यात्रा आरम्भ करने से पहले एक और बात कर लेते हैं। परभणी, महाराष्ट्र के रहने वाले निरंजन साहब पिछले दो सालों से साइकिल से लद्दाख जाने की तैयारियां कर रहे थे। लगातार मेरे सम्पर्क में रहते थे। उन्होंने खूब शारीरिक तैयारियां की। पश्चिमी घाट की पहाडियों पर फुर्र से कई-कई किलोमीटर साइकिल चढा देते थे। पिछले साल तो वे नहीं जा सके लेकिन इस बार निकल पडे। ट्रेन, बस और सूमो में यात्रा करते-करते श्रीनगर पहुंचे और अगले ही दिन कारगिल पहुंच गये। कहा कि कारगिल से साइकिल यात्रा शुरू करेंगे।
खैर, निरंजन साहब आराम से तीन दिनों में लेह पहुंच गये। यह जून का पहला सप्ताह था। रोहतांग तभी खुला ही था, तंगलंग-ला और बाकी दर्रे तो खुले ही रहते हैं। बारालाचा-ला बन्द था। लिहाजा लेह-मनाली सडक भी बन्द थी। पन्द्रह जून के आसपास खुलने की सम्भावना थी। उनका मुम्बई वापसी का आरक्षण अम्बाला छावनी से 19 जून की शाम को था। इसका अर्थ था कि उनके पास 18 जून की शाम तक मनाली पहुंचने का समय था। मैंने मनाली से लेह साइकिल यात्रा चौदह दिनों में पूरी की थी। मुझे पहाडों पर साइकिल चलाने का अभ्यास नहीं था। फिर मनाली लगभग 2000 मीटर पर है, लेह लगभग 3500 मीटर पर है। मैं 2000 से 3500 मीटर पर गया था, जबकि निरंजन साहब को 3500 मीटर से 2000 मीटर पर आना था, उन्हें पहाडों पर साइकिल चलाने का अनुभव भी था। इसलिये उन्हें यह यात्रा करने में एक सप्ताह ही लगता या फिर ज्यादा से ज्यादा दस दिन। उनके पास अभी भी पन्द्रह दिन थे यानी कम से कम पांच दिन ज्यादा।
लेकिन चोगलमसर में सिन्धु किनारे बैठकर पता नहीं उन्हें क्या हुआ कि कहने लगे- मैं यह यात्रा नहीं करूंगा। हमारी फोन पर बात होती थी। मैंने कारण पूछा। बोले- मनाली रोड अभी खुली नहीं है। लोकल आदमी कह रहे हैं कि पन्द्रह तारीख को खुलेगी और रास्ते में कुछ खाने-पीने और ठहरने को भी नहीं मिलेगा। मैंने उन्हें समझाया- भाई मेरे, लोकल की बातों को मत सुनो। उनसे कुछ मत पूछो। आपने पिछले दो सालों से मेरी हर बात मानी है, यहां भी आपको मेरी ही बात माननी पडेगी। आपको 18 की शाम तक मनाली पहुंचना है। केवल बारालाचा-ला बन्द है। इसका अर्थ है कि आप बारालाचा खुलने से पहले सरचू तक पहुंच सकते हैं। अगर आप 15 को भी बारालाचा पार करेंगे या 16 को भी पार करेंगे तो आराम से 18 तक मनाली पहुंच जाओगे। दूसरी बात, अगर आधिकारिक रूप से बारालाचा 15 को खुलेगा तो पांच दिन पहले ही छोटे वाहनों का आवागमन आरम्भ हो जायेगा। आप आधिकारिक रूप से बारालाचा खुलने से पहले ही उसे पार कर सकते हैं। तीसरी बात, फिर भी अगर आपको विलम्ब हो जायेगा तो दो दिन बाद मुम्बई चले जाना या चार दिन बाद चले जाना। दो साल लग गये आपको यहां आने में, इन दो दिनों की वजह से इस यात्रा को खराब मत करो। रही बात खाने और ठहरने की तो उसकी भी चिन्ता मत करो। तंगलंग-ला से इधर रूमसे गांव है और उधर डेबरिंग। रूमसे तक कोई समस्या नहीं आयेगी। डेबरिंग लद्दाखी भेडपालकों का ठिकाना है। ये लोग सर्दियां बीतते ही इधर आ जाते हैं, आपको आराम से खाना भी मिलेगा और बिस्तर भी। डेबरिंग से आगे पांग में आईटीबीपी का ठिकाना है जहां वे बारहों महीने रहते हैं। पहली बात तो पांग में आपको दुकानें खुली मिलेंगी, नहीं तो आईटीबीपी जिन्दाबाद। फिर सीमा सडक संगठन इस सडक को खोलने की जी-तोड कोशिश कर रहा है। हर दस किलोमीटर पर उनके भी ठिकाने हैं। आपको कोई दिक्कत नहीं आयेगी।
