जो भी स्थान किसी न किसी प्रकार फूलों के खिलने से संबंधित होते हैं, वहाँ आपको उसी समय जाना चाहिए, जब फूल खिले हों। अगर आप अप्रैल के अलावा किसी अन्य महीने में हिमालय में जाकर बुराँश खिलते देखना चाहते हैं या अगस्त के अलावा फूलों की घाटी जाना चाहते हैं या मार्च के अलावा ट्यूलिप गार्डन देखना चाहते हैं, तो आपको निराशा ही हाथ लगेगी। फूल आपकी प्रतीक्षा नहीं करते कि आप आएँगे, तो वे खिलेंगे।
तो जिस दिन हमें पता चला कि महाराष्ट्र में भी एक फूलों की घाटी है, तो मैंने सबसे पहले यही पता लगाया था कि वे फूल कब खिलते हैं। आराम से पता चल गया कि सितंबर में खिलते हैं। बस, तभी योजना बन गई थी।
आज जब हम कास पठार के इतने नजदीक थे और सितंबर का महीना भी था, तो कास न जाना बेवकूफी ही होती। महाबलेश्वर से इसकी दूरी लगभग 40 किलोमीटर है और सतारा से 25 किलोमीटर। महाबलेश्वर-सतारा मार्ग पर स्थित मेढा गाँव में वेरणा नदी पार करके ऊपर चढ़ने लगे तो आनंद आ गया। मेढा से थोड़ा आगे वेरणा नदी पर कन्हेर डैम बना है। मानसून का समय और चारों ओर जबरदस्त हरियाली।
कास पठार लगभग 1250 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इसके आसपास इससे ऊँचा कुछ भी नहीं है, इसलिए तेज हवाएँ चलती हैं। आसपास बहुत सारी पवनचक्कियाँ भी हैं। पवनचक्कियों के होने का अर्थ है कि यहाँ सालभर ऐसी ही हवाएँ चलती होंगी।
सबसे पहले हमें कास झील मिली। छोटी-सी झील है और आजकल इसके सौंदर्यीकरण का काम चल रहा था। लेकिन यहाँ मौजूद सैलानियों की संख्या देखकर हम दंग रह गए। फिर याद आया कि आज शनिवार है। वीकेंड हो और मुंबई-पुणे के पास एक ऐसा स्थान हो, जो केवल इसी वीकेंड में ‘फुल ब्लूम’ पर रहेगा, तो भला क्यों भीड़ न होती?
हम भी धीरे-धीरे चलते हुए और ऊपर चलते गए और वास्तविक पठार में पहुँच गए। पहली नजर में ही हम दोनों को इस स्थान से प्यार हो गया। हम यहीं रुककर बहुत सारा समय व्यतीत करना चाहते थे, लेकिन हमें रुकने नहीं दिया गया। वास्तविक पठार पर दो किलोमीटर में आजकल वीकेंड में इतनी भीड़ हो जाती है कि किसी भी गाड़ी को रुकने की अनुमति नहीं है। ‘पार्किंग आधा किलोमीटर आगे है’ सुनते-सुनते हम दो किलोमीटर आगे आ गए। पार्किंग में बाइक खड़ी की। यहाँ से प्रशासन ने दो किलोमीटर पीछे स्थित मुख्य द्वार तक बसों की व्यवस्था कर रखी थी। हम मुख्य द्वार के आगे से ही निकलकर आए थे। बड़ी भयंकर भीड़ थी। सुनते हैं कि एंट्री के लिए ऑनलाइन टिकट भी मिलता है और एक दिन में सीमित लोगों के ही जाने की अनुमति है। द्वार पर भी लाइन लगी थी। शायद टिकट लेने वालों की ही लाइन होगी। उधर यहाँ पार्किंग में भी कम से कम आधा किलोमीटर लंबी लाइन लगी थी - बस में चढ़ने वालों की।
यह भीड़ हमारी उम्मीद से बहुत ज्यादा थी। इतनी भीड़ की उम्मीद नहीं थी। एक बार तो मन ही बदल गया। नहीं देखना कास पठार। फिर जल्द ही अक्ल आ गई - चलो, देख ही लेते हैं।
दीप्ति मोटरसाइकिल ले गई और वह झील के पास रुककर मेरी प्रतीक्षा करेगी। मैं 3 किलोमीटर तक पैदल घूमता रहूँगा और टहलते-टहलते झील तक जाऊँगा। दीप्ति के बिना अच्छा तो नहीं लग रहा था, क्योंकि इन फूलों में उसका बहुत मन लगता। वह यहाँ पैदल टहलते-टहलते बहुत खुश होती, लेकिन अलग होने का निर्णय लेना पड़ा।
सड़क पठार के बीचोंबीच से होकर गुजरती है। सड़क के दोनों ओर तारबंदी है, ताकि कोई पर्यटक फूलों में न जाए। मुख्य द्वार के अंदर भी आपको तारबंदी में ही घूमना पड़ता है। मैं नहीं गया। वन विभाग की तारीफ करनी पड़ेगी कि उन्होंने तारबंदी कर रखी है और लोगों के चलने के लिए मार्ग निर्धारित कर रखा है। अगर यह सब न होता, तो लोग पूरे पठार में अपनी मोटरसाइकिलें और कारें भगाते रहते और फूलों का नामोनिशान न बचता।
