Skip to main content

चलो कोंकण: दिल्ली से इंदौर वाया जयपुर

Delhi to Jaipur Road Trip11 सितंबर 2018
पता नहीं क्यों मुझे लगने लगा कि मोटरसाइकिल में कोई खराबी है। कभी हैंडल को देखता; कभी लाइट को देखता; कभी क्लच चेक करता; कभी ब्रेक चेक करता; तो कभी पहियों में हवा चेक करता; लेकिन कोई खराबी नहीं मिली। असल में कल-परसों जब इसकी सर्विस करा रहा था, तो मैकेनिक ने बताया था कि इसके इंजन में फलाँ खराबी है और उसे ठीक करने के दस हजार रुपये लगेंगे।
“और अगर ठीक न कराएँ, तो क्या समस्या होगी?”
“यह मोबिल ऑयल पीती रहेगी और आपको इस पर लगातार ध्यान देते रहना होगा।”
उसने कहा तो ठीक ही था। यह मोबिल ऑयल पीती तो है। हालाँकि एक लीटर मोबिल ऑयल 1200 किलोमीटर से ज्यादा चल जाता है। और अगर यह न पीती, तब भी इतनी दूरी के बाद मोबिल ऑयल बदलना तो पड़ता ही है। इसलिए हम चिंतित नहीं थे।

लेकिन आज ऐसा लग रहा था, जैसे यह कुछ असामान्य है। सत्तर की स्पीड तक पहुँचते-पहुँचते इंजन से कुछ घरघराहट जैसी आवाज भी आ रही थी। वैसे तो यह आवाज पहले भी आती थी, लेकिन आज ज्यादा लग रही थी। वाइब्रेशन भी ज्यादा लग रहे थे। इस बारे में दीप्ति से पूछा तो उसने कहा - “यह तुम्हारे मन का वहम है। बाइक में उतने ही वाइब्रेशन हैं, जितने पहले होते थे।”
लेकिन वहम यहीं खत्म नहीं हुआ।
नीमराना के पास डैशबोर्ड से धुआँ-सा उठता दिखाई पड़ा। इससे पहले कि ‘आग’ लगती, बाइक रोक ली। दिमाग में चल रहा था कि इसकी टंकी पर रखा मैग्‍नेटिक टैंक बैक सबसे पहले उतारूँगा और फिर पीछे बंधा मुख्य सामान।





“क्या हुआ?” दीप्ति ने पूछा।
“यहाँ से धुआँ-सा उठ रहा है और तार जलने की स्मैल भी आ रही है।”
“ओहो, मोटरसाइकिल में कोई समस्या नहीं है। उधर देखो, वहाँ वे लोग तार जला रहे हैं।”

थोड़ी दूर एक ट्रक गैराज था और कुछ जल भी रहा था। तार भी होंगे और तेल भी।
“अब तुम पीछे बैठो, मोटरसाइकिल मैं चलाऊँगी।”
और दीप्ति ने कोटपूतली कब पार करा दिए, पता ही नहीं चला।

जयपुर में विधान के यहाँ रात रुकना था। हालाँकि कई अन्य मित्र भी अपने यहाँ आने को कह रहे थे, लेकिन हमें विधान से मिले कई साल हो गए थे। इन कई सालों में एक बार उसका हाथ भी टूटा और एक लड़का भी हुआ। हमने एक-दूसरे का हालचाल भी पूछना बंद कर दिया था। और उसने अब फेसबुक चलाना बंद कर दिया है। कल उसकी घरवाली को फेसबुक पर ढूँढ़कर हालचाल पूछा और विधान का नंबर लेकर अपने आने की खबर दी।

12 सितंबर 2018
अगर आप गूगल मैप पर जयपुर और इंदौर के बीच का रास्ता देखेंगे, तो यह कोटा होते हुए जाने का सुझाव देगा। यह दूरी 570 किलोमीटर है और इसमें कोटा से उज्जैन यानी 250 किलोमीटर टू-लेन है, बाकी फोर-लेन।
इसी तरह अगर आप जयपुर से चित्तौड़गढ़, जावरा होते हुए इंदौर जाते हैं, तो यह दूरी 630 किलोमीटर है और इसमें जावरा से उज्जैन यानी 100 किलोमीटर टू-लेन है, बाकी फोर-लेन है।
और अगर जयपुर से रतलाम होते हुए इंदौर जाया जाए, तो यह दूरी 650 किलोमीटर है, लेकिन यह पूरा रास्ता फोर-लेन है।
हमने तीसरा विकल्प चुनने का निर्णय लिया। अगर आप नियमित मोटरसाइकिल यात्राएँ करते हैं, तो एक दिन में मैदानों में फोर-लेन सड़क पर 650 किलोमीटर चलना बहुत मुश्किल नहीं है। सुबह जयपुर से निकलकर रात तक आसानी से इंदौर पहुँच जाएँगे। हालाँकि अगर हम कोटा के रास्ते जाते, तो हमें 80 किलोमीटर कम चलना पड़ता; लेकिन हमने फोर-लेन वाला रास्ता चुना।
जब आप लंबी दूरी तक मोटरसाइकिल चलाते हैं या कार चलाते हैं, तो शारीरिक रूप से बिल्कुल भी नहीं थकते, लेकिन शाम होते-होते मानसिक रूप से बहुत थक जाते हैं। क्योंकि आपका मस्तिष्क लंबे समय तक लगातार कार्य करता रहता है। इसलिए अगर कुछ कार्य कम कर दिए जाएँ, तो इस थकान को भी कम किया जा सकता है। मेरे अनुभव में सबसे ज्यादा दिमागी कार्य ओवरटेक करते समय होता है। खाली सड़क पर 100 की स्पीड से चलने के मुकाबले भीड़-भरी सड़क पर 40 की स्पीड से चलने में ज्यादा कार्य करना होता है, इसलिए ज्यादा थकान भी होती है।
टू-लेन छोड़कर फोर-लेन पर 80 किलोमीटर ज्यादा चलने का यही कारण था।

सुबह सात बजे जयपुर से तो चल दिए, लेकिन हमें जयपुर में ही बारह बजे गए। कल ही तय हो गया था कि हम सुबह सात बजे रजत और आनंद से मिलते हुए चलेंगे। इसी मुलाकात में उवैस अहमद भी शामिल होने वाले थे, लेकिन साढ़े सात बजे तक भी किसी का फोन नहीं आया। किसी ने भी नहीं पूछा कि तय समय से आधा घंटा ऊपर हो गया, अभी तक क्यों नहीं आया। हम इनके ऑफिस पहुँचे तो ताला लगा था। आनंद को फोन किया, वह अभी-अभी सोकर उठा था। रजत अभी तक सोकर भी नहीं उठा था और उवैस दस मिनट पहले ही ऑफिस बंद देखकर वापस चला गया था।
नतीजा यह हुआ कि आधे घंटे बाद हमारे सामने तमाम तरह के समोसे और मिठाइयाँ रखी थीं। बातों का सिलसिला चलता रहा और दस बज गए। आनंद और रजत ने कानपुर आई.आई.टी. से पता नहीं कौन-सी डिग्री लेने के बाद नौकरी नहीं की और जयपुर में टूर ऑपरेटर का काम शुरू कर दिया। इसे ज्यादा दिन नहीं हुए, तीन-चार साल पहले की ही बात है। जल्दी ही काम इतना बढ़ गया कि आज आनंद पूरे सिक्किम को संभाल रहा है और रजत राजस्थान को। इनके पास चार साल से बंद पड़ी अपनी वेबसाइट को अपडेट करने का भी समय नहीं है। काफी बड़ा ऑफिस है और बहुत सारे लैपटॉप रखे हैं। कई लड़के नौ से पाँच की ड्यूटी करते हैं। ये लोग फेसबुक पर भी ज्यादा एक्टिव नहीं हैं। पता नहीं कस्टमर कहाँ से आते हैं इनके पास!

