सभी के लिए यह मेला बहुत महत्व रखता है। लोग कार्तिक पूर्णिमा से 5-7 दिन पहले ही यहाँ आकर तंबू लगा लेते हैं और यहीं रहते हैं। गंगा के दोनों ओर 10-10 किलोमीटर तक तंबुओं का विशाल महानगर बन जाता है। जिस स्थान पर मेला लगता है, वहाँ साल के बाकी दिनों में कोई भी नहीं रहता, कोई रास्ता भी नहीं है। वहाँ मानसून में बाढ़ आती है। पानी उतरने के बाद प्रशासन मेले के लिए रास्ते बनाता है और पूरे खाली क्षेत्र को सेक्टरों में बाँटा जाता है।
यह मुख्यतः किसानों का मेला है। गन्ना कट रहा होता है, गेहूँ लगभग बोया जा चुका होता है; तो किसानों को इस मेले की बहुत प्रतीक्षा रहती है। ज्यादातर लोग सपरिवार आते हैं। बच्चों का मुंडन होता है और मृतकों की याद में दीए प्रवाहित किए जाते हैं। इसी वजह से मुझे केवल दो बार ही इस मेले में जाने का मौका मिला है - पाँच साल की उम्र में, जब मुंडन हुआ था और पच्चीस साल की उम्र में, जब माताजी की याद में दीए प्रवाहित करने थे। इन दो मौकों के अलावा मुझे कभी भी यहाँ जाने का मौका नहीं मिला। हमारे पड़ोसी महीनों पहले से उत्साहित हो जाते थे। भैंसों की खास खातिरदारी की जाती थी, उन्हें कई-कई किलोमीटर तक टहलाया और दौड़ाया जाता था, ताकि मेले में जाते समय लंबी दूरी तय करने के कारण उनके पैर अकड़ न जाएँ। ज्यादातर लोग भैंसा-बुग्गियों पर ही जाते थे। जिनके पास ट्रैक्टर थे, वे ट्रैक्टर-ट्रोलियों से जाते थे। आज भी ऐसा ही होता है।
मैं छोटा था, तो इन्हें जाते हुए देखता था और एक सप्ताह बाद आते हुए देखता था। “बोल श्री गंगा जी की जय” यह वाक्य हर किसी का तकिया कलाम बन जाता था। पूरे वीर रस के साथ ऊँची आवाज में यह जयकारा लगाया जाता था। कमाल की बात यह थी कि इस जयकारे को सुनकर भैंसों में भी वीर रस का संचार होता था। अगर गन्ने से लदी बुग्गी फँस जाती थी, तो इधर यह जयकारा लगाया जाता था और उधर बुग्गी बाहर निकल जाती थी।
तो मैं यही सब देखता-देखता बड़ा हुआ हूँ। दीपावली बीतते ही गाँव का माहौल एकदम बदल जाता था और छोटे-बड़े सभी गंगा स्नान की ही बातें किया करते थे। हमारा कभी मौका नहीं लगता था, इसलिए बातों से ही मन बहला लिया करते थे।
...
