इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें।
16 जनवरी 2015
खावडा से काला डूंगर की दूरी करीब बीस किलोमीटर है। आठ किलोमीटर आगे एक तिराहा है जहां से एक सडक तो सीधी चली जाती है और एक दाहिने मुड जाती है। यही दाहिने वाली काला डूंगर जाती है। सीधी सडक इण्डिया ब्रिज होते हुए विघाकोट जाती है। विघाकोट अर्थात भारत-पाक सीमा। विघाकोट जाने के लिये भुज से आज्ञापत्र बनवाना होता है। उसकी चर्चा अभी बाद में करेंगे जब इण्डिया ब्रिज चलेंगे। अभी फिलहाल काला डूंगर चलते हैं। चलिये, दाहिनी तरफ मुड जाते हैं।
एक गांव आता है और इसे पार करते ही सडक पतली सी हो जाती है। चूंकि काला डूंगर कच्छ की सबसे ऊंची चोटी है तो यहां जाने के लिये कुछ चढाई भी करनी पडेगी। शीघ्र ही चढाई भी शुरू हो जाती है लेकिन यह छोटी सी चढाई काफी ‘ट्रिकी’ है। फिर साढे चार सौ मीटर की ऊंचाई पर जाकर दत्तात्रेय मन्दिर के पास चढाई समाप्त हो जाती है। पौने छह बज चुके थे। सूर्यास्त में अभी देर थी। उधर ‘देश’ में सूर्यास्त हो चुका होगा, यहां यह काम देर से होता है। काफी पर्यटक कैमरे लिये सूर्यास्त को कैद करने के लिये तैयार खडे थे।
चूंकि अभी भी सूर्यास्त में कुछ समय था, मैं यहां ठिकाने का पता करने चल दिया। प्रभु आहिर ने बताया था कि यहां मन्दिर धर्मशाला में मुफ्त में ठहरना मिल जाता है। मैं इसी के चक्कर में था। दत्तात्रेय मन्दिर के सामने ही मन्दिर समिति का कार्यालय है। उसमें गया तो एक मुटल्ला बूढा बैठा था। दो लडके और बैठे कमरे की बात कर रहे थे। मैंने भी बात की तो बताया कि दो तरह के कमरे हैं- तीन सौ वाले और सात सौ वाले। मैंने तुरन्त तीन सौ वाले को लेने की बात कही। उन्होंने मुझे एक चाबी दे दी कि पहले कमरा देखकर आओ, फिर बुकिंग होगी।
उन दो लडकों को भी चाबी देकर ऐसा ही कहा था कि कमरा देखकर आओ। तीनों बाहर निकले तो उन्होंने मुझसे पूछा कि अगर मुझे आपत्ति न हो तो तीनों एक ही कमरे में रुक जाते हैं। मैं झट से तैयार हो गया। ये दोनों इन्दौर से बाइक पर आये थे- बुलेट पर- गिरधर माली और सुमित शर्मा। दोनों इन्दौर में ही डॉक्टर हैं। क्लिनिक बन्द करके पांच दिनों के लिये कच्छ आये हैं। इन्होंने बताया कि इन्होंने मुझे सफेद रन में भी देखा था। मैंने वहां इनकी बाइक के बराबर में ही अपनी बाइक पार्क की थी। इतना तो मुझे याद है कि मैंने बुलेट के बराबर में खडी की थी लेकिन वो बुलेट कहां की थी, यह नहीं देखा था।
खैर, फिर तो हमारी तीनों की इतनी अच्छी पटी कि अगले तीन दिनों तक हम साथ रहे। इन्हें जहां पांचवें दिन वापस लौटना था, अब ये सातवें दिन वापस लौटे। हमने यहां तीन सौ वाला कमरा ले लिया, सौ सौ का पडा।
