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अब बारी थी दिल्ली लौटने की। दिल्ली अभी भी 1000 किलोमीटर से ज्यादा थी और मेरे पास थे दो दिन। यानी प्रतिदिन 500 किलोमीटर के औसत से चलना पडेगा जोकि बाइक से कतई भी आसान नहीं है। उस पर भी आखिर के ढाई सौ किलोमीटर यानी जयपुर से आगे का रास्ता और ट्रैफिक जान निकाल देने वाला होगा। चलिये, देखते हैं क्या होगा?
रापर से चला मैं सुबह साढे नौ बजे। पहली गलती। बल्कि पहली क्या... हमेशा की तरह आज भी गलती की कि इतनी देर से चला। सात बजे ही निकल जाना चाहिये था, अब तक सौ किलोमीटर दूर जा चुका होता। लेकिन रापर मुझसे भी सुस्त निकला। कोई दुकान खुली नहीं मिली, भूखे पेट ही निकलना पडा।
यहां से 35 किलोमीटर दूर अदेसर है। सडक अच्छी नहीं है। गुजरात में वैसे तो सभी सडकें बहुत अच्छी हैं लेकिन कुछ सडकें खराब भी हैं। खराब सडकों में यह रापर-अदेसर सडक भी है। हालांकि यह कुल मिलाकर ठीक ही है लेकिन जगह-जगह गड्ढे है। गड्ढे भी ऐसे कि साठ की रफ्तार से चल रहे बाइक सवार को तब दिखाई देते हैं जब वह उनमें घुस पडता है। साढे दस बजे अदेसर पहुंचा। यहां मुख्य हाईवे मिल जाता है। सबसे पहले टंकी फुल कराई और फिर आलू के परांठे खाये। आधे घण्टे में यह सब निबटाकर ग्यारह बजे फिर चल पडा।
राधनपुर से एनएच 15 बाडमेर के लिये अलग हो जाता है। पहले मेरी योजना इसी रास्ते से जाकर जोधपुर होते हुए दिल्ली जाने की थी लेकिन अब इसे बदल दिया। उसमें समय ज्यादा लगता और मेरे लिये समय ही सबसे ज्यादा कीमती था। सीधा चलता रहा।
डेढ बजे भीलडी पार हो गया और पौने दो बजे अखोल पहुंचा। यहां से सिरोही जाने के दो रास्ते हैं। एक तो गुण्डरी, रेवदार होते हुए और दूसरा आबू रोड होते हुए। निश्चित ही आबू रोड वाला एक नम्बर का मार्ग है लेकिन वह गुण्डरी वाले के मुकाबले तीस किलोमीटर ज्यादा है। फिर सन्देह भी था कि पता नहीं यह गुण्डरी वाला कैसा हो। जिस तरह पिछले दो दिनों से गुजरात में कुछ मार्ग खराब मिले थे, उनसे यह सन्देह और भी गहरा गया था। फिर यह भी नहीं पता कि राजस्थान में कैसा हो। लेकिन आखिरकार इसी पर चल पडा। एयरटेल का अच्छा नेटवर्क आ रहा था, इसलिये गूगल मैप ने रास्तों की बढिया जानकारी दी। कई जगह दाहिने-बायें मुडना था, मुझे किसी से नहीं पूछना पडा।
यह पूरा रास्ता भी बहुत अच्छा बना है। दो लेन का है, बीच में डिवाइडर नहीं है लेकिन फिर भी कम ट्रैफिक होने की वजह से यह अखरता नहीं है। थोडी थोडी दूरी पर टोल भी हैं। गुण्डरी में गुजरात-राजस्थान सीमा है। फोटो खींचने के लिये थोडी देर रुका, फिर चल दिया। राजस्थान में भी सडक अच्छी बनी है और यह टोल रोड है। रेवदार के बाद करोटी में थोडी देर परांठे खाने के लिये रुका।
