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सतारा से गोवा का सफर वाया रत्‍नागिरी

Mumbai to Goa Travel Guide

22 सितंबर 2018
वैसे तो सतारा से कोल्हापुर और बेलगाम होते हुए गोवा लाभग 350 किलोमीटर दूर है, लेकिन हम यहाँ नए-नए रास्तों पर घूमने आए थे। समय की हमारे पास कोई पाबंदी नहीं थी। अभी भी कई दिनों की छुट्टियाँ बाकी थीं और हमारे सामने जो भी कुछ था, वह सब नया ही था। हम कभी भी इस क्षेत्र में नहीं आए थे। इसलिए चार-लेन की सड़क से कोल्हापुर होते हुए जाना रद्द करके रत्‍नागिरी और सिंधुदुर्ग होते हुए जाना तय किया।
हम इतने दिनों से दो-लेन और सिंगल लेन की सड़कों पर घूम रहे थे। आज बड़े दिनों बाद चार-लेन की सड़क मिली। यह एन.एच. 48 था जो मुंबई-चेन्नई हाइवे भी कहा जाता है। यह भारत के सबसे शानदार हाइवे में से एक है। सतारा से कराड़ तक ही हमें इस पर चलना था और फिर रत्नागिरी की ओर मुड़ जाना था।





दक्षिण भारत के चार-लेन वाले राष्ट्रीय राजमार्गों की बात ही कुछ और है। बड़ी तारीफ सुनी थी इनकी। आज मोटरसाइकिल चलाते हुए गर्व का एहसास भी हो रहा था। कहीं पढ़ा था कि 24 घंटे में सबसे लंबी दूरी तक मोटरसाइकिल चलाने का रिकार्ड इसी सड़क पर बनाया गया था, तब से इस सड़क पर मोटरसाइकिल चलाने की इच्छा थी। मुझे कोई रिकार्ड नहीं बनाना था, लेकिन इस सड़क पर मोटरसाइकिल चलानी थी। आज हालाँकि इस सड़क पर 50 किलोमीटर ही मोटरसाइकिल चलाई, लेकिन मजा आ गया। अब इस पर मुंबई से चेन्नई तक मोटरसाइकिल चलाने की इच्छा है।
तो कराड़ से आगे एक मोड़ से दाहिने मुड़ गए और जल्दी ही हम छोटी-छोटी पहाड़ियों में थे। चारों ओर पवनचक्कियों का साम्राज्य था और हरियाली का भी। और सबसे ज्यादा गणपति का। कल गणेश विसर्जन है और आज की शाम प्रत्येक गाँव में लोग नाचते-गाते और झूमते मिले। हम प्रत्यक्ष तौर पर भले ही इस उल्लास में शामिल नहीं थे, लेकिन परोक्ष रूप से शामिल थे।
मलकापुर में हमें कोल्हापुर-रत्‍नागिरी सड़क मिल गई। अंधेरा हो चुका था। रात के आठ बजे होंगे। रत्‍नागिरी अभी भी लगभग 100 किलोमीटर था। इसका मतलब यह हुआ कि रात के ग्यारह बजे तक रत्नागिरी पहुँचेंगे। हम पहुँच भी जाते, अगर सड़क अच्छी होती। गूगल मैप में लाइव ट्रैफिक देखा तो आगे स्लो ट्रैफिक दिखा। इसका अर्थ है कि आगे सड़क खराब है। मलकापुर से निकलते ही खराब सड़क मिल गई और अब हमारा मन रुकने का होने लगा। लेकिन इस घाट क्षेत्र में किसी होटल के होने के बारे में संदेह था। और जैसे ही यह संदेह पुख्ता हुआ, वैसे ही एक पेट्रोल पंप दिखाई पड़ा और उसके एकदम बगल में आलीशान होटल। 700 रुपये का कमरा एक बार कहते ही 500 का मिल गया, क्योंकि पर्यटन मानचित्र से दूर इस स्थान पर शायद ही कोई पर्यटक आता हो। होटल वाकई आलीशान था और इसके मालिक कुछ ही देर में इसे बंद करके अपने गाँव जाने वाले थे, कल गणपति विसर्जन के लिए। अब हमारे आ जाने से वे आज यहीं रुकेंगे और कल अपने गाँव जाएँगे।
जितना शानदार यह होटल था, उतने ही शानदार इसके मालिक थे। मालकिन ने खुद हमारे लिए भोजन बनाया और वाकई स्वादिष्ट भोजन था। यह पूछने पर कि यहाँ कितने पर्यटक आते हैं, उन्होंने बताया कि वीकेंड पर अच्छी संख्या में पर्यटक आते हैं और कई बार तो यह हाउसफुल हो जाता है।
“लेकिन आज भी तो वीकेंड है, शनिवार है।”
“गणपति के कारण सब अपने घरों में हैं।”
और इन्होंने हमें सोलकढ़ी चखने को दी। जिंदगी में पहली बार सोलकढ़ी चखी। यह कोकम और नारियल-पानी से बनती है और बेहद स्वादिष्ट होती है। कोकम पश्चिमी घाट के जंगलों में एक फल होता है, जिसके बारे में मुझे ज्यादा नहीं पता। इन्होंने बताया कि यह कोंकण की पहचान है।
“पूरे कोंकण में आपको सोलकढ़ी मिलेगी। इसका कोई साइड इफेक्ट नहीं है। पेट के लिए अच्छी भी होती है।”











