13 जून 2015
सवा दो बजे हम शिरशिरला पहुंच गये थे। यह स्थान समुद्र तल से 4800 मीटर ऊपर है। यहां से फोतोकसर दिख तो नहीं रहा था लेकिन अन्दाजा था कि कम से कम दस किलोमीटर तो होगा ही। रास्ता ढलान वाला है, फिर भी स्पीड में कोई बढोत्तरी नहीं होगी। हम औसतन दस किलोमीटर प्रति घण्टे की रफ्तार से यहां तक आये थे। फिर भी मान लो आधा घण्टा ही लगेगा। यानी हम तीन बजे तक फोतोकसर पहुंच जायेंगे। भूख लगी थी, खाना भी खाना होगा और गोम्पा भी देखना होगा। जल्दी करेंगे फिर भी चार साढे चार बज जाने हैं। पांच बजे तक वापस शिरशिरला आयेंगे। वापसी में दो घण्टे हनुपट्टा के और फिर कम से कम दो घण्टे ही मेन रोड तक पहुंचने के लगेंगे। यानी वापस खालसी पहुंचने में नौ बज जायेंगे। वैसे तो आज ही लेह पहुंचने का इरादा था जोकि खालसी से 100 किलोमीटर आगे है। हमारा सारा कार्यक्रम बिगड रहा है और हम लेट भी हो रहे हैं।
वैसे तो फोतोकसर में रुकने की समस्या नहीं है, होमस्टे मिल जाते हैं। फिर हमारे पास कहीं भी रुक जाने का विकल्प भी था। टैंट हमारे पास था। इतना भोजन भी बैग में था कि आज का काम चल जाता। लेकिन आज इधर ही रुकने का अर्थ है कि कल लेह पहुंचते पहुंचते शाम हो जायेगी। हमें कल ही खारदुंग-ला पार करना पडेगा अन्यथा हमारे पास समय कम होता चला जायेगा और प्रतिदिन ज्यादा बाइक चलाने का दबाव बढ जायेगा। आपस में विचार-विमर्श किया और तय हुआ कि फोतोकसर नहीं जाते हैं। अब जब फोतोकसर नहीं जाना है तो एक घण्टा और यहां शिरशिरला पर रुकते हैं। अच्छा लग रहा था। हम कल्पना कर रहे थे कि दिल्ली हमसे कितनी नीचे है- साढे चार किलोमीटर से भी नीचे। पूरा भारत हमसे नीचे था- लेह सवा किलोमीटर नीचे, श्रीनगर तीन किलोमीटर, मनाली पौने तीन, रोहतांग एक, शिमला पौने तीन, गंगोत्री पौने दो किलोमीटर, केदारनाथ एक किलोमीटर... सबकुछ हमसे ‘किलोमीटरों’ नीचे था। हम 4800 मीटर की ऊंचाई पर बैठे थे। बडा अच्छा लग रहा था यह सब कल्पना करते हुए।
आखिरकार पौने चार बजे यहां से वापस चल दिये। नीचे उतरने के बावजूद भी बाइक पहले गियर में ही चली। लगातार ब्रेक नहीं लगाये जा सकते थे, इससे अच्छा था कि पहले गियर में ही रहने दो। अपने आप चलेगी, अपने आप ब्रेक भी लगेंगे।
शाम के समय बर्फ पिघलती जाती है और पानी का बहाव भी बढ जाता है। अब सडक पर भी ज्यादा पानी आ गया था और कुछ बहाव भी बढ गया था। हम दर्रे के पास थे अर्थात अधिकतम ऊंचाई के पास, इसलिये इस पानी का उतना असर नहीं हुआ। जितना नीचे उतरते चले जायेंगे, नालों में पानी उतना ही ज्यादा बढता चला जायेगा।
