(मित्र अनुराग जगाधरी जी ने एक त्रुटि की तरफ ध्यान दिलाया। पिछली पोस्ट में मैंने बाइक के पहियों में हवा के प्रेशर को ‘बार’ में लिखा था जबकि यह ‘पीएसआई’ में होता है। पीएसआई यानी पौंड प्रति स्क्वायर इंच। इसे सामान्यतः पौंड भी कह देते हैं। तो बाइक के टायरों में हवा का दाब 40 बार नहीं, बल्कि 40 पौंड होता है। त्रुटि को ठीक कर दिया है। आपका बहुत बहुत धन्यवाद अनुराग जी।)
दिनांक: 16 जून 2015
दोपहर बाद तीन बजे थे जब हम लेह से मनाली रोड पर चल दिये। खारदुंगला पर अत्यधिक बर्फबारी के कारण नुब्रा घाटी में जाना सम्भव नहीं हो पाया था। उधर चांग-ला भी खारदुंगला के लगभग बराबर ही है और दोनों की प्रकृति भी एक समान है, इसलिये वहां भी उतनी ही बर्फ मिलनी चाहिये। अर्थात चांग-ला भी बन्द मिलना चाहिये, इसलिये आज उप्शी से शो-मोरीरी की तरफ चले जायेंगे। जहां अन्धेरा होने लगेगा, वहां रुक जायेंगे। कल शो-मोरीरी देखेंगे और फिर वहीं से हनले और चुशुल तथा पेंगोंग चले जायेंगे। वापसी चांग-ला के रास्ते करेंगे, तब तक तो खुल ही जायेगा। यह योजना बन गई।
अब हमने टायर में हवा चेक कराई- यह 65 पौंड मिली। यानी नोर्मल से दोगुनी। नये टायर थे, इसलिये सहन कर गये अन्यथा कभी का पंचर हो गया होता। इससे पहले हमने हवा अनन्तनाग के पास खन्नाबल में भरवाई थी। खन्नाबल काफी नीचे स्थित है। लेह ऊपर है, इसलिये खन्नाबल में भरी गई 35 पौंड की हवा लेह में 65 पौंड हो गई।
चार बजे कारू पहुंचे। भूख लगी थी। इससे 15 किलोमीटर आगे उप्शी है, वहां भी खाने का अच्छा प्रबन्ध होता है लेकिन हम खाने के लिये यहीं रुक गये। जिस ढाबे में हम रुके, उसी में दिल्ली का एक परिवार भी खाना खा रहा था। उनकी कार सामने खडी थी। कारू में अगर कोई यात्री भोजन करता मिले तो समझिये कि वह या तो पेंगोंग जा रहा है या फिर पेंगोंग से वापस आ रहा है। मैंने उनसे यही पूछा- आप पेंगोंग जा रहे हैं या वापस आ रहे हैं? बोले कि वापस आये हैं। मेरे मुंह से एकदम निकला- तो क्या चांग-ला खुला है? बोले- हां। हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। बिगडी बात बन गई, अब तो पेंगोंग ही चलेंगे।
कारू में पेट्रोल पम्प है- कारू से दो ढाई किलोमीटर लेह की तरफ। कुछ देर पहले लेह में टंकी फुल कराई थी, अब यहां फिर से करा ली। और शाम पांच बजे चांग-ला के लिये चल पडे। कारू से निकलकर चांग-ला दिख गया। आसमान में काले बादल तो थे लेकिन चांग-ला बिल्कुल साफ था। यह समय चांग-ला जैसे दर्रे को पार करने के लिये बिल्कुल भी उपयुक्त नहीं था, सूरज ढलते ही ठण्ड भयंकर रूप से बढ जाती है। लेकिन हम तीन दिन से लेह में थे और आज भी हम यहीं रात नहीं बिताना चाहते थे। फिर क्या पता रात में मौसम बिगड जाये? अभी तो चांगला खुला भी है, क्या पता सुबह खारदुंगला जैसा हाल हो जाये? आज इसे हर हाल में पार करना है।