बोले कि कल मैं खारदुंग-ला जाऊंगा, मनाली जाने के बारे में वहां से लौटकर बताऊंगा। मैं खुश हो गया कि भाई एक बार खारदुंग-ला चला गया तो उसका आत्मविश्वास बढेगा। तीन दिन बाद फिर फोन किया। वे तब भी चोगलमसर में ही थे। वे खारदुंग-ला नहीं गये थे। वे लगातार स्थानीय लोगों से बातचीत कर रहे थे और स्थानीयों ने उन्हें इतना डरा दिया था कि वे अब वापस श्रीनगर लौटने की बात करने लगे थे। मैंने उनका मनोबल बढाने की कोशिश करते हुए कहा- आप छोडो सारी बातों को। एक बार तंगलंग-ला पार करो। मुझ पर भरोसा रखो। एक बार... सिर्फ एक बार... जिन्दगी में यह मौका फिर नहीं मिलेगा। अभी आपको असम्भव लग रहा है। यह न असम्भव है और न ही कठिन। आपका शरीर ऊंचाई के अनुकूल हो चुका है। आप आराम से सबकुछ कर लोगे। प्लीज एक बार तंगलंग-ला पार कर लो।
लेकिन वे हिम्मत हार गये। वापस श्रीनगर लौट गये और फिर मुम्बई। वे दो साल से इस यात्रा की तैयारियां कर रहे थे। एक एक काम... छोटे छोटे काम उन्होंने मुझसे पूछकर किये। खूब बातें पूछी उन्होंने। पिछले साल तो उनकी बातों और जवाबों की एक पोस्ट भी लिखी थी मैंने। पता नहीं उन्हें किस बात ने डराया? मुझसे तो उन्होंने यही बताया कि रास्ता नहीं खुला है और जितना खुला है, वहां खाने-पीने और रुकने का नहीं मिलेगा लेकिन बात कुछ और भी थी। उन्होंने लद्दाख को बेहद खूबसूरत और जन्नत सरीखा समझ लिया होगा और मिले होंगे वहां रेतीले और बंजर पहाड, बेस्वाद खाना, बदबूदार लद्दाखी शौचालय। कहीं यह सब देखकर वे निराश तो नहीं हो गये?
खैर, जब हम लेह में थे तो मनाली की तरफ से पहली गाडी 14 जून को आई। इसका अर्थ था कि उन्होंने 13 जून को बारालाचा-ला पार किया होगा। आज (28 जून) को दैनिक भास्कर में एक यात्रा-वृत्तान्त छपा जिसमें वे लोग जून के पहले सप्ताह में श्रीनगर की तरफ से लेह गये थे और तंगलंग-ला पार करके सरचू तक पहुंच गये। वहां जाकर उन्हें पता चला कि आगे रास्ता बन्द है यानी बारालाचा-ला बन्द है तो उन्हें रात सरचू रुककर लेह वापस लौटना पडा था। जून के पहले सप्ताह में निश्चित ही बारालाचा-ला किसी भी वाहन से अलंघ्य था लेकिन दूसरे सप्ताह में वह अलंघ्य नहीं रह गया। वे लोग रात सरचू में रुके थे, इसका अर्थ था कि सरचू में रात रुकने और खाने-पीने का इंतजाम था। सरचू भले ही कोई गांव न हो लेकिन सडक खुलने से पहले ही वहां चहल-पहल शुरू हो जाती है।
निरंजन जी, आपने छोटी सी निराशा की वजह से यह बेहतरीन मौका खो दिया। आप इसे कर सकते थे।
चलिये, यात्रा वृत्तान्त पर चलते हैं। हमें छह जून को निकलना था। इससे तीन चार दिन पहले मौसम अचानक बिगड गया और हम सभी को बीमार कर गया। मुझे नजला-जुकाम हो गया और निशा को बुखार भी। सर्वसम्मति से तय हुआ कि निशा नहीं जायेगी। लम्बी दूरी की यात्राओं में पीछे बैठने वाले की बहुत दुर्गति होती है। अकेले जाने के हिसाब से तैयारी करने लगा। अगर निशा जाती तो बाइक में बुलेट की तरह सामान रखने के लिये पिंजरा भी लगवा लेता।
उधर जयपुर से देवेन्द्र कोठारी साहब भी तैयार हो गये। दिल्ली से एक और मित्र राजी थे लेकिन उनके पिताजी ने पैसे नहीं दिये, इसलिये वे नहीं चल सके। कोठारी साहब एक दिन पहले ही दिल्ली आ गये और दक्षिण दिल्ली में अपनी किसी रिश्तेदारी में रुके। हमारे यहां वे छह तारीख की दोपहर को आये।
छह जून लद्दाख यात्रा आरम्भ कर देने का दिन था। हालांकि पिछले तीन चार दिनों से मौसम अच्छा हो गया था लेकिन उससे पहले मौसम इतना गर्म था कि सुबह सवेरे से ही लू चलनी शुरू हो जाती थी और पूरी-पूरी रात चलती रहती थी। इसलिये योजना थी कि शाम को यहां से निकलेंगे, रात को चलते रहेंगे। छह-सात घण्टे चलने के बाद आधी रात को लुधियाना के आसपास कहीं रुक लेंगे। कम से कम पैंतालीस डिग्री की धूप से तो बचे रहेंगे।
लेकिन एक दिन पहले निशा कहने लगी कि वो भी चलेगी। अब समय ऐसा था कि मैं बाइक लेकर करोल बाग नहीं जा सका ताकि सामान रखने को पिंजरा लगवा सकूं। हमारे पास सामान काफी होगा, फिर निशा के लिये भी कुछ आरामदायक जगह चाहिये, इसलिये बडी परेशानी होगी इसे बांधने में। देखने में लगता होगा कि पीछे बैठा यात्री अगर चालक और सामान में बीच में ‘सैण्डविच’ बना बैठा रहे तो उसे आराम रहता होगा लेकिन ऐसा नहीं होता। कुछ समय बाद उसकी कमर में दर्द होने लगेगा और उसे अपने हिलने-डुलने के लिये कुछ जगह चाहिये होगी। यह हमने डोडीताल जाते समय सीखा था।
कोठारी साहब के घरवालों ने खूब सारे कपडे बांध दिये थे, काफी कपडे गैर-जरूरी भी थे। जो गैर-जरूरी थे, उन्हें यहीं छोड दिया। उनके लिये एक टैंट, मैट्रेस और स्लीपिंग बैग भी बांधे। उनके पास होण्डा यूनीकॉर्न बाइक थी। एक ही यात्री होने के बावजूद भी सामान बांधने में पसीने छूट गये।
खैर, छह जून की शाम पांच बजकर पचास मिनट पर हम शास्त्री पार्क से निकल लिये और यात्रा की शुरूआत हो गई।
आज शनिवार था। दिल्ली की सडकों पर शाम के इस समय वैसे तो खूब ट्रैफिक होता है, लेकिन आज तो भयंकर था। कल की सबकी छुट्टी है, इसलिये पानीपत-करनाल व पंजाब के जो नौकरीपेशा लोग यहां रहते हैं, उनके लिये आज अपने घर जाने का दिन था। कुछ लोगों को छुट्टी मनाने शिमला-मनाली जाना था। भयंकर ट्रैफिक था। बहालगढ पहुंचने में डेढ घण्टा लग गया। बहालगढ के बाद अन्धेरा भी होने लगा लेकिन सडक अच्छी होने के कारण जाम नहीं मिला। मैंने पहले ही एक नाइट विजन चश्मा खरीद लिया था, इसे पहनकर चलाने में कुछ राहत मिली। नहीं तो सामने से आने वाले वाहनों की तेज लाइटें हमें अन्धा बना देती हैं। ऐसा नहीं है कि इस चश्में को पहनने से रात में भी दिन जैसा दिखने लगा लेकिन सामने से आ रहे वाहनों की हाई बीम लाइटें आंखों को चुभती नहीं थीं।
सवा आठ बजे पानीपात पार करके टोल बैरियर पर रुके। मोटरसाइकिल का कोई टोल नहीं लगता लेकिन कोठारी साहब पीछे थे, उन्हें भी साथ लेना जरूरी था। कुछ देर बाद वे भी आ गये। हमें ढाई घण्टे हो चुके थे चलते हुए। यहां कुछ देर आराम किया, फ्रेश हुए और कोल्ड ड्रिंक पी। कोठारी साहब ने पूछा- इतना ज्यादा ट्रैफिक अभी कहां तक मिलेगा? मैंने कहा- यह शाम का समय है। लोकल ट्रैफिक ज्यादा है। नौ साढे नौ बजे तक रहेगा, फिर कम हो जायेगा।
ग्यारह बजे अम्बाला छावनी पहुंचे। फ्लाईओवर पार करते ही रुक गये और पीछे आ रहे कोठारी साहब को भी बता दिया कि फ्लाईओवर पार करते ही रुक जाना है। दिल्ली से यहां तक कोई दिक्कत की बात नहीं थी। मुकरबा चौक पर एक बार समझदारी दिखानी होती है, फिर अम्बाला तक सीधे ही चलना होता है। अम्बाला से चण्डीगढ की सडक अलग हो जाती है। हमें लुधियाना वाली सडक पर जाना था। हालांकि अब तक ट्रैफिक बहुत कम हो गया था, लेकिन हमें नींद आने लगी थी। यहीं 25-30 किलोमीटर दूर बनूड में हमारी एक रिश्तेदारी है। उन्हें सूचित कर दिया। हालांकि बनूड इस लुधियाना वाली सडक से थोडा हटकर है लेकिन कहीं कमरा लेने से बहुत ज्यादा बेहतर था वहां जाना।
ठीक बारह बजे आधी रात को हम बनूड पहुंच गये। गर्मागरम खाना मिला, ठण्डे पानी में नहाना मिला और फिर सोना मिला।
7 जून 2015
नींद ऐसी आई कि सुबह जिस समय निकल पडने की बात तय हुई थी, उससे एक घण्टे बाद तो हम सोकर ही उठे। हमने सोचा था कि हमारे लेट हो जाने की वजह से कोठारी साहब विचलित हो जायेंगे, लेकिन हम उठे तो देखा कि वे भी बिल्कुल अभी-अभी सोकर उठे हैं। नये-ताजे उठने की जो चेहरे पर आभा होती है- मिचमिची सी आंखें होती हैं- बस वैसे ही कोठारी साहब थे। मुझे देखते ही बोले- बडी शानदार नींद आई। उन्होंने एलएलबी की हुई है- हालांकि वकालत नहीं की- इसलिये पिताजी को हमने बता रखा था कि वे जयपुर में एक बडे वकील हैं। गौरतलब है कि पिताजी मेरे इण्टरनेट के मित्रों को पसन्द नहीं करते। सोचते हैं कि इन्हीं की वजह से- इन्हीं की तारीफों की वजह से लडका बिगडा पडा है। लेकिन जब सुना- वकील साहब- तो कुछ प्रभावित तो हुए। अब जब यात्रा शुरू हो गई, तो मैं और निशा आपसी बातचीत में उन्हें ताऊ कहते थे। हालांकि उनके सामने कभी ताऊ नहीं कहा, बस आपसी बातचीत में ही कहते थे- मसलन ताऊजी भी उठ गये, ताऊ अभी पीछे हैं आदि। उन्हें सम्बोधित करने के लिये हम ‘सर’ कहते थे।
बाइक की नियमित जांच करने बैठा तो कोठारी साहब की बाइक पर भी निगाह पड गई। टायर बहुत पुराने होने के कारण ठीक हालत में नहीं थे। चारों तरफ छोटे-छोटे क्रैक पडे हुए थे। ये अच्छे संकेत नहीं थे। मैंने जम्मू पहुंचकर टायर बदलवाने का सुझाव दिया लेकिन सर बोले- आज करे सो अब। टायर हम जम्मू में नहीं, यहीं बनूड में बदलवायेंगे। सामान बंधा रहने दिया। नरेन्द्र भाई और कोठारी साहब मैकेनिक के यहां चले गये। कह गये कि हम बाइक वहीं खडी करके अभी दस मिनट में आ रहे हैं। लेकिन एक घण्टा हो गया, वे नहीं आये। उधर भाभीजी हम दोनों पर नाश्ते का दबाव डाल रही थीं। हम सबके साथ नाश्ता करना चाह रहे थे। मैंने फोन किया तो बताया- एक पहिया खोल रखा है, काम पूरा होते ही आ रहे हैं। मैंने भाभीजी से कहा- नाश्ता लगा दो।
दस बजे वे आये, बिना बाइक के। आते ही कोठारी साहब ने आशीषों की झडी लगा दी- नीरज, तूने बहुत बढिया किया कि टायर बदलवा दिये। मैंने जब नये टायर देखे तो दोनों में जमीन-आसमान का फर्क था। यात्रा पूरी करनी तो दूर, यह श्रीनगर भी नहीं पहुंचती। फिर अपने घर जयपुर फोन किया। तारीफें मेरी ही हुईं।
पौने बारह बजे यहां से चले। नरेन्द्र भाई ने रोपड, होशियारपुर के रास्ते जाने का सुझाव दिया था। मैं लुधियाना वाले मुख्य रास्ते से जाना चाहता था। बनूड से लुधियाना वाला रास्ता रोपड वाले के मुकाबले तीस किलोमीटर ज्यादा है लेकिन छह लेन होने के कारण मेरा पसन्दीदा था। रोपड वाला दो लेन है।
बनूड से सीधे राजपुरा पहुंचे और दाहिने मुड गये। हां, इससे पहले एक काम और हुआ। जैसे ही कोठारी साहब को पता चला कि पठानकोट के बाद प्री-पेड मोबाइल काम नहीं करेगा, उन्होंने तुरन्त अपने प्री-पेड वाले को पोस्ट-पेड में बदलवाने की अर्जी अपने लडके के माध्यम से लगवा दी। लडके ने कस्टूमर केयर पर बात की और कहा कि दो घण्टे में काम हो जायेगा। वो अलग बात है कि चौबीस घण्टे में भी काम नहीं हुआ।
हर चार-चार पांच-पांच किलोमीटर पर शर्बत के भण्डारे मिले। कडी धूप में ठण्डा शर्बत पीना आत्मा तक को तृप्त कर जाता था। हमें बस वहां जाकर बाइक रोकनी होती थी, उससे पहले ही शर्बत हमारे पास पहुंच जाता था। कुछ सेकण्ड लगते और हम तृप्त होकर आगे बढ जाते। यहां एक बडी अच्छी बात देखी- प्लास्टिक के डिस्पोजल गिलासों का कहीं भी प्रयोग नहीं हो रहा था। उनकी जगह या तो प्लास्टिक के मोटे मोटे गिलास थे या फिर स्टील के जिन्हें धोने के लिये स्वयंसेवकों या स्वयंसेविकाओं की ड्यूटी लगी हुई थी। मुझे याद आया कि सचिन जब यूपी से गुजर रहा था तो उसने इसी तरह के एक भण्डारे का जिक्र किया था। वहां प्लास्टिक के डिस्पोजल गिलासों का प्रयोग हो रहा था और गन्दगी व प्रदूषण खूब फैल रहा था। वास्तव में भण्डारे वालों को इस दिशा में भी सोचना चाहिये।
जालंधर के पास एक जगह तो खरबूजे भी बंट रहे थे। जालंधर पार करके मैंने कोठारी साहब की लोकेशन जानने को फोन किया। वे जालंधर कैंट स्टेशन के पास उस तिराहे पर खडे थे, जहां से सीधे सडक शहर में जाती है और दाहिने अमृतसर-जम्मू जाने के लिये बाईपास। मैंने उन्हें बताया कि आप बाईपास पर आ जाओ और पांच-छह किलोमीटर के बाद पठानकोट रोड पर चल देना। हम वहीं मिलेंगे। मैं सडक किनारे ही खडा था। कोठारी साहब दूर से ही दिख गये। मैंने हाथ हिलाया, उनका न रुकने का मूड देखकर दोनों हाथ हिलाये लेकिन वे सर्र से निकल गये। वे मेरे इतने नजदीक से निकले कि मैं चाहता तो उन्हें स्पर्श कर सकता था। हालांकि उनके निकलने में कोई परेशानी नहीं थी। आखिर जायेंगे कहां? लेकिन उनके जितना नजदीक मैं था और दोनों हाथ हिला रहा था, उनका ध्यान नहीं गया। लेकिन ऐसे में दुर्घटना भी हो सकती है। कोई गाय-भैंस दौडती हुई आ सकती है या कोई और गाडी अनियन्त्रित होकर आ सकती है। सभी चालकों को अपने आस-पास के माहौल पर भी ध्यान रखना होता है।
कुछ आगे शर्बत पीते वे मिल गये। मैंने उन्हें आगे ही हिदायतें दीं- पठानकोट तक सीधे चलते जाना है। पठानकोट से आगे निकलकर एक टी-पॉइंट मिलेगा। वहां से बायें सडक अमृतसर जाती है और दाहिने जम्मू। हमें दाहिनी तरफ मुड जाना है। बस, वहीं पर मिलेंगे।
हम सीधे वहीं जाकर रुके। लखनपुर यहां से पन्द्रह किलोमीटर रह जाता है। लखनपुर अर्थात जम्मू-कश्मीर राज्य का प्रवेश द्वार। लखनपुर से आगे प्री-पेड मोबाइल काम नहीं करेगा और कोठारी साहब का प्री-पेड अभी तक भी पोस्ट-पेड नहीं हुआ है। यानी हमारा सम्पर्क नहीं हो सकेगा। उसके लिये विचार-विमर्श हुआ। फिर पिछले एक घण्टे से शर्बत भी नहीं मिला था, खूब प्यास लगी थी। यहां गटागट कई गिलास गन्ने का रस पीया।
पंजाब के मुकाबले जम्मू में पेट्रोल सस्ता है। इसलिये सीमा पार करके लखनपुर में टंकी फुल करा ली।
अब अर्णव मगौत्रा का जिक्र करना जरूरी है। मैं सोच रहा था कि जम्मू पहुंचकर ही अर्णव का जिक्र करूंगा। जब से लद्दाख की योजना सार्वजनिक की है, तभी से अर्णव लगातार सम्पर्क में है। वह जम्मू का ही रहने वाला है। आज हमें अर्णव के ही सानिध्य में रुकना है। उन्होंने जम्मू में हमारे लिये एक कमरा बुक कर दिया था। मैंने होटल का पता ले लिया और कोठारी साहब को भी दे दिया। अगर हम जम्मू-कश्मीर राज्य में बिछड जाते हैं तो होटल में ही मिलेंगे। फिर भी एक बात और बता दी- साम्बा से आगे एक तिराहा है। वहां से दाहिने हाथ सडक ऊधमपुर जाती है। अब हम उसी तिराहे पर मिलेंगे। हमें उस ऊधमपुर वाली सडक पर नहीं जाना है, लेकिन अब हम वहीं मिलेंगे।
रात साढे आठ बजे साम्बा के उसी तिराहे पर मिले। तय हुआ कि फिर आगे मिलें या न मिलें, सीधे होटल ही पहुंचते हैं।
बडी ब्राह्मण के पास अर्णव भी मिल गया। वह हमें यहीं डिनर कराना चाहता था। पहले पता होता कि जम्मू में प्रवेश से पहले ही डिनर करना पडेगा तो धीरे-धीरे चलते हुए कोठारी साहब को भी साथ ले आते। खैर, कुछ देर उनकी प्रतीक्षा की। वे नहीं दिखे तो अर्णव हमें एक भव्य भोजनालय में ले गया। क्या खाओगे- अर्णव ने हमें इन औपचारिकताओं में नहीं डाला और अपनी पसन्द का खाना मंगाया। दुविधा में थे कि कोठारी साहब का भी खाना अगर पैक करा लें और वे अगर कहीं खा लें तो खाना बेकार जायेगा। इसलिये होटल में फोन कर दिया। जैसे ही कोठारी साहब उस होटल में पहुंचे, तो हमारी उनसे बात हो गई और यह भी तय हो गया कि उनका खाना हम लेकर आयेंगे।
अर्णव मगौत्रा ने वास्तव में हमारे लिये बडी मेहनत और खर्चा किया। पहले कमरा बुक किया और फिर आलीशान डिनर। कल हमें कार से बाहु किला दिखाने ले जायेगा और अखनूर तक हमारे साथ चलेगा, फिर लौट आयेगा। पहले हमारी योजना थी कि जम्मू से सुबह निकलकर शाम तक बूढा अमरनाथ पहुंचेंगे लेकिन अब इसमें परिवर्तन करना पडेगा। जम्मू से निकलने में ही ग्यारह-बारह बज जाने हैं। अब शाम को 150 किलोमीटर दूर राजौरी रुकेंगे। उसके अगले दिन पहले बूढा अमरनाथ जायेंगे, फिर मुगल रोड होते हुए श्रीनगर।
बाइक पर सामान बांधते हुए |
दिल्ली से प्रस्थान |
पानीपत टोल बैरियर |
बनूड में |
अगले दिन बनूड से प्रस्थान |
पंजाब में शर्बत वितरण |
खरबूजा वितरण केन्द्र पर खरबूजा भक्षण, पीछे खडे हैं कोठारी साहब। |
जालंधर के पास खरबूजा वितरण केन्द्र |
गिलासों की धुलाई |
अर्णव मगौत्रा और उसका दोस्त |
अगला भाग: लद्दाख बाइक यात्रा-3 (जम्मू से बटोट)
1. लद्दाख बाइक यात्रा-1 (तैयारी)
2. लद्दाख बाइक यात्रा-2 (दिल्ली से जम्मू)
3. लद्दाख बाइक यात्रा-3 (जम्मू से बटोट)
4. लद्दाख बाइक यात्रा-4 (बटोट-डोडा-किश्तवाड-पारना)
5. लद्दाख बाइक यात्रा-5 (पारना-सिंथन टॉप-श्रीनगर)
6. लद्दाख बाइक यात्रा-6 (श्रीनगर-सोनमर्ग-जोजीला-द्रास)
7. लद्दाख बाइक यात्रा-7 (द्रास-कारगिल-बटालिक)
8. लद्दाख बाइक यात्रा-8 (बटालिक-खालसी)
9. लद्दाख बाइक यात्रा-9 (खालसी-हनुपट्टा-शिरशिरला)
10. लद्दाख बाइक यात्रा-10 (शिरशिरला-खालसी)
11. लद्दाख बाइक यात्रा-11 (खालसी-लेह)
12. लद्दाख बाइक यात्रा-12 (लेह-खारदुंगला)
13. लद्दाख बाइक यात्रा-13 (लेह-चांगला)
14. लद्दाख बाइक यात्रा-14 (चांगला-पेंगोंग)
15. लद्दाख बाइक यात्रा-15 (पेंगोंग झील- लुकुंग से मेरक)
16. लद्दाख बाइक यात्रा-16 (मेरक-चुशुल-सागा ला-लोमा)
17. लद्दाख बाइक यात्रा-17 (लोमा-हनले-लोमा-माहे)
18. लद्दाख बाइक यात्रा-18 (माहे-शो मोरीरी-शो कार)
19. लद्दाख बाइक यात्रा-19 (शो कार-डेबरिंग-पांग-सरचू-भरतपुर)
20. लद्दाख बाइक यात्रा-20 (भरतपुर-केलांग)
21. लद्दाख बाइक यात्रा-21 (केलांग-मनाली-ऊना-दिल्ली)
22. लद्दाख बाइक यात्रा का कुल खर्च
Bhai aap sab ka hosalah baada te ho
ReplyDeleteaap se jaankari le ne ke baad bhi nirajan sir aa ge nhi gaye to bekaar hai
ham bhi aap se prena le ke amarnath
jaa rahe hai kuch hamara bhi hoshla
Bada ye baaki aaj ki post ne dil jit liya
aa ge
मुबारक हो गुप्ता जी अमरनाथ यात्रा की। बस, निकल पडो... यही कहना चाहता हूं।
Deleteउन्होंने लद्दाख को बेहद खूबसूरत और जन्नत सरीखा समझ लिया होगा और मिले होंगे वहां रेतीले और बंजर पहाड, बेस्वाद खाना, बदबूदार लद्दाखी शौचालय। कहीं यह सब देखकर वे निराश तो नहीं हो गये?
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य ह बात बिल्कुल स ही है ......... जो लोग लदाख जाते है .. उनके मन मैं अच्छे......अच्छे..... नजारें हिमालयीन बर्फसी ढ्की पहाडियाँ.... एसा कुछ होता है... पिछले साल २०१४ जुलै हम ६ लोग लदाख गये थे ... मेरे साथ जो थे उन को सच्चाई बतायी थी ... साथ मैं नीरज तुम्हारी मनाली टु श्रीनगर यात्रा विवरण था ... तो चल पडें ....
हां जी, यह अक्सर होता है। बहुत लोगों को लद्दाख जाकर निराशा हाथ लगती है। धन्यवाद आपका सर जी।
Deleteपिताजी मेरे इण्टरनेट के मित्रों को पसन्द नहीं करते। सोचते हैं कि इन्हीं की वजह से- इन्हीं की तारीफों की वजह से लडका बिगडा पडा है।
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घ्रर .....घ्रर... की कहानी...
Neeraj bhai bahut shandaar yatra vivran hai
ReplyDeletetumhare yatra padhkar to main bhi kaafi prerit hua or saal me do teen baar yatra ho jati hai
tumhare yatra lekhon ko padhkar yatra schedule banana me kaafi help ho jaati
aise hi likhte raho bhai
yatra ka liye bahut bahut shubh kamnayen bhai
धन्यवाद सुनील जी...
Deleteएक बार फिर से अच्छा विवरण पढ़ने को मिला। लद्दाख के बारे में जो सच्चाई बताई उसे जानकर तो कोई भी वहां नहीं जाना चाहेगा।
ReplyDeleteस्वाति जी, लद्दाख वाकई बहुत खूबसूरत है... एक अलग ही दुनिया है लेकिन अगर देखा जाये तो हैं तो वे बंजर और सूखे पहाड ही। किसी को खूबसूरती दिखती है, किसी को बंजर दिखता है।
Deleteनीरज जी बहुत बढ़िया आपकी इस पोस्ट का काफी समय से इंतजार था
ReplyDeleteधन्यवाद चौधरी साहब...
DeleteBahut hi shandaar post neeraj bhai
ReplyDeleteMaza aa gya
Kafi dino se khali khali lag rha tha .
Thank u.
अब नहीं लगेगा खाली खाली... अब तो लद्दाख वृत्तान्त चल पडा...
DeleteNice description with beautiful pics...will wait for the continuing parts...It will be a good read as I will able to find the places I am yet to visit in Ladakh... keep sharing on facebook so that I get the opportunity to read your travelogue :-)
ReplyDeleteधन्यवाद चक्रवर्ती दादा... फेसबुक पर सभी पोस्टों की जानकारी अवश्य साझा करूंगा।
DeleteNice description with beautiful pics….will wait for the continuing parts….I always love to read about Ladakh…please keep sharing the link of your coming posts on facebook
ReplyDeletenice
ReplyDeleteनाइस... आपको भी।
Deleteशानदार आगाज़।
ReplyDeleteये नाइट विजन चश्मा कैसा होता है।
सर जी, यह थोडा पीलापन लिये होता है। इससे सामने से आ रहे वाहनों की सफेद हाई बीम लाइटें आंखों को चुभती नहीं हैं। वे लाइटें कुछ पीलापन लिये हमें दिखती हैं, जिसकी वजह से नहीं चुभतीं। इससे ज्यादा कुछ नहीं होता। अन्धेरे में अन्धेरा ही दिखता है।
Deletevery nice
ReplyDeletereally inspired to visit Leh on my bike
thank u sir
थैंक्स यू आलसो सर जी...
DeleteSir, I am from Jalandhar.
ReplyDeletewhenever you travel via Jalandhar you can call me for any kind of help. my number is 8146000377 and email id is singh.gurpal2247@gmail.com
waiting for your next post
Thanks
सर जी, लगातार सम्पर्क में बने रहेंगे तो याद रहेगा... नहीं तो भूल जाऊंगा। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
Deleteनीरज भाई आपने कोठारी साहब को टायर बदल नें की बढिया सलाह दी नही तो यात्रा में समस्या आनी ही थी...
ReplyDeleteअच्छा लगा बाईक पर एक सफर ओर...
बिल्कुल समस्या आती सचिन भाई....
Deleteसही लिखा सचिन
Deleteनीरज के अनुभव धरातल से जुड़े है....:)
नीरज जी, प्रणाम!!! आपने मेरे बारे में काफी हद तक ठीक ही कहा है| मै हिम्मत हार गया या कहिए मुझे मेरी सीमित क्षमता का अहसास हुआ जब मै हेमिस गोंपा की ३०० मीटर की चढाई भी साईकिल पर नही जा सका| मेरी यह पहली ही साईकिल ट्रेकिंग थी; शायद इसलिए मै उतनी हिंमत नही रख पाया| अगर मैने एक भी और ट्रेक पहले किया होता (जो आपने मुझे पहले ही कहा था...) तो मै आगे भी जा पाता| लेकिन काफी हौसला मिला है| आगे जरूर करूँगा| इस आंशिक यात्रा का पूरा श्रेय भी आपही को जाता है| आपको फिर एक बार धन्यवाद|
ReplyDeleteनिरंजन जी, सच कहूं तो आपसे ज्यादा मलाल मुझे है कि आप इस यात्रा को पूरा नहीं कर पाये। खैर, अगली बार के लिये मैं फिर से हाजिर हूं आपका हौंसला बढाने के लिये।
Deleteनीरज जी काफी दिनों के बाद इस लेख के द्वारा आपके लेखन में एक उच्च स्तर के लेखक के गुण दिखाई दिए हैं. लेखन में सुधार एवं शब्दों के सही चयन तथा दिलचस्प यात्रा विवरण के लिए शुक्रिया.