तो दस बजे के बाद यहाँ से निकले। निकलते ही स्पीडोमीटर बंद हो गया। मुझे लंबी बाइक यात्राओं में एकदम परफेक्ट बाइक चाहिए। किस समय कहाँ पहुँचना है, कितना लेट हैं, कितना जल्दी हैं, सब स्पीडोमीटर से ही पता चलता है। इसे ठीक करवाना बहुत जरूरी था।
ठीक करवाने में बज गए बारह। और अभी भी हम जयपुर में ही थे। रात तक इंदौर पहुँचना था।

लंबी बाइक यात्राओं का पहला उसूल... अच्छा हाँ, उसूल तो बहुत सारे हैं, लेकिन सब के सब ‘पहले उसूल’ में ही आते हैं। जब भी हमें उसूल याद आते जाएँगे, हम हमेशा पहला उसूल कहकर ही उसे खास तवज्जो देंगे। दूसरा उसूल हमारी डिक्शनरी में नहीं है।
तो लंबी बाइक यात्राओं का पहला उसूल है - पेट नहीं भरना चाहिए। हर थोड़ी-थोड़ी देर में हल्का-फुल्का खाते रहो। ज्यादा खा लेने से नींद आती है। और यह भी सच है कि कम खाने से भी नींद आती है।

किशनगढ़ तक छह-लेन है, फिर फोर-लेन। किशनगढ़ से चित्तौड़गढ़ तक इसे भी छह-लेन करने का काम चल रहा है, इसलिए कुछ डायवर्जन भी हैं। फिर भी अच्छी रफ्तार मिली और हम सूर्यास्त के समय चित्तौड़गढ़ बाईपास पर रेलवे पुल पर खड़े थे। नीचे उदयपुर जाने वाली रेलवे लाइन थी और उसी दिशा में सूर्य भी डूबता जा रहा था। हमें हमेशा ही सूर्यास्त अच्छा लगता है। अगर सुबह जल्दी उठने का झंझट न होता, तो सूर्योदय भी अच्छा लगता।
यहाँ रेलवे लाइन इलेक्ट्रिफाइड थी और कैटनरी पर बैठा सफेद उल्लू हमें बहुत देर तक ‘परफेक्ट’ फोटो लेने को उकसाता रहा। दीप्ति ने बहुत कोशिश की, मैंने भी बहुत कोशिश की, लेकिन उल्लू के फोटो उल्लू जैसे ही आए। सबकुछ ब्लर। इसका क्या इलाज हो सकता है? निश्चित ही और अच्छा कैमरा होना चाहिए था। और अच्छा मतलब?
मतलब डी.एस.एल.आर.।
हुँह... एक उल्लू की वजह से हम डी.एस.एल.आर. लेंगे? उधर तोते बैठे हैं। उन पर ट्राइ मारते हैं।
चलो, अच्छे फोटो आए हैं। हरे पत्तों और हरी बैकग्राउंड होने के बावजूद भी पता चल रहा है कि ये तोते हैं।

यहाँ रेलवे पुल से सामने एक पहाड़ी दिख रही थी और पहाड़ी पर कुछ बना भी था।
“उधर देख, तुझे एक चीज दिखाता हूँ।” मैंने दीप्ति से उस पहाड़ी की ओर इशारा करके कहा।
“क्या है वह?”
“चित्तौड़ का किला।”
उन्नीसवीं शताब्दी के आखिर में जब यह रेलवे लाइन बनाई जा रही होगी, तब तो यह ‘मेवाड़’ देश ही था। इस किले ने और भी बहुत कुछ देखने के साथ-साथ इस रेल लाइन को भी बनते देखा है। चित्तौड़ से उदयपुर की रेल लाइन।