जय वडापाव... जय महाराष्ट्र...



23 सितंबर 2018
सुबह उठे तो खिड़की से बाहर देखते ही दिल खुश हो गया। हम तो पहाड़ों की गोद में थे। रात जब यहाँ आए थे तो पता ही नहीं चला था। यहाँ तो आराम से बैठकर पूरा दिन बिताया जा सकता है।
लेकिन हम बैठना नहीं चाहते थे। मोटरसाइकिल स्टार्ट की और रत्‍नागिरी की ओर चल दिए।
आपको हमने बताया था कि पश्चिमी घाट के पर्वतों और अरब सागर के बीच में एक मैदानी पट्टी है, जिसे समुद्रतटीय मैदान कहा जाता है और समूचा कोंकण इसी क्षेत्र में स्थित है। पश्चिमी घाट के पहाड़ एकदम सीधे खड़े हैं और बीच-बीच में कई स्थानों पर सड़कें भी बनी हैं। सड़क को कोंकण से पहाड़ों पर चढ़ने के लिए हमेशा तेज चढ़ाई का सामना करना पड़ता है। इसी तेज चढ़ाई वाले भाग को ‘घाट’ कहा जाता है। यह अंबा घाट था। बेहद दर्शनीय स्थान है यह। बार-बार रुकने और फोटो खींचने को मन करता है।
जगह-जगह लिखा मिलता - “नागमोडी वलण” यानी सर्पाकार मोड। “वाहने सावकाश हाका” यानी गाड़ी धीरे-धीरे चलाओ। मैं मराठी में लिखे ऐसे वाक्यों में संस्कृत ढूँढता रहता। सुना था कि दक्षिण की भाषाओं में संस्कृत का खूब प्रयोग होता है, लेकिन हम दक्षिण की भाषाएँ सीखना नहीं चाहते। कामचलाऊ भी नहीं सीखना चाहते। जबकि सभी भाषाएँ ‘फोनेटिक’ हैं और आराम से सीखी जा सकती हैं। कम से कम पढ़ी तो जा ही सकती हैं। पता नहीं मराठी को आप दक्षिण की भाषा मानेंगे या नहीं, लेकिन मैं फिलहाल इसे दक्षिण की भाषा मान रहा हूँ। थोड़ी ही दूर कर्नाटक है। यहाँ की भाषा में और बेलगाम की भाषा में कोई ज्यादा अंतर नहीं होना चाहिए।
अच्छा हाँ, मराठी भले ही देवनागरी में लिखी जाती हो, लेकिन इसमें दो अक्षर ऐसे हैं, जो हिंदी में प्रयुक्त नहीं होते। एक तो ‘ळ’ और दूसरा आधा र। ‘आधे र’ का एक प्रयोग यह देखिए - करणार्‍या। इसमें ‘या’ से एकदम पहले ‘आधा र’ लगा है। इसका शुद्ध उच्चारण मुझे नहीं पता, क्योंकि यह अक्षर देवनागरी में मराठी को छोड़कर किसी भी अन्य भाषा में प्रयुक्त नहीं होता। और मैंने इसे हमेशा आधा ही लगा देखा है। कभी भी पूरा लगा नहीं देखा। और ळ हिंदी में बोला तो खूब जाता है, लेकिन कभी लिखा नहीं जाता। इसका उच्चारण ल से मिलता-जुलता है।

तो ये ही चीजें यात्राओं को रोचक बनाती हैं। हम हर जगह मराठी पढ़ते चल रहे थे। चलते-चलते घाट उतर गए और अब हम कोंकण में थे।


रत्‍नागिरी क्यों जाना था, यह हम नहीं जानते थे। अगर अब गोवा जाने का विचार बन जाता तो हम राजापुर की ओर मुड़ जाते, लेकिन सीधे रत्‍नागिरी की ओर ही चलते रहे और समुद्र किनारे पहुँच गए। दोपहर हो चुकी थी और तेज धूप थी, तेज गर्मी भी। रत्‍नागिरी घूमने की इच्छा नहीं हुई और काजली नदी का पुल पार करके दक्षिण की ओर चलने लगे। इरादा था आज मालवन रुकने का, जो अब यहाँ से 150 किलोमीटर दूर था।
अब हम फिर से गोवा जाने वाले समुद्रतटीय रास्ते पर थे। यह समुद्र से एकदम लगकर चलता है। आपका कभी मौका लगे तो मुंबई से गोवा इसी समुद्रतटीय रास्ते से जाना। कई नदियाँ आपको समुद्र में मिलती मिलेंगी। और सब की सब इतने शानदार तरीके से समुद्र से मिलती हैं कि क्या कहने! इसी तरह की एक नदी है मुचकुंदी नदी। इसे तो दूर से देखते ही मोटरसाइकिल रुक गई। हमसे ज्यादा नजारे इसे देखने होते हैं। नदी के बीच में एक दरगाह है और दोनों ओर मैंग्रूव हैं। नारियल के पेड़ों का झुरमुट और छोटा-सा गाँव। मछुआरों की नावें। यह लोकेशन हमें इतनी पसंद आई कि अपनी नई किताब ‘घुमक्कड़ी जिंदाबाद’ के कवर पेज की दौड़ में इस पुल का फोटो भी शामिल था।




मुचकुंदी नदी के बीच में बनी एक मजार







गावखेड़ी बीच पर

गावखेड़ी बीच पर





मैंग्रूव का जंगल


देवगढ़

भूख लगने लगी थी और हम देवगढ़ में थे। यह काफी बड़ा कस्बा है, लेकिन आज पूरा बाजार बंद था। बसें खाली चल रही थीं। ध्यान आया कि आज तो गणपति विसर्जन है। यह तो पता था कि महाराष्ट्र का सबसे बड़ा त्यौहार गणपति ही होता है, लेकिन यह इतना बड़ा है कि पूरा शहर सुनसान पड़ा हो, यह आज पहली बार पता चला। बस अड्डे के पास फलों की एक दुकान खुली थी, लेकिन फलों से हमारा काम नहीं चलने वाला था। हम आगे देवगढ़ किले तक घूम आए, लेकिन कुछ नहीं मिला। अब फलों की उस दुकान से दो-चार किलो सेब लेने के अलावा कोई चारा नहीं था।
लेकिन गणपति तो सबके भगवान हैं। हमारे भी भगवान हैं। हम भले ही उनकी पूजा न कर रहे हों, लेकिन उन्हें हमारा ध्यान था। जिस समय हम सेब खरीद रहे थे, ठीक उसी समय एक रेस्टोरेंट का दरवाजा खुला और हमारे विनती करने पर वे भोजन बनाने को तैयार हो गए। और भोजन के साथ गिलास भर-भरकर सोलकढ़ी भी पीने को मिली।


