Skip to main content

जंजीरा किले के आसपास की खूबसूरती

All Information about Murud Janjira Fort
19 सितंबर 2018
उस दिन मुंबई में अगर प्रतीक हमें न बताता, तो हम पता नहीं आज कहाँ होते। कम से कम जंजीरा तो नहीं जाते और दिवेआगर तो कतई नहीं जाते। और न ही श्रीवर्धन जाते। आज की हमारी जो भी यात्रा होने जा रही है, वह सब प्रतीक के कहने पर ही होने जा रही है।
सबसे पहले चलते हैं जंजीरा। इंदापुर से जंजीरा की सड़क एक ग्रामीण सड़क है। कहीं अच्छी, कहीं खराब। लेकिन आसपास की छोटी-छोटी पहाड़ियाँ खराब सड़क का पता नहीं चलने दे रही थीं। हरा रंग कितने प्रकार का हो सकता है, यह आज पता चल रहा था।
रास्ते में एक नदी मिली। इस पर पुल बना था और पानी लगभग ठहरा हुआ था। यहाँ से समुद्र ज्यादा दूर नहीं था और ऊँचाई भी ज्यादा नहीं थी, इसलिए पानी लगभग ठहर गया था। ऐसी जगहों को ‘क्रीक’ भी कहते हैं। दोनों तरफ वही छोटी-छोटी पहाड़ियाँ थीं और नजारा भी वही मंत्रमुग्ध कर देने वाला था।

जंजीरा गाँव एक गुमसुम-सा गाँव है। गूगल मैप के अनुसार सड़क समाप्त हो गई थी और यहीं कहीं जंजीरा किले तक जाने के लिए जेट्टी होनी चाहिए थी, लेकिन हमें मिल नहीं रही थी। अपने घर के बाहर बैठे एक बुजुर्ग ने हमारे रुकते ही हमारी मनोदशा समझ ली और बिना कुछ बोले एक तरफ इशारा कर दिया। कुछ घरों के बीच से निकलने के बाद हम जेट्टी पर थे।
लेकिन न कोई नाव और न ही कोई यात्री। शिकंजी बेचने वाला एक ठेला था और पार्किंग का ठेकेदार भी आ गया।








“200 रुपये का टिकट लगता है।” दीप्ति टिकट काउंटर पर पता करके आई।
“तो ले लेती।”
“पूछने आई हूँ कि टिकट लूँ या न लूँ?”

कुछ देर बाद...
“लेकिन टिकट तभी मिलेगा, जब बारह यात्री इकट्ठे हो जाएँगे।” दीप्ति ने आकर बताया।
“अभी कितने यात्री हुए हैं?”
“यह तो मैंने पूछा ही नहीं।”

कुछ देर बाद...
“हम पहले ही यात्री हैं। हमारे बाद दस यात्री और आएँगे, तब किले तक जाने के लिए नाव बुक होगी।” दीप्ति ने तीसरी बार आकर बताया।
“बारह यात्री तो पूरे दिन भर में भी नहीं होंगे। और अगर हम पूरी नाव बुक करें, तो कितने पैसे लगेंगे?”
“यह तो मैंने पूछा ही नहीं।”

कुछ देर बाद...
“बारह सौ रुपये लगेंगे।”

और फाइनल यह हुआ कि हम जंजीरा किले तक नहीं जा रहे। न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी। वीकेंड होता, तो अलग बात थी। दिन के एक बजे भी यहाँ सन्नाटा पसरा था।

जंजीरा किले की कहानी यह है कि यह एक जल-दुर्ग है। अर्थात समुद्र से घिरा हुआ - एक टापू पर बना हुआ। विकीपीडिया के अनुसार ‘जंजीरा’ शब्द एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ होता है टापू। यह 17वीं शताब्दी में बनाया गया था और काफी महत्वपूर्ण किला था। फिलहाल के लिए इतना ही लिखना काफी होगा। ज्यादा लिखेंगे तो मुझे भी बहुत कुछ अंग्रेजी में पढ़ना पड़ेगा और आप तो बोर हो ही जाओगे। है ना जी?

“डीघी जाने के लिए नाव कहाँ से मिलेगी?”
“आगरदांडा से।”

इंटरनेट तो नहीं चल रहा था, लेकिन फिर भी मोबाइल ने बता दिया कि आगरदांडा कहाँ है और रास्ता कहाँ से है। कुछ ही देर में हम जेट्टी पर थे। पता चला कि पाँच मिनट पहले ही एक नाव उधर गई है। अब अगली नाव डेढ़ घंटे बाद है। हमने हिसाब-किताब लगाया कि पीछे जाकर पुल से इस क्रीक को पार करके उस तरफ जाएँ या नाव की प्रतीक्षा करें, तो नाव की प्रतीक्षा करना ज्यादा किफायती लगा।
दीप्ति ने कल माणगाँव में जो कपड़े धोए थे, वे सूख नहीं पाए थे। सभी कपड़ों को यहीं फैला दिया। धूप निकली थी, कुछ ही देर में सूख जाएँगे।
यहीं एक पेड़ के नीचे एक दुकान थी और दुकान में बन रहे थे ताजे-ताजे गर्मागरम वडापाव और चाय। यह पता चलना मुश्किल था कि वडापाव ज्यादा गरम है या चाय ज्यादा गरम है। लेकिन दोनों से ही जीभ जल रही थी और फिर भी हम वडापाव लपर-लपर खाए जा रहे थे, खाए जा रहे थे। जब तक कि डेढ़ घंटे बाद उधर से नाव न आ गई।



Way to Janjira Fort Maharashtra

Mumbai to Murud Janjira Fort by Road
जंजीरा के पास वो नदी जो यहाँ एक क्रीक भी है...