रामदेवरा मेले का असर यहाँ तक था। रामदेवरा पश्चिमी राजस्थान में जैसलमेर के पास है, लेकिन इसकी मान्यता पूरे राजस्थान समेत हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र तक है। भारी संख्या में श्रद्धालु पहुँचते हैं। शायद मेला समाप्त हो गया था, इसीलिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु रामदेवरा से लौट रहे थे - मोटरसाइकिलों पर, ट्रैक्टर-ट्रॉलियों पर, कारों में, बसों में। किसी भी मोटरसाइकिल पर तीन से कम श्रद्धालु नहीं थे। कइयों पर तो छोटे-बड़े मिलाकर सात-सात जने तक बैठे थे। इन पर मोटरसाइकिल चलाने का कोई नियम लागू नहीं था। राजस्थान पुलिस वाले खुद रामदेवजी के भक्त होंगे, इसलिए इन लोगों के साथ कोई टोकाटाकी नहीं, कोई चालान नहीं।
हाँ, अगर हम बिना हेलमेट होते, तो अब तक चालीस बार चालान कट चुका होता।

सात बजे जब चित्तौड़ पार करके आराम करने और कुछ खाने रुके तो सूरज ढल चुका था और जब पुनः चले तो आठ बज चुके थे। इंदौर अभी भी 350 किलोमीटर दूर था और हमारे सामने थी चार-लेन की सड़क व पूरी रात। इतनी दूरी को तय करने में आठ घंटे लगते हैं, यानी सुबह के चार-पाँच बजे हम इंदौर पहुँचेंगे। वैसे तो हम रात में नहीं चलना चाहते थे, लेकिन चित्तौड़, नीमच या मंदसौर में रुकना भी नहीं चाहते थे। चार-लेन की डिवाइडर वाली सड़क पर मुझे मोटरसाइकिल चलाने में कोई परेशानी नहीं होती, इसलिए निर्णय लिया कि हम चलेंगे। यहीं एक ढाबे पर आधे घंटे की नींद भी ले ली, जो मुझे पूरी रात जगाए रखेगी।
रामदेवरा के श्रद्धालुओं का रेला अभी भी जारी था और लग रहा था कि ये पूरी रात मिलते रहेंगे। इन श्रद्धालुओं में महिलाएँ और बच्चे भी बड़ी संख्या में थे। अब हम भी इस रेले का हिस्सा थे और नीमच, मंदसौर के इस बदनाम इलाके में निर्भय होकर पूरी रात चल सकते थे।

फोर-लेन पर रात में चलना भी एक अलग ही अनुभूति है। लोकल ट्रैफिक बिल्कुल नहीं होता और सड़क पर ट्रकों का राज रहता है। आपको यह जानकर शायद आश्चर्य होगा कि भारत में ट्रकवाले सबसे अच्छे ड्राइवर होते हैं। रात में ये लोग अमूमन होरन नहीं बजाते, बल्कि हैडलाइट से काम चलाते हैं। इसलिए एक अलग ही शांति का माहौल रहता है। मुझे और दीप्ति को ऐसा माहौल बड़ा पसंद है।

रात दस बजे दस मिनट के लिए मल्हारगढ़ रुके। शहर लगभग सो चुका था, लेकिन कुछ दुकानें खुली थीं और कुछ बंद हो रही थीं। रामदेवरा के यात्री सबसे सस्ते दिखने वाले ढाबों पर भोजन कर रहे थे और लग रहा था कि ये ढाबे इन्हीं यात्रियों के कारण इतनी रात तक खुले हैं। वैसे ट्रकवाले भी सस्ते दिखने वाले ढाबों पर ही ज्यादा रुकते हैं और ये ढाबे अमूमन पूरी रात खुले ही रहते हैं।

मल्हारगढ़ से जावरा 80 किलोमीटर है और बीच में मंदसौर है। मंदसौर मध्य प्रदेश का एक गुमनाम जिला है और इसका संबंध रावण-काल से लगाया जाता है। कहते हैं मंदोदरी यहीं की रहने वाली थीं। मंदोदरी से मंदसौर नाम पड़ा। जो भी हो, जोधपुर के पास मंडौर भी मंदोदरी से जुड़ा हुआ है और कहीं न कहीं मेरठ भी। लेकिन हम मंदसौर बाइपास से निकल गए और शहर को कहीं दूर अपने बाएँ छोड़ते हुए आगे चलते गए।