कारू से 11-12 किलोमीटर आगे सक्ती गांव है। यहां से एक रास्ता वारी-ला होते हुए नुब्रा घाटी में जाता है और एक चांग-ला की तरफ। यहां से वारी-ला दिख रहा था। बर्फ बहुत थी वहां। निश्चित था कि वारी-ला बन्द है। अगर हम नुब्रा घाटी पहुंच गये होते तो हमारे पास पेंगोंग जाने का एकमात्र रास्ता श्योक वाला ही था। सुना है कि श्योक वाला रास्ता बेहद खतरनाक है। वो रास्ता श्योक नदी के साथ साथ है लेकिन कहीं कहीं नदी से होकर भी जाना पडता है। नदी में पानी कम हो तो जा सकते हैं लेकिन अगर थोडा सा भी पानी चढ गया तो नहीं जा सकते।
सक्ती से थोडे आगे ही बढे थे कि मेरा मोबाइल बजा। कोठारी साहब का फोन था। जाहिर था कि वे लेह पहुंच चुके थे। तो क्या खारदुंगला खुल गया? हम थोडी देर पहले ही खारदुंगला से आये हैं। जैसे वहां के हालात थे, उससे तो पक्का था कि यह आज नहीं खुलने वाला। लेकिन कोठारी साहब का फोन आने का एक ही अर्थ है कि उन्होंने खारदुंगला पार किया है।
बात हुई तो मैंने सबसे पहले यही पूछा कि आपको मेरा छोडा हुआ पत्र मिला या नहीं। बोले कि नहीं। मैंने कहा कि रिसेप्शन से ले आओ। मैंने बहुत कुछ लिखा है। पांच मिनट बाद फिर तसल्ली से बात हुई। कोठारी साहब उस दिन लेह से चलकर नुब्रा घाटी चले गये। फिर वहां से बाइक वालों के एक गैंग के साथ श्योक होते हुए पेंगोंग भी गये। यह वही श्योक है, जिसका मैंने अभी जिक्र किया है। फिर वापस आ गये। मुझे लगा कि बडे अजीब हैं कोठारी साहब। उसी रास्ते वापस लौटे, जबकि चांग-ला के रास्ते वापस आते तो कम चलना पडता। मैं अभी तक यही मानता आ रहा था कि कोठारी साहब पेंगोंगे से वापस भी श्योक, खारदुंगला के रास्ते ही आये हैं। लेकिन अभी कल-परसों पता चला कि वे चांग-ला के रास्ते वापस आये थे। हे भगवान! कोठारी साहब आज ही चांग-ला के रास्ते लौटे हैं और हम चांग-ला जा रहे हैं। आमने-सामने से निकल गये और किसी ने एक-दूसरे को देखा ही नहीं। अदभुत! कमाल हो गया! हमें मिलना ही नहीं था।
मैंने कहा कि कल चुशुल, हनले का परमिट लेकर परसों तक पेंगोंग आ जाओ। बोले कि अभी वहीं से लौटा हूं। बहुत थका हुआ हूं, कल दोबारा पेंगोंग जाना बडा मुश्किल होगा। फिर मैंने कहा कि पांग में मिलो। हालांकि उनके लिये पांग का एक दिन का रास्ता है जबकि हम पांच दिन बाद पांग पहुंचेंगे। इसलिये काफी मुश्किल है उनका चार दिन तक एक ही स्थान पर रुकना। शायद वे मनाली चलें जायें।
कोठारी साहब से बात करके जब यहां से प्रस्थान किया तो साढे पांच बज चुके थे। सूरज की गर्मी कम होने लगी थी। यहीं से चढाई भी शुरू हो जाती है। साढे छह बजे जिंगराल पहुंचे। यहां बीआरओ का कैम्प है। ठण्ड चरम पर पहुंच गई थी। मैंने कहा कि यहीं टैंट लगा लेते हैं लेकिन निशा ने हौंसला बढाया- चांग-ला के बाद ही रुकना है। चाहता तो मैं भी यही था लेकिन ठण्ड बहुत थी। आगे और भी ठण्ड होती जायेगी।
जितना आगे बढते, रास्ता उतना ही खराब होता जाता और आखिरकार बर्फ भी मिलने लगी। जब चांग-ला से चार किलोमीटर पीछे थे तो एक कार वाले ने कहा कि आज पीछे ही रुक जाओ। रास्ते में आइस जमी हुई है जिस पर बाइक फिसलेगी। सुनते ही मेरे तो होश उड गये। जल्दी ही अन्धेरा हो जायेगा और आइस में चलना बडा मुश्किल होगा। लेकिन सामने चांग-ला दिख रहा था, हम यहां तक आकर वापस नहीं लौटना चाहते थे। इसलिये उसकी सलाह को नकारना पडा।