देवगढ़ से निकलते ही एक नदी पार की और हमेशा ही तरह पुल पर मोटरसाइकिल रुक गई और कभी इधर देखती, कभी उधर देखती। हमने भी इधर-उधर देखा, तो समझ आया कि मोटरसाइकिल क्यों रुकी है। यह हमेशा ही खूबसूरत स्थानों पर रुकती है और इस समय हम कोंकण के सबसे खूबसूरत स्थानों में से एक पर खड़े थे। यहाँ नदी एक तेज घुमाव लेकर समुद्र में समा जाती है और अपने पीछे छोड़ देती है खूब सारी रेत। सफेद रेत। सफेद रेत का यह किनारा नदी के अंदर से ही शुरू होकर समुद्र के साथ-साथ बहुत दूर तक चला गया है। गूगल मैप में इसका नाम मिठमुंबरी बीच लिखा है।
सड़क इस बीच के एकदम किनारे से होकर चलती है। यहाँ थोड़ी दूरी तक सड़क कच्ची थी, इससे लग रहा था कि ज्वार के समय पानी यहाँ तक आ जाता होगा। अगर ज्वार के समय नहीं आता होगा, तो कभी न कभी तो आता ही होगा। गूगल मैप ने तो हमें इस रास्ते से आने का सुझाव दिया ही नहीं था। सैटेलाइट व्यू में यह पुल दिख गया, तो हम आ गए, अन्यथा यहाँ से कभी न आते।
इस बीच के बारे में क्या लिखूँ, समझ नहीं आ रहा। सफेद रेत का शानदार बीच और हमारे अलावा केवल एक आदमी। वह बीच पर आई मछलियाँ उठाकर इकट्ठी कर रहा था। या तो बीच की सफाई कर रहा था, या फिर बेचने के लिए इन्हें उठा रहा था।

मुझ हिमालय प्रेमी को, पहाड़ प्रेमी को बीच कभी अच्छे नहीं लगे। सभी बीच एक-जैसे ही लगते हैं। सोचता था पता नहीं लोगों को समुद्री बीचों पर क्या स्वाद आता है। मरे जाते हैं लोग बीचों को देखकर। तेज जलाती चिलचिलाती धूप में नंगे होकर पड़े रहते हैं। किस ग्रह के प्राणी होते हैं वे लोग, जिन्हें बीच पसंद है।
लेकिन आज इस बीच पर आकर मुझे भी इनसे इश्क हो गया। मैं आसानी से इस बीच के फोटो को किसी विदेशी बीच का फोटो बताकर प्रचारित कर सकता हूँ और आपके पास मुझे गलत ठहराने का कोई कारण नहीं होगा। आप आसानी से आहें भरते हुए कहने लगेंगे कि ऐसी जगहें भारत में क्यों नहीं हैं; इतने सुंदर और साफ-सुथरे बीच हमारे देश में क्यों नहीं हैं। लेकिन अगर आपसे कहूँ कि यह स्थान भारत में ही है, तो आप शायद ही यहाँ जाएँ। क्योंकि गोवा नजदीक है और महाराष्ट के इन बीचों का सारा ‘पर्यटन’ गोवा लूट ले जाता है।







जिंदा केकड़ा

और मरी हुई मछलियाँ











इसके बाद रास्ता कुछ देर के लिए समुद्र से दूर हो गया और अब हमारा सामना हुआ गणपति विसर्जन करते ग्रामीणों से। जो भी नदियाँ रास्ते में पड़ीं, सभी में विसर्जन चल रहा था। माहौल पूरी तरह उत्सवमय था और सभी गाँव सड़कों पर थे। इससे हमारी मालवन पहुँचकर सूर्यास्त देखने की इच्छा पर ग्रहण तो लगने लगा, लेकिन हम भी इसी रंग में रंगे हुए थे। हरेक गाँव में हम भी रुकते और नाचते-झूमते ग्रामीणों की खुशी में हम भी खो जाते। और जहाँ प्रसाद बँटता दिखता, वहाँ तो जरूर ही रुकते।








मालवन से कुछ पहले तालाशिल बीच है। मालवन तक जाने में तो अंधेरा होना निश्चित है, इसलिए तालाशिल की ओर मुड़ लिए। लेकिन यह हमारी उम्मीदों के मुकाबले कुछ दूर था और जब तक समुद्र किनारे पहुँचे, तब तक सूरज जी महाराज डूब चुके थे। वापस मुड़े और मालवन की ओर चल दिए।

रात आठ बजे जब मालवन में खड़े थे और चारों तरफ दीपावली जैसा माहौल था; पटाखे छूट रहे थे; लोग पैदल घूम रहे थे; पुलिसवाले अपनी ड्यूटी कर रहे थे और ट्रैफिक लगभग शून्य था; तब मन में आया कि आज गोवा ही चलते हैं। हमें एयरपोर्ट के पास एक जानकार के यहाँ रुकना था और गोवा एयरपोर्ट यहाँ से लगभग 125 किलोमीटर दूर था। गूगल मैप का लाइव ट्रैफिक बता रहा था कि पूरी सड़क पर ट्रैफिक बहुत अच्छा चल रहा है, यानी सड़क अच्छी है और टूटी-फूटी नहीं है। तो उन जानकार को बता दिया कि हम रात बारह बजे तक गोवा पहुँच जाएँगे। उन्होंने अपने घर की लोकेशन भेज दी थी और अगर उन्होंने सही लोकेशन भेजी है, तो हम उन्हें बिना बताए और बिना कोई फोन किए उनके घर की डोरबेल बजा सकते थे।

यहाँ से गोवा जाने के दो रास्ते हैं - एक तो समुद्र के साथ-साथ और दूसरा समुद्र से दूर मुंबई-गोवा राजमार्ग। अगर दिन होता और हमें कहीं पहुँचने की जल्दी न होती तो हम समुद्र के साथ-साथ ही जाते, लेकिन अब हमने मुंबई-गोवा राजमार्ग चुना। कुडाल में काफी ट्रैफिक था। लेकिन इसके बाद गोवा बॉर्डर तक शानदार फोर-लेन की सड़क मिली।


ठीक ग्यारह बजे हमने एक सूचना-पट्ट देखा, जिस पर लिखा था - “आभारी आहोत, महाराष्ट्र राज्य हद्द समाप्त”। और इसके बगल में दूसरा सूचना-पट्ट था - “स्वच्छ भारत अभियान, वेलकम टू गोवा”।

और ठीक बारह बजे हम एक सुनसान कालोनी में खड़े थे, दो कुत्ते हमें देखकर बेतहाशा भौंके जा रहे थे और हमारे फोन करने पर बगल वाला एक दरवाजा खुला और हम अपने उन परिचित के साथ थे।






अगला भाग: गोवा में दो दिन - ओल्ड गोवा और कलंगूट, बागा बीच


1. चलो कोंकण: दिल्ली से इंदौर
2. चलो कोंकण: इंदौर से नासिक
3. त्रयंबकेश्वर यात्रा और नासिक से मुंबई
4. मालशेज घाट - पश्चिमी घाट की असली खूबसूरती
5. भीमाशंकर: मंजिल नहीं, रास्ता है खूबसूरत
6. भीमाशंकर से माणगाँव
7. जंजीरा किले के आसपास की खूबसूरती
8. दिवेआगर बीच: खूबसूरत, लेकिन गुमनाम
9. कोंकण में एक गुमनाम बीच पर अलौकिक सूर्यास्त
10. श्रीवर्धन बीच और हरिहरेश्वर बीच
11. महाबलेश्वर यात्रा
12. कास पठार... महाराष्ट्र में ‘फूलों की घाटी’
13. सतारा से गोवा का सफर वाया रत्‍नागिरी
14. गोवा में दो दिन - ओल्ड गोवा और कलंगूट, बागा बीच
15. गोवा में दो दिन - जंगल और पहाड़ों वाला गोवा
16. गोवा में दो दिन - पलोलम बीच




Comments

  1. शानदार, आभार जी।

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  2. अति उत्तम। जिंदा केकड़े को हाथ मे लेकर फ़ोटो लेना था🤣

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  3. वाह नीरज जी, वाह!!!!! बहुत ही बेहतरीन यात्रा की आपने!!! आपके कुछ ही दिन पहले मै आंबा घाट- राजापूर- देवगढ़ ही साईकिल पर गया था! बहुत सुन्दर नजारे थे वहाँ!! (http://niranjan-vichar.blogspot.com/2018/10/blog-post_26.html) आपका घूमना, फोटो और विवरण सब बिल्कुल शानदार!

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

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ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

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