हनुपट्टा की तरफ मौसम भी खराब था लेकिन मैं खराब मौसम से निश्चिन्त था। हवा पूरे वेग से चल रही थी- यह तो कहने की आवश्यकता नहीं थी। एकाध बूंदें भी गिरीं, लेकिन इससे ज्यादा कुछ नहीं हुआ। सवा पांच बजे हनुपट्टा पहुंचे। हनुपट्टा से शिरशिरला तक पहुंचने में हमें दो घण्टे लगे थे, वापसी में डेढ घण्टा लगा। नियमित अन्तराल पर हम रुकते भी थे। हनुपट्टा के बाद घाटी संकरी होती जा रही थी। कुछ देर पहले जब हम नीचे से ऊपर जा रहे थे, तो मुझे यहां बडा डर लग रहा था। अब बिल्कुल भी डर नहीं लग रहा था। लगातार खराब सडक पर चलते रहने के कारण ऐसा हुआ। जहां पहले बीआरओ वाले काम कर रहे थे, अब वहां उनकी मशीनें खडी थीं, आदमी कोई नहीं था, सब चले गये थे।
पुल पार करके तो चौडा रास्ता आ जाता है और बाइक की रफ्तार तीस तक पहुंच जाती है। फंजीला के बाद अच्छी सडक मिल गई तो अपने ही आप स्पीड पचास पहुंच गई।
ठीक सात बजे हम मेन रोड पर थे यानी लंगरू में। यहां कुछ ढाबे हैं। अभी उजाला था। हमारा इरादा खालसी में रुकने का नहीं था, बल्कि आगे ही बढते जाने का था ताकि कल फायदा रहे। भूख लगी ही थी, इसलिये यहीं लंगरू में खाना खाया और पौने आठ बजे जब अन्धेरा होने लगा था, हम चल दिये। लेह खालसी से सौ किलोमीटर दूर है, पहाडी रास्ता है लेकिन अच्छा बना है इसलिये तीन घण्टे लगेंगे यानी आधी रात हो जानी है। इसलिये आज तो लेह नहीं पहुंच सकते। तय हुआ कि कहीं रास्ते में टैंट लगायेंगे।
खालसी पुल से कुछ पहले एक चौडा सा मैदान है। मैंने इसमें सडक से नीचे टैंट लगाने का सुझाव दिया तो निशा ने मना कर दिया। शायद सन्नाटे से डर रही हो या इस बात का डर हो कि कहीं रात में कोई ट्रक वगैरा दिशा भटककर टैंट पर न चढ जाये।
ठीक आठ बजे खालसी पहुंचे। खाना खाने की जरुरत ही नहीं थी। उसी गेस्ट हाउस में कमरा ले लिया। इस बार कोई मोलभाव नहीं हुआ। जिस भाव से कल लिया था, वही भाव आज भी स्वतः ही लग गया यानी पांच सौ का कमरा और सुबह नहाने के लिये गर्मागरम पानी। आज यहां कर्नाटक के कुछ बाइकर्स रुके हुए थे। वे लेह की तरफ जा रहे थे।
इससे पहले सुबह एक गडबड हो गई थी। इस गेस्ट हाउस में कुछ नये कमरे बन रहे हैं। कमरे तो बन चुके हैं, बस फाइनल काम बचा हुआ था। बिहारी मजदूर लगे पडे थे। बाइक हमारी गेस्ट हाउस के बाहर सडक पर ही खडी थी। सुबह शिरशिरला के लिये चल दिये। रास्ते में गौर की तो पाया कि मोबाइल-कैमरा चार्जर नहीं था। इसे बाइक में मीटर के पास स्क्रू से कसा हुआ था। किसी ने इसे इतने भद्दे तरीके से खींचा था कि जहां स्क्रू से कसा था, वो हिस्सा थोडा टूट गया था। चोर ने स्क्रू नहीं खोला। सबकुछ प्लास्टिक होने के कारण यह टूट गया और हेड लाइट का तार भी बाहर निकल गया। चार्जर के साथ तार भी खिंचेगा, उसी के साथ हैड लाइट का तार भी खिंच गया। नतीजा- हैड लाइट नहीं जल रही थी। हालांकि उस समय दिन था, लाइट की जरुरत नहीं थी लेकिन मैंने पेंचकस से इसे ठीक कर दिया। आप अगर नियमित लद्दाख जाते हैं तो चोरी का शक कभी भी किसी लद्दाखी पर नहीं जायेगा। उसी घर में बिहारी मजदूर भी थे, सीधा शक उन्हीं पर गया।
शाम को जब हमें यहीं रुकना पडा तो मैंने मालकिन को इस बारे में बताया। उसने कहा- इन लोगों से हम भी तंग हैं। सोलर हीटर का एक पाइप इन्होंने चोरी करने के चक्कर में तोड दिया है, अब हीटर ऐसा ही पडा हुआ है। दिल्ली से नया पाइप मंगाना पडेगा। और भी छोटी-छोटी चीजें इन्होंने चोरी की हैं। और तो और, सुबह ये लोग बाहर ही बैठ जाते हैं हगने। हर कमरे में शौचालय है, फिर भी वहां बैठेंगे खुले में। कई बार कह लिया लेकिन नहीं मानते। हम तंग हैं इनसे। थोडा सा काम बचा है, फिर मुक्ति मिलेगी।
कुछ लोग जहां भी जाते हैं, वहीं गंध फैलाते हैं।
वापस खालसी की ओर |
शाम को पानी का बहाव बढ जाता है। |
हनुपट्टा गांव |
वनला गांव |
आज का डिनर- आलू गोभी, रोटी, प्याज, कोल्ड ड्रिंक और ... आमलेट आना बाकी है। |
अगला भाग: लद्दाख बाइक यात्रा-11 (खालसी-लेह)
1. लद्दाख बाइक यात्रा-1 (तैयारी)
2. लद्दाख बाइक यात्रा-2 (दिल्ली से जम्मू)
3. लद्दाख बाइक यात्रा-3 (जम्मू से बटोट)
4. लद्दाख बाइक यात्रा-4 (बटोट-डोडा-किश्तवाड-पारना)
5. लद्दाख बाइक यात्रा-5 (पारना-सिंथन टॉप-श्रीनगर)
6. लद्दाख बाइक यात्रा-6 (श्रीनगर-सोनमर्ग-जोजीला-द्रास)
7. लद्दाख बाइक यात्रा-7 (द्रास-कारगिल-बटालिक)
8. लद्दाख बाइक यात्रा-8 (बटालिक-खालसी)
9. लद्दाख बाइक यात्रा-9 (खालसी-हनुपट्टा-शिरशिरला)
10. लद्दाख बाइक यात्रा-10 (शिरशिरला-खालसी)
11. लद्दाख बाइक यात्रा-11 (खालसी-लेह)
12. लद्दाख बाइक यात्रा-12 (लेह-खारदुंगला)
13. लद्दाख बाइक यात्रा-13 (लेह-चांगला)
14. लद्दाख बाइक यात्रा-14 (चांगला-पेंगोंग)
15. लद्दाख बाइक यात्रा-15 (पेंगोंग झील- लुकुंग से मेरक)
16. लद्दाख बाइक यात्रा-16 (मेरक-चुशुल-सागा ला-लोमा)
17. लद्दाख बाइक यात्रा-17 (लोमा-हनले-लोमा-माहे)
18. लद्दाख बाइक यात्रा-18 (माहे-शो मोरीरी-शो कार)
19. लद्दाख बाइक यात्रा-19 (शो कार-डेबरिंग-पांग-सरचू-भरतपुर)
20. लद्दाख बाइक यात्रा-20 (भरतपुर-केलांग)
21. लद्दाख बाइक यात्रा-21 (केलांग-मनाली-ऊना-दिल्ली)
22. लद्दाख बाइक यात्रा का कुल खर्च
पिछली पोस्ट में आपने लिखा था की दर्रे पर हवा बहुत तेज चल रही थी जब दर्रों पर हवा इतनी तेज होती है तो सांस लेने में दिक्कत क्यों होती है?
ReplyDeleteहवा तेज जरूर होती है लेकिन हल्की भी होती है। तेज चलने का यह अर्थ नहीं है कि वो अपने आप ही फेफडों में चली जायेगी। सामान्यतः मैदानों में एक सांस में जितनी हवा हम लेते हैं, ऊंचाई पर जाने पर उतनी हवा अन्दर नहीं जाती, इसलिये उसकी पूर्ति करने के लिये सांस तेजी से लेनी पडती है। इसका हवा की रफ्तार से कोई सम्बन्ध नहीं है।
Deleteइसके अतिरिक्त सामान्यत: दर्रे उस ऊंचाई पर होते हैं कि आक्सीजन की मात्रा मैदान की तुलना में कम होती है...शरीर को हवा ठंडक के लिए नहीं आक्सीजन के लिए ही चाहिए होती है :) अत: उतनी ही आक्सीजन के लिए ज्यादा मात्रा में हवा अंदर लेनी पड़ेगी..शनि फेफडा़ें को आवरटाईम करना पड़ेगा इसे सांस फूलना कहा जाएगा।
DeleteWhat a terrain. Amazing photos.
ReplyDeleteधन्यवाद तुषार जी...
Deleteलडाखी खाना किस तरह अलग होता है... बाकी इलाखे के तुलना में ! ...
ReplyDeleteलद्दाख में खूब पर्यटक जाते हैं इसलिये वहां हर जगह मैदानी खाना मिल जाता है। रोटी, चावल और आलू की सब्जी, राजमा तो खूब मिलते हैं। स्थानीय लोग भी इन्हें खूब खाते हैं। स्थानीय भोजन में थुपका और लद्दाखी नमकीन चाय आते हैं। मांसाहार भी खूब होता है।
Delete'थुपका' के बारे में पिछ्ले हिमा च ल वाले घुम क्क्डी में प ढा था ... 'थुपका' का एक फोटो हो तो ज रुर डालिए ... प्लिज ...
Delete------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
नमकीन चाय --- वही ... जो पुरी कश्मीर में पी जा ती है.... मैने अमरनाथ यात्रा (२०१२) के दौरान 'कुद' में उसका चस्का लिया है .... बिल्कुल अच्छा स्वाद नही था ... ड्रायव्हर ने ( जो श्रीनगर का था ) म ना किया था ... लेकीन में नही माना ....
नीरज आपके साथ वाले भाई साहब कहा छुट गए आगे क्या साथ में थे की उनकी कहानी ख़त्म
ReplyDeleteसर जी, वे श्रीनगर में छूट गये थे और अभी तक यानी जितना आपने पढा है, खालसी तक.... वे नहीं मिले। अगर मिलेंगे तो आगे के वृत्तान्तों में आयेगा, नहीं मिलेंगे तो भी आयेगा। इतना सस्पेंस और सब्र तो बनता है।
Deleteभाई साहब आपने बताया की दर्रे पर रंग बिरंगी झंडियां लगी होती है कोई विशेष कारण
ReplyDeleteलेकिन छायाचित्र के साथ साथ अच्छा लेखन भी
उमेश जी, दर्रों पर हमेशा तूफानी हवाएं चलती हैं और मौसम भी घाटियों के मुकाबले ठण्डा होता है, बर्फ भी मिल जाती है। इसलिये स्थानीय लोगों के लिये इन्हें पार करना हमेशा ही चुनौती भरा रहा है। तो जब वे दर्रे पर चढ जाते हैं तो धन्यवाद स्वरूप वहां पवित्र झण्डियां लगा देते हैं। इन झण्डियों पर बौद्ध मन्त्र- ॐ मणि पद्मे हुं लिखा होता है या अन्य प्रार्थनाएं लिखी होती हैं। इसके अलावा कोई धार्मिक महत्व नहीं होता।
Delete"मैं निशा और कोठारी साहब से भी विचार-विमर्श करता रहता था लेकिन करता वही था जो मेरे मन में हो।"
ReplyDelete"प्रतिदिन ज्यादा बाइक चलाने का दबाव बढ जायेगा। आपस में विचार-विमर्श किया और… ."
नीरज जी!… आप करते तो अपनी मर्जी की हो फिर ये "विचार- विमर्श " कैसा ??
हा हा हा... अपनी बात मनवाने और पूर्ण रूप से सहमत करवाने के लिये विचार-विमर्श करना होता है, अन्यथा साथी संशय में पडा रहेगा कि नीरज कर क्या रहा है। कम से कम उसे भी पता रहे कि हो क्या रहा है और क्यों हो रहा है?
Deleteनीरज जीतेजी स्वर्ग जी लिया तुमने :)
ReplyDeleteधन्यवाद सैनी साहब...
DeleteNisha is a lucky lady.
ReplyDeleteसहमत...
Deleteनीरज भाई, मज़ा आ गया!
ReplyDeleteधन्यवाद शाह नवाज जी...
Deleteनीचे उतरने के बावजूद भी बाइक पहले गियर में ही चली। लगातार ब्रेक नहीं लगाये जा सकते थे, इससे अच्छा था कि पहले गियर में ही रहने दो। अपने आप चलेगी, अपने आप ब्रेक भी लगेंगे।
ReplyDeleteबाइक ऑटोमेटिक है क्या!
नहीं, बाइक ऑटोमेटिक नहीं है। ये तो आपको पता ही होगा कि भले ही हम नीचे उतर रहे हों लेकिन हम स्पीड से नहीं चल सकते थे। इसलिये बाइक पहले गियर में लगा दी। जहां जरुरत होती, वहां थोडा सा एक्सीलरेटर बढा देते। पहले गियर में होने के कारण यह ढलान पर होने के बावजूद भी लुढकती नहीं है।
Deleteइसके अतरिक्त पहाड़ पर गाडी चलने का एक नियम है जिस गियर पर उपर जाते हो उसी पर नीचे आना चहिये ऐसा मेने नाथुला में सीखा था
DeleteNeeraj g Kothari Sahab kahan reh gaye..? Unke baare apne nahi bataya...
ReplyDeleteगुरपाल जी, कोठारी साहब श्रीनगर में छूट गये थे। अब (खालसी तक) वे कहां हैं, हमें भी नहीं पता। जैसे ही पता चलेगा, हम बता देंगे। इतना संस्पेंस तो होना भी चाहिये।
Deleteवाह! इतने सुंदर चित्र मैने कभी नहीं देखे. लद्दाख के पहाड़ तो कुछ अलग ही तरह के दिखाई देते हैं. तीखे तीखे रंग बिरंगे पहाड़. कुछ फोटोज़ तो ऐसे लग रहे हैं जैसे किसी मशहूर चित्रकार की पैंटिंग हो. उपर से 3,4,6,11,12,12,13,14,17 और 18 नंबर के चित्र नेशनल जियोग्राफ़िक चैनल की टक्कर के हैं. उनमें से भी 13 और 17 नंबर के चित्र तो करिश्माई हैं. आज के चित्र देखकर मैं मंत्रमुग्ध हो गया हूँ. राकेश सैनी जी ने सही कहा है, आपने जीते जी स्वर्ग देख लिया. आप महान हो नीरज जी....
ReplyDeleteजिन पाठकों ने आज की पोस्ट के चित्रों पर जल्दबाज़ी में ध्यान नहीं दिया हो उनसे गुज़ारिश है की जिन चित्रों के मैनें उपर नंबर लिखे हैं उन्हें एक बार और गौर से देखें, शायद ऐसे चित्र आपलोगों ने भी कभी नहीं देखे होंगे.