करोटी के बाद आबू पर्वत के साथ-साथ चलना होता है। आबू रोड शहर इस पर्वत के उस तरफ है। हालांकि इधर से भी ऊपर जाने का मार्ग अवश्य होगा। यह पर्वत सिरोही तक दिखता रहता है और बडा ही शानदार लगता है। शाम पांच बजे सिरोही पहुंचा। लेकिन शहर के अन्दर बडी ही खराब सडक है। बहुत खराब और उस पर भयंकर ट्रैफिक। सिरोही पार करने में पसीने छूट गये। श्हर पार करने के बाद जब मुख्य मार्ग मिला, तब राहत मिली। फिर से रफ्तार पकड ली।
शिवगंज और सुमेरपुर जवाई नदी के दोनों तरफ बसे हुए कस्बे हैं। शिवगंज के एक मित्र भी थे जिन्होंने खूब कहा था कि अगर शिवगंज से होकर जाओ तो रुकना जरूर। हालांकि शाम के छह बज चुके थे, अन्धेरा होने वाला था लेकिन मैंने रुकना उचित नहीं समझा। पाली रुकूंगा जो अभी भी 80 किलोमीटर था।
जनवरी के दिन थे, जल्दी अन्धेरा हो जाता है। सात बजे तक तो खूब अन्धेरा हो गया था। सुबह से अब तक 400 किलोमीटर से ज्यादा आ चुका था। खूब थकान हो रही थी। फिर भी कई बार मन में आया कि चलता ही रहता हूं, ब्यावर रुकूंगा। लेकिन जब एक जगह सडक किनारे एक गेस्ट हाउस देखा तो तुरन्त रुक गया। पाली अभी भी 25 किलोमीटर था। कमरे का किराया बताया छह सौ रुपये। मैंने मना कर दिया कि पाली में दो सौ तक का कमरा आसानी से मिल जायेगा। एक बार तो उन्होंने कहा कि हमारे कमरे और पाली के कमरे में फर्क देखो। मैंने कहा कि कल दिल्ली पहुंचना है, रात रुकने को ही चाहिये। मुझे क्या करना है किसी अच्छे कमरे का। दे सकते हो तो दे दो, नहीं तो पाली भी दूर नहीं है। तीन सौ का मिल गया। कमरा वाकई शानदार था। इतना बडा कि दस आदमी आराम से सो सकते थे। खाना भी यहीं खा लिया। खाना स्वादिष्ट था हालांकि कुछ महंगा था।
अगले दिन जल्दी उठना पडा। दिल्ली यहां से 600 किलोमीटर है। साढे तीन सौ जयपुर है। सुबह से चलकर शाम जयपुर में ही हो जानी है। अगर ताकत रही तो सीधा चलता रहूंगा, जयपुर नहीं रुकूंगा। लेकिन अगर स्टैमिना समाप्त हो गया तो विधान भाई जिन्दाबाद। साढे सात बजे यहां से निकल लिया। पाली शहर में जाने की आवश्यकता ही नहीं थी, बाईपास से हो लिया।
