Skip to main content

देवदार के खूबसूरत जंगल में स्थित है बाहू और बालो नाग मंदिर


एक दिन की बात है मैं मोटरसाइकिल लेकर घियागी से बाहू की तरफ चला। इरादा था गाड़ागुशैनी और छाछगलू पास तक जाना। छाछगलू पास का नाम मैंने पहली बार तरुण गोयल से सुना था और इस नाम को मैं हमेशा भूल जाता हूँ। तब हमेशा गोयल साहब से पूछता हूँ और आज भी गोयल साहब से पूछने के बाद ही लिख रहा हूँ। उनसे पूछने का एक कारण और भी है कि वे इसे “छाछगळू” बोलते हैं। और इस तरह बोलते हैं जैसे मुँह में छाछ और गुड़ भरकर बोल रहे हों। तो मुझे यह उच्चारण सुनना बड़ा मजेदार लगता है और मैं बार-बार उनसे इसका नाम पूछता रहता हूँ।

तो उस दिन मैं बाहू तक गया और सामने दिखतीं महा-हिमालय की चोटियों को देखकर मंत्रमुग्ध हो गया। यह समुद्र तल से 2300 मीटर ऊपर है और एकदम सामने ये चोटियाँ दिखती हैं। जीभी और घियागी तो नीचे घाटी में स्थित हैं और वहाँ से कोई बर्फीली चोटी नहीं दिखती। तो यहाँ आकर ऐसा लगा जैसे रोज आलू खाते-खाते आज शाही पनीर मिल गया हो।
जीभी से इसकी दूरी 10 किलोमीटर है और शुरू में बहुत अच्छी सड़क है, फिर थोड़ी खराब है, फिर और खराब है और आखिर में जब आप बाहू में खड़े होते हैं और कोई बस गुजर जाए, तो आप धूल से सराबोर हो जाएँगे, बशर्ते कि उस दिन धूप निकली हो। उस दिन भी तेज धूप निकली थी और जैसे ही बंजार-छतरी बस आई, मुझे गर्मागरम चाय का कप हथेली से ढकना पड़ा था।
फिर हुआ ये कि तेज धूप के कारण मेरी आँखों में जलन होने लगी और मैं वापस घियागी लौट आया - गाड़ागुशैनी और छाछगलू फिर कभी जाने का वादा करके।


अभी हाल ही में जब दीप्ति भी आई हुई थी और दिल्ली से सुनेजा साहब भी आए हुए थे और भरत नागर भी आया हुआ था, तो पूरे सप्ताह ‘धूप कम हो’, ‘धूप कम हो’ का जाप करते-करते भी जब धूप कम नहीं हुई, तो हम निकल पड़े। आज भी इरादा छाछगलू तक जाने का था और पक्का इरादा कर रखा था। सुनेजा साहब को जीभी से शाम तीन बजे की बस पकड़नी थी और उन्होंने कह भी दिया था कि बस जरूर पकड़वा देना।

“नहीं, बस को भूल जाओ। बस पकड़वाने की गारंटी नहीं है। बस पकड़नी है, तो मत चलो। और अगर चलना है, तो बस का नाम भी मत लेना।”
न उन्हें कोई जल्दी थी और न हमें। उन्होंने बस का नाम भी न लेने की प्रतिज्ञा करी और भरत की कार में बैठ गए। पीछे-पीछे मैं और दीप्ति मोटरसाइकिल पर।

धूप भले ही तेज हो, लेकिन तापमान 25 डिग्री से ऊपर नहीं था। आज मैंने धूप का चश्मा लगा लिया था और पूरी बाजू की शर्ट पहन रखी थी। बाहू तालाब के पास बनी पार्किंग में अपनी-अपनी गाड़ियाँ खड़ी कीं और महा-हिमालय को निहारने लगे। देवदार के पेड़, पुरानी शैली के बने हुए बाहू गाँव के घर और महा-हिमालय की बर्फीली चोटियाँ। इच्छा हुई कि काश इस गाँव का कोई व्यक्ति फेसबुक पर मित्र बन जाए और अपने घर बुलाए, तो दो-चार दिन जन्नत में कटेंगे। वैसे यहाँ जिओ और एयरटेल के नेटवर्क बहुत अच्छे हैं, इसलिए माना जा सकता है कि यहाँ के व्यक्ति फेसबुक तो खूब चलाते होंगे।

यहाँ से आगे बालो नाग मंदिर के लिए एक मोटर मार्ग जाता है। यह कच्चा होने के साथ-साथ पथरीला भी है। स्थानीयों ने सुझाव दिया कि दूरी दो किलोमीटर है, लेकिन कार के लायक रास्ता नहीं है।
“कारें जाती तो होंगी।” हमने पूछा।
“हाँ जी, जाती हैं।”
“तो हम ले जाएँ?”
“मत ले जाओ।”
और सबने एक सुर में तय कर लिया कि न कार जाएगी और न ही मोटरसाइकिल। इस वजह से मोटरसाइकिल ने हमेशा की तरह कार को गालियाँ दी होंगी।

यह दो किलोमीटर का पूरा रास्ता देवदार के जंगल से होकर जाता है। मजा आ जाता है। थोड़े उतार-चढ़ाव तो होते हैं, लेकिन थकान नहीं हुई।

और आखिर में जब बालो नाग मंदिर पहुँचे, तो यही महसूस हुआ कि इतने दिन यहाँ रहते हो गए, अब तक क्यों नहीं आए हम?? समुद्र तल से 2340 मीटर ऊपर देवदार के जंगल के बीच में घास का खुला मैदान। और इस मैदान में लकड़ी का बना हुआ मंदिर। अगल-बगल में दो सराय जिनका प्रयोग मेलों के समय होता है। और देवदार के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के बीच से झाँकती महा-हिमालय की चोटियाँ। साफ मौसम में शायद यहाँ से कुल्लू की तरफ धौलाधार और पीर पंजाल भी दिखते होंगे। उधर बायीं तरफ एक नदी, जो कुल्लू और मंडी जिलों की सीमा बनाती है। नदी के इस तरफ कुल्लू जिला और उस तरफ मंडी जिला। नदी के उस तरफ यानी मंडी जिले में शैटी धार की 3100 मीटर ऊँची चोटी और चोटी के बगल से निकलती हुई नई बनी सड़क, जो गाड़ागुशैनी को जंजैहली से सीधा जोड़ती है। यह सड़क अभी गूगल मैप पर नहीं है, लेकिन बताते हैं कि उस पर गाड़ी जा सकती है। तीर्थन वैली से जंजैहली जाने का चौथा रास्ता पता चल गया और सबसे छोटा भी।

यहाँ किसी ने फेसबुक चलाया, तो किसी ने नींद ली। दो घंटे तक तो किसी ने भी यहाँ से चलने का नाम नहीं लिया। और जब दो घंटे बाद यहाँ से चले, तो सबको इतनी भूख लग रही थी कि गाड़ागुशैनी और छाछगलू फिर से भविष्य के गर्त में समा गए।


भरत नागर विद फैमिली...

बाहू गाँव और महा-हिमालय की चोटियाँ... दोनों के बीच में परली पहाड़ी पर चैहणी गाँव भी दिख रहा है और गौर करने पर चैहणी कोठी भी...

बाहू से बालो नाग मंदिर जाने का रास्ता

यह गाँव कुल्लू में है और दूर वाला पहाड़ मंडी में



बालो नाग मंदिर



बालो नाग मंदिर चारों ओर से देवदार के घने जंगल से घिरा है...



मंदिर के पास लिखी शानदार चेतावनी...








जून 2019 के लिए तीर्थन वैली के यात्रा पैकेज



Comments

Popular posts from this blog

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

शीतला माता जलप्रपात, जानापाव पहाडी और पातालपानी

शीतला माता जलप्रपात (विपिन गौड की फेसबुक से अनुमति सहित)    इन्दौर से जब महेश्वर जाते हैं तो रास्ते में मानपुर पडता है। यहां से एक रास्ता शीतला माता के लिये जाता है। यात्रा पर जाने से कुछ ही दिन पहले मैंने विपिन गौड की फेसबुक पर एक झरने का फोटो देखा था। लिखा था शीतला माता जलप्रपात, मानपुर। फोटो मुझे बहुत अच्छा लगा। खोजबीन की तो पता चल गया कि यह इन्दौर के पास है। कुछ ही दिन बाद हम भी उधर ही जाने वाले थे, तो यह जलप्रपात भी हमारी लिस्ट में शामिल हो गया।    मानपुर से शीतला माता का तीन किलोमीटर का रास्ता ज्यादातर अच्छा है। यह एक ग्रामीण सडक है जो बिल्कुल पतली सी है। सडक आखिर में समाप्त हो जाती है। एक दुकान है और कुछ सीढियां नीचे उतरती दिखती हैं। लंगूर आपका स्वागत करते हैं। हमारा तो स्वागत दो भैरवों ने किया- दो कुत्तों ने। बाइक रोकी नहीं और पूंछ हिलाते हुए ऐसे पास आ खडे हुए जैसे कितनी पुरानी दोस्ती हो। यह एक प्रसाद की दुकान थी और इसी के बराबर में पार्किंग वाला भी बैठा रहता है- दस रुपये शुल्क बाइक के। हेलमेट यहीं रख दिये और नीचे जाने लगे।

नचिकेता ताल

18 फरवरी 2016 आज इस यात्रा का हमारा आख़िरी दिन था और रात होने तक हमें कम से कम हरिद्वार या ऋषिकेश पहुँच जाना था। आज के लिये हमारे सामने दो विकल्प थे - सेम मुखेम और नचिकेता ताल।  यदि हम सेम मुखेम जाते हैं तो उसी रास्ते वापस लौटना पड़ेगा, लेकिन यदि नचिकेता ताल जाते हैं तो इस रास्ते से वापस नहीं लौटना है। मुझे ‘सरकुलर’ यात्राएँ पसंद हैं अर्थात जाना किसी और रास्ते से और वापस लौटना किसी और रास्ते से। दूसरी बात, सेम मुखेम एक चोटी पर स्थित एक मंदिर है, जबकि नचिकेता ताल एक झील है। मुझे झीलें देखना ज्यादा पसंद है। सबकुछ नचिकेता ताल के पक्ष में था, इसलिये सेम मुखेम जाना स्थगित करके नचिकेता ताल की ओर चल दिये। लंबगांव से उत्तरकाशी मार्ग पर चलना होता है। थोड़ा आगे चलकर इसी से बाएँ मुड़कर सेम मुखेम के लिये रास्ता चला जाता है। हम सीधे चलते रहे। जिस स्थान से रास्ता अलग होता है, वहाँ से सेम मुखेम 24 किलोमीटर दूर है।  उत्तराखंड के रास्तों की तो जितनी तारीफ़ की जाए, कम है। ज्यादातर तो बहुत अच्छे बने हैं और ट्रैफिक है नहीं। जहाँ आप 2000 मीटर के आसपास पहुँचे, चीड़ का जंगल आरंभ हो जाता है। चीड़ के जंगल मे...