Skip to main content

रायपुर से केवटी पैसेंजर ट्रेन यात्रा



10 अगस्त 2019
यह रेलवे लाइन पहले दल्ली राजहरा तक थी। रेलवे लाइन दुर्ग से शुरू होती है और बालोद होते हुए दल्ली राजहरा तक जाती है। दल्ली राजहरा में लौह अयस्क की खदानें हैं, जिनसे भिलाई स्टील प्लांट में स्टील बनाया जाता है।
फिर इस लाइन को आगे जगदलपुर तक बढ़ाने का विचार किया गया। इसे जगदलपुर तक ले जाने में एक समस्या थी कि यह लाइन अबूझमाड़ से होकर गुजरनी थी। माड़ का अर्थ है पहाड़ी और अबूझ का अर्थ है जिसका पता न हो। यह पूरा क्षेत्र छोटी-बड़ी पहाड़ियों से युक्त है और घना जंगल तो है ही। वर्तमान में लगभग पूरा अबूझमाड़ नक्सलियों का गढ़ है और आए दिन नक्सलियों व सुरक्षाबलों के बीच मुठभेड़ की खबरें आती रहती हैं। नक्सली यहाँ सड़क तक नहीं बनने देते, तो रेलवे लाइन क्यों बनने देंगे?
लेकिन रेलवे लाइन बन रही है। पहले दल्ली राजहरा से गुदुम तक बनी, फिर गुदुम से भानुप्रतापपुर तक और अभी 30 मई को भानुप्रतापपुर से केवटी तक भी यात्री ट्रेनें चलने लगीं। केवटी से अंतागढ़ ज्यादा दूर नहीं है और जल्द ही अंतागढ़ में रेल की सीटी सुनाई देने लगेगी। फिर अंतागढ़ से नारायणपुर, कोंडागाँव होते हुए यह रेलवे लाइन जगदलपुर में केके लाइन में मिल जाएगी।


तो आज हमारे पास एक दिन का समय था और हमने यानी मैंने और दीप्ति ने रायपुर से केवटी का टिकट ले लिया और डी.एम.यू. ट्रेन में सवार हो गए। रायपुर से दुर्ग तक तो मेरा जाना-पहचाना रास्ता था। इस रेलमार्ग पर मैं पहले भी पैसेंजर ट्रेन में यात्रा कर चुका हूँ और लंबी दूरी की ट्रेनों में तो पता नहीं कितनी बार आना-जाना कर चुका हूँ।
दुर्ग में ट्रेन का रिवर्सल हुआ। ड्राइवर और गार्ड ने आपस में जगह बदली और ट्रेन मरौदा पहुँच गई। मरौदा में फिर से रिवर्सल हुआ।
ट्रेन में मेरी उम्मीद से ज्यादा भीड़ थी। सभी सीटें भरी हुई थीं और यात्री खड़े भी थे।
इस मार्ग पर दल्ली राजहरा की खदानों से भिलाई स्टील प्लांट तक लगातार मालगाड़ियों का आवागमन होता है। कुछ डी.एम.यू. ट्रेनें चलती हैं, जिनमें से ज्यादातर दल्ली राजहरा तक ही जाती हैं। दो ट्रेनें केवटी तक जाती हैं। एक्सप्रेस और सुपरफास्ट गाड़ी एक भी नहीं।
मरौदा से पाऊवारा, रिसामा, गुंडरदेही, सिकोसा और लाटाबोर होते हुए बालोद पहुँचे। बालोद एक बड़ा शहर है और जिला मुख्यालय भी है, इसलिए ज्यादातर यात्री यहाँ उतर गए, फिर भी ट्रेन में काफी यात्री थे। दोनों तरफ पहाड़ियाँ थीं, जिनसे लौह अयस्क निकाला जाता है। पहाड़ियों की श्रंखला आगे तक चली जाती है। ये ही अबूझमाड़ की पहाड़ियाँ हैं। इन पहाड़ियों में अबूझमाड़िया, गोंड आदि जनजातियाँ रहती हैं, जो पूरी तरह जंगल पर ही निर्भर हैं। इन्हीं पहाड़ियों व जंगलों के घनेपन का फायदा नक्सली उठाते हैं और अबूझमाड़ में उन्हीं की सरकार चलती है।
बालोद से आगे भैंसबोड स्टेशन है, कुसुमकसा स्टेशन है और फिर दल्ली राजहरा है। यहाँ प्लेटफार्म तो एक ही है, लेकिन यार्ड काफी बड़ा है। और हो भी क्यों न, यात्री गाड़ियाँ कम हैं और मालगाड़ियाँ ज्यादा हैं। और आप जानते ही हैं कि रेलवे को यात्री गाड़ियों से कोई कमाई नहीं होती। कमाई मालगाड़ियों से ही होती है। यात्री गाड़ियाँ तो समाजसेवा के लिए चलाई जाती हैं।
दल्ली राजहरा रेलवे स्टेशन का नाम दल्ली राझरा है। पता नहीं कौन-सा सही है - राजहरा या राझरा।

लेकिन ये क्या! ट्रेन को चारों ओर से जवानों ने घेर लिया और ट्रेन चली तो प्रत्येक दरवाजे पर एक-एक हथियारबंद जवान खड़ा था। सभी यात्रियों को सीटों पर बैठने को कह दिया गया और पूरी ट्रेन में एक भी यात्री खड़ा नहीं था। वैसे भी दल्ली राजहरा में ज्यादातर यात्री उतर गए थे और अब बहुत थोड़े-से यात्री ही ट्रेन में थे।
अब मैंने भी कैमरा जेब में रख लिया। ऐसे में फोटो खींचना जरूरी नहीं होता। वैसे भी मैं कभी भी ऐसी जगहों की फोटो नहीं लेता हूँ, जहाँ सुरक्षाबलों की मौजूदगी हो।
भानुप्रतापपुर भी एक बड़ा शहर है, जहाँ ट्रेन लगभग खाली ही हो गई। इससे आगे केवटी है। केवटी से कुछ ही किलोमीटर आगे अंतागढ़ है, जहाँ एक मित्र की तैनाती है - एस.एस.बी. में। वे मुझे अक्सर अंतागढ़ बुलाते रहते हैं, लेकिन मैं संवेदनशील जगहों पर फौजी मित्रों से मिलने से कतराता हूँ। इसका मुख्य कारण है कि सभी संवेदनशील जगहों पर निशाने पर सुरक्षाबल ही होते हैं। आप टूरिस्ट बनकर घोर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में या ऐसी ही अन्य जगहों पर यात्रा कर सकते हैं, लेकिन भिडंत हमेशा नक्सलियों और सुरक्षाबलों के बीच ही होती है, इसलिए सुरक्षाबलों के बीच में होने से आप भी असुरक्षित हो जाते हैं। दूसरे, आपके यानी एक सिविलियन के साथ होने से सैनिकों का ध्यान आपकी सुरक्षा पर ज्यादा होता है, इसलिए कोई अटैक होने पर रक्षापंक्ति थोड़ी कमजोर हो जाती है।
हालाँकि हम अपने फौजियों के कारण ही खुली हवा में रह रहे हैं और जी भरकर जी रहे हैं। लेकिन संवेदनशील जगहों पर उनके अतिथि बनने से बचना चाहिए - भले ही वहाँ आपका सगा-संबंधी ही क्यों न हो।

केवटी से वापस रायपुर का टिकट लिया। यही ट्रेन वापसी में दुर्ग तक आती है और आप जानते ही हैं कि दुर्ग से रायपुर के लिए ट्रेनों की कोई कमी नहीं।




केवटी जाने वाली डी.एम.यू. ट्रेन










इसे ना पढ़ें...
लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि आप डर जाएँ... अबूझमाड़ छत्तीसगढ़ का एक बेहद रिमोट क्षेत्र है और रायपुर-जगदलपुर सड़क भी यहाँ से नहीं गुजरती... अब नक्सली छत्तीसगढ़ में केवल अबूझमाड़ और सुकमा-कोंटा-बीजापुर क्षेत्र में ही हैं... बाकी पूरा छत्तीसगढ़ एकदम नक्सल-रहित है... बस्तर के प्रसिद्ध जलप्रपात भी नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से काफी दूर हैं...




Comments

  1. एक अनछुए स्थान की यात्रा करवाने के लिए धन्यवाद
    ऐसा लगा जैसे आपके साथ ही रेलयात्रा कर रहा हूँ।
    ❤️

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

स्टेशन से बस अड्डा कितना दूर है?

