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17 जनवरी 2015
साढे तीन बजे हम थान मठ से निकल गये। अब जाना था हमें लखपत। यह भारत के सबसे पश्चिमी कुछ गांवों में से एक है और दुनिया का सर्वप्रथम गुरुद्वारा भी यहीं है। पश्चिमी होने के कारण यहां का सूर्यास्त देखना बनता था। इसलिये हमें छह बजे से पहले लखपत पहुंच जाना था।
शीघ्र ही हम भुज-लखपत मुख्य सडक पर थे। खाली चौडी सडक पर जब हम 70 की रफ्तार से बढे जा रहे थे, तो हमें एक ऐसी चीज दिखी कि आपातकालीन ब्रेक लगाने पडे। यह था- कर्करेखा यहां से गुजरती है। मैंने पहले भी कहा था कि अपनी इस यात्रा में मुझे कई बार कर्करेखा पार करनी पडी। हिम्मतनगर-अहमदाबाद के बीच, भुज-खावडा के बीच, खावडा-नखत्राणा के बीच, नखत्राणा-लखपत के बीच, लखपत-नलिया के बीच और भचाऊ-रापर के बीच। लेकिन सूचना-पट्ट सिर्फ यहीं पर दिखा। सडक पर सफेद रेखा भी खिंची थी कि यह है कर्करेखा।
पांच बजे हम तीनों देवी-नू-मढ पहुंचे। यहां आशापुरा देवी का मन्दिर है। यह देवी कच्छ की आराध्या देवी हैं। यहां से लखपत चालीस किलोमीटर रह जाता है। जल्दी जल्दी में माता के दर्शन किये। वैसे तो मन्दिरों के गर्भगृह में फोटो लेने की मनाही होती है लेकिन धार्मिक लोगों ने बाहर भी फोटो नहीं लेने दिये। दस मिनट ज्यादा रुकते, अब पहले ही चल पडे।
हाजीपीर के लिये इधर से कई रास्ते जाते हैं। हाजीपीर भी कच्छ का दर्शनीय स्थल है। मुझे भी सुझाव दिया गया था हाजीपीर जाने का लेकिन समयाभाव के कारण नहीं जा सका। कच्छ आने का तीसरा बहाना मिल गया।
ठीक सवा छह बजे हम कोट लखपत में प्रवेश कर चुके थे। किले में प्रवेश करते ही गुरुद्वारा है। हम रात में यहीं रुकेंगे। सूरज अभी भी कुछ ऊपर था। ‘देश’ में छिप गया होगा। गुरुद्वारे के सरदारजी से रुकने की बात की। यहां रुकने का एकमात्र ठिकाना यह गुरुद्वारा ही है, भला वे क्यों मना करते? बस, एक बार यह जरूर कहा कि यह सीमावर्ती इलाका है, कोई सन्दिग्ध आचरण मत करना और अन्धेरा होने के बाद सिर्फ गुरुद्वारे के प्रांगण में ही रहना।
हम सूर्यास्त देखने समुद्र किनारे जाना चाहते थे लेकिन सरदारजी ने डरा दिया। मैंने पूछा कि हमें सूर्यास्त देखना है, कहां जायें? बोले कि चढ जाओ कहीं भी। गुरुद्वारे की छत पर ही जा चढो। लेकिन छत से सूर्य के रास्ते में किले की प्राचीरें आ रही थीं। हमने इन प्राचीरों पर ही चढना उचित समझा और उन्हीं की तरफ दौड लगा दी। जिस द्वार से हमने किले में प्रवेश किया था, उसी द्वार के बगल में ऊपर प्राचीर पर चढने के लिये सीढियां बनी थीं, हम एक ही सांस में जा चढे।
लखपत असल में समुद्र किनारे नहीं है। किसी जमाने में यहां सिन्धु नदी बहती थी और कुछ ही आगे समुद्र में जा मिलती थी। उस जमाने में यह कोट लखपत एक भरा पूरा शहर था, बन्दरगाह भी था। खूब आवागमन होता था, व्यापार होता था। फिर एक भूकम्प आया और सिन्धु ने अपना रास्ता बदल लिया। अब यह और पश्चिम में बहने लगी और लखपत के प्राण सुखा गई। रही-सही कसर विभाजन ने पूरी की। लखपत और सिन्धु के बीच सीमा आ गई और सिन्धु पाकिस्तान की नदी बन गई।
अब लखपत के आसपास दलदली इलाका है। वही दलदली इलाका जो आगे चलकर कच्छ का प्रसिद्ध रन बन जाता है। आगे यह समुद्री पानी सूख जाता है और नमक का रेगिस्तान बन जाता है लेकिन लखपत में समुद्र अत्यधिक पास होने के कारण दलदल नहीं सूखता। यहां से सीमा करीब बीस किलोमीटर आगे है। दलदल होने की वजह से यहां तारबन्दी नहीं हो सकती और तस्कर सीमा पार करने की कोशिश में लगे रहते हैं। इसलिये सीमा सुरक्षा बल को काफी चौकसी करनी पडती है।
गुरुद्वारे में गर्म पानी भी था। हम तीनों नहाये और कुछ कपडे भी धोये। जिस कमरे में हम रुके थे, उसमें एक लडका और भी था। बडा ही बातूनी। बातूनी होना अलग बात है, वह हमें आज्ञाएं और हिदायतें दे रहा था। हम जब गद्दे बिछाने की तैयारी कर रहे थे तो बोला कि आपको यहां पहले झाडू मारनी चाहिये। जूते बाहर निकालो। लहजा उसका उत्तर भारतीय ही था लेकिन बता स्वयं को गुजराती रहा था। हमने खूब कुरेदा लेकिन वह कभी भुज और कभी अहमदाबाद का बताता रहा। बोला कि मैं अहमदाबाद का रहने वाला हूं लेकिन यहां भुज में अपने काम के सिलसिले में आया हूं। बडा ही विचित्र लगा हमें वह। पहले तो हमने सोचा कि यह बीएसएफ का जासूस है जो गुरुद्वारे में इसीलिये रुका है कि हमारे बारे में जान सके। लेकिन बाद में पता चला कि ऐसा नहीं था। पता भी कैसे चला? मैं सरदारजी के पास पहुंचा- भाईजी, हमें दूसरा कमरा दे दो। हमें उस बीएसएफ वाले के पास नहीं रुकना। कोई भरोसा नहीं है, क्या पता कोई सामान चोरी हो जाये। सरदारजी के हाव-भाव पर कोई असर नहीं पडा। फिर हमने उससे भी कुछ बातें पूछीं- तो आपकी पोस्टिंग यहां लखपत में कब से है? फिर साधारण बात करने लगते और अचानक पूछते- आपको दस-बारह साल तो हो ही गये होंगे बीएसएफ में? इस तरह पक्का पता चल गया कि वह बीएसएफ में नहीं है।
बोला कि यहां बन्दर नहीं मिलेंगे आपको। सुमित ने पूछा कि ऐसा क्यों? बोला कि यहां पेड नहीं हैं, पत्तियां नहीं हैं, इसलिये बन्दर भी नहीं हैं। मैंने झूठ बोल दिया- लेकिन अभी चार किलोमीटर पीछे ही तो हमें सडक पर बहुत सारे बन्दर मिले थे। सुमित और गिरधर ने भी मेरा समर्थन किया। सकपकाते हुए बोला कि नहीं, यहां बन्दर नहीं हैं। बस, थोडे से हैं। हमने बडी देर तक मजाक बनाई- भाई, कच्छ में बन्दर बिल्कुल भी नहीं हैं। बस, थोडे से हैं।
अगले दिन इत्मिनान से सोकर उठे। नहा तो कल ही लिये थे, इसलिये आज उसकी कोई जरुरत नहीं थी। गुरुद्वारे में ही नाश्ता किया। यहां बस हमीं थे और कुछ गुरुद्वारे का ‘स्टाफ’ था। खाने के लिये सब्जियां काटी जाने लगीं तो कुछ हमने भी काट दीं। जब हम मिर्चें और प्याज काट रहे थे तो सेना के कुछ जवान आये। शायद ये सेना के जवान ही थे जो बचाव यानी रेस्क्यू की ट्रेनिंग के लिये यहां यानी लखपत आये हुए थे। अन्यथा लखपत बीएसएफ के अधीन है। सेना के ये जवान अपने साथ बोरा भरकर सब्जियां लाये थे। पहले सभी जवानों ने लघु जलपान ग्रहण किया और फिर ये अपने साथ लाई सब्जियां काटने लगे। आज इनका भी भोजन गुरुद्वारे के लंगर में ही बनेगा। पास के गांव से दूधिया दूध दे गया।