लेकिन कमरा लेने में भी एक कहानी हो गई। वो मुटल्ला बुड्ढा कहने लगा कि अपने पहचान-पत्रों की फोटोकॉपी जमा कराओ। दुर्योग से हमारे किसी के भी पास फोटोकॉपी नहीं थी। पहचान-पत्र तो बहुत सारे थे लेकिन फोटोकॉपी नहीं थी। हमने सारे पहचार-पत्र उसके सामने पटक दिये लेकिन उसे बस एक ही धुन रही- फोटोकॉपी। काला डूंगर का सारा उत्साह समाप्त हो गया। एक बार तो पक्का हो गया कि वापस चलकर खावडा में ही रुकना पडेगा। उधर दोनों डॉक्टर्स आज यहीं रुकना चाहते थे। इसलिये आखिरकार सुमित ने अपना आधार कार्ड बूढे को दे दिया कि हम कम्प्यूटर से दूसरा निकाल लेंगे। बूढा राजी हो गया।
इतने में काफी समय हो गया। बूढे के राजी होते ही हम सूर्यास्त पॉइंट की ओर भागे। भागते भूत की लंगोटी ही हाथ लगी। लेकिन तसल्ली हो गई कि कच्छ के सर्वोच्च स्थान से सूर्यास्त देखा। यहां से पश्चिम की तरफ कुछ पहाडियां हैं और उत्तर की तरफ अनन्त तक फैला सफेद रन। लेकिन धुंध के कारण सफेद रन उतना स्पष्ट नहीं दिख रहा था जितना दिखना चाहिये था। पश्चिमोत्तर दिशा में बडी गौर करने पर इण्डिया ब्रिज भी दिख गया।
यहां सुमित ने मेरे भी खूब फोटो खींचे कि भाई, तू अकेला है। कोई तेरे फोटो लेने वाला नहीं है। ले, हम ले लेते हैं।
सूर्यास्त होते ही धीरे धीरे सभी लोग सनसेट पॉइंट से वापस चले गये। हम तीनों ही यहां रह गये। बडी तेज हवा चल रही थी। ठण्ड भी थी। तापमान लगभग 15-20 डिग्री के आसपास रहा होगा। मुझे उतनी ठण्ड नहीं लग रही थी जितनी कि मालवियों को। उत्तर भारत में रहने का एक फायदा यह भी है कि आपको भीषण ठण्ड भी सहन करनी होती है और भीषण गर्मी भी। मैं भीषण ठण्ड से निकलकर आया था इसलिये यहां का मौसम सुकूनभरा लग रहा था। मालवी कांप रहे थे।
अन्धेरा हो गया और हम यहीं बैठे रहे। चुपचाप। दूर रन में जलती लाइटों को देख रहे थे। पश्चिम में बडी दूर लाइटों का झुण्ड दिख रहा था जैसे कोई नगर हो। अन्दाजा लगाया कि वही धोरडो है अर्थात कच्छ महोत्सव वाली जगह जहां हम दोपहर को थे। इण्डिया ब्रिज पर भी लाइटें थीं और रन में यहां-वहां भी। वे निश्चित ही सीमा सुरक्षा बल की चौकियां होंगी। कुछ गाडियां आ-जा रही थीं, उनकी भी लाइट आती-जाती दिख रही थी। लेकिन जो भी कोई सबसे नजदीकी लाइट थी वो कम से कम दस किलोमीटर दूर थी। इण्डिया ब्रिज भी बहुत दूर है, रन भी बहुत दूर है लेकिन बीच में कोई अवरोध न होने के कारण ये सब दिखते हैं।
आठ बज गये हमें यहीं बैठे बैठे। सियार बोलने लगे। काला डूंगर के सियार बडे प्रसिद्ध हैं। ये निश्चित समय पर यहां खाना खाने आते हैं। बाद में मन्दिर में पूछताछ करने पर पता चला कि सामने ही एक कंक्रीट की चौकी है। उस पर खाना रखकर, प्रसाद वगैरह रखकर एक विशेष तरह का बाजा बजाया जाता है और सियार उस चौकी पर आ जाते हैं। यह प्रसाद कौन रखता है, तो बताया कि भक्त लोग हैं जो अपनी मन्नतें पूरी होने पर प्रसाद चढाते हैं। दिन में ग्यारह बजे का समय निर्धारित है लेकिन आजकल यात्रा सीजन होने के कारण नहीं आते। यहां काफी भीड होती है, लोग-बाग वहां उस चौकी तक और आगे जंगल में चले जाते हैं। सियार डरपोक जानवर होता है। आदमी जंगल में जायेगा तो वे और दूर भाग जाते हैं। इसलिये आजकल उनका आना निश्चित नहीं है।
पता नहीं आपको सियार से डर लगता है या नहीं लेकिन मुझे नहीं लगता। यह जमीन में मांद या बिल बनाकर रहता है। हमारे खेत में सियार खूब बिल बनाते थे। उसमें बच्चे होते थे। हम सियारिन को भगा देते थे और बिल में हाथ डालकर या सियार की आवाज निकालक्रर बच्चों को पकड लेते थे। कुत्ते के पिल्लों के साथ खेलने का मजा तो है ही, सियार के पिल्लों के साथ खेलने का भी अलग मजा है।
खैर, आठ बजे यहां से वापस चल दिये। कमरे में पहुंचे। पास में ही मन्दिर समिति की कैंटीन है। यहां साढे आठ बजे खाना मिलेगा। खाने को वैसे तो ये लोग लंगर कहते हैं लेकिन इसके पैसे लेते हैं। जब हम कमरे के तीन सौ रुपये दे रहे थे तो बूढे ने पूछा कि लंगर के कितने दोगे तो हमने कहा पचास रुपये। बूढा कहने लगा- तीन जने हो, पचास रुपये दोगे? हम तुरन्त बोले- नहीं, इक्यावन देंगे। फिर बूढे ने कहा- चलो सौ दे देना। सुबह चाय भी मिलेगी।
कैंटीन से ही झाडू उठा लाये। कमरे में झाडू मारी। गद्दों, कम्बलों और रजाईयों की तो कोई गिनती ही नहीं। एक कमरा बुक करो और जितने भी उसमें समा सकते हैं, समा जाओ, कोई मनाही नहीं। बिजली है और चार्जिंग भी। तीन सौ वाले में सार्वजनिक शौचालय है जबकि सात सौ वाले का अपना निजी शौचालय। दोनों को अपने कपडे धोने थे, साबुन उनके पास थी लेकिन डर रहे थे कि सुबह तक सूखेंगे भी या नहीं। मैंने कहा कि सुबह छोडो, अभी दो घण्टे में ही सूख जायेंगे। अगर नहीं सूखे तो मेरे कपडे ले लेना। आखिरकार उन्होंने मुझ पर भरोसा करके कपडे धो ही लिये और बाहर एक रस्सी पर टांग दिये। मैंने कहा कि खाना खाकर आयेंगे, तब तक ये सूख जायेंगे। हवा बडी तेज चल रही थी। फिर कच्छ- सूखा। आर्द्रता यहां बहुत कम होती है। इस वजह से कपडे जल्दी सूखते हैं। साढे नौ बजे तक जब हम खाना खाकर आये, तो सब कपडे सूख चुके थे। मेरी बडी वाहवाही हुई।
सुबह उठे। हालांकि दोनों मित्र कभी के उठकर सूर्योदय देखने चले गये थे। बाद में मैं भी गया तो सूरज सिर के ऊपर आने लगा था। यहां एक सूचना पट्ट भी लगा है कि काला डूंगर कच्छ की सबसे ऊंची चोटी है और इसकी ऊंचाई समुद्र तल से 458 मीटर है। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। मैंने अपने जीपीएस-युक्त मोबाइल से इसकी ऊंचाई मापी तो यह अधिकतम 393 मीटर निकली। गूगल मैप इसकी ऊंचाई लगभग 430 मीटर बता रहा है। गूगल मैप के अनुसार ही, इसके बराबर वाली अनजान चोटी 440 मीटर ऊंची है। प्रभु आहिर जो कच्छ में कई जगह ट्रैकिंग कर चुके हैं, ने बताया था कि काला डूंगर की ऊंचाई 750 मीटर है जोकि बिल्कुल गलत है।
खैर, सवा नौ बजे यहां से वापस चल पडे। आज का लक्ष्य पहले तो इण्डिया ब्रिज जाना था, फिर लखपत। दोनों इन्दौरवासी भी इसके लिये राजी थे।
सामने दूर चोटी पर दत्तात्रेय मन्दिर दिख रहा है। वही काला डूंगर चोटी है। |
काला डोंगर में सूर्यास्त |
मन्दिर समिति के कमरे |
दूर दिखता सफेद रन धुंध में छिपा है। |
मोबाइल जीपीएस में ऊंचाई 393 मीटर बता रहा है। |
दत्तात्रेय मन्दिर |
काला डोंगर स्थित दत्तात्रेय मन्दिर की स्थिति दर्शाता नक्शा। नक्शे को छोटा-बडा किया जा सकता है।
अगला भाग: इण्डिया ब्रिज, कच्छ
कच्छ मोटरसाइकिल यात्रा
1. कच्छ नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा
2. कच्छ यात्रा- जयपुर से अहमदाबाद
3. कच्छ की ओर- अहमदाबाद से भुज
4. भुज शहर के दर्शनीय स्थल
5. सफेद रन
6. काला डोंगर
7. इण्डिया ब्रिज, कच्छ
8. फॉसिल पार्क, कच्छ
9. थान मठ, कच्छ
10. लखपत में सूर्यास्त और गुरुद्वारा
11. लखपत-2
12. कोटेश्वर महादेव और नारायण सरोवर
13. पिंगलेश्वर महादेव और समुद्र तट
14. माण्डवी बीच पर सूर्यास्त
15. धोलावीरा- सिन्धु घाटी सभ्यता का एक नगर
16. धोलावीरा-2
17. कच्छ से दिल्ली वापस
18. कच्छ यात्रा का कुल खर्च
bhai hamesah ki tarh sahndaar lekh
ReplyDeleteaur photo ka to jawab hj nahi
aap ke yahan nahi aa paya par ek baar aap se delhi me miloga jarur meri
tarhf se aap dono ko subhkamna
धन्यवाद गुप्ता जी...
Deleteअच्छी यात्रा और सुन्दर वर्णन -गुजरात टूरिजम वालो को अमिताभ जी की जंगह नीरज जाट को अपना ब्रांड एम्बेसेडर बना लेना चाहिए। गुजरात का अमिताभ से ज्यादा प्रचार तो नीरज जाट कर रहा है।
ReplyDeleteधन्यवाद विनय जी...
DeleteBeautiful. Free may ran ghum raahaa hun. Majaa aa gaya. Thanx neeraj bhai. Fahim from lucknow
ReplyDeleteधन्यवाद फ़हीम साहब...
DeleteAbhi tak wahi waalaa mobile. Second photo hai apke mobile ke poore blog main. Nokia xpress music. Thanx
ReplyDeleteहा हा हा... हां जी, यह मोबाइल सिर्फ इसीलिये रखा हुआ है कि इसमें बिना नेटवर्क के भी जीपीएस चलता है।
DeleteBoarder 22 kitne aage se
ReplyDeleteक्या मतलब है इसका?
Deleteबहुत अच्छा
ReplyDeleteबहुत अच्छा
DeleteMera gaoon mera desh
ReplyDeleteमेरा भी...
Deleteहमेशा की तरह शानदार फ़ोटो और रोचक ब्लॉग
ReplyDeleteमज़ा आ गया नीरज भाई
बुलेट की फ़ोटो नही लगाई आपने
फोटो में भु बहुत ही handsome दिख रहे हो आप।
गज़ब के चित्र लिए हैं मित्रवर नीरज ! सनसेट पॉइंट जबरदस्त लग रहा है ! मंदिर समिति के कमरों की कोई फोटो नहीं लेगा लेकिन ये आपकी ही सोच है और हिम्मत है ! गज़ब की फोटो लग रही है ये भी ! मैं तुम्हें पढता हमेशा हूँ किन्तु कमेंट करने में ज़रा कंजूसी कर लेता हूँ !
ReplyDeleteएक सबक यह भी मिला की आई डी की फ़ोटो कापी साथ में रखनी चाहिए। वैसे मैं रखता हूँ हमेशा कि कहीं खूसट बूढ़ा न मिल जाए। :)
ReplyDelete