आखिर में तो रास्ता इस कदर खराब था कि पहले गियर, हाफ क्लच में बाइक चलानी पडी। कई बार निशा को भी नीचे उतरना पडा। यहां खारदुंगला जितनी बर्फ तो नहीं थी लेकिन कीचड बहुत था। सडक पर फैला पानी जमने भी लगा था जिसका अर्थ था कि तापमान शून्य से नीचे था।
साढे सात बजे चांग-ला पहुंच गये। जिंगराल से यहां तक की दस किलोमीटर को तय करने में एक घण्टा लग गया। मोबाइल में इसकी ऊंचाई देखी- 5337 मीटर। थोडा सा उजाला अभी बाकी था लेकिन जल्द ही अन्धेरा हो जायेगा। हम चांग-ला पर नहीं रुकना चाहते थे। इसका कारण था इसकी ऊंचाई। इतनी ऊंचाई पर रात रुकने से बचना चाहिये। जितना नीचे जा सकते हैं, जायेंगे। इन चार-पांच मिनटों में जो दो-चार फोटो खींच सकते थे, खींचे और चल दिये।
ढलान पर सडक पर ठोस बर्फ थी। जहां भी ठोस बर्फ मिलती, निशा को नीचे उतार देता। ठोस बर्फ में आप ब्रेक नहीं लगा सकते। लगायेंगे भी तो कोई फायदा नहीं होगा। करीब एक किलोमीटर तक टुकडों में ठोस बर्फ मिली, फिर नहीं मिली।
आठ बजे तक तो अन्धेरा हो गया था, बाइक की हैडलाइट जलानी पड गई। एक जगह एक नाला मिला। अन्धेरे के कारण दिख तो नहीं रहा था लेकिन आवाज से ही पता चल रहा था कि पानी काफी है। ढीले पत्थर थे, निशा को नीचे उतरना पडा। मैंने जब तक इसे पार किया, मेरे जूतों में पानी भर चुका था। निशा आई तो उसके जूते भी भीग गये थे। माइनस तापमान में यह बडी ही कष्टकारी बात थी।
एक जगह बीआरओ का ठिकाना था। हम यहां रुकने की सोचने लगे लेकिन बर्फ के कारण हमें यहां टैंट लगाने की जगह नहीं मिली। हम नहीं रुके तथा और नीचे उतरने का फैसला किया। जितना नीचे उतरेंगे, उतना ही फायदा होगा।
पौने नौ बजे एक तम्बू के पास पहुंचे- स्नोलैंड रेस्टोरेण्ट, शोल्टाक (Tsoltak)। Tso लगा होने के कारण आभास हो रहा था कि यहां कोई झील है। तम्बू में कोई नहीं था। पास ही कुछ तम्बू और थे। ये याकपालकों के तम्बू थे। कुछ याक बैठे थे, कुछ टहल रहे थे। इस ‘रेस्टोरेण्ट’ के सामने ही सडक से जरा सा ऊपर थोडी सी समतल जमीन थी। हमने यही टैण्ट लगाने का फैसला किया। घुप्प अन्धेरा था हालांकि कुछ याकपालकों के एक तम्बू में रोशनी थी। भयंकर ठण्ड थी और हम जल्द से जल्द लेट जाना चाहते थे।
टैंट लगा रहे थे कि एक कुत्ता भौंकने लगा। लद्दाखी कुत्ते आमतौर पर किसी पर नहीं भौंकते लेकिन रात के समय भौंक पडते हैं। बडे हट्टे-कट्टे निर्भीक कुत्ते होते हैं ये। लेकिन इसे किसी दूसरे कुत्ते का साथ नहीं मिला या कोई और बात थी; इसकी भौंक में वो बात नहीं थी। हमें डर नहीं लगा। कुछ देर भौंका, फिर चुप हो गया।
यह स्थान चांग-ला से नौ किलोमीटर आगे है और लगभग 4980 मीटर की ऊंचाई पर है। ठण्ड में हमने किस तरह बाइक से सामान खोला, किस तरह टैंट लगाया; यह तो बताने की जरुरत ही नहीं है लेकिन जब लेटे तो जल्द ही पता चल गया कि हम रात में सो नहीं सकेंगे। जमीन गीली थी और मैट्रेस होने के बावजूद भी गर्माहट नहीं बन पा रही थी। रात में मौसम खराब हो गया और बर्फबारी भी होने लगी। टैंट के ऊपर जब बर्फ के फाहे गिरते तो आवाजों से पता चल गया कि बर्फ पड रही है। कितनी बर्फ पडी, यह तो सुबह ही पता चलेगा।
17 जून 2015