इतने दिन हो गये यात्रा किये हुए, जनवरी के मध्य में की थी, अब मार्च समाप्त होने वाला है। अब लिख रहा हूं तो काफी कुछ छूट भी जाता है, बहुत कुछ ध्यान से उतर जाता है। नई यात्राओं की योजना बनती है, ध्यान वहां चला जाता है। लेकिन इतना याद है कि पाली और ब्यावर के बीच सडक अच्छी नहीं थी। बर-ब्यावर के बीच में तो कतई नहीं। फिर ऊपर से कार वाले... भारत में अगर कोई घटिया ड्राइविंग करता है, तो वो है कार चालक। ट्रक चालक बहुत शानदार ड्राइविंग करते हैं। मेरी तो उनसे मानसिक मित्रता भी हो गई थी। कभी मुझे ट्रकों से डर या झुंझलाहट नहीं हुई लेकिन कारों से पूरे रास्ते मुझे डर लगता रहा। बिना किसी आवाज के पीछे से आते या सामने से आते और पलक झपकते ही सर्र से निकल जाते। कितना भी ट्रैफिक हो, उनकी यह ‘सर्र’ हर जगह जारी रही। इसी के चक्कर में वे दुर्घटनाग्रस्त भी होते हैं जिनका सारा दोष दूसरों पर ही मढा जाता है। अगर कोई कार सडक किनारे खडे किसी ट्रक के नीचे घुस गई तो उसके लिये भी ट्रक ही जिम्मेदार माना जाता है। कार की कभी कोई गलती नहीं मानी जाती। उधर ट्रक चालक बडे ही शालीन तरीके से चलते हैं। अपनी लेन में चलते हैं, किसी को ओवरटेक करना हो तो लेन बदलते हैं और फिर अपनी में आ जाते हैं। मैंने कभी किसी ट्रक को ओवरटेक करने के लिये होर्न नहीं बजाया। दिन हो या रात... पहली तो कोशिश की कि हमेशा दाहिनी तरफ से ही ओवरटेक करूंगा। और ये लोग साइड भी देते हैं। आप ट्रक के पीछे लग जाओ, बिना होर्न बजाये ही ट्रक वाला आपको साइड दे देगा। होर्न बजाओगे तो शायद वो भी जिद कर बैठे। और साइड भी कैसे? इंडिकेटर से। इसमें यह भी बात गौरतलब है कि लगभग सभी ट्रक चालक अनपढ और पिछडी पृष्ठभूमि वाले होते हैं जबकि ज्यादातर कार वाले पढे लिखे और सम्पन्न घरों के।
खैर, बारह बजे तक अजमेर पार कर लिया। एक जगह रुककर चाय पी और फिर निकल लिया। दो बजे बगरू रुका। लगभग छह घण्टे से मैं लगातार बाइक चला रहा था और ढाई सौ किलोमीटर की दूरी तय कर ली थी। दोपहर हो रही थी, धूप निकली थी। मुझे नींद आने लगी। बगरू में एक ढाबे पर रुका। 75 रुपये में भरपेट खाना खाया। और जूते उतारकर खाट पर पसर गया। एक घण्टे की जबरदस्त नींद आई। साढे तीन बजे आंख खुली। मुंह धोया और पौने चार बजे तक यहां से निकल लिया। सो लेने का यह फायदा हुआ कि पूरी तरह तरोताजा हो गया। जयपुर ज्यादा दूर नहीं है बगरू से। विधान के यहां नहीं रुकूंगा।
पांच बजे चन्दवाजी पहुंच गया। बाईपास पर तो उतना ट्रैफिक नहीं था लेकिन चन्दवाजी के बाद भयंकर ट्रैफिक मिला। इसी में कोई कार ट्रक से ‘भिड’ गई और कार की पिछली लाइट पर ‘बहुत बडी’ खरोंच लग गई। कार वाले का तो बेचारे का दिवाला निकल गया। उनकी तो कार ही बेकार हो गई। फिर बेचारे वे क्यों न कार रोकते, क्यों न ट्रक वाले से झगडते? पीछे बडा भारी जाम लग गया लेकिन कार की लाइट पर खरोंच के आगे कौन जाम की फिक्र करता है?