ReplyDeleteआपका भी बहुत बहुत धन्यवाद...
Deleteबहुत अच्छा और प्रेरक विवरण।
ReplyDeleteधन्यवाद द्विवेदी सर...
Deleteमैं अपने आप को सौभाग्यशाली समझता हूँ कि मैंने नीरज आपके साथ लेह लद्दाख बाईक यात्रा में सहयात्री बना। जितने दिनों का साथ रहा वो पल मैंने वास्तव में जिये है।
ReplyDeleteयह यात्रा मेरे जीवन की अविस्मरणीय व अमिट याद बन चुकी है।
सलाम आपके जीवट व हौसला अफ़्जाई को।
सर जी, हम भी बहुत अच्छा महसूस करते रहे आपके साथ... लगता था कि हमारे अभिभावक ही हमारे साथ हैं...
Deleteनीराज भाई bike par saman bhot achi tarah banda huwa he .... bhot mehnat karni padi hongi ???
ReplyDeleteधन्यवाद गायकवाड साहब, सामान बांधने में बहुत मेहनत करनी पडती थी। वो भी रोज-रोज।
Deletenice post
ReplyDeletebeautiful photos..
एण्ड ब्यूटीफुल कमेण्ट...
Deleteबहुते बढ़िया बल्कि शानदार विवरण
ReplyDeleteनीरज भाई मेरी दिल से इच्छा है की एक बार बाइक से लेह लद्दाख यात्रा करूँ पर इसके लिए जो सही महिना है "जून-जुलाई" उसमें इंडिया आना ही मेरे लिए सबसे टेढ़ी खीर है. फिर किराये की बाइक या कोई बाइक वाला सहयात्री भी ढूँढना पड़ेगा क्योंकि अकेले जाने की हिम्मत भी नहीं है. फिर भी एक बात तो पक्का है की कभी न कभी जाऊँगा जरूर.
लद्दाख के लिये केवल जून-जुलाई ही सही महीने नहीं हैं, बल्कि अगस्त-सितम्बर और अक्टूबर भी ठीक हैं। लोग तो सर्दियों में भी वहां जाते हैं।
DeleteAapka likhne ka trika bhout accha hai...aise lagta hai ki mine khud hi yatra kar rha hi.....That,s Great...
ReplyDeleteधन्यवाद आपका...
Deleteबहुत सुंदर यात्रा विवरण तथा आकर्षक चित्र. आगाज़ से अंदाज़ा लगाया जा सकता है की अंज़ाम बहुत खूबसूरत होगा. इस यात्रा में हम भी आपके साथ हैं नीरज जी. अगली कड़ी के इंतज़ार में.
ReplyDeleteधन्यवाद मुकेश जी...
Deleteइन्तजार खत्म बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteआपका भी धन्यवाद...
Deleteनीरज भाई पिताजी का क्या दोष ....... नौकरी बदली ....उसी के चक्कर में तनख्वाह रुक गयी। बहुत अफओस हुआ आपके साथ न जाने का । और कुछ नहीं तोह आपका ब्लॉग एक यात्रा वृतांत बन जाता बच्चों को दिखने के लिए :D
ReplyDeletevishal anuubhav aur sacheche artho me paryatan ke prati samarpan hi aap ko mahan banata hai.
ReplyDeleteबहुत सुंदर यात्रा वर्णन। चित्र भी सुंदर ।
ReplyDeleteहम भी जब पालनपुर से पथनकोठ जा रहे थे तो ऐसे ही भंडारे मिले थे जहाँ हमने खाना तो नहीं खाया पर चाय जरूर पी थी ।
ReplyDeleteनीरज जी, आपके लेख को बहुत बहुत धन्यवाद। मैं आज 6 साल बाद आपके लेख को पढ़ रहा हूँ। मैं लेह लद्दाख जाना चाह रहा हूँ, पर कोई साथी साथ देने को तैयार नही हो रहा है, किसी के पास पैसे की, तो किसी के पास समय की कमी, तो किसी के पास मनोबल की कमी। मैं भी अपना प्लान बदलने वाला था कि ऑनलाइन आपका यात्रा व्रतांत लेख मिल गया ।इसको पढ़ने पर एक अलग ही मनोबल बढ़ गया है, और मैं अब अकेला ही बाइक से जा रहा हूँ।
ReplyDeleteपुनः बहुत बहुत धन्यवाद नीरज जी।