अब कैसे कहूं कि सुबह इतने बजे हमारी आंख खुली? आंख लगी ही कब थी? उजाला हुआ तो पता चल गया कि सुबह हो गई। बाहर झांके तो जी खुश हो गया। रात बर्फबारी हुई थी और उसका नतीजा अब सामने था। चप्पे-चप्पे पर बर्फ थी, यहां तक कि मोटरसाइकिल पर भी। लद्दाख की यही खासियत है कि बर्फ पडती है तो चप्पे-चप्पे पर पडती है। जमीन का कोई बर्फ-विहीन टुकडा नहीं बचता। एक दो फोटो टैंट के अन्दर से ही लिये।
उजाला हुआ तो वातावरण में गर्माहट भी आने लगी। हमें आज पेंगोंग किनारे ही रुकना था, इसलिये किसी भी तरह की जल्दबाजी नहीं थी। हम फिर लेट गये और नींद आ गई। कुछ देर बाद बारिश की आवाज सुनकर आंख खुली। बारिश हो रही थी जिसकी टैंट के अन्दर काफी आवाज आ रही थी। नौ बजे जब धूप निकली तो इतनी तेज निकली कि टैंट के अन्दर रहना मुश्किल हो गया। हम बाहर निकले लेकिन यह क्या? अब कहीं भी बर्फ नहीं थी। बारिश ने सारी बर्फ धो डाली।
हम रेस्टोरेण्ट में गये, इसमें कोई नहीं था। तभी याकपालकों के तम्बू से एक महिला आई। चाय मिल गई। आज यहां एक मादा याक ने बच्चे को जन्म दिया था। पूरी रात याक की आवाज आती रही थी। अब वो बच्चा उसके मालिकों ने खूंटे से बांध दिया था। सभी याक नीचे मैदान में चरने चले गये लेकिन वो मादा याक नहीं गई। वो चरने के लिये चलती और कुछ दूर जाकर वापस बच्चे के पास लौट आती। हमें बडी शंकालु दृष्टि से देख रही थी। अगर हम उसके बच्चे की तरफ जाने की कोशिश करते तो शायद वो हम पर टूट पडती।
चांग-ला की तरफ से गाडियां आने लगीं। इसका अर्थ था कि चांग-ला खुला था। एक गाडी हमारे पास रुक गई। वे खुश भी थे और आश्चर्यचकित भी थे कि कोई यात्री यहां टैंट लगाकर रुक भी सकता है और वो भी फैमिली के साथ। उन्होंने हमारे साथ, टैंट के साथ और मोटरसाइकिल के साथ खूब फोटो खींचे।
शोल्टाक एक काफी बडा मैदान है जिसमें याक नन्हें-नन्हें दिख रहे थे। एक किनारे पर एक छोटी सी झील भी है। इसी झील के कारण इसके नाम के पहले ‘शो’ लगा है। शो माने झील। शानदार नजारा था।
कारू में पेट पूजा |
कारू से चांग-ला की ओर |
सामने जो बर्फीले पहाडों के बीच में U जैसा आकार दिख रहा है, वो वारी-ला है। वारी-ला सक्ती और नुब्रा घाटी को जोडता है। |
सक्ती से दो रास्ते निकलते हैं- एक बायें वारी-ला, अगम होते हुए नुब्रा घाटी जाता है और दूसरा दाहिने जिंगराल, चांग-ला होते हुए पेंगोंग। |
सक्ती का तिराहा |
यहीं हमारी कोठारी साहब से बात हुई थी। हम खडे हैं चांग-ला रोड पर और सामने दिख रहा है वारी-ला। |
सामने जिंगराल है जहां बीआरओ का कैम्प है। |
धीरे-धीरे चांग-ला पास आ रहा है। |
वो रहा चांग-ला |
खराब रास्ते पर कहीं कहीं निशा को पैदल भी चलना पडता था। |
चांग-ला |
लद्दाख में हर जगह बिजली है। |
यह है चांग-ला। शाम के साढे सात बजे हम यहां थे। हमें बहुत नीचे उतरना था और हमारे पास बेहद सीमित समय के लिये सूर्य का प्रकाश था, इसलिये पांच मिनट रुके और चल दिये। |
चांग-ला से आगे |
शोल्टाक में जहां हमने टैंट लगाया, उस स्थान का जीपीएस डाटा। |
रात बर्फबारी हुई थी, जिससे यह नजारा हो गया। |
यहां हमारा टैंट लगा देखकर कुछ टूरिस्ट फोटो खींचने रुक गये। |
हमारी बाइक पता नहीं किस किस के लिये फोटो खिंचवाने के काम आई? |