शाहपुरा में मुझसे दो मिनट पहले ही एक बाइक वाला ट्रक के नीचे आ गया और दम तोड गया। जाम लगना ही था लेकिन चूंकि इस दुर्घटना को ज्यादा वक्त नहीं हुआ था, इसलिये जाम लगने से पहले मैं निकल गया। निकलते-निकलते में मुझे सडक पर बिखरा खून, टूटी बाइक और वो लाश सडक पर दिख गये। इसे देखकर मैं अन्दर तक हिल गया। सोने के बाद जो आत्मविश्वास आया था, वो सारा डोल गया। आखिर मैं भी बाइक पर था, आज लम्बी दूरी तय कर चुका था, अभी भी बहुत दूर जाना था और वो भी रात में भारी यातायात के बीच... मैं कांप गया। यात्राओं में ऐसी चीजें दिखना अपशकुन माना जाता है। अब समझ में आया कि क्यों अपशकुन होता है यह सब? लेकिन पीछे जाम लग चुका था, आगे सडक पर कोई गाडी नहीं थी, कोटपूतली तक इसका पूरा असर दिखा, सडक खाली हो गई। तब तक तो मैं काफी संयत हो गया था।
साढे छह बजे कोटपूतली तो साढे सात बजे नीमराना और साढे आठ बजे धारूहेडा। जैसे जैसे दिल्ली नजदीक आती जा रही थी, ट्रैफिक भी बढता ही जा रहा था। हालांकि कहीं जाम तो नहीं मिला लेकिन भीषण ट्रैफिक। फिर वो सडक भी खराब है। सोचा कि गुडगांव में टोल रोड पर राहत मिलेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अब कारें बढने लगी थीं और कारों से मुझे... मैंने बताया भी है कि... डर लगता है। फिर भी दिल्ली में ट्रैफिक की एक ‘सेंस’ है, तमीज है जो बाहर कहीं नहीं मिलती। दिल्ली में मैं साइकिल चलाऊं या मोटरसाइकिल चलाऊं, भारी ट्रैफिक के बावजूद भी कोई परेशानी नहीं होती। भारत में सबसे अच्छी ट्रैफिक सेंस मैं दिल्ली में ही मानता हूं।
धौला कुआं से करोल बाग की तरफ चल दिया और वहां से आजाद मार्केट। लेकिन जैसे ही नई दिल्ली से पुरानी दिल्ली क्षेत्र में प्रवेश किया, सामना जाम से हुआ। बहुत फर्क है नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली में। एक बार आजाद मार्केट से निकला तो सीधा शास्त्री पार्क पहुंचकर ही रुका। समय देखा- ग्यारह बजे थे। बाइक का मीटर देखा जो बता रहा था कि कुल मिलाकर 3432 किलोमीटर बाइक चली, जिसमें से आज 620 किलोमीटर चला।
हे भगवान! एक दिन में 620 किलोमीटर बाइक से। और अच्छा ही हुआ कि आज ही मैं दिल्ली आ गया। रात को मौसम खराब हो गया और अगले कई दिनों तक उत्तर भारत में बारिश होती रही।
अगला भाग: कच्छ यात्रा का कुल खर्च
कच्छ मोटरसाइकिल यात्रा
1. कच्छ नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा
2. कच्छ यात्रा- जयपुर से अहमदाबाद
3. कच्छ की ओर- अहमदाबाद से भुज
4. भुज शहर के दर्शनीय स्थल
5. सफेद रन
6. काला डोंगर
7. इण्डिया ब्रिज, कच्छ
8. फॉसिल पार्क, कच्छ
9. थान मठ, कच्छ
10. लखपत में सूर्यास्त और गुरुद्वारा
11. लखपत-2
12. कोटेश्वर महादेव और नारायण सरोवर
13. पिंगलेश्वर महादेव और समुद्र तट
14. माण्डवी बीच पर सूर्यास्त
15. धोलावीरा- सिन्धु घाटी सभ्यता का एक नगर
16. धोलावीरा-2
17. कच्छ से दिल्ली वापस
18. कच्छ यात्रा का कुल खर्च
Chalo bhai ek aur yatra ka sukhad ant
ReplyDeletebikeker aksar over tek ke chkar me hi
durkahtana garast ho te hai
हां जी, आपने ठीक कहा।
Deleteएक दिन में ६२० किलोमीटर..कमाल कर दिया
ReplyDeleteमुझे तो सोच कर थकान लग रही है
धन्यवाद पाण्डेय जी...
Deleteदिल्ली से कच्छ आपके साथ-साथ हमारी भी वापसी।
ReplyDeleteएक बात और बाइक पर चलते समय back mirror को हमेशा खोल कर रखना चाहिए जिससे पीछे के ट्रैफिक के बारे में हमें पता रहता है और फिर कोई कार पलक झपकते ही सर्र से नहीं निकलेगी। में तो बिना back mirror खोले हाईवे पर ड्राइंग ही नहीं कर सकता।
हम भी एक बार बाइक से एक ही दिन में गंगोत्री से मेरठ वापस आये थे।
बैक मिरर की तो जी ऐसी आदत पड गई है कि साइकिल भी चलाता हूं तो बैक मिरर वाली जगह पर निगाह जाती है।
DeleteAapke sath ham bhi yatra karte he aesa lagta he . Sher karne ke liye thankyou .
