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15 जनवरी 2015
सुबह आठ बजे उठा। रात अच्छी नींद आई थी, इसलिये कल की सारी थकान समाप्त हो गई थी। अभी भी भुज यहां से लगभग साढे तीन सौ किलोमीटर दूर है, इसलिये आज भी काफी बाइक चलानी पडेगी। रास्ते में मालिया में उमेश जोशी मिलेंगे। फिर हम दो हो जायेंगे, मन लगा रहेगा।
लेकिन जोशी जी को फोन किया तो कहानी कुछ और निकली। पिछले दिनों वे जामनगर के पास समुद्र में कोरल देखने गये थे। वहां उन्हें काफी चोट लग गई और अभी भी वे बिस्तर पर ही थे, चल-फिर नहीं सकते थे। उन्होंने बडा अफसोस जताया कि साथ नहीं चल सकेंगे। फिर कहने लगे कि जामनगर आ जाओ। लेकिन मेरे लिये जानमगर जाना सम्भव नहीं था। अगली बार कभी सौराष्ट्र घूमने का मौका मिलेगा, तो जामनगर जाऊंगा।
अब पक्का हो गया कि मुझे कच्छ यात्रा अकेले ही करनी पडेगी। लेकिन जोशी जी ने भचाऊ के रहने वाले अपने एक मित्र के बारे में बता दिया। वहां बात की तो लंच करना तय हो गया।
खैर, नौ बजे बोपल से निकल लिया। यहां से सीधा रास्ता है और कुछ ही देर में मैं कच्छ हाईवे पर था। सानन्द भी नहीं जाना पडा। रास्ते में बहुत सी टुक्कल पडी मिली और पतंगों के मांझे भी। मांझे अगर सडक के आर-पार हों तो इनसे बाइक सवारों का गला तक कट सकता है। इससे बचने के लिये बाइकों, स्कूटरों पर आगे हैंडल के पास लोहे का एक सरिया ‘यू’ आकार में लगा लेते हैं जिससे सवार सुरक्षित हो जाता है। मैं जब तक आबादी क्षेत्र में रहा, इन मांझों से सावधान रहा।
सडक के बारे में तो कुछ कहना ही नहीं। चार लेन की सडक और बीच में डिवाइडर; कभी-कभार आते ट्रक व बसें। भारत का सबसे बडा बन्दरगाह कांडला कच्छ में ही है। वहां से माल लादकर ट्रक देश के कोने-कोने में जाते हैं। मुख्यतः इसी यातायात के लिये यह सडक है।
दस बजे वीरमगाम मोड, ग्यारह बजे मालवन और साढे ग्यारह बजे ध्रांगध्रा बाईपास। यहां टंकी फुल करवाई। पिछली बार जब उदयपुर के पास टंकी भरवाई थी तो तब से अब तक 364 किलोमीटर चल चुका हूं, 6 लीटर पेट्रोल डला। इसका अर्थ है कि इस बार औसत 60 से भी ज्यादा आया है। बहुत अच्छे। पहली बार पता चला कि सडकें भी औसत को प्रभावित करती हैं।
दोपहर हो ही चुकी थी, ध्रांगध्रा में वही अपने आलू के परांठे खाये। कल तक तो उतना असर नहीं पडा था लेकिन अब लोगबाग बाइक को देखने लगे थे। बाइक को नहीं, बल्कि इसकी नम्बर प्लेट को- दिल्ली की नम्बर प्लेट। फिर पूछते कि दिल्ली से बाइक पर आये हो। ‘हां’ सुनते ही आश्चर्य व्यक्त करते। मुझे भी अच्छा लगता।
बारह बजे ध्रांगध्रा से चल पडा। जब बाईपास है तो अन्दर शहर में जाने की क्या जरुरत?
कच्छ का रन- यह तो आपने सुना ही होगा। यहां दो रन हैं- छोटा रन और बडा रन। बडा रन तो बहुत दूर है लेकिन छोटा रन मुझसे करीब पन्द्रह किलोमीटर दाहिने ही है। मैं छोटे रन के समान्तर चल रहा हूं। अगर दाहिने जाने वाली किसी सडक पर उतर जाऊं तो कुछ ही देर में रन में पहुंच जाऊंगा। छोटा रन ही जंगली गधों यानी घुडखर का निवास है। घुडखर लद्दाख के क्यांग का गुजराती भाई है। दोनों एक ही हैं लेकिन एक पता नहीं कैसे लद्दाख पहुंच गया और एक यहां गुजरात में रह गया। छोटे रन में जाने की मेरी कोई योजना नहीं थी। अगर जोशी जी साथ होते तो सोचा जा सकता था। मैं सीधा चलता रहा।
टोल गेट तो मुझे दिल्ली से ही खूब मिले। और यहां गुजरात में तो हर पचास किलोमीटर पर एक टोल गेट। किसी में भी साठ रुपये से कम वसूली नहीं। मैं टोल के खिलाफ हूं। हालांकि मोटरसाइकिलों को कोई टोल नहीं देना पडता। कार वालों का तो दिमाग भन्ना जाता होगा टोल देते देते।
पौने दो बजे मालिया पहुंच गया। यहां से बायें मुडकर 130 किलोमीटर दूर जामनगर है और दाहिने भुज। मैं उस स्थान पर कुछ देर रुका रहा जहां उमेश भाई से मुलाकात होती।
कच्छ वास्तव में एक द्वीप है। इसके चारों तरफ समुद्र है। उत्तर में विशाल बडा रन तो पूर्व में छोटा रन इसे मुख्य भूमि से अलग करते हैं। साल में कुछ समय इन रनों में पानी भर जाता है, कुछ समय दलदल रहती है तो कुछ समय के लिये सूख भी जाता है। जब समुद्री पानी सूख जाता है तो नमक बचता है। छोटे रन में इस नमक को एकत्र करके बाहर भेज दिया जाता है जबकि बडे रन का नमक सीमावर्ती इलाका होने के कारण यूं ही पडा रह जाता है।
द्वीप है तो कहीं न कहीं मुख्यभूमि से यहां जाने के लिये समुद्र के ऊपर पुल भी होना चाहिये। मुख्यभूमि से कच्छ जाने के दो ही रास्ते हैं। एक यह अहमदाबाद वाला और दूसरा पालनपुर से आने वाला। दोनों के ही समान्तर रेलवे लाइन भी है। अगर उन पुलों की बात करें तो अहमदाबाद वाले रास्ते पर वो पुल मालिया और समखियाली के बीच में है। यहां छोटा रन कच्छ की खाडी से जुडा है। मैं अभी वहां से निकलूंगा तो उसके बारे में और विस्तार से बताऊंगा। पालनपुर वाले रास्ते पर पुल सान्तलपुर और अदेसर के बीच में है। यहां छोटा रन और बडा रन मिलते हैं।
मालिया से निकलकर दसेक किलोमीटर चलते ही सडक के दोनों तरफ नमक के खेत दिखाई देने लगते हैं। दाहिने पास ही में रेलवे लाइन भी है।
पिछले दिनों मैं एक यात्रा वृत्तान्त पढ रहा था जिसमें एक व्यक्ति सपरिवार अपनी कार से छोटा रन देखने आया। कोई बडी कार थी, शायद बुलेरो। उन्होंने छोटे रन को पार करने की योजना बनाई। पूर्व से पश्चिम तक। चूंकि रन में कोई रास्ता तो है नहीं, इसलिये उन्हें ज्यादातर नमक के खेतों में काम करने वाले लोगों से जानकारी जुटानी पडी। काम करने वालों ने उन्हें रन पार न करने की चेतावनी दी और कहा कि आगे एक नदी है, वो पार नहीं होगी। इस पर लेखक ने कुछ यूं लिखा- भला यहां नदी कहां से आ गई? खैर, वे नहीं रुके। रास्ते में एक जगह दलदल में फंसते, इससे पहले ही निकल गये। एक तो उनका समय बहुत अच्छा था, फिर वे सर्वोत्तम समय पर आये थे कि उन्हें वो नदी सूखी मिली। अन्यथा काम उन्होंने फंसने का ही किया था।
वो है पश्चिमी बनास नदी। यह नदी माउंट आबू के पास अरावली की पहाडियों से निकलती है और उत्तरी गुजरात के मैदानों से होती हुई छोटे रन में जा गिरती है। चूंकि छोटा रन तो स्वयं समुद्र का हिस्सा है ही, इसलिये रन के बीच से उस नदी की जलधारा बहती है और कच्छ की खाडी में जा गिरती है। मैंने इस जलधारा को पार किया है। नमक के खेतों के बीच से बहती हुई यह काफी चौडी जलधारा थी। अरावली की नदियां सदानीरा नहीं होतीं, केवल मानसून में ही उनमें पानी आता है, इसलिये साल के बाकी महीनों में सूख जाती हैं। यह बनास नदी भी सूख जाती है। उनकी यात्रा के समय नदी सूख गई होगी।