खैर, अपनी काटी सब्जियां तो हम नहीं खा सकते थे, सरदारजी ने खूब कहा थोडी देर और रुकने को लेकिन रोज की तरह हमें आज भी लम्बा सफर तय करना था। इन्दौर के दोनों मित्र पहले ही काफी लेट हो चुके थे। कल उन्हें हर हाल में इन्दौर पहुंचना है। इसलिये साढे नौ बजे यहां से निकल पडे।
हां, गुरुद्वारे के बारे में तो बताना ही भूल गया। भूल क्या गया, मैं गुरुद्वारे के अन्दर जाना भी भूल गया था। कमरों में, पार्किंग में, बाथरूम में, लंगर हॉल में इधर उधर आते-जाते ही सारा समय कट गया। जब लखपत छोड दिया, तब ध्यान आया- अरे यार, अन्दर तो गया ही नहीं। असल में जब गुरू नानक मक्का मदीना गये थे, तब वे यहीं से होकर गये थे और यहीं से उन्होंने सिन्धु पार की थी। उनकी याद में यह गुरुद्वारा बना है। इसे दुनिया का पहला गुरुद्वारा भी माना जाता है।
अगला भाग: लखपत-2
कच्छ मोटरसाइकिल यात्रा
1. कच्छ नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा
2. कच्छ यात्रा- जयपुर से अहमदाबाद
3. कच्छ की ओर- अहमदाबाद से भुज
4. भुज शहर के दर्शनीय स्थल
5. सफेद रन
6. काला डोंगर
7. इण्डिया ब्रिज, कच्छ
8. फॉसिल पार्क, कच्छ
9. थान मठ, कच्छ
10. लखपत में सूर्यास्त और गुरुद्वारा
11. लखपत-2
12. कोटेश्वर महादेव और नारायण सरोवर
13. पिंगलेश्वर महादेव और समुद्र तट
14. माण्डवी बीच पर सूर्यास्त
15. धोलावीरा- सिन्धु घाटी सभ्यता का एक नगर
16. धोलावीरा-2
17. कच्छ से दिल्ली वापस
18. कच्छ यात्रा का कुल खर्च
bhai duniya ka pehla gurudawara ke baare me pata chala kutch ka sahndaar
ReplyDeletenajara bhai aur bhabhi ko holi ki
subhkamna
धन्यवाद गुप्ता जी...
Deleteउस बातूनी लडके का फोटो बनता था ... आप के ब्लोग की खासिएत और बढती ....
ReplyDeleteहां जी, होना तो चाहिये था।
Deleteफोटो और लेखन का सुन्दर तालमेल। कच्छ की सैर करवाने का शुक्रिया नीरज जी।
ReplyDeleteशुक्रिया आपका भी...
Deleteबढिया यात्रा। कोट लखपत में पहले बड़ी जेल भी थी। अब पता नहीं है कि भी नहीं।
ReplyDeleteशर्मा जी, वो कोट लखपत जेल लाहौर में है। लाहौर की सेंट्रल जेल को कोट लखपत जेल भी कहते हैं। उसका हमारे इस कोट लखपत से कोई लेना-देना नहीं है।
Deleteफ़िर कभी लाहौर भी इसी कोट के भीतर ही होगा। यहीं से उस पर शासन होता होगा। तभी उस जेल का नाम कोट लखपत जेल है।
Deleteनहीं शर्मा जी, मुझे नहीं लगता कि लखपत से लाहौर पर शासन होता होगा। क्योंकि एक तो लखपत कच्छ के शासन के अन्तर्गत था और फिर लाहौर अविभाजित पंजाब की राजधानी भी थी।
Deleteबीरान जगह पर भी आप ने खूबसूरती का रंग भर दिया है ।
ReplyDeleteधन्यवाद सर जी...
Deleteab neeraj babu ki shadi ho gayee hain to lagta hai ki ab ye safar thoda ruk ruk ke aage badega................
ReplyDeleteसुन्दर लेखन
ReplyDeleteआपने दुनिया के पहले गुरूद्वारे के दर्शन घर बैठे ही करवा दिए नीरज भाई
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