जावरा से एक रास्ता उज्जैन होते हुए इंदौर जाता है। लेकिन इसमें उज्जैन तक 100 किलोमीटर बिना डिवाइडर वाला टू-लेन है। रात के समय इतनी दूर तक हम टू-लेन पर नहीं चलने वाले थे। सामने से आने वाली गाड़ियों की हैडलाइट बहुत मुश्किल पैदा करती है। तो सीधे रतलाम की ओर बढ़ते रहे। यहाँ जावरा में अच्छी चहल-पहल थी, कई चमचमा रहे होटल भी थे, जिनमें रामदेवरा से आने वाले मध्यमवर्गीय श्रद्धालुओं की भीड़ थी। दीप्ति को नींद आने लगी थी और उसे आधे घंटे सो लेना बहुत जरूरी था। इन होटलों में बिछी खाटों पर सोना बहुत मुश्किल था - भीड़ और शोर-शराबे के कारण।
जावरा के बाद हम एक ऐसे ढाबे को ढूँढ़ने लगे, जहाँ कोई ट्रक न खड़ा हो और होटल मालिक ऊँघ रहा हो। कई किलोमीटर चलने के बाद और कई ढाबों को रिजेक्ट करने के बाद एक अत्यधिक गरीब-सा ढाबा मिला। रात के बारह बजे थे और यहाँ एक बल्ब टिमटिमा रहा था। होटल मालिक खाट पर लेटा हुआ मोबाइल चला रहा था और एक आदमी रसोई में खड़ा था, जो हमें देखते ही बाहर तक आ गया।
“हाँ जी, क्या लोगे?”
“अभी कुछ नहीं। नींद आ रही है। आधा घंटा सोना है।”
“ठीक है, सो जाइए, कोई दिक्कत नहीं।”
दीप्ति को तुरंत नींद आ गई। आधे घंटे की यह जोरदार नींद उसे बाकी पूरी रात जगाए रखेगी। मुझे नींद नहीं आ रही थी।

होटल मालिक पड़े-पड़े ही लगातार किसी से बातें किए जा रहा था। कभी उसे कोई निर्देश देता, कभी उसे डाँटता, कभी उसकी सुनता, कभी उसका कहा मानता। साथ ही मोबाइल भी चलाता रहा। मुझे उत्सुकता हुई। मैं उसके पास जा पहुँचा।
‘पबजी’ खेल रहा था।

“तो सर, आप कहाँ जा रहे हैं?” रसोइए ने पूछा।
“इंदौर।”
“रामदेवरा से आ रहे हैं क्या?”
“हाँ, रामदेवरा ही समझ लो।”
तभी दूर पड़े होटल मालिक ने जोर से कहा - “अबे, चाय बना ले।”
“सर, आप चाय पिएँगे क्या? रसोइए ने मुझसे पूछा।
“आधे घंटे बाद पिएँगे।”
“आधे घंटे बाद बनाऊँगा।” रसोइए ने मालिक को उतनी ही जोर से उत्तर दिया।

इंदौर से सुमित का फोन आ गया - “कहाँ पहुँचे?”
“ओये, तू जगा हुआ है अभी तक?”
“मैं तुम्हारे आने के बाद ही सोऊँगा। ये बताओ, कहाँ पहुँचे?”
“जावरा।”
“कोई नी... आराम से आओ।”
“तू सो जा। हम इंदौर पहुँचकर फोन करेंगे।”
“नहीं, मोबाइल चला रहा हूँ। तुम्हारे आने पर ही सोऊँगा।”
“तुझे भी पबजी की लत लग गई क्या?”

कुछ देर बाद चाय बन गई। दीप्ति को जगाया। वह जगी तो बमुश्किल ही, लेकिन चाय पीते-पीते जो नींद गायब हुई, वह इंदौर तक गायब ही रही। फिर तो वह लेबड़ तक गाने ही गुनगुनाते रही, जब तक कि मैंने एक गेट के सामने बाइक न रोक दी।
“याद आया कुछ?”
“नहीं।”
“इधर-उधर देख, शायद कुछ याद आ जाए।”
चारों ओर देखकर - “नहीं, कुछ याद नहीं आ रहा। क्या हम यहाँ पहले कभी आए हैं?”
“वो नेशनल स्टील का गेट है और उसके अंदर वो पहला ही क्‍वार्टर मुकेश भालसे जी का है।”
हम दो साल पहले यहाँ आ चुके थे और भालसे जी के यहाँ एक दिन रुके भी थे। अभी रात के तीन बजे थे, इसलिए चुपचाप बाइक स्टार्ट की और आगे बढ़ चले। साथ ही अपनी लाइव लोकेशन व्हाट्सएप पर सुमित को शेयर कर दी।