साल 2018
इस बार तय कर लिया कि गंगा मेले में जरूर चलेंगे। व्हाट्सएप ग्रुप में यह बात रखी, तो कई मित्रों ने साथ चलने को कहा। तंबुओं के इस महानगर में हर परिवार का एक तंबू होता है। कई बार एक तंबू में दो परिवार भी रह लेते हैं। अब अगर कुछ फेसबुक मित्र भी चलेंगे, तो ये पूरे एक सप्ताह तो रुकेंगे नहीं। एक दिन, हद से हद दो दिन रुकेंगे। इन दो दिनों के लिए अलग से एक तंबू की व्यवस्था करनी होगी।
तमाम सोच-विचार के बाद तय हुआ कि हम 20 और 21 नवंबर यानी दो दिन वहाँ रुकेंगे। दो तंबू लगाएँगे, जिनमें पाँच-छह परिवार एक रात रुक सकेंगे। उधर नरेंद्र के भाई-बंधु भी ट्रैक्टर-ट्रोलियों पर मेले में आने की तैयारियाँ कर रहे थे। नरेंद्र नोयडा में नौकरी करता है। उसे इतने दिनों की छुट्टियाँ नहीं मिलतीं, इसलिए वह हमारे साथ 20 नवंबर को ही जाएगा। उसके भाइयों के अपने तंबू होंगे और हम अपने फेसबुक मित्रों को उनके तंबुओं में टिकाकर उन पर बोझ नहीं बनना चाहते थे।
यह दायित्व संभाला दीप्ति ने। उसका साथ दिया नरेंद्र की पत्नी पूनम ने। जिस समय ये दोनों महिलाएँ दो तंबुओं का सामान किसी दूसरे की ट्रोली पर लाद रही थीं, हम दिल्ली में आराम से लेटकर व्हाट्सएप चला रहे थे। जिस समय ये दोनों महिलाएँ गंगा किनारे भारी-भरकम तंबू लगा रही थीं, हम फेसबुक के महायोद्धा बने हुए थे और बुलट को लेकर विश्वयुद्ध कर रहे थे।
“15 तारीख तक जो भी मित्र गंगा मेले में चलने का कन्फर्म कर देंगे, केवल उन्हीं के रुकने की व्यवस्था हो पाएगी।” मैंने व्हाट्सएप ग्रुप में मैसेज भेज दिया।
“खर्चा?” तमाम मित्रों ने पूछा।
“मेले में रुकने-खाने का कोई खर्चा नहीं। आपका केवल आने-जाने का ही खर्च होगा।”
और 15 नवंबर तक तीन मित्रों ने 20 तारीख को मेले में सपरिवार आने की सहमति दे दी। अगले दिन कुछ और भी मित्रों ने कहा, तो उन्हें 21 तारीख दे दी गई। दीप्ति तीन फैमिली के अनुसार ही व्यवस्था कर रही थी।
“रजाइयों की व्यवस्था नहीं हो पाई है। हमने पूरे गजरौला का चक्कर लगा लिया, लेकिन रजाइयाँ नहीं मिल रहीं।” 18 नवंबर को दीप्ति का फोन आया।
“कितनी रजाइयाँ और चाहिएं?”
“कम से कम दस।”
समय कम था और मित्र लोग भी अपने परिवार में मेले में चलने का माहौल बना चुके होंगे, तो उन्हें मना करना भी ठीक नहीं। आखिरकार गजरौला के एक मित्र शशि चड्ढा जी याद आए। शशि भाई गजरौला के एक बड़े आदमी हैं। उनसे बात करने की देर थी, अनलिमिटेड रजाइयों और गद्दों की व्यवस्था हो गई।
आगे बढ़ने से पहले मैं फिर से बता दूँ कि यह आयोजन केवल दीप्ति की वजह से ही हो पाया। इन दो दिनों में कम से कम बीस मित्रों का आना हुआ। आप सभी ने दीप्ति को केवल एक ही काम करते देखा - खाना बनाना और बर्तन धोना। 21 नवंबर को तो पूरे दिन मित्रों का आना-जाना होता रहा। अपने घर से कई घंटों की थकान भरी यात्रा करके जब मित्र तंबू में आते, तो स्वाभाविक है कि उन्हें चाय तो मिलनी ही चाहिए। और फिर सभी के लिए चाय बनती। फिर घंटे दो घंटे बाद कोई अन्य मित्र आता, तो फिर से सभी के लिए चाय बनती। इस काम को दीप्ति कर भी लेती, लेकिन हमने तय किया कि उसे अकेली को बीस लोगों का नाश्ता, लंच, डिनर सब बनाना है; इसलिए हर बार आगंतुक को चाय नहीं मिलेगी। उस समय हमारे रूटीन में जो हो रहा होगा, थके-हारे आगंतुक को उसमें शामिल होना होगा। हम अगर नहाने जा रहे होंगे, तो उन्हें भी तुरंत नहाने चल देना होगा।
तो हो सकता है कि आप लोगों को निराशा हुई हो... हो सकता है कि आपने कुछ और उम्मीद कर रखी हो और मेला कुछ और निकला हो... हो सकता है कि आप बोर हो गए हों... हो सकता है कि आपको कुछ अनहाइजेनिक लगा हो... जो भी हो... गंगा का यह मेला ऐसा ही होता है... इस मेले के साथ हमारा तो मैंटल अटैचमेंट है, शायद आपका न हो... आपको यहाँ कुछ भी धार्मिक गतिविधि नहीं दिखी... यानी यह मेला केवल धार्मिक मेला नहीं है...यह किसानों का मेला है... विशुद्ध रूप से ग्रामीणों का मेला है...
मेले में गंदगी नहीं थी... शौचालयों की समुचित व्यवस्था थी... हालाँकि बहुत सारे लोग खेतों में भी जाते हैं...
और आपको एक इंट्रस्टिंग बात और बता दूँ... जितने भी नल लगे थे, उन्हें आप आसानी से उखाड़कर ‘गदर’ जैसा सीन क्रियेट कर सकते थे... कोई भी नल पाँच फीट से ज्यादा गहरा नहीं था...
उधर एम.आर.एफ. टायर वाले सभी ट्रोलियों पर अपनी पुताई कर गए... किसान खुश हो गए... उनकी ट्रोलियाँ फ्री में पुत गईं, अन्यथा 1000 रुपये लगते...
और अमरोहा की सबसे बड़ी पहचान, जिसके बारे में प्रत्येक भारतवासी जानता है, मेले में अपनी उपस्थिति पूरे जोर-शोर से बनाए हुए थी... हाशमी दवाखाना...
और ऐसे मेलों में धूल तो उड़ती ही है... पकौड़ियाँ-जलेबियाँ बनती ही हैं... और हम उन्हें खाते ही हैं...
और हाइजीन???...
यह एक भ्रामक शब्द है... जो टी.वी. विज्ञापनों ने बनाया है...
आप शायद मेरी बात पर भरोसा न करें, लेकिन हमेशा ‘हाइजेनिक’ खाना खाने से हमारी इम्यूनिटी कम हो जाती है... इम्यूनिटी कम होने का सीधा अर्थ है कि आप हमेशा के लिए बीमार होने जा रहे हैं... इम्यूनिटी को किसी भी प्रोटीन से, किसी भी कैलोरी से, किसी भी फाइबर से नहीं बढ़ाया जा सकता... इसे केवल समझने से बढ़ाया जा सकता है... साँप के काटे की दवाई साँप के जहर से ही बनती है... क्यों बनती है, क्या होता है; आप गूगल कर सकते हैं...
शाहजहाँपुर से आए आनंद जी से किसी ने सुबह-सुबह कहा - “आपका नन्हा बेटा नंगे पैर बाहर मिट्टी में खेल रहा है, उसे जूते पहना दो... अन्यथा ठंड लग जाएगी और वह बीमार हो जाएगा।”
“नहीं, उसे यह सब पसंद है... नंगे पैर खेलना, मिट्टी में लोटपोट होना... जिस दिन हमने उस पर प्रतिबंध लगा दिए, उसी दिन से वह बीमार होना शुरू हो जाएगा... क्योंकि इम्यूनिटी कम होने लगेगी...”
22 नवंबर की दोपहर को जैसे ही हमने गजरौला जाकर रजाई-गद्दे लौटाए और आखिरी सदस्य आनंद जी को अलविदा कहा, तो बड़ी शांति मिली। तीन दिनों के इस कार्यक्रम के सकुशल पूरा हो जाने की खुशी। उस दिन लंच में कुछ भी नहीं बना। एक किलो पकौड़ियाँ ही चार लोगों का लंच बनी। आज गंगाजी में भी तब तक उछल-कूद मचाई, जब तक कि हम काँपने न लगे।
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बरसूडी से बीनू कुकरेती भी आए हुए थे और गाजियाबाद से अजय सिंह धानिक सपरिवार... |
सब घुमक्कड़ बच्चे हैं... पता नहीं किस-किसके हैं... |
लेफ्ट से तीसरे नंबर पर... मोदीनगर से आए पंकज जी, फिर बुलंदशहर से आए रूपेश जी और सबसे दाहिने छुपे हुए बडौत से आए शरद जी... |
क्या आपको याद है डुबकी लगाने की यह टेक्निक??... इससे न तो नाक में पानी भरता है और न ही कानों में... |
भारतीय ग्रामीण मेलों की पहचान... |
शाहजहाँपुर से आए आनंद जी किताबें ले गए... |
मैं और दीप्ति रात नौ बजे गंगा तट पर बैठे थे। तट पर एकदम शांति थी। हम चुपचाप बैठे सामने वाले तट की चकाचौंध को देख रहे थे। दीयों की उस अटूट पंक्ति को देख रहे थे। वे लोग जो कुछ ही समय पहले तक इन लोगों के साथ थे, आज दीया बनकर गंगाजी में प्रवाहित हो रहे थे। प्रवाहित करने वाला इन्हें अपने हाथों से छोड़कर दूर तक जाते हुए देख रहा होगा... और रो भी रहा होगा...