धन्यवाद मुकेश जी... लद्दाख है ही ऐसी जगह कि कहां कैसा नजारा मिल जाये, कुछ नहीं कहा जा सकता।
Deleteकमाल का वृतांत लिखा है एक बार पढ़ने बैठो तो फिर हटने का मन ही नहीं करता।
ReplyDeleteऊंचाई पर तेज हवा चलने के कारण भी हमें सांस लेने में दिक्कत क्यों होती है।
दिक्कत इस लिए होती है क्योंकि साँस लेते वक्त हम हवा नहीं लेते हवा में मिश्रित ऑक्सीजन लेते है और जैसे जैसे हम ऊंचाई पर जाते जाते है हवा में ऑक्सीजन की मात्रा कम होती जाती है। ऊंचाई पर कम ऑक्सीजन के कारन ही थोडा सा कार्य करते ही हमें जल्दी सांस चढ़ जाती है।
विशाल जी, सांस लेते वक्त हम हवा ही लेते हैं। बाद में फेफडे ऑक्सीजन सोख लेते हैं। ऊंचाई पर हवा का घनत्व कम होता जाता है, इसलिये ऑक्सीजन, नाइट्रोजन और अन्य सभी गैसें भी कम होती जाती हैं।
Deleteधन्यवाद आपका।
कमाल का वृतांत लिखा है एक बार पढ़ने बैठो तो फिर हटने का मन ही नहीं करता।
ReplyDeleteऊंचाई पर तेज हवा चलने के कारण भी हमें सांस लेने में दिक्कत क्यों होती है।
दिक्कत इस लिए होती है क्योंकि साँस लेते वक्त हम हवा नहीं लेते हवा में मिश्रित ऑक्सीजन लेते है और जैसे जैसे हम ऊंचाई पर जाते जाते है हवा में ऑक्सीजन की मात्रा कम होती जाती है। ऊंचाई पर कम ऑक्सीजन के कारन ही थोडा सा कार्य करते ही हमें जल्दी सांस चढ़ जाती है।
नीरज भाई 17वीं तस्वीर का तो कोई जवाब नहीं। देखते ही ख्याल आया की तस्वीर है या पेंटिंग। लाजवाब।
ReplyDeleteऐसे रास्तो पर गाड़ी की हालत खस्ता हो जाती है वापसी के बाद काम भी करवाना पड़ा होगा! आखिर में जब हिसाब किताब वाली पोस्ट लिखेंगे तो उसमे इसका भी ब्योरा रखने की गुजारिश है आपसे।
धन्यवाद राहुल जी, बाइक ही हालत खराब तो हो ही गई थी। आते ही सर्विस कराई लेकिन अभी तक भी पूरी ठीक नहीं हुई।
Deleteनई दुनिया व नई जगह से रूबरू होने का अहसास सा हो रहा है। वैसे दुनिया मे शायद लद्दाख मे ही सबसे ज्यादा व ऊंचे दर्रे होगे।
ReplyDeleteबिल्कुल भाई... लद्दाख और तिब्बत भौगिलिक रूप से एक जैसे हैं, इसलिये इन्हीं स्थानों पर दुनिया के सबसे ऊंचे दर्रे स्थित हैं।
Deleteपर्यटन मे ले जाने वालों सामानो की बचाव के लिए बाइक मे साइड बॉक्स लगवा ले और होटल छोड़ने से पहले अपने लाये गए सामानो को चेक करके निकले ।इसमे केवल एक दो मिनेट एक्सट्रा लगेगा।
ReplyDeleteधन्यवाद सर जी...
DeleteCongratulations for the first biker at tis la
ReplyDeleteधन्यवाद सर जी...
Deleteऐसा क्यों लगता है जैसे चित्र न होकर किसी चित्रकार की पेंटिंग हो ।
ReplyDeleteलद्धाख अपनी इन्ही विशेषताओ के कारण फेमस है । आज केफोटु तो कयामत है