Mumbai to Murud Janjira Road
क्रीक पर बना पुल...



Konkan Tour in Monsoon










Murud Janjira Ferry Timing






रंग-बिरंगे घर और सूखने के लिए टंगी मछलियाँ...



जेट्टी पर उस तरफ जाने के लिए नाव की प्रतीक्षा










दूसरी तरफ डीघी पोर्ट है...










1. चलो कोंकण: दिल्ली से इंदौर
2. चलो कोंकण: इंदौर से नासिक
3. त्रयंबकेश्वर यात्रा और नासिक से मुंबई
4. मालशेज घाट - पश्चिमी घाट की असली खूबसूरती
5. भीमाशंकर: मंजिल नहीं, रास्ता है खूबसूरत
6. भीमाशंकर से माणगाँव
7. जंजीरा किले के आसपास की खूबसूरती
8. दिवेआगर बीच: खूबसूरत, लेकिन गुमनाम
9. कोंकण में एक गुमनाम बीच पर अलौकिक सूर्यास्त
10. श्रीवर्धन बीच और हरिहरेश्वर बीच
11. महाबलेश्वर यात्रा
12. कास पठार... महाराष्ट्र में ‘फूलों की घाटी’
13. सतारा से गोवा का सफर वाया रत्‍नागिरी
14. गोवा में दो दिन - ओल्ड गोवा और कलंगूट, बागा बीच
15. गोवा में दो दिन - जंगल और पहाड़ों वाला गोवा
16. गोवा में दो दिन - पलोलम बीच




Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

आज ब्लॉग दस साल का हो गया

साल 2003... उम्र 15 वर्ष... जून की एक शाम... मैं अखबार में अपना रोल नंबर ढूँढ़ रहा था... आज रिजल्ट स्पेशल अखबार में दसवीं का रिजल्ट आया था... उसी एक अखबार में अपना रिजल्ट देखने वालों की भारी भीड़ थी और मैं भी उस भीड़ का हिस्सा था... मैं पढ़ने में अच्छा था और फेल होने का कोई कारण नहीं था... लेकिन पिछले दो-तीन दिनों से लगने लगा था कि अगर फेल हो ही गया तो?... तो दोबारा परीक्षा में बैठने का मौका नहीं मिलेगा... घर की आर्थिक हालत ऐसी नहीं थी कि मुझे दसवीं करने का एक और मौका दिया जाता... निश्चित रूप से कहीं मजदूरी में लगा दिया जाता और फिर वही हमेशा के लिए मेरी नियति बन जाने वाली थी... जैसे ही अखबार मेरे हाथ में आया, तो पिताजी पीछे खड़े थे... मेरा रोल नंबर मुझसे अच्छी तरह उन्हें पता था और उनकी नजरें बारीक-बारीक अक्षरों में लिखे पूरे जिले के लाखों रोल नंबरों में से उस एक रोल नंबर को मुझसे पहले देख लेने में सक्षम थीं... और उस समय मैं भगवान से मना रहा था... हे भगवान! भले ही थर्ड डिवीजन दे देना, लेकिन पास कर देना... फेल होने की दशा में मुझे किस दिशा में भागना था और घर से कितने समय के लिए गायब रहना था, ...

लद्दाख बाइक यात्रा-5 (पारना-सिंथन टॉप-श्रीनगर)

10 जून 2015 सात बजे सोकर उठे। हम चाहते तो बडी आसानी से गर्म पानी उपलब्ध हो जाता लेकिन हमने नहीं चाहा। नहाने से बच गये। ताजा पानी बेहद ठण्डा था। जहां हमने टैंट लगाया था, वहां बल्ब नहीं जल रहा था। रात पुजारीजी ने बहुत कोशिश कर ली लेकिन सफल नहीं हुए। अब हमने उसे देखा। पाया कि तार बहुत पुराना हो चुका था और एक जगह हमें लगा कि वहां से टूट गया है। वहां एक जोड था और उसे पन्नी से बांधा हुआ था। उसे ठीक करने की जिम्मेदारी मैंने ली। वहीं रखे एक ड्रम पर चढकर तार ठीक किया लेकिन फिर भी बल्ब नहीं जला। बल्ब खराब है- यह सोचकर उसे भी बदला, फिर भी नहीं जला। और गौर की तो पाया कि बल्ब का होल्डर अन्दर से टूटा है। उसे उसी समय बदलना उपयुक्त नहीं लगा और बिजली मरम्मत का काम जैसा था, वैसा ही छोड दिया।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।