“तुमने भी एक दीया प्रवाहित किया था ना?” दीप्ति ने धीरे से पूछा।
“हाँ... पाँच साल पहले...।”
भाई लिखते तो कमाल के हो।
ReplyDeleteहम भी गए थे भूल गए क्या?
इस बार ज्यादा विस्तार से नहीं लिखा है... तो कई मित्रों का उल्लेख नहीं हुआ...
Deleteअरे सिर्फ नाम ही लिख डालते।
Deleteबहुत बढ़िया।
ReplyDeleteआखिरी 2 पंक्तियों से अच्छा समापन नहीं हो सकता।
AM
ReplyDeleteजीवन मे कभी मौका मिला तो एक बार इस देशी ठाठ का लुफ्त जरूर उठाऊंगा.......बढ़िया जानकारी
अगले साल के लिए अभी नोट कर लीजिए... कार्तिक पूर्णिमा से 2-4 दिन पहले...
Deleteआज तो वापस आपने सभी को अपने जड़ से जोड़ दिया। धन्यवाद, हमारी सभ्यता को दर्शाने के लिए। प्रेशर कुकर वाली फोटो, आज तक इससे अच्छी नहीं दिखी। बहुत ही सुखद एहसास हुआ।
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत धन्यवाद अनिल जी...
Deleteमें गढ़ के पास स्याना का रहने वाला हुँ और कई बार इस मेले में गया हूँ वहाँ की बात ही कुछ ओर है।
ReplyDeleteआप तो लोकल हैं...
Deleteलेकिन हमारा जाना नहीं हो पाता...
शानदार,
ReplyDeleteयहां कमेंट की कमी खलती है।
oh my god..so interesting and beautiful..Deepti is a super woman. If i knew earlier about Deeya, i would request you to do one deeya for my lovely brother. God bless both of you Neeraj.
ReplyDeleteThank you Ji...
DeleteHats off for your word kisaano ka mela
ReplyDeleteनीरज भाई ये तो बताओ आप कोन सी तरफ के गंगा मेले में थे। गढ़ गंगा या तिगरी मेला क्यूकी में वहां 6-7 साल से लगातार जा रहा हूं अगर आप तिगरी मेले में थे तो मुझे आपसे मिलने के ख्वाइश थी । लेकिन मुझे आपके आने की जानकारी नहीं थी नहीं तो आपको ढूंढते ढूंढते पूरा मेला छान मारता में और आपसे मिलता । मै मुरादाबाद से हूं।
ReplyDeleteहम तिगरी मेले में थे... 20-22 नवंबर...
DeleteShaandar
ReplyDeleteएक बार फिर वही लेखन जो आपको दुसरो से अलग करता है.
ReplyDeleteशानदार समापन भाई जी,,,,लेख मे अन्तिम लाइनों ने लठठ गाड दिया।
ReplyDeleteफोटो, लेखनी सब कुछ शानदार।
ReplyDeleteनीरज भाई, हमें आप सबके साथ बहुत अच्छा लगा।हम ना बोर हुए ,ना निराश हुए,ना हमें हाइजीन चाहिए था।हम तो आप के आतिथ्य से ही गदगद थे,हमारी श्रीमती जी तो इतनी प्रसन्न थी कि बच्चे यदि घर ना छोड़े होते तो रात को वहीं रुक जातीं आप सबके साथ।वो तो पहली बार ही इस मेले में आयीं थीं।आप सबके प्रेम को देख वो घर तक आप लोगों की तारीफ करतीं रहीं।दीप्ति भाभी जी व पूनम भाभी जी इस आयोजन की रीढ़ रहीं,उनका बहुत बहुत आभार।आपके और नरेंद्र भाई की वजह दोबारा यहाँ आने का अवसर मिला,और बार बार यहाँ आयें ये धारणा बनी।कभी बचपन में ही यहाँ गये थे।आपकी आखिरी लाइन निःशब्द कर गयी कि "तुमने भी एक दीया प्रवाहित किया था ना?"
ReplyDelete"हाँ... पाँच साल पहले...।"