मेरा यह सब लिखने का अर्थ इतना ही है कि आप ऐसा मत करना। थोडे समय का रोमांच जरूर होता है लेकिन बडी भयंकर मुसीबत में पड सकते हो। छोटा रन सीमावर्ती इलाका नहीं है इसलिये यहां न आपको सेना मिलेगी और न ही पुलिस। आप कहीं से भी इसमें प्रवेश कर सकते हैं और कहीं तक भी जा सकते हैं। आपको आगाह करने वाले तो मिलेंगे लेकिन रोकने वाला कोई नहीं मिलेगा। आपकी समझ ही आपको रोकेगी। आये दिन बहुत सारे लोग इसमें फंसते हैं, फिर वे प्रशासन से बचाने की गुहार लगाते हैं। गाडियां फंस जाती हैं, इंसान तो ज्यादातर बच निकलता है। तो सुना है कि प्रशासन ने तंग आकर अब यहां परमिट सिस्टम लागू किया है। चूंकि यहां जाने की कोई रोक नहीं है इसलिये ज्यादातर लोग बिना परमिट के ही जाते हैं। लेकिन अगर फंसे और प्रशासन को पता चला तो आपकी खैर नहीं। भारी भरकम जुर्माना लगता है।
समखियाली में कच्छ को मुख्यभूमि से जोडने वाली दोनों सडकें भी मिल जाती हैं। साथ ही दोनों रेलवे लाइनें भी। समखियाली एक जंक्शन है। भचाऊ यहां से 18 किलोमीटर दूर है। मुझे भूख लग रही थी और भचाऊ में काफी देर से भोजन मेरा इंतजार कर रहा था। आखिरकार तीन बजे मैं भचाऊ पहुंचा।
प्रभु आहिर मुझे अपने घर ले गये। उमेश जोशी ने हाल ही में उन्हें मेरे बारे में बताया है इसलिये मेरी करतूतों के बारे में ज्यादा नहीं जानते। अपने बारे में बताया कि वे एक ट्रैकर हैं। कच्छ में कई जगह ट्रैकिंग कर चुके हैं। यह सुनते ही मुझे हंसी आई। हंसी इसलिये आई कि कच्छ में कोई भी स्थान साढे चार सौ मीटर से ज्यादा ऊंचा नहीं है। मई में वे हिमाचल में सार-पास की ट्रैकिंग करने वाले हैं। यह ट्रैक यूथ हॉस्टल कराता है। वहां बर्फ मिलेगी या नहीं; इसके बारे में वे परेशान थे। अगर बर्फ न मिली तो- यह सोच-सोच कर निराश भी हो रहे थे। मैंने आश्वस्त किया कि आपको मई में सार-पास पर भयंकर बर्फ देखने को मिलेगी। जी भरकर बर्फ। एक कैम्प तो आपका बर्फ में ही लगा होगा। इतनी बर्फ होगी कि आप परेशान हो जाओगे और कहोगे कि हे भगवान, इस बर्फ से कब छुटकारा मिलेगा। यह सुनते ही उनके चेहरे पर खुशी छा गई।
सभी ने साथ बैठकर भोजन किया। मेरा पसन्दीदा ढोकला सबसे पहले परोसा गया। हां, आपको छाछ का किस्सा सुनाता हूं। छाछ को यहां छास कहते हैं। यह इतनी पतली होती है जैसे एक लीटर पानी में दो चम्मच दही डाल दी हो। पूरे कच्छ में मुझे इतनी ही पतली छाछ मिली। जब सारा खाना परोसा जा चुका, सभी खाने के लिये बैठ चुके तो प्रभु ने अपनी पत्नी से कहा कि छास भी ले आओ। छास सुनते ही मेरे मुंह में पानी आ गया। गौरतलब है कि मैं उस पृष्ठभूमि से हूं जहां गुड-छाछ अगर सामने हो तो रोटी-सब्जी की भी पूछ नहीं होती। लोटे भर-भरकर छाछ पी जाती है। इसके बावजूद भी यह बच जाती है और पशुओं को पिला दी जाती है। और गाढी भी इतनी जैसे दही हो। पानी नहीं मिलाया जाता।
वे उठीं और रसोई में से स्टील का एक डिब्बा लाकर रख दिया। मैं सोचता रहा कि अब छाछ गिलास में परोसी जायेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सभी खाना खाने लगे। आखिरकार मुझसे रुका नहीं गया और पूछ बैठा- इसमें छाछ है तो देते क्यों नहीं? बोले कि भोजन के बाद लेंगे। मैंने कहा- तुम लेते रहना भोजन के बाद, मुझे तो अभी दे दो।
भचाऊ से भुज जाने के दो रास्ते हैं- एक तो सीधा कनियाबे होते हुए और दूसरा अंजार होते हुए। मेरा इरादा पहले अंजार वाले से ही जाने का था लेकिन प्रभु ने मना कर दिया। सीधा रास्ता अच्छा है और ट्रैफिक भी नहीं मिलेगा। अंजार वाले पर अंजार तक मुन्द्रा के ट्रकों का काफिला परेशान करेगा।