यह है छोटी सी शोल्टाक झील जो इस समय जमी हुई है। |
अगला भाग: लद्दाख बाइक यात्रा-14 (चांगला-पेंगोंग)
1. लद्दाख बाइक यात्रा-1 (तैयारी)
2. लद्दाख बाइक यात्रा-2 (दिल्ली से जम्मू)
3. लद्दाख बाइक यात्रा-3 (जम्मू से बटोट)
4. लद्दाख बाइक यात्रा-4 (बटोट-डोडा-किश्तवाड-पारना)
5. लद्दाख बाइक यात्रा-5 (पारना-सिंथन टॉप-श्रीनगर)
6. लद्दाख बाइक यात्रा-6 (श्रीनगर-सोनमर्ग-जोजीला-द्रास)
7. लद्दाख बाइक यात्रा-7 (द्रास-कारगिल-बटालिक)
8. लद्दाख बाइक यात्रा-8 (बटालिक-खालसी)
9. लद्दाख बाइक यात्रा-9 (खालसी-हनुपट्टा-शिरशिरला)
10. लद्दाख बाइक यात्रा-10 (शिरशिरला-खालसी)
11. लद्दाख बाइक यात्रा-11 (खालसी-लेह)
12. लद्दाख बाइक यात्रा-12 (लेह-खारदुंगला)
13. लद्दाख बाइक यात्रा-13 (लेह-चांगला)
14. लद्दाख बाइक यात्रा-14 (चांगला-पेंगोंग)
15. लद्दाख बाइक यात्रा-15 (पेंगोंग झील- लुकुंग से मेरक)
16. लद्दाख बाइक यात्रा-16 (मेरक-चुशुल-सागा ला-लोमा)
17. लद्दाख बाइक यात्रा-17 (लोमा-हनले-लोमा-माहे)
18. लद्दाख बाइक यात्रा-18 (माहे-शो मोरीरी-शो कार)
19. लद्दाख बाइक यात्रा-19 (शो कार-डेबरिंग-पांग-सरचू-भरतपुर)
20. लद्दाख बाइक यात्रा-20 (भरतपुर-केलांग)
21. लद्दाख बाइक यात्रा-21 (केलांग-मनाली-ऊना-दिल्ली)
22. लद्दाख बाइक यात्रा का कुल खर्च
क्या याक पालक लोग हिन्दी बोल व समझ सकते है ?
ReplyDeleteहां जी, ये लोग हिन्दी बोल भी सकते हैं, समझ भी सकते हैं। इनके बच्चे हिन्दी में पढाई भी करते हैं। पूरे लद्दाख में हिन्दी बोली-समझी जाती है।
Deleteजो याक पालक होते है वो क्या मूल रूप से लद्दाखी होते है क्या आपको उनकी दिनचर्या का या रहन सहन का पता हो तो नीरज भाई उनके बारे मैं भी लिखना
ReplyDeleteहां जी, लद्दाख के याकपालक लद्दाखी ही होते हैं। लद्दाख में बहुत सारी नमभूमि है जहां नमी होने के कारण घास होती है। याकपालक और भेडपालक ऐसी ही नमभूमियों में रहते हैं।
Deleteपहाड नगें नजर आते है,
Deleteक्या नमी की कमी होती है पहाडो पर ?
पहाड नगें नजर आते है,
Deleteक्या नमी की कमी होती है पहाडो पर ?
हां जी, लद्दाख एक मरुस्थल है और यहां केवल नदी घाटियों में ही थोडा बहुत पानी मिलता है। बाकी कहीं पानी नहीं मिलता।
Deleteनीरज जी. . . आपने मना कर रखा है; नही तो पचपन हजार बार चीखता- खूबसूरत; अद्भुत; रोमांचक. . . . . इतनी अधिक और वह भी रात की ठण्ड का सामना आपने कैसे किया और दिन की गर्मी से तालमेल कैसा बिठाया यह भी आगे कहीं बताईए|
ReplyDeleteजी निरंजन साहब, इस बारे में तो वैसे साथ के साथ लिखता ही रहता हूं। आवश्यकता हुई तो आगे भी लिखूंगा।
DeleteNeeraj Bhai Rat me 0 Temp hota hoga or dine me kitnaa tha
Deleteअगर आसमान में बादल न हों तो लद्दाख में गर्मियों में दिन में तेज धूप के कारण तापमान चालीस डिग्री तक भी पहुंच जाता है लेकिन हवाएं ठण्डी होती हैं। लू नहीं चलती।
Deleteहे भगवान.... मिलना कितना पास होकर भी दूर रह गया. अपनी बात 5:18 पे हुई थी व मैं गेस्ट हाउस पर 4:15 पर पहुँचा. आप लेह से तीन बजे कारू की तरफ़ रवाना हुये व इसी समय मैं कारू से लेह की तरफ़ और आमने सामने से गुज़र गये।
ReplyDeleteमैं पेंगोंग से 8:25 पे चला था। Tsoltak के पहले से ख़राब मौसम का सामना करता रहा यह मान कर कि यह तो यहाँ की फ़िज़ा हैं। आप खारदुंगला राह से वापिस लौट रहे थे उस समय मैं Tsoltak पर मिलीटरी कैंप में मौसम सुधरने के इंतज़ार में करीबन 45 मिनिट रूका रहा।
कुछ मौसम खुलने पर एक मुंबई के बाइकर के साथ चांगला की तरफ़ रवाना हुआ. बस यहाँ सड़क पर बर्फ सख़्त नहीं हुई थी व पहियों की बर्फ पर बनी पगडंडी पर चलाता रहा। एक जगह फिसला भी ओर बाईक मेरे पैरा पर. पड़ा रहा इस आस में कि साथ वाला मुम्बई बाईकर पीछे से आकर उठाये. चांगला के आसपास जाम मिला क्योंकि यह वो समय था जब लेह व पेंगोंग की तरफ़ से आने जाने वाले क्रास हो रहे थे व स्नो फ़ॉल के कारण मार्ग भी संकरा हो गया था. जेसीबी काम पर लगी हुई थी. इसके साथ ही जाम से निजात दिलाने में स्थानीय टेक्सी चालकों की तत्परता उल्लेखनीय थी।
सर जी, अलग होने के बाद कितनी बार हम इतना नजदीक आकर भी नहीं मिल सके। आपके साथ लद्दाख यात्रा नहीं बदी थी। फिर भी आपने अकेले यह यात्रा पूरी की, नमन है आपको।
DeleteKothari Sahab fir aap Leh me aakar Manali chale gaye kya ?
Deleteहां जी, फिर कोठारी साहब मनाली चले गये थे।
DeleteChushul, Hanle , Tso moriri nahi gaye .......
Deleteनहीं।
Deleteछठा फोटो मे सामने जो हरियाली दिख रही है वो कोई गाॅव है क्या ?
ReplyDeleteहां कपिल जी, यह सक्ती गांव है जहां से वारी-ला और चांग-ला के रास्ते अलग होते हैं। सातवें फोटो में भी सक्ती की ही हरियाली है, जब हम चांग-ला की तरफ अग्रसर थे।
Deleteधन्यवाद ।
Deleteहे भगवान! हे भगवान! कोठारी साहब आज ही चांग-ला के रास्ते लौटे हैं और हम चांग-ला जा रहे हैं। आमने-सामने से निकल गये और किसी ने एक-दूसरे को देखा ही नहीं। अदभुत! कमाल हो गया! हमें मिलना ही नहीं था। आज ही चांग-ला के रास्ते लौटे हैं और हम चांग-ला जा रहे हैं। आमने-सामने से निकल गये और किसी ने एक-दूसरे को देखा ही नहीं। अदभुत! कमाल हो गया! हमें मिलना ही नहीं था।
ReplyDelete----------- में होता तो साथ-साथ आने के लिए कुछ ना कुछ जरुर करता ... श्रीनगर - लेह रास्ते में जगह - जगह पर जो पोस्ट है वहॉ गाडी के नंबर नही लिखते क्या ? मेरे ख्याल से लिखते होगे.. बाकी मुछे बहुत कष्ट होता ... में कोठारी साहब ke जगह होता तो ...
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लेकीन में जानता हू.. हिमालयीन वादियाँ.. पे कुछ भी हो सहुकता है ... 2014 में पिछले साल अमरनाथ यात्रा जाने के लिए हम 6 लोग थे .. उनमे 1 को हेलीकॉपटर से जाना था .. बिछडना होगा इस लिए मैने ६ लोगों का तिकीट बुक किया ... साथ-साथ नही हो रहा था ... मै तिकिट कॅन्सल करता रहा ... तब तक यह सिलसिला चलता रहा .. जब तक तिकिट एक ही समय के निकले नही ........ जब यात्रा शुरु कियी ... तब सब के वेट एक नही थे इस वजह से मै और मेरा भाई का साथ में हेलीकॉपटर उडा.. और बाकी लोगो का बाद में था .. व ह हेलीकॉपटर में बैठे थे ... ह मा रा हेलीकॉपटर पंचतरणी पहूचा ... बर्फबा री के वजह से उनका हेलीकॉपटर कॅन्सल हुआ वह दुसरे दिन सुबह आये ... यह है हिमालयीन वादियाँ.
श्रीनगर से लेह के बीच में कहीं भी बाइकों के नम्बर रिकार्ड नहीं होते। द्रास से पहले एक जगह अन्य गाडियों के नबर अवश्य रिकार्ड होते हैं। मिलने की हमने भी भरपूर कोशिश की। उस दिन न हमें पता था, न कोठारी साहब को कि हम सभी खालसी में ही रुके हैं। ज्यादा बडा नहीं है खालसी। आज जब हमारी और कोठारी साहब की बात हुई, हम उनसे केवल एक घण्टा ही दूर थे। सक्ती से एक घण्टे में लेह पहुंचा जा सकता है। लेकिन चूंकि कोठारी साहब पेंगोंग देखकर आ चुके थे और अगले ही दिन दोबारा उसी रास्ते वे पेंगोंग नहीं जाने वाले थे और हमें पेंगोंग जाना जरूरी था, इसलिये हम वापस लेह नहीं गये। अन्यथा आज ही मिल लेते। हमें भी तसल्ली हो गई थी कि कोठारी साहब अकेले नुब्रा और पेंगोंग देखकर आ चुके हैं, अब उन्हें कोई समस्या नहीं आयेगी इसलिये हम भी उनकी तरफ से बेफिक्र हो गये थे।
DeleteNeeraj bhai Agar Khardungla clear hota to aap Diskit ,hunder , Nubra vally Jate ....uske liye permit ki jarurat he?
ReplyDeleteaap Tso me us rat bhuke hi so gaye kya ?
अगर हम खारदुंगला पार कर जाते तो हम नुब्रा घाटी अवश्य जाते। उधर दिस्कित, हुण्डर, पनामिक और तुरतुक तक जाने के लिये कोई परमिट नहीं लगता।
Deleteनहीं, भूखे नहीं सोये। हमारे पास हमेशा इतना खाना अवश्य होता है कि एक दिन का काम आराम से चल जाये। बिस्कुट, नमकीन और कोल्ड ड्रिंक हम हमेशा अपने साथ रखते थे।
Thnk u Bhai
Deleteक्या आप गाव वालो से बात चीत किए है ?
ReplyDeleteवे लोग घुम्मकडो के साथ कैसा व्यवहार करते है ।
यदि कोई गाव मे रहना चाहे तो एक दो दिन के लिए घर मिल सकता है ।
लद्दाख में दो तरह के ठिकाने होते हैं- एक तो स्थायी गांव और दूसरे अस्थायी तम्बू। याकपालक और भेडपालक अस्थायी तम्बुओं में रहते हैं और अपने ठिकाने बदलते रहते हैं। ज्यादातर स्थायी गांवों में आपको होमस्टे मिलेंगे। ये लोग यात्रियों के साथ बहुत अच्छा व्यवहार करते हैं। आपने इन अस्थायी तम्बुओं वाले के रेस्टॉरेण्ट के साइन बोर्ड का फोटो देखा जिसपर लिखा है कि याक, बकरी (यहां भेड) का दूध और याक राइडिंग यहां उपलब्ध है। इसका क्या अर्थ है, आप स्वयं समझ सकते हैं।
Delete17 जून को ।
ReplyDeleteआप लिखे है कि आप रेस्टोरन्ट मे गए वहा कोई नही था तभी याक पालको के तम्बू से कोई आई और चाय मिल गया ।
इसे थोडा विस्तार से बताए ।
क्योकि मेरे जैसे आपके कई पाठक है जो ये जानना चाहते है कि उन लोगो की मानसिकता कैसी है ।आपके साथ वो किस प्रकार व्यवहार की। जैसे कि वो आपका मनःस्थिति को समझने की कोशिश की ।इत्यादि ।
वह याकपालकों का तम्बू था। ये लोग अस्थायी तम्बुओं में रहते हैं और ठिकाने बदलते रहते हैं। अक्सर सडक से थोडा हटकर अपने तम्बू लगाते हैं। लेकिन यहां उन्होंने एक तम्बू सडक के बिल्कुल किनारे लगा दिया और लिख दिया- स्नोलैण्ड रेस्टौरेण्ट। कोई यात्री आयेगा तो समझेगा कि यहां कुछ खाने-पीने का इंतजाम है। आपको अगर खाने-पीने को चाहिये तो आपको उनके सडक से दूर तम्बुओं से उन्हें बुलाना पडेगा, आवाज लगानी पडेगी। वे आयेंगे और आपको चाय बनाकर देंगे या आमलेट देंगे; जो भी कुछ आपको चाहिये और उनके पास उपलब्ध हो। इसके बदले उन्हें कुछ आमदनी भी हो जाती है। हमने जो चाय पी, वो बीस रुपये की थी और याक के दूध की थी।
Deleteकोटी कोटी धन्यवाद ।
Deleteआगे की लेखो मे इन बातो की भी थोडी जगह दीजिएगा तो बात बन जाएगा ।
ReplyDeleteTareef karne ka aapne mana kar diya hai to ab kya kahe?
ReplyDeleteनीरज जी आपके यात्रा वृतांत की जितनी तारीफ़ की जाए कम है मन करता है कि इनको हार्ड कॉपी में सहेजकर रख लूँ और कभी लेह जाऊ तो उसको साथ ले जाऊ। एक बात समझ नहीं आई जब आपने चांगला जाने से पहले पहियों की हवा की जांच कराई जो कि हवा का दाब मापने की मशीन से ही कराई होगी तो उसने 35 की जगह 65 psi कैसे बता दिया। वास्तव में जब हम ट्यूब में हवा भरते है तो उस पर दो तरफ से हवा का दबाव होता है एक तो ट्यूब के अंदर से बाहर की और दूसरा ट्यूब के बाहर के वातावरण में उपस्थित हवा का ट्यूब के ऊपर पढ़ने वाला दबाव। दोनों तरह के दबाव में संतुलन जरुरी है। अगर ट्यूब के अंदर बाहर के दबाव के अपेक्षा कम दबाव होगा तो ट्यूब पिचक जायेगी अगर ट्यूब के अंदर बाहर के दबाव की अपेक्षा अधिक दबाव होगा तो ट्यूब फट जायेगी। मतलब दोनों तरह के दबाव के संतुलन से ही टायर ट्यूब को क्षति से बचाया जा सकता है। जैसे जैसे हम ऊंचाई पर जाते है बाह्य हवा का दबाव कम होता जाता तो जाहिर है ट्यूब के अंदर स्तिथ हवा का बाहर की और दाब बढ़ जाता है लेकिन जब हम मशीन से ट्यूब में स्तिथ हवा का दाब मापते है तो वह कैसे बदल जाएगा मशीन को तो उतना ही दाब बताना चाहिये जितना मैदानी क्षेत्र में बता रही थी क्योंकि मशीन का बाहरी हवा के दबाव से तो कोई मतलब ही नहीं होता है
ReplyDeleteमशीन का बाहरी वायुदाब से मतलब होता है विशाल जी। मशीन केवल वही वायुदाब बताती है जो उसके अन्दर जाता है। मान लीजिये अभी मशीन दिल्ली में खाली रखी है। तो मशीन के अन्दर वातावरण के दाब की ही हवा जाती है। मशीन को शून्य पर सेट कर दिया जाता है। अब यही मशीन लेह जायेगी तो वहां वायुदाब दिल्ली के मुकाबले कम है। इसे भी मशीन अवश्य बतायेगी। शून्य नहीं बतायेगी बल्कि शून्य से कम बतायेगी। प्रत्येक मापन यन्त्रों में त्रुटि को एडजस्ट करने का इंतजाम होता है, इस मशीन में भी होता है। लेह में यह मशीन फिर से शून्य पर सेट कर दी जाती है। अब यह जो भी दाब बतायेगी, वो लेह के वायुदाब के सापेक्ष होगा, न कि दिल्ली के।
Deleteरात मे जबरजस्त बर्फबारी और दिन मे तेज धूप और गर्मी ,क्या यहा ऐसा मौसम कभी कभी या हमेशा रहता है ।
ReplyDeleteबर्फबारी तो कभी-कभार ही होती है लेकिन रात में जबरदस्त ठण्ड और दिन में जबरदस्त गर्मी रोज ही होती है।
Deleteजीपीएस के बारे में बहुत अच्छी जानकारी दी है आपने .... कृपया एक बात बताएं .. मेरे एंड्राइड फोन का जीपीएस 3 मीटर तक की एक्यूरेसी बता देता है ... क्या यह ठीक है .... अथवा यदि मैं जीपीएस डिवाइस लेना चाहूँ तो क्या आप दो चार बेहतरीन suggest करेंगे ... 25000 तक चलेगा..... लेकिन handheld हो बस .....
ReplyDeleteसर जी, अगर आपको प्रोफेशनल कार्यों के लिये ज्यादा एक्यूरेसी की जरुरत है, सटीक ट्रेकिंग मैप बनाने हैं तब तो जीपीएस डिवाइस लेना उपयुक्त है अन्यथा नहीं। आपका एण्ड्रॉयड फोन तीन मीटर की एक्यूरेसी तक बता देता है तो बहुत अच्छा है। मोबाइल में जब हम जीपीएस इस्तेमाल करते हैं तो यह काफी बैटरी खाता है, उसके लिये आप अच्छा बैटरी बैंक ले सकते हैं।
Deleteधन्यवाद सर... मैं बैटरी बैंक ही ले लेता हूँ जिससे लम्बे समय तक फ़ोन का जीपीएस चल सके ........
ReplyDeleteइस रात की सुबह नहीं
ReplyDeleteऐसी सुनसान जगह पर निशा के साथ टेंट में सोने से डर नहीं लगता.....
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