Skip to main content

उत्तर बंगाल यात्रा - लावा से लोलेगाँव, कलिम्पोंग और दार्जिलिंग

17 फरवरी 2018
आज शाम तक हमें दार्जिलिंग पहुँचना था। यहाँ से दूरी 80 किलोमीटर है। सड़क ठीक होगी तो कुछ ही देर में पहुँच जाएँगे और अगर खराब हुई, तब भी शाम तक तो पहुँच ही जाएँगे। लेकिन लोलेगाँव देखते हुए चलेंगे।
लोलेगाँव में क्या है?
यह जरूरी नहीं कि कहीं ‘कुछ’ हो, तभी जाना चाहिए। यह स्थान लगभग 1700 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और फरवरी के महीने में इतनी ऊँचाई वाले स्थान दर्शनीय होते हैं। फिर इसके पश्चिम में ढलान है, यानी कोई ऊँची पहाड़ी या चोटी नहीं है। तो शायद कंचनजंघा भी दिखती होगी। और अब तक आप जान ही चुके हैं कि कंचनजंघा जहाँ से भी दिखती हो, वो स्थान अपने-आप ही दर्शनीय हो जाता है। फिर वहाँ ‘कुछ’ हो या न हो, आपको चले जाना चाहिए।
हमें लावा से लोलेगाँव का सीधा और छोटा रास्ता समझा दिया गया। और यह भी बता दिया गया कि मोटरसाइकिल लायक अच्छा रास्ता है।
चलने से पहले बता दूँ कि यह पूरा रास्ता जंगल का है और झाऊ के पेड़ों की भरमार है। मुझे झाऊ की पहचान नहीं थी। यह मुझे कभी चीड़ जैसा लगता, तो कभी देवदार जैसा लगता। कल फोरेस्ट वालों ने बताया कि यह झाऊ है।
और अब चीड़ भी झाऊ जैसा लगने लगा है और देवदार भी।




रास्ता ढलानदार था और सड़क पूरी तरह खराब थी। फिर भी रोमांच में कोई कमी नहीं आ रही थी। वैसे तो चलता-फिरता रास्ता है, फिर भी सन्नाटा पसरा था।
जंगल में तो मोटरसाइकिल भी हमें दुआएँ देती है। लगता है कि इसका मन भी जंगल में ही रमता है।
लावा से लोलेगाँव 25 किलोमीटर है और हमें डेढ़ घंटे लग गए। हमारा स्वागत एक कुत्ते ने किया, जो बंधा हुआ था और बेतहाशा भौंके जा रहा था। हमने इसी के पास मोटरसाइकिल रोक ली और जिस दुकान के सामने यह बंधा था, उसी में चाय पीने चले गए। हमें चाय का ऑर्डर देते देख यह चुप हो गया।
चारों ओर बादल थे, इसलिए झंडीदरा आदि स्थानों तक जाने का कोई औचित्य नहीं था। कंचनजंघा नहीं दिखने वाली थी।
और जैसे कि दूसरे अल्प-प्रसिद्ध स्थान होते हैं, वैसा ही लोलेगाँव भी था। कुछ होटल थे, एक पार्क था और एकदम खाली सड़क थी। जितनी देर चाय पीने में लगी, हम केवल उतनी ही देर रुके। हमें केवल लोलेगाँव देखना-भर था। लावा से दार्जिलिंग जा रहे हैं, समय भी काफी है तो थोड़ा चक्कर लगाकर देख लिया। न रुकने की मंशा थी और न ही कुछ करने की।
लोलेगाँव से कलिम्पोंग की सड़क ठीक बनी है। पहले ढलान है और एक नदी पार करके तेज चढ़ाई। हम एक-दो मोड़ों पर रास्ता भी भटके, लेकिन डेढ़ घंटे में कलिम्पोंग पहुँच गए।
कलिम्पोंग का बहुत नाम पढ़ा था, खासकर राहुल सांकृत्यायन के वृत्तांतों में। यह एक बड़ी व्यापारिक मंडी हुआ करती थी और सिक्किम व तिब्बत तक के व्यापारी यहाँ नियमित आया करते थे। आज यह बहुत भीड़-भाड़ वाला शहर है और यहाँ वन-वे सड़कें हैं। हालाँकि अब सिक्किम व तिब्बत जाने वाली मुख्य सड़क भी कलिम्पोंग से नहीं गुजरती।
दीप्ति कलिम्पोंग जैसे ऐतिहासिक बाजार से गुजरे और खरीदारी न करे, ऐसा होना असंभव है। हालाँकि वह भारी-भरकम खरीदारी नहीं करती, लेकिन एक-दो रुपयों का कुछ न कुछ ले जरूर लेती है।
और वन-वे होने के बावजूद भी यहाँ जाम लगा था।
नीचे तीस्ता बाजार तक ढलान ही ढलान था और सड़क अच्छी थी। ढलान काफी तेज था और फिसलने से रोकने के लिए सड़क कुछ विशेष तरह से बनाई गई थी।