पांच बजे यहां से चल पडा। कुछ दूर तक तो सडक खराब है, फिर अच्छी सडक मिल गई। भुज यहां से करीब 80 किलोमीटर है। दो घण्टे लगे और कुछ दूर अन्धेरे में भी चलना पडा।
प्रभु के कोई जानकार भुज में रहते हैं। मेरे रुकने की बाबत बात की तो वे भुज में नहीं मिले। लेकिन फिर भी आश्वासन दिया कि वे शाम तक पहुंच जायेंगे और कुछ न कुछ इंतजाम कर देंगे। मुझे प्रभु ने उनका फोन नम्बर भी दे दिया। भुज पहुंचकर मैंने उन्हें फोन किया तो नहीं मिला। यहीं बगल में ही एक गेस्ट हाउस था। मैंने बात की तो एक कमरा तीन सौ रुपये में मिल गया। तुरन्त यहीं कमरा ले लिया और प्रभु को बता दिया कि कमरा मिल गया है। डिनर करने की तो आवश्यकता थी ही नहीं। प्रभु ने इतना खिला दिया कि पूरी रात का काम आराम से चल गया।
गुजरात का तो पता नहीं लेकिन पूरे कच्छ में आपको यह हर कहीं मिलेगा। |
इसे क्या कहूं? गुजरात की सडक या कच्छ की सडक? एक ही बात है। किसी भी राज्य की उन्नति का पहला सूत्र है सडक। |
ध्रांगध्रा बाईपास पर। |
ध्रांगध्रा बाईपास के पास |
नमक के खेत |
सडक और रेल साथ साथ ही हैं। |
छोटा रन समुद्र में मिलता हुआ। |
समखियाली में |
प्रभु आहिर के घर पर भोजन |
कच्छ का पहला सूर्यास्त। |
हमारे यहां तो सूरज ऊपर ही ऊपर गायब हो जाता है। यहां धरती से मिलता हुआ दिखता है। |
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अगला भाग: भुज शहर के दर्शनीय स्थल
कच्छ मोटरसाइकिल यात्रा
1. कच्छ नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा
2. कच्छ यात्रा- जयपुर से अहमदाबाद
3. कच्छ की ओर- अहमदाबाद से भुज
4. भुज शहर के दर्शनीय स्थल
5. सफेद रन
6. काला डोंगर
7. इण्डिया ब्रिज, कच्छ
8. फॉसिल पार्क, कच्छ
9. थान मठ, कच्छ
10. लखपत में सूर्यास्त और गुरुद्वारा
11. लखपत-2
12. कोटेश्वर महादेव और नारायण सरोवर
13. पिंगलेश्वर महादेव और समुद्र तट
14. माण्डवी बीच पर सूर्यास्त
15. धोलावीरा- सिन्धु घाटी सभ्यता का एक नगर
16. धोलावीरा-2
17. कच्छ से दिल्ली वापस
18. कच्छ यात्रा का कुल खर्च
Excellent, great description and photos. Thanks for sharing
ReplyDeleteधन्यवाद शर्मा जी...
Delete1 Swas me pura padh liya . Janna chahata tha ki neeraj bhai gujrat k bare me kya kya likhenge . Good likha he . Nice photo & Jo dikhta he aesa hi hamara gujrat he .
ReplyDeleteधन्यवाद उमेश भाई...
Deleteनीरज भाई छास का स्वाद कैसा लगा..?
ReplyDeleteनमक के खेतो के फोटो बढिया लगे...
सचिन भाई, स्वाद तो वही था जो अपने यहां होता है। बस उसमें पानी बहुत ज्यादा था।
Deletemast photo sahi kaha bahi kisi bhi
ReplyDeleterajya ki untyi ka phela sutr sadak
hi hai
धन्यवाद गुप्ता जी...
DeleteGOOD ARTICLE
ReplyDeleteगुड कमेंट...
Deleteबहुत बढीया !....
ReplyDeleteबहुत बढिया...
DeleteAti sunder Neeraj bhai.ek shandar yatra,ek jaandar yatra.HAMARA BAJAJ (bajaj discover).
ReplyDeleteधन्यवाद शर्मा जी...
Deleteहाइवे, बर्डवे, एनिमल वे ,साल्ट वे, सी वे ,छगड़ा वे और बहुत सारे फोटो और जानकारी मजेदार है ।
ReplyDeleteनीरज भाई बहुत ही बढ़िया यात्रा रही आपकी मज़ा आ गया अब अगर आप अपनी बाइक का reveiw भी लिखे तो सोने पर सुहागा होगा
ReplyDeleteNeeraj bhai, bahut badiya vartant. pad kar laga jiase seedha Kutch me pahuch gaye.
ReplyDeleteटोल टैक्स वाले तो इण्डिया में करोड़पति बने बैठे है --ढोकला तो गुजरात की पहचान है --
ReplyDeleteनमक के खेतो के फोटो बढिया लगे नीरज भाई
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