साढ़े चार बजे इंदौर पहुँचे। इतनी सुबह-सुबह भी बड़ी चहल-पहल थी। गणेश चतुर्थी नजदीक थी और जगह-जगह गणेश जी की स्थापना हो रही थी। उधर सुमित हमारी लाइव लोकेशन देखकर अपने घर से चल दिया था और एक चौराहे पर हम मिल भी गए।
“भाई, हम घर पर पहुँच जाते। तू बेवजह ही रात-भर जगा रहा।”
असल में सुमित के यहाँ भी गणपति की स्थापना हुई थी और आज रात्रि जागरण था। वह सो नहीं सकता था और मुझे अपराधबोध होता रहा कि वह हमारी वजह से जगा हुआ है।

13 सितंबर 2018
आज की कहानी ये है कि हम पूरे दिन इंदौर में रहेंगे। रात को सर्राफा जाएँगे और इसीलिए मैंने घोषणा कर दी कि आज पूरे दिन कुछ भी नहीं खाना।
“ऐसे कैसे नहीं खाएगा? हमारे यहाँ आकर कुछ भी नहीं खाएगा?”
“नहीं, कुछ भी नहीं। रात को सर्राफा में ही व्रत का उद्यापन करूँगा।”
मासूम शक्ल बनाकर - “चल, ठीक है। जैसी तेरी मर्जी। लेकिन हमने आलू के पराँठे बनाए हैं... खीर भी हैं... तू मत खा... हम खा लेंगे।”
“अरे अभी तो दो घंटे बाकी हैं रात होने में। लाओ, ले आओ।”
तो इस तरह हमारा पेट सर्राफा जाने से पहले ही इतना भर गया कि वहाँ हम एकाध गोलगप्पे के अलावा कुछ नहीं खा सके। लेकिन यह गलती आप मत करना। इंदौर का सर्राफा बाजार और उससे लगता एक और बाजार आधी रात को परवान चढ़ते हैं और ये खाने-पीने के शौकीनों के स्वर्ग हैं। जिस तरह दिल्ली लालकिले के बिना, कश्मीर डलझील के बिना, अमृतसर स्वर्ण मंदिर के बिना अधूरे हैं; उसी तरह इंदौर आधी रात को लगने वाले इन बाजारों के बिना अधूरा है। आप केवल खाने के लिए भी इंदौर आ सकते हैं।

धरा पांडेय जी से मुलाकात हुई; चंद्रशेखर चौरसिया जी से मुलाकात हुई व एक-दो और मित्रों से मुलाकात हुई। धरा जी मीडिया से जुड़ी हुई हैं। मुझसे भी नियमित कुछ लेख भेजने का आग्रह किया। सोच लिया कि इस यात्रा से लौटकर भेजा करूँगा। लेकिन एक ही लेख भेज पाया और फिर भूल गया।
चौरसिया जी शाजापुर से आए थे, अपने साले के साथ।
आज की कहानी बस इतनी ही है। हमारे साथ हमेशा ही समय की कमी रहती है, लेकिन आज सभी के साथ गप्पें लड़ाते-लड़ाते महसूस हुआ कि गप्पें लड़ाना भी जरूरी होता है। जो मित्र अपना काम-धंधा छोड़कर आपसे मिलने आते हैं, सौ-सौ किलोमीटर दूर से सिर्फ आपके लिए आते हैं; उनके साथ तो ‘अनलिमिटिड वैलिडिटी’ वाला पैक जरूरी होता है। बातों के साथ-साथ चाय का दौर चलता रहे, नमकीन का दौर चलता रहे, समोसों का दौर चलता रहे... तो सेहत भी अच्छी होती है।


Jaipur Local Travel
और यह रहा हमारा दोस्त विधान...

Jaipur City Tour
जयपुर

Bike Rental in Jaipur

Jaipur to Ajmer Road Travel
किशनगढ़ के आसपास हल्का-फुल्का कुछ...

Ajmer to Chittaurgarh Road Travel




Birds in Rajasthan

Jaipur to Chittaurgarh Road Travel

Jaipur to Udaipur Road Trip
लटूर जी तलवार वाले...

Jaipur to Udaipur Train Number
चित्तौड़ से उदयपुर जाने वाली रेलवे लाइन...

Wildlife in Rajasthan


Best Food in Udaipur
चित्तौड़गढ़ में डिनर

Jaipur to Indore Road Travel
इंदौर में चौरसिया जी के साथ...

Chittaurgarh to Indore Road Trip




Indore Best Hotel
इंदौर में बहुत सारे मित्रों से मिलना हुआ... इनमें से केवल सुमित को पहचान पा रहा हूँ... शायद मैं भी खड़ा हूँ...

Indore Food Trip
सारे भारत का जायका एक तरफ और इंदौर का जायका एक तरफ...

Best Doctor in Indore
छोटा सुमित...








1. चलो कोंकण: दिल्ली से इंदौर
2. चलो कोंकण: इंदौर से नासिक
3. त्रयंबकेश्वर यात्रा और नासिक से मुंबई
4. मालशेज घाट - पश्चिमी घाट की असली खूबसूरती
5. भीमाशंकर: मंजिल नहीं, रास्ता है खूबसूरत
6. भीमाशंकर से माणगाँव
7. जंजीरा किले के आसपास की खूबसूरती
8. दिवेआगर बीच: खूबसूरत, लेकिन गुमनाम
9. कोंकण में एक गुमनाम बीच पर अलौकिक सूर्यास्त
10. श्रीवर्धन बीच और हरिहरेश्वर बीच
11. महाबलेश्वर यात्रा
12. कास पठार... महाराष्ट्र में ‘फूलों की घाटी’
13. सतारा से गोवा का सफर वाया रत्‍नागिरी
14. गोवा में दो दिन - ओल्ड गोवा और कलंगूट, बागा बीच
15. गोवा में दो दिन - जंगल और पहाड़ों वाला गोवा
16. गोवा में दो दिन - पलोलम बीच




Comments

  1. Good. We are going to GOA with you. Hurrey.

    ReplyDelete
  2. अपराध बोध तो मुझे हो रहा था...
    तीज के जागरण के कारण तुम्हारे सोने की व्यवस्था ठीक से कर नही पाया...
    खैर...

    ReplyDelete
  3. सभी फोटोज मे छोटे सुमित का पोज बहुत ही सुंदर हैं।

    ReplyDelete
  4. अति सुंदर लेख शब्दो को पढ़ते हुए मानो खुद ही मैं भी आपके साथ यात्रा कर रहा हूँ।। कभी हमसे भी मिलिए गुरुजी।।

    ReplyDelete
  5. किसी भी मोटरसाइकिल पर तीन से कम श्रद्धालु नहीं थे। ये वाक्य पढ़कर तो मजे आ गयी :D

    ReplyDelete
  6. फेसबुक पर एक्टिव रहने वाले विधान जी के मोहभंग पर चार लाइन ही लिख देते।

    ReplyDelete
  7. लेख पढ़ कर आनंद आ गया। सर्राफा में जोशी जी का दही-वड़ा खाया कि नहीं ?

    ReplyDelete
  8. Neeraj Bhai...Mandsaur hote hue nikal gaye...yahan bhi ruk sakte the na...aapke ek chahane wale ka chota sa ghar bhi hai yaha...aur world famous bhagawan Pashupatinath ji ki Ashtmukhi murti bhi hai...agli baar jab bhi aao...please ek bar khabar jarur dena....

    ReplyDelete
  9. बाइक पर रात की यात्रा साहस का काम है.. बेहरीन संस्मरण! wideangleoflife.com

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब