20 सितंबर 2018
हमें नहीं पता था कि श्रीवर्धन इतना बड़ा है। कल हम जब यहाँ आए थे तो अंधेरा हो चुका था और गूगल मैप बता रहा था कि बस, इससे आगे कोई सड़क नहीं है। एक चौराहे पर खड़े होकर चारों ओर देखा, कोई नहीं दिखाई दिया। क्या यही है श्रीवर्धन? प्रतीक ने बताया था कि यहाँ होटल मिल जाएँगे। कहाँ हैं होटल? चलो, एक बार समुद्र की ओर चलकर देखते हैं।
तो 600 रुपये का यह कमरा मिल गया। कमरा भी तब मिला, जब हमारे आवाज लगाने पर मालिक अपने घर से बाहर निकला - “आधा घंटा रुकिए, मैं सफाई कर देता हूँ।”
“और इन मच्छरों का क्या करें? क्या ये भी आधा घंटा रुक जाएँगे? आप एक काम कीजिए, कमरा जैसा भी है, वैसा ही दे दीजिए। हमें कोई दिक्कत नहीं होगी।”
“नहीं जी, ऐसा कैसे हो सकता है? बस, थोड़ा-सा टाइम दो मुझे।’’
“सामान तो रख लेने दो। आप सफाई करते रहना।”
इसी दौरान मुझे समय मिल गया कमरे के अंदर घुसने का। ऐसा लगता था जैसे कोई अभी-अभी कमरा खाली करके गया हो। बिस्तर पर सिलवटें पड़ी हुई थीं, बस।
लेकिन आधे घंटे बाद ऐसा लग रहा था जैसे कमरा अभी-अभी बनाकर रेडी किया है और हम पहले ही कस्टमर हैं। एकदम नई-नकोर चादरें और सेंट की खुशबू से कमरा मालामाल था। कुछ अगरबत्तियाँ भी थीं और एक माचिस भी। बाहर मच्छर थे, कमरे में एक भी मच्छर नहीं था।
तो ऐसा था श्रीवर्धन। शाम को ही बीच पर टहलने चले गए। कुछ लोग और भी थे और एक फलूदे वाला भी था। फलूदा खा लिया, बीच देख लिया और मच्छरों से परेशान भी हुए। लेकिन एक बात समझ में आ गई - यह बीच दिन में भी आने लायक है।
तो आज तड़के-तड़क दस बजे उठते ही सबसे पहले यही काम किया। बीच की तरफ टहलने निकल गए। न कोई यात्री था, न फलूदे वाला और न ही मच्छर। बीच पर केवल हमीं थे। बीच के समांतर सवा किलोमीटर लंबा पक्का चबूतरा बना है, जिस पर आप चहलकदमी भी कर सकते हैं और आराम से बैठ भी सकते हैं। हमने भी कुछ देर चहलकदमी की, लेकिन बोर हो गए। फिर कुछ देर बैठे भी, लेकिन फिर से बोर हो गए। और दो बार बोर होने का एक ही अर्थ है - अब निकल लो यहाँ से।
सारा सामान बाँधकर और होटल वाले को 700 रुपये का पेमेंट करके हम निकल लिए। 700 किस बात के? 600 का कमरा था और रात 100 रुपये का हम दोनों ने भरपेट भोजन किया था। निकलकर एक किलोमीटर भी नहीं गए कि भीड़-भरा एक बाजार प्रकट हो गया।
तू कहाँ था भाई? कल तो सन्नाटा पड़ा था।
एक व्यस्त बाजार में जो होता है, वो सब यहाँ था। लाल रंग की रोडवेज बसें भी और वडापाव भी। कढ़ाई में वडापाव उतरते देखते ही हम दोनों की जीभ लपलपा उठी और वडापाव के साथ चाय भी मांग ली। जवाब मिला - “हम केवल वडापाव के स्पेशलिस्ट हैं। हम चाय नहीं बनाते।”
और कसम से, वो वाकई वडापाव का स्पेशलिस्ट था। आज तक ऐसा वडापाव हमने नहीं खाया था। दोनों ने चालीस रुपये के चार वडापाव उदरस्थ कर दिए।
यहीं से हरिहरेश्वर का रास्ता भी पता चल गया - “पूरे 20 किलोमीटर... सीधे ही चलते जाओ... कहीं भी नहीं मुड़ना।”
“लेकिन हरिहरेश्वर तो यहाँ से दक्षिण में 5 किलोमीटर दूर है। और आप सीधे पूरब में 20 किलोमीटर जाने को कह रहे हो?”
“हाँ, है नजदीक ही। लेकिन सड़क यही है।”
यह बड़ी चमत्कारी सड़क है। सड़क तो उल्टे ‘C’ के आकार में है, लेकिन है सीधी। इसमें से दिवेआगर की सड़क अलग होती है, म्हसला की सड़क अलग होती है, और भी दो-तीन सड़कें अलग होती हैं, लेकिन यह इतनी होशियार है कि आपको बिना किसी कन्फ्यूजन के हरिहरेश्वर पहुँचा देगी।
तो हम भी कुछ देर में हरिहरेश्वर बीच पर थे और मजा आ गया। पेड़ों की छाँव और कंक्रीट की बनी बेंचें। हमें देखते ही एक बग्गीवाले ने अपना घोड़ा खोला और बग्गी में जोतकर बीच पर उसे भगाने लगा। बार-बार हमें देखने के बाद जब उसे पक्का भरोसा हो गया कि हमें बग्गी का कोई लालच नहीं हो रहा है, तो घोड़े को उसकी जगह बांध दिया और अपने तिरपाल में जाकर सो गया। और बेंच पर लेटे-लेट एक नींद मैंने भी ले ली। तेज धूप थी, लहरों की आवाज थी और शीतल हवा थी।
कसम से, मुझे तो हरिहरेश्वर बड़ा पसंद आया। अगर प्रतीक हमें इधर न भेजता तो हम कभी न आते। धन्यवाद प्रतीक भाई...
अब हमें जाना था महाबलेश्वर। महाबलेश्वर पश्चिमी घाट की पहाड़ियों में स्थित है और यहाँ से लगभग 140 किलोमीटर दूर है। अगर सीधे गोवा की ओर जाना होता, तो हम यहीं कहीं से सावित्री नदी नाव के द्वारा पार करके तट के साथ-साथ चलते रहते, लेकिन महाबलेश्वर जाने के कारण समुद्र से दूर होते गए और हमें रास्ता बताती गई सावित्री नदी।
इधर मानव आबादी बहुत कम है। लेकिन घास के बड़े-बड़े मैदान हैं। ऊँची-ऊँची घास के मैदान। हरिहरेश्वर से जब सावित्री के साथ-साथ महाड़ की ओर बढ़ते हैं, तो शुरू में दूर-दूर तक ये मैदान ही मिलते हैं। इनके बाद पहाड़ी भू-भाग मिलता है। लेकिन घास के इन मैदानों में पतली-सी सड़क पर मोटरसाइकिल चलाने का जो आनंद था, वो आगे पहाड़ों में भी नहीं मिला। मुझे वाकई अभी भी इस क्षेत्र के बारे में कोई जानकारी नहीं है, अन्यथा बहुत कुछ लिखता।
इस मैदान में अचानक ही कोई तिराहा प्रकट हो जाता, चौराहा प्रकट हो जाता, कहीं पर ग्रामीण खड़े बस की प्रतीक्षा कर रहे होते, कहीं गाँव दिखते, कहीं गाँव नहीं दिखते... और तभी महाराष्ट्र परिवहन की लाल रंग की बस सामने से आती दिखाई पड़ती, जिस पर गंतव्य का नाम लिखा होता, जो नाम मैंने पहले कभी नहीं सुना था।
श्रीवर्धन बीच |
श्रीवर्धन बीच |
श्रीवर्धन में स्पेशलिस्ट वाला वडापाव |
श्रीवर्धन से हरिहरेश्वर जाती सड़क |
हरिहरेश्वर बीच... |
हरिहरेश्वर बीच... |
हरिहरेश्वर से महाड़ जाने वाली सड़क... |
सावित्री नदी के किनारे... |
सावित्री नदी |
अगला भाग: महाबलेश्वर यात्रा
1. चलो कोंकण: दिल्ली से इंदौर
2. चलो कोंकण: इंदौर से नासिक
3. त्रयंबकेश्वर यात्रा और नासिक से मुंबई
4. मालशेज घाट - पश्चिमी घाट की असली खूबसूरती
5. भीमाशंकर: मंजिल नहीं, रास्ता है खूबसूरत
6. भीमाशंकर से माणगाँव
7. जंजीरा किले के आसपास की खूबसूरती
8. दिवेआगर बीच: खूबसूरत, लेकिन गुमनाम
9. कोंकण में एक गुमनाम बीच पर अलौकिक सूर्यास्त
10. श्रीवर्धन बीच और हरिहरेश्वर बीच
11. महाबलेश्वर यात्रा
12. कास पठार... महाराष्ट्र में ‘फूलों की घाटी’
13. सतारा से गोवा का सफर वाया रत्नागिरी
14. गोवा में दो दिन - ओल्ड गोवा और कलंगूट, बागा बीच
15. गोवा में दो दिन - जंगल और पहाड़ों वाला गोवा
16. गोवा में दो दिन - पलोलम बीच
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