वाकई हमें घूमना नहीं आता। अगर घूमना आता तो प्रशासन को तारबंदी न करनी पड़ती। सैकड़ों कर्मचारी खड़े न करने पड़ते। ये कर्मचारी पूरे तीन किलोमीटर में चप्पे-चप्पे पर तैनात थे। कोई भी गाड़ी रुकती नहीं कि लपककर उसके पास जा पहुँचते और गाड़ी को आगे बढ़ जाना पड़ता। कोई-कोई गाड़ीवाला जिद्दी होता और अपने पुलिसवाला या कोई ‘ठसकी’ होने का हवाला देता और गाड़ी रोककर अड़ जाता। लेकिन फिर भी इन कर्मचारियों की मेहनत ही थी कि इस सिंगल सड़क पर कोई जाम नहीं लगा, अन्यथा यात्री तो जाम लगाना ही चाहते थे और जाम लग जाने के बाद दूसरे यात्रियों को और उनसे भी ज्यादा प्रशासन को कोसने की तैयारी करके आए थे।
इनसे ध्यान हटा तो चारों तरफ खिले फूलों पर चला गया। अनगिनत फूल आराम से मुस्कुरा रहे थे। हम तारबंदी के अंदर थे और फूल मुक्त थे। ऐसा लग रहा था मानों वे पिंजरे में बंद हम मनुष्यों को देखने के लिए ही खिले हों। मैं भी पिंजरे में बंद बंदर की तरह पिंजरा पकड़कर बैठ गया और फूलों की दुनिया को देखने लगा। कुछ देर देखता, कुछ देर फोटो खींच लेता। बहुत सारे दूसरे यात्री भी ऐसे ही बैठे थे। दूर-दूर तक धरती लाल, पीली, हरी और नीली हुई पड़ी थी।
तो टहलता-टहलता झील की तरफ चलता गया। रास्ते में दीप्ति बैठी मिली। उसने पठार की तारबंदी के आखिर में मोटरसाइकिल खड़ी कर दी थी और वह भी ऐसे माहौल में खुद में ही खोकर आनंद लेना जानती है।
“शनिवार-रविवार को यहाँ ऐसी ही भीड़ होती है और हमारी ड्यूटी भी शनिवार-रविवार को ही लगती है।” वन विभाग के एक कर्मचारी ने बताया।
झील के पास खाने-पीने की कई दुकानें हैं। अपना ऑल-टाइम फेवरेट वडापाव खाकर सतारा की ओर चल दिए। फिर से फूलों की दुनिया को पार किया। सतारा तक ही यह पूरा रास्ता एक संकरे रिज से होकर जाता है। यानी हम ऊपर होते हैं और हमारे दोनों ओर तीखा ढलान है और ढलानों के नीचे गाँव हैं और शहर हैं। दोनों ही ओर कई बांध भी हैं। और यह पूरा रास्ता फूलों से भरा रहता है, लेकिन यहाँ बिल्कुल भी भीड़ नहीं थी और न ही वन विभाग का कोई कर्मचारी।
तो कहानी यह है कि आप सतारा से कास पठार वाली सड़क पर यात्रा करेंगे तो इस अनुभव को जिंदगी भर नहीं भूल पाएँगे। भले ही फूल 15-20 दिन ही खिलते हों, लेकिन रास्ता तो पूरे साल खुला रहता है। इस पर 25-30 किलोमीटर जाना और वापस आना आपका पूरा दिन बना देगा।
यकीन न हो, तो नीचे फोटो देख लो...
महाबलेश्वर से कास के रास्ते में... सामने है वेरणा नदी... |
कास पठार की पार्किंग |
अब चल पड़े कास से सतारा की ओर |
सतारा शहर |
अगला भाग: सतारा से गोवा का सफर वाया रत्नागिरी
1. चलो कोंकण: दिल्ली से इंदौर
2. चलो कोंकण: इंदौर से नासिक
3. त्रयंबकेश्वर यात्रा और नासिक से मुंबई
4. मालशेज घाट - पश्चिमी घाट की असली खूबसूरती
5. भीमाशंकर: मंजिल नहीं, रास्ता है खूबसूरत
6. भीमाशंकर से माणगाँव
7. जंजीरा किले के आसपास की खूबसूरती
8. दिवेआगर बीच: खूबसूरत, लेकिन गुमनाम
9. कोंकण में एक गुमनाम बीच पर अलौकिक सूर्यास्त
10. श्रीवर्धन बीच और हरिहरेश्वर बीच
11. महाबलेश्वर यात्रा
12. कास पठार... महाराष्ट्र में ‘फूलों की घाटी’
13. सतारा से गोवा का सफर वाया रत्नागिरी
14. गोवा में दो दिन - ओल्ड गोवा और कलंगूट, बागा बीच
15. गोवा में दो दिन - जंगल और पहाड़ों वाला गोवा
16. गोवा में दो दिन - पलोलम बीच
बहुत जोरदार।
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