2 मार्च 2019
अब तक गर्मी इतनी ज्यादा होने लगी थी कि हमने यात्रा में बदलाव करने का पक्का मन बना लिया था। अब हम न केरल जाएँगे, न तमिलनाडु। लेकिन कूर्ग का लालच अभी भी हमें यात्रा जारी रखने को कह रहा था, अन्यथा उडुपि से दिल्ली चार-पाँच दिन की मोटरसाइकिल यात्रा पर स्थित है। उधर हिमालय से बर्फबारी की खबरें आ रही थीं और हम गर्मी में झुलस रहे थे, तो बड़े गंदे-गंदे विचार मन में आ रहे थे।
क्या सोचकर गर्मी में साउथ का प्रोग्राम बनाया था?
हम नहीं लिखेंगे इस यात्रा पर किताब। और अगर किताब लिख भी दी, तो उसमें गर्मी के अलावा और कुछ नहीं होगा।
और फिर...
भारत वास्तव में विचित्रताओं का देश है। इधर से उधर या उधर से इधर आने में ही कितना कुछ बदल जाता है! न इधर के लोगों को उधर के मौसम का अंदाजा होता है और न ही उधर के लोगों को इधर के मौसम का। सबकुछ जानते हुए भी हम एक जैकेट लिए घूम रहे थे, जिसका इस्तेमाल घर से केवल नई दिल्ली रेलवे स्टेशन तक पहुँचने में किया गया था। वातानुकूलित ट्रेन थी और हमने जैकेट निकालकर बैग में रख ली थी और ट्रेन में मिलने वाला कंबल ओढ़कर सो गए थे। गोवा उतरे तो सर्दी दूर की चीज थी। दो दिनों तक तो वह जैकेट बैग में ऊपर ही रखी रही, इस आस में कि शायद कहीं से शीतलहर आ जाए, लेकिन तीसरे दिन उसे बैग के रसातल में जाते देर नहीं लगी।
और आज हम यह सोचकर हँसे जा रहे थे कि इतनी गर्मी में हम जैकेट भी लिए घूम रहे हैं।
तो कूर्ग हम इसलिए जाना चाहते थे कि उसका बड़ा नाम सुना था। अब इस मौसम में वहाँ उतनी हरियाली तो नहीं मिलेगी, न ही प्रपातों में पानी मिलेगा, लेकिन बस हम जाना चाहते थे। उधर बड़े-बड़े जंगल हैं और हम कोई बड़ा जानवर भी देखना चाहते थे। और उन जंगलों के बीचोंबीच से गुजरती सड़कों पर मोटरसाइकिल भी चलाना चाहते थे।
उडुपि से चार लेन का हाइवे है और घंटेभर में ही हम मंगलौर पहुँच गए। मंगलौर से बंगलौर वाली सड़क पर कुछ दूर चले और फिर मडिकेरी वाली सड़क पर। भूख लगने लगी तो समोसों और छोले-भठूरों के फोटो लगे एक रेस्टोरेंट में जा रुके। पता चला कि यह शुद्ध नॉन-वेज रेस्टोरेंट है और चावल-मच्छी के अलावा कुछ नहीं मिलेगा। लेकिन हमारी एक बड़ी गंदी आदत है। हमारी मतलब हम दोनों की। हम जहाँ भी भोजन के लिए रुकते हैं, वहाँ से भोजन करके ही उठते हैं।
“लाओ तो, चावल और सांभर दे दो। उसमें मच्छी मत डालना।”
सांभर में एक मोटा-सा, काला-सा और नरम टुकड़ा पड़ा था। हम दोनों में खुसर-पुसर होने लगी।
“मच्छी है।”
“नहीं, उसमें कंकाल होता है।”
“तो सूअर होगा।”
“हाँ, शायद हो।”
“हा! आज तो धर्म भ्रष्ट हो गया।”
“नहीं, अभी नहीं हुआ। साइड कर दे इसको। किसी को बताएँगे भी नहीं। और ब्लॉग में भी नहीं लिखेंगे।”
रेस्टोरेंट वाले को बुलाया - “हाँ भाई, यह क्या है सांभर में?”
“ಬೈಂಗನ್ है।”
“क्या? यह क्या होता है?”
“ಬೈಂಗನ್...” उसने दोनों हाथों की उंगलियों से कुछ गोल आकृति बनाकर समझाने की कोशिश की।
“मतलब मुर्गी है?”
“नहीं... तुम समझा नहीं...” हँसते हुए वह अंदर चला गया।
वापस लौटा तो उसके हाथ में बैंगन का डंठल था - “ये है।”
“ओहो, बैंगन।”
हमने चखा, तो वाकई बैंगन ही था।
धर्म बच गया।
तो इस तरह हम मडिकेरी पहुँचे। समुद्र तल से लगभग 1200 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और कूर्ग यानी कोडगू जिले का मुख्यालय है। मौसम बहुत अच्छा था और गर्मी का नामोनिशान भी नहीं था। अब जब गर्मी दूर हो गई तो मोटरसाइकिल में भी जान आई और इसे चलाने वाले में भी और पीछे बैठने वाली में भी। बिना रुके आगे निकल गए और सीधे कुशालनगर जा पहुँचे। यहाँ ओयो के कमरे हमारे बजट से महंगे थे, तो एक लॉज में 500 रुपये में कमरा ले लिया।
शाम को बाजार घूमने निकले तो गोलगप्पे वाला दिख गया। हम लपककर उसके पास जा पहुँचे और तीस गोलगप्पों का डिनर करने के बाद पूछा - “कहाँ के हो भाई?”
“बीहार।”
“बड़े पुण्य का काम कर रहे हो, यहाँ साउथ में गोलगप्पे की सेवा करके। आज पंद्रह दिन बाद आलू मिले हैं।”
तो कूर्ग वास्तव में बड़ा खूबसूरत है, लेकिन गर्मियों में जाने लायक नहीं है। यह असल में मानसून का डेस्टिनेशन है, हद से हद सर्दियों का। मौसम भले ही अच्छा मिले, लेकिन जो बात यहाँ मानसून में होती होगी, वो बात किसी अन्य मौसम में नहीं हो सकती। हमने डिसाइड कर लिया कि और ज्यादा कूर्ग नहीं देखेंगे और समूचे कूर्ग को किसी मानसून के लिए बचाकर रखेंगे। आप कहीं घूमने जा रहे हैं तो उसे उसके सर्वोत्तम मौसम में ही देखना ज्यादा अच्छा रहता है।
कुशालनगर कावेरी नदी के किनारे स्थित है। नदी के मध्य में स्थित एक टापू का नाम निसर्गधाम है और यह एक अच्छा पिकनिक स्पॉट है। आप नदी किनारे बैठ सकते हो, बर्ड वाचिंग कर सकते हो और हिरण वाचिंग भी।
और बर्ड वाचिंग में हमें दिखा होर्नबिल। इतनी तसल्ली से दर्शन दिए, जैसे हमारे होने से उसे कोई फर्क ही न पड़ रहा हो। होर्नबिल अरुणाचल, केरल और चंडीगढ़ का राजकीय पक्षी भी है।
अगर आप कुशालनगर में हों, तो बायलाकुप्पे जाना जरूर बनता है। 1962 के तिब्बती शरणार्थियों का गाँव है बायलाकुप्पे। आपको बहुत सारे तिब्बती लोग कुशालनगर में काम करते भी दिख जाएँगे। और जहाँ तिब्बती होते हैं, वहाँ मोनेस्ट्री भी जरूर होती है। यहाँ पर नामद्रोलिंग मोनेस्ट्री है, जिसे गोल्डन टेंपल भी कहते हैं।
अपने ठंडे देश से यहाँ गर्म देश में आकर भी तिब्बतियों ने अपनी वेशभूषा को नहीं छोड़ा है; साथ ही अपने तीज-त्यौहार, खान-पान, भाषा-लिपि आदि को भी नहीं छोड़ा है - यह वाकई काबिलेतारीफ है।
यहीं पास में ही हमारे एक मित्र अक्षय भी रहते हैं। वैसे तो आगरा के रहने वाले हैं, लेकिन यहाँ गोनीकोप्पल में एक बैंक में नौकरी करते हैं। हम मैसूर जा रहे थे, तो अपने पचास काम छोड़कर हमसे मिलने हुनसूर आए। साउथ में बंगलौरवासियों के बाद हमारे एकमात्र शुभचिंतक।
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वाह।
ReplyDeleteआप दोनों से मिल कर काफी अच्छा लगा था। और आप लिखते तो जबरदस्त हैं ही, लेकिन फ़ोटो भी वाकई बहुत शानदार खींचते हैं।
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