ReplyDeleteधन्यवाद उमेश भाई...
Deleteनीरज भाई
ReplyDeleteघूमते वक़्त आप 1 डायरी में सोते वक़्त दिनभर की घुमक्कडी संक्षेप में लिख ले तो आप कितने भी समय बाद blog लिख सकते है।
हमेशा की तरह शानदार यात्रा आलेख
लेकिन 1000 km की यात्रा में फोटो की कमी लगी।
गुप्ता जी, खूब कोशिश कर ली लेकिन कभी भी यात्रा के दौरान नहीं लिखा जा सका। शाम को इतनी थकान हो जाती है कि बिस्तर और नींद हावी हो जाते हैं। रही बात फोटो की तो मैं रास्ते में आते-जाते समय फोटो नहीं खींचा करता। केवल लक्ष्य पर पहुंचकर ही फोटो लेना शुरू करता हूं। हां, लक्ष्य अगर रास्ता ही हो तो अलग बात है।
Deleteभारत में अगर कोई घटिया ड्राइविंग करता है, तो वो है कार चालक। ट्रक चालक बहुत शानदार ड्राइविंग करते हैं। ................. aap karvale ho jayege to ray badlegi jrur ...
ReplyDeleteसर जी, ऐसा नहीं है कि सभी कार वाले खराब चलाते हैं और सभी ट्रक वाले अच्छा चलाते हैं। फिर भी... औसतन ट्रक वाले अच्छा चलाते हैं। कोई दुर्घटना हो जाये, कुछ हो जाये... गलती तो कोई अपनी नहीं मानता... न कार वाला, न ट्रक वाला... लेकिन फिर भी.... कुल मिलाकर... मैं ट्रक वालों को ही अच्छा कहूंगा।
Deleteनीरजजी, आपने बिल्कुल ठीक कहा। कारवाले और बाइकवाले अक्सर यह गलती करते हैं कि ओवरटेक करते ही बड़ी गाड़ी के एकदम सामने आ जाते हैं, जबकि 10-15 मीटर आगे जाकर तब सामने आना चाहिए। ऐसे में यदि स्पीड जरा भी कम हुई तो बड़ी गाड़ी वाले को स्थिति समझने और कन्ट्रोल करने में थोड़ा वक्त लगता है, उतनी देर में कार या बाइक वाले नीचे आ जाते हैं।
Delete- Shalabh Saxena (Dehradun)
नीरज भाई शानदार रही आपकी कच्छ यात्रा..
ReplyDeleteबहुत सी नयी बातों का पता चला..!
अगली यात्रा का इंतज़ार रहेगा...
धन्यवाद अरुण भाई...
Deleteकैसे इतनी लम्बी-लम्बी यात्रा कर थकते तक नहीं ...नए जगह का रोमांच तो रहता है ...लेकिन बोरी बिस्तर लादकर यह सब सोच कैसे ..समझ नहीं पाते हैं ..बड़े जिगर वाले हो भैया .....
ReplyDeleteबहुत अच्छी रोचक यात्रा प्रस्तुति ....
मुझे भी नहीं पता कैसे हो जाता है सब... बस, हो जाता है।
Deleteधन्यवाद आपका...
बहुत उम्दा लेख नीरज भाई, शाहपुरा का वाक्या दिल देहलागया !!
ReplyDeleteस्वस्थ रहिये, सुरक्षित रहिये!!!
धन्यवाद सर जी...
Deleteकमाल कर दिया भाई !
ReplyDeleteधन्यवाद हरेन्द्र भाई...
Deleteकाफी दिनों की प्रोग्राम ,लम्बी यात्रा ,सड्को और वाहनों की अनुभव वाली जानकारी ,शानदार फोटोग्राफी ये सभी पर्यटन का एक बड़ा जुनून है ,शुभकामनाओ सहित।
ReplyDeleteAapke sath humne bhe yatra kar li
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