ते से जाओ.. हम देवप्रयाग से सतपुली वाले रास्ते से गये.. रास्ता दिल्ली तक लंबा पड़ा पर जाम से तो बचे..और देवप्रयाग से सतपुली का रास्ता जन्नत था... ना ट्रैफिक.. ना जाम और सुंदरता बहुत
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