आज बात करते हैं कि विभिन्न शहरों में रेलवे स्टेशन और मुख्य बस अड्डे आपस में कितना कितना दूर हैं? आने जाने के साधन कौन कौन से हैं? वगैरा वगैरा। शुरू करते हैं भारत की राजधानी से ही। दिल्ली:- दिल्ली में तीन मुख्य बस अड्डे हैं यानी ISBT- महाराणा प्रताप (कश्मीरी गेट), आनंद विहार और सराय काले खां। कश्मीरी गेट पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास है। आनंद विहार में रेलवे स्टेशन भी है लेकिन यहाँ पर एक्सप्रेस ट्रेनें नहीं रुकतीं। हालाँकि अब तो आनंद विहार रेलवे स्टेशन को टर्मिनल बनाया जा चुका है। मेट्रो भी पहुँच चुकी है। सराय काले खां बस अड्डे के बराबर में ही है हज़रत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन। गाजियाबाद: - रेलवे स्टेशन से बस अड्डा तीन चार किलोमीटर दूर है। ऑटो वाले पांच रूपये लेते हैं।

रुद्रनाथ यात्रा- पंचगंगा से अनुसुईया

27 सितम्बर 2015    सवा ग्यारह बजे पंचगंगा से चल दिये। यहीं से मण्डल का रास्ता अलग हो जाता है। पहले नेवला पास (30.494732°, 79.325688°) तक की थोडी सी चढाई है। यह पास बिल्कुल सामने दिखाई दे रहा था। हमें आधा घण्टा लगा यहां तक पहुंचने में। पंचगंगा 3660 मीटर की ऊंचाई पर है और नेवला पास 3780 मीटर पर। कल हमने पितरधार पार किया था। इसी धार के कुछ आगे नेवला पास है। यानी पितरधार और नेवला पास एक ही रिज पर स्थित हैं। यह एक पतली सी रिज है। पंचगंगा की तरफ ढाल कम है जबकि दूसरी तरफ भयानक ढाल है। रोंगटे खडे हो जाते हैं। बादल आने लगे थे इसलिये अनुसुईया की तरफ कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। धीरे-धीरे सभी बंगाली भी यहीं आ गये।    बडा ही तेज ढलान है, कई बार तो डर भी लगता है। हालांकि पगडण्डी अच्छी बनी है लेकिन आसपास अगर नजर दौडाएं तो पाताललोक नजर आता है। फिर अगर बादल आ जायें तो ऐसा लगता है जैसे हम शून्य में टंगे हुए हैं। वास्तव में बडा ही रोमांचक अनुभव था।

लद्दाख साइकिल यात्रा का आगाज़

दृश्य एक: ‘‘हेलो, यू आर फ्रॉम?” “दिल्ली।” “व्हेयर आर यू गोइंग?” “लद्दाख।” “ओ माई गॉड़! बाइ साइकिल?” “मैं बहुत अच्छी हिंदी बोल सकता हूँ। अगर आप भी हिंदी में बोल सकते हैं तो मुझसे हिन्दी में बात कीजिये। अगर आप हिंदी नहीं बोल सकते तो क्षमा कीजिये, मैं आपकी भाषा नहीं समझ सकता।” यह रोहतांग घूमने जा रहे कुछ आश्चर्यचकित पर्यटकों से बातचीत का अंश है। दृश्य दो: “भाई, रुकना जरा। हमें बड़े जोर की प्यास लगी है। यहाँ बर्फ़ तो बहुत है, लेकिन पानी नहीं है। अपनी परेशानी तो देखी जाये लेकिन बच्चों की परेशानी नहीं देखी जाती। तुम्हारे पास अगर पानी हो तो प्लीज़ दे दो। बस, एक-एक घूँट ही पीयेंगे।” “हाँ, मेरे पास एक बोतल पानी है। आप पूरी बोतल खाली कर दो। एक घूँट का कोई चक्कर नहीं है। आगे मुझे नीचे ही उतरना है, बहुत पानी मिलेगा रास्ते में। दस मिनट बाद ही दोबारा भर लूँगा।” यह रोहतांग पर बर्फ़ में मस्ती कर रहे एक बड़े-से परिवार से बातचीत के अंश हैं।