ये हाल ही में प्रकाशित हुई मेरी किताब ‘मेरा पूर्वोत्तर’ के ‘लावा और नेवरा वैली नेशनल पार्क’ चैप्‍टर के कुछ अंश हैं। किताब खरीदने के लिए नीचे क्लिक करें:




लावा से लोलेगाँव जाने वाली सीधी सड़क


सड़क घने जंगल से होकर गुजरती है, इसलिए खराब होने के बावजूद भी मन लगा रहता है...


भाषा पर गौर कीजिए... देवनागरी में लिखी स्थानीय गोरखा और रोमन में लिखी अंग्रेजी...





लोलेगाँव



कलिम्पोंग

कलिम्पोंग की भीड़ भरी वन-वे सड़क

तीस्ता नदी



तीस्ता बाजार से दार्जिलिंग जाने वाली सड़क बेहद तीखी चढ़ाई चढ़ती है... इसमें इस तरह के लूप भी हैं...

फोटो एकदम सीधा है, लेकिन सड़क बहुत तेज चढ़ाई वाली है... उतराई में तो ब्रेकों से धुआँ निकलने लगता है...

रास्ते से दिखता तीस्ता के उस तरफ सिक्किम... 






तीखे ढलान वाली सड़क पर फिसलन रोकने को छोटे-छोटे पत्थर और कंकड़ चिपकाए गए हैं...



दार्जिलिंग रेलवे स्टेशन...




दार्जिलिंग रेलवे स्टेशन...







अगला भाग: दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे के साथ-साथ






1. मेघालय यात्रा - गुवाहाटी से जोवाई
2. मेघालय यात्रा - नरतियंग दुर्गा मंदिर और मोनोलिथ
3. मेघालय यात्रा - जोवाई से डौकी की सड़क और क्रांग शुरी जलप्रपात
4. मेघालय यात्रा - डौकी में पारदर्शी पानी वाली नदी में नौकाविहार
5. मेघालय यात्रा - डौकी में भारत-बांग्लादेश सीमा पर रोचक अनुभव
6. मेघालय यात्रा - डौकी-चेरापूंजी सड़क और सुदूर मेघालय के गाँव
7. मेघालय यात्रा - चेरापूंजी में नोह-का-लिकाई प्रपात और डबल रूट ब्रिज
8. मेघालय यात्रा - मॉसमाई गुफा, चेरापूंजी
9. मेघालय यात्रा - चेरापूंजी के अनजाने स्थल
10. मेघालय यात्रा - गार्डन ऑफ केव, चेरापूंजी का एक अनोखा स्थान
11. अनजाने मेघालय में - चेरापूंजी-नोंगस्टोइन-रोंगजेंग-दुधनोई यात्रा
12. उत्तर बंगाल यात्रा - बक्सा टाइगर रिजर्व में
13. उत्तर बंगाल यात्रा - तीन बीघा कोरीडोर
14. उत्तर बंगाल - लावा और रिशप की यात्रा
15. उत्तर बंगाल यात्रा - नेवरा वैली नेशनल पार्क
16. उत्तर बंगाल यात्रा - लावा से लोलेगाँव, कलिम्पोंग और दार्जिलिंग
17. दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे के साथ-साथ
18. सिलीगुड़ी से दिल्ली मोटरसाइकिल यात्रा




Comments

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब...