18 जून 2015
दोपहर के पौने दो बजे हम पेंगोंग किनारे स्थित मेरक गांव से चले। हमारा आज का लक्ष्य हनले पहुंचने का था जो अभी भी लगभग 150 किलोमीटर दूर है। मेरे पास सभी स्थानों की दूरियां थीं और यह भी ज्ञात था कि कितनी दूर खराब रास्ता मिलेगा और कितनी दूर अच्छा रास्ता। इन 150 किलोमीटर में से लगभग 60 किलोमीटर खराब रास्ता है, बिल्कुल वैसा ही जैसा हमने स्पांगमिक से यहां तक तय किया है। इन 60 किलोमीटर को तय करने में तीन घण्टे लगेंगे और बाकी के 90 किलोमीटर को तय करने में भी तीन ही घण्टे लगेंगे; ऐसा मैंने सोचा था। यानी हनले पहुंचने में अन्धेरा हो जाना है। अगर कुछ देर पहले वो बुलेट खराब न होती तो हम उजाला रहते हनले पहुंच सकते थे।
मेरक से चलने पर भी रास्ते में कोई सुधार नहीं आया। जैसे जैसे आगे बढते गये, रास्ता पेंगोंग से दूर होता गया। दूर कहीं पेंगोंग किनारे आईटीबीपी की पोस्ट दिखाई दे रही थी। एक पोस्ट सामने ऊपर पहाडी पर दिख रही थी।
जब हम गूगल मैप का भारतीय संस्करण (maps.google.co.in) खोलते हैं तो हमें वो इलाका दिखाया जाता है जिसे भारत अपना मानता है; भले ही वो पाकिस्तान ने कब्जा रखा हो या चीन ने। लेकिन अगर हम गूगल मैप का अन्तर्राष्ट्रीय संस्करण (maps.google.com) खोलते हैं तो सारे विवादित इलाके बिन्दुदार रेखाओं द्वारा दिखाई देते हैं। सामने पहाडी पर जहां हमें भारतीय चौकी दिख रही थी, गूगल मैप में वहां चीन द्वारा मानी गई सीमा दिखाई गई है जबकि भारत द्वारा मानी गई सीमा इससे कुछ आगे थी। अब हकीकत में सीमा कहां है, भारत प्रशासित क्षेत्र कहां समाप्त होता है और चीन प्रशासित क्षेत्र कहां शुरू होता है; यह मुझे नहीं पता चला। इसी को सैटेलाइट मोड में देखते हैं तो चुशुल के पूर्व में एक झील के किनारे लाल छत वाले मकान बने हैं। यह चीनी चौकी है। इससे जरा सा हटकर हरी छत वाली भारतीय चौकी भी दिखती है। यानी भारत के परिदृश्य में चीन ने यहां उसके कुछ इलाके पर कब्जा कर रखा है। इससे यह भी अन्दाजा लगाया जा सकता है कि हमारे सामने पहाडी पर जो भारतीय चौकी है, वो सीमा के बेहद नजदीक है।
पेंगोंग से दूर जाते हैं तो मामूली सी चढाई भी शुरू हो जाती है। रास्ते में काफी सुधार आ जाता है। सुधार इसलिये आता है कि रेत कम हो जाती है, झाड झंगाड मिलने लगते हैं और सभी वाहन एक ही लीक में चलते हैं जिससे बाइक चलाने में पहले के मुकाबले आसानी हो जाती है।
फिर हम ऐसी जगह पहुंचते हैं जहां चढाई समाप्त हो जाती है और उतराई आरम्भ हो जाती है। सामने चुशुल दिखने लगता है। यहां झण्डियां भी लगी हैं, जिससे लगता है कि यह कोई दर्रा है। लेकिन वास्तव में यह दर्रा नहीं है। किसी वजह से भले ही सडक नीचे उतर रही हो लेकिन फिर भी ढाल पेंगोंग की तरफ ही है। चुशुल, उसके पास के बहुत बडे मैदान, उधर काकसांग-ला और उधर सामने सागा-ला तक का सारा पानी आखिरकार पेंगोंग में ही गिरता है। एकाध अंग्रेजी यात्रा-वृत्तान्त में मैंने इसे चुशुल पास भी पढा है लेकिन वास्तव में यह दर्रा नहीं है। यहां लद्दाखियों ने झण्डियां क्यों लगा रखी हैं, इसे वे ही जाने।
(ताजा अपडेट: एक मित्र ने इस तरफ ध्यान दिलाया है कि चुशुल पास वास्तव में एक दर्रा है। इसके एक तरफ का पानी तो पेंगोंग में जाता है और दूसरी तरफ यानी चुशुल, काकसांग-ला और सागा-ला तक का पानी एक दूसरी झील स्पांगर-शो में जाता है। स्पांगर-शो फिलहाल चीनी नियन्त्रण में है और चुशुल से दिखती भी है।)
(ताजा अपडेट: एक मित्र ने इस तरफ ध्यान दिलाया है कि चुशुल पास वास्तव में एक दर्रा है। इसके एक तरफ का पानी तो पेंगोंग में जाता है और दूसरी तरफ यानी चुशुल, काकसांग-ला और सागा-ला तक का पानी एक दूसरी झील स्पांगर-शो में जाता है। स्पांगर-शो फिलहाल चीनी नियन्त्रण में है और चुशुल से दिखती भी है।)
यहां से लेकर और सागा-ला तक लगभग चालीस किलोमीटर लम्बा और चार-पांच किलोमीटर चौडा यह मैदान है जिसके एक कोने में चुशुल है। चारों तरफ की पहाडियों से बर्फ का पानी आते रहने से यह मरुस्थलीय भूभाग नमभूमि बन गया है। घास बहुत है और बहुत सारे जानवरों व पक्षियों की रिहाइश भी है। हमें एक लोमडी भी दिखी।
सवा चार बजे चुशुल पहुंच गये। मुझे यकीन नहीं था कि कभी चुशुल भी पहुंच सकूंगा क्योंकि पिछले साल तक चांग-ला तक का भी परमिट लगता था और चुशुल का स्पेशल परमिट बनता था। अभी भी चुशुल का परमिट लगता है लेकिन फाइनल परमिट सेना की हां या ना ही होता है। हालांकि मेरक में पुलिस ने परमिट चेक किया। जब तक हमें मेरक से आगे जाने के लिये हां नहीं कह दिया, मन में धुकधुकी होती रही कि वापस न भेज दें। ऐसा मैंने पहले भी पढा है कि परमिट होने के बावजूद भी किसी को चुशुल नहीं जाने दिया।
रेजांगला के बिना चुशुल का वर्णन अधूरा है। रेजांगला की लडाई का ही नतीजा था कि चुशुल आज भारत में है। 1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया तो हर जगह भारत को मुंह की खानी पडी थी लेकिन रेजांगला की लडाई में उसने चीन को सीजफायर के लिये मजबूर कर दिया और चुशुल चीन का हिस्सा होने से बच गया।
रेजांगला की लडाई के किस्से को विस्तार से बताने का मन कर रहा है। रेजांगला जैसा कि नाम से ही विदित हो रहा है कि यह एक दर्रा है। इसकी वास्तविक स्थिति मुझे नहीं पता लेकिन यह चुशुल के दक्षिण-पूर्व में कहीं था। 18 नवम्बर 1962 की सुबह उजाला होने से पहले ही चीन की हजारों की सेना ने रेजांगला पर चढाई कर दी। उस समय यहां 120 सैनिक थे। भौगोलिक परिस्थिति भारत के पक्ष में थी और चीन का भारी नुकसान हुआ। लेकिन नुकसान भारत का भी हुआ। 120 में से 114 सैनिक मारे गये और बाकी घायल हो गये। रेजांगला की लडाई के पश्चात ही मेजर शैतान सिंह को मरणोपरान्त सेना का सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र प्रदान किया गया। उन जिन्दा बचे छह में से दो सैनिकों रामचन्द्र यादव और निहाल सिंह की जुबानी आप उस दिन की घटना को यहां क्लिक करके पढ सकते हैं। शहीद होने वालों में ज्यादातर हरियाणा के गुडगांव, रेवाडी क्षेत्र के रहने वाले थे इसलिये गुडगांव, रेवाडी, नारनौल में रेजांगला चौक, रेजांगला मेमोरियल भी बने हैं।
चुशुल में तांगसे से आने वाली सडक भी मिल जाती है। यहां से सिन्धु घाटी के लिये दो सडकें जाती हैं- एक तो आसान सागा-ला होते हुए और दूसरी कठिन काकसांग-ला होते हुए। काकसांग-ला खारदुंग-ला से भी ऊंचा है और हमारी प्रारम्भिक योजना इसी से होकर सिन्धु घाटी में जाने की थी। लेकिन दो कारणों से हमने काकसांग-ला वाले रास्ते को नहीं चुना। पहला, कल तक मौसम खराब था और काकसांग-ला भी उसी बेल्ट में है जिसमें खारदुंग-ला, चांग-ला। बर्फ मिलेगी और रास्ता तो खराब है ही। दूसरा, शाम हो चुकी थी। तीन घण्टे बाद रात भी हो जायेगी, तब तक हम शायद ही काकसांग-ला पहुंच सकें। ऊपर फिर से एकान्त में टैंट लगाना पडेगा। ठण्ड लगेगी और कहीं ऐसा न हो कि रात भर नींद न आये। हमने आसान रास्ते यानी सागा-ला से ही जाना उचित समझा।
चुशुल में रुकने-खाने का इंतजाम है। होमस्टे है। स्कूल भी है जिसका अर्थ है कि चुशुल केवल सैनिक महत्व का ही गांव नहीं है, यहां आबादी भी रहती है। हम काफी लेट थे और लेट होने का अर्थ है कि कहीं रुकने के लिये ज्यादा समय नहीं होता। हनले नहीं पहुंच सकेंगे, लेकिन कम से कम लोमा तो पहुंच जायें।
चुशुल में हमें किसी ने नहीं रोका और न टोका। असल में हमें यहां कोई चेकपोस्ट ही नहीं दिखी। चुशुल से बाहर निकलते ही चुशुल मेमोरियल है जो 1962 की लडाई की याद में बनाया गया है। इससे लगभग 14-15 किलोमीटर आगे रेजांगला मेमोरियल बनाया गया है। हर दो-दो किलोमीटर पर सूचना दर्शाते बोर्ड भी लगे हैं कि मेमोरियल अब इतनी दूर है।
मैंने अभी बताया था कि चुशुल से सागा-ला तक लगभग 40 किलोमीटर लम्बी और चार-पांच किलोमीटर चौडी एक मैदानी पट्टी है। इस पट्टी के इस तरफ सडक है और दूसरी तरफ कहीं चीन सीमा। उधर एक भारतीय चौकी भी दिखती है। रास्ता अभी भी खराब ही था। बिल्कुल कच्चा था और हमें एक लीक में ही चलना पड रहा था। 25-30 की ही रफ्तार मिल रही थी। मैदान में लद्दाखी जंगली गधे यानी क्यांग भी खूब थे जो हमें देखते ही चौकन्ने हो जाते थे और भागना शुरू कर देते थे। ये बडे ही अजीब तरीके से भागते हैं। मुंह एक तरफ उठायेंगे और भागेंगे दूसरी तरफ।
मेरी निगाहें केवल सडक पर ही जमी थीं, बाइक से लगभग चार मीटर आगे; बस। एक पतली सी लीक में बाइक चलानी पड रही थी, जरा भी इधर-उधर हो जाते तो रेत और बजरी के मिश्रण में असन्तुलित हो जाते। निशा पीछे बैठी प्रकृति का आनन्द ले रही थी। अचानक उसने कहा- नीरज, उधर देख, शेर है। मैंने एक सेकण्ड के लिये सामने से निगाह हटाई, बायें देखा और फिर सामने निगाह जमा दी। वाकई एक शेर था। मुझे लगा वहम है। बाइक की स्पीड कम की और तीन-चार सेकण्ड के लिये बायें देखा। वास्तव में शेर था और हमारी तरफ बढ रहा था। वो भी बब्बर शेर- गले पर घने बालों वाला। मैं कांप उठा। निशा से कह दिया कि उसके चलने की दिशा देखती रह और बाइक तीस की रफ्तार पर दौडा दी।
मैं सोचने लगा कि यहां लद्दाख में बब्बर शेर कहां से आ गया। भारत में बब्बर शेर केवल गुजरात में ही पाया जाता है। यहां लद्दाख में हिम तेंदुआ तो मिल सकता है लेकिन शेर नहीं। फिर सोचा कि हो सकता है कि उधर चीन में होती हो शेर की कोई प्रजाति। मैं यही सब सोच रहा था, अचानक निशा बोली- अरे वो तो कुत्ता है। बाइक रोक दी। लद्दाखी कुत्ते बडे और झबरे होते हैं। इस मैदान में दूरी का अन्दाजा लगाने में गलती हो गई और कुत्ता अपने वास्तविक आकार से बडा दिखने लगा। फिर हम कुछ आगे बढे, हमारे और कुत्ते के बीच का कोण बदला तो वास्तविक बात पता चली। हम खूब हंसे। वाकई उस समय हम दोनों बेहद डर गये थे। लद्दाख में शेर नहीं होते, यह तो हमें पता था लेकिन जब आंखों के सामने ही शेर था तो क्या करते?
रेजांगला मेमोरियल पर कोई नहीं था। शाम के साढे पांच बजे थे, इसलिये दो-तीन फोटो लिये और बढ चले।
दाहिनी तरफ के पहाडों पर खूब सारे बंकर बने थे। ये 1962 में बनाये गये थे और अब इनका कोई काम नहीं था।
यह जगह भयंकर रूप से वीरान है। यह वीरानगी तब और भी बढ जाती है जब झाडियां मिलने लगती हैं। अगर सीमान्त न होता तो यहां बहुत सारे भेडपालक-याकपालक मिलते। सडक पर एकाध सैन्य गाडी तो जाती मिली, उसके अलावा कोई नहीं।
सागा-ला के पास कुछ याकपालक मिले। यहां दिनभर में शायद ही कोई गाडी आती हो, इसलिये याकों में हमें देखकर भगदड मच गई।
साढे छह बजे सागा-ला पहुंचे। यह दर्रा 4635 मीटर ऊंचा है और पेंगोंग व सिन्धु के बीच जलविभाजक का काम भी करता है। दर्रे से कुछ दूर सैन्य ठिकाना भी था। धूप अभी भी थी लेकिन हवा जोरदार चल रही थी। हम यहां पांच मिनट रुके और आगे चल दिये।
पांच किलोमीटर आगे सागा गांव के पास अच्छी सडक मिली। फिर तो बाइक की स्पीड अपने आप ही पचास पार कर गई। थोडा आगे आईटीबीपी की एक चेकपोस्ट मिली जहां हमारे परमिट की कॉपी जमा कराई गई और हमारी व बाइक की डिटेल एक रजिस्टर में लिखी गई। साढे सात बज चुके थे, धूप गायब हो चुकी थी हालांकि उजाला अभी भी था।
रास्ता फिर से मैदानी है। सामने सिन्धु घाटी दिख रही थी। जितना हम सिन्धु के पास आते गये, मैदान उतना ही चौडा होता गया। इसमें खूब भेडपालक-याकपालक थे जो अपने-अपने तम्बुओं में रात्रि विश्राम करने के लिये जा चुके थे। रास्ते पर रेत भी मिलने लगी। अभी तक रास्ता दक्षिण की तरफ था, अब धीरे धीरे पश्चिम की ओर हो गया। लोमा ज्यादा दूर नहीं।
अन्धेरा होने के बाद सबसे ज्यादा डर होता है कुत्तों का। सडक अच्छी बनी थी लेकिन रेत के कारण बार-बार धीरे होना पडता, ज्यादा रेत होती तो निशा को भी उतरना पडता। भेडपालकों के साथ कुत्ते अनिवार्य रूप से होते हैं। हमें देखकर एक ने झपटने की कोशिश की, उससे पहले ही मैंने बाइक रोक ली। कुत्ते अगर आपको बाइक चलाते देखकर झपटने की तैयारी करते दिखें तो बाइक रोक लेनी चाहिये। फिर वो नहीं झपटता।
लोमा में सिन्धु पर पुल बना है। उस पार हनले है। पुल से कुछ पहले शायद बीआरओ का ठिकाना है। हम उनके सामने से गुजर रहे थे तो कुछ कुत्तों ने भौंकते हुए पीछा किया। हम डर गये। आठ बज चुके थे और अन्धेरा भी हो गया था। इसके बाद एक और सैन्य ठिकाना दिखा तो हम वहां रुक गये। एक लडका बाहर निकलकर आया। मैंने उससे पूछा कि लोमा गांव में रुकने का कोई ठिकाना है क्या? बोला कि लोमा कोई गांव नहीं है, यह सीमान्त के पास आईटीबीपी, सेना आदि का एक पडाव है। यहां कहीं रुकने का ठिकाना नहीं मिलेगा। आप हनले चले जाओ, वहां मिल जायेगा। मैंने कहा कि रात हो चुकी है, कुत्तों से डर लगता है; आज हम हनले नहीं जायेंगे। हमने उनके यहीं टैंट लगाने की अनुमति मांगी तो वो हमें अन्दर ले गया। यह सेना का ठिकाना था- इण्डियन आर्मी का।
सैनिकों ने बताया कि साहब अभी बाहर गये हैं, नौ बजे तक वापस आयेंगे। वे ही अनुमति देंगे। तब तक आप यहां बैरक में बैठ जाओ। हम दोनों उनकी बैरक में बैठ गये। अंगीठी जल रही थी, काफी गर्मी थी और टीवी भी चल रहा था।
पूरे भारत में आप कहीं भी चले जाओ। सेना का ठिकाना मिले या बीएसएफ का या आईटीबीपी का या सीआरपीएफ का; आपको हर जगह पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के सैनिक मिल जायेंगे। एक सैनिक की बोली मुझे मेरठ की लगी; मैंने उससे पूछा कि आप कहां के रहने वाले हो? बोला- यूपी का। जिला? मेरठ। गाम? ढिकौली। पडोसी मिल गया।
नौ बजे साहब आये। निशा के साथ होने से ज्यादा पूछताछ नहीं की। हमें केवल उनके यहां टैंट लगाने की अनुमति चाहिये थी। हम किसी भी सूरत में यहां से आगे नहीं बढ सकते थे। अगर अनुमति न मिलती तो उनके सामने सडक के दूसरी तरफ या अगल-बगल में टैंट लगा लेते लेकिन उनके यहां रुकने का फायदा यह होता कि कुत्तों से सुरक्षा मिलती। उन्होंने टैंट लगाने की अनुमति तो नहीं दी बल्कि एक गेस्ट रूम दे दिया। फाइबर का कमरा था इसलिये ठण्डा नहीं था। दो बिस्तर थे और पश्मीना ऊन के अत्यधिक नरम कम्बल। बाल्टी भरकर गरम पानी मिला और खाना भी। खाने में मांस भी होता है, हमने पहले ही मना कर दिया लेकिन आमलेट ले लिया।
अगले दिन सुबह फिर नहाने को गरम पानी आ गया। हम चार दिन पहले लेह में ही नहाये थे। फिर भरपेट नाश्ता मिला। मैंने पूछा कि हनले में पेट्रोल पम्प तो नहीं है लेकिन सुना है कि पेट्रोल मिल जाता है। बोले कि हां, मिल जाता है। दुकान वाले रखते हैं अपने पास। लेकिन पता नहीं मिले या न मिले; चार लीटर पेट्रोल उन्होंने हमारी बाइक में डाल दिया, फ्री में। बोले कि हमारे पास भी थोडा ही बचा है, अन्यथा आपकी टंकी फुल कर देते।
साहब ने कहा- भाई, हमारा काम ऐसा है कि हमें हर किसी को संदिग्ध मानना पडता है। आप यहां आये हो तो हमें आपको भी संदिग्ध मानना पडेगा कि कौन हो, क्यों आये हो। आवश्यक पूछताछ करनी पडेगी। एक बार आपके ऊपर से संदिग्ध का ठप्पा हट जायेगा तो हम आपकी भरपूर खातिरदारी करेंगे। आखिर यहां सीमान्त में, ऐसे कठोर मौसम में किसके लिये बैठे हैं हम? आप ही के लिये।
पेंगोंग से चुशुल का रास्ता |
सामने पहाडी पर एक सैन्य चौकी दिख रही है। पता नहीं भारतीय है या चीनी। |
पेंगोंग के आखिरी दर्शन |
‘चुशुल पास’ |
भेड के सींगों का इस्तेमाल धार्मिक पवित्र कार्यों में खूब होता है। ओसे घरों के दरवाजे पर भी लगाया जाता है और अन्य पवित्र स्थानों पर भी। |
सींगों का ढेर |
चुशुल पास का जीपीएस डाटा |
दूर से दिखता चुशुल |
चुशुल |
चुशुल के पास दो-तीन किलोमीटर की अच्छी सडक थी। |
चुशुल के आसपास का इलाका नमभूमि है जहां घास खूब होती है। |
लोमडी |
चुशुल के खेत |
चुशुल मेमोरियल |
लद्दाखी जंगली गधे यानी क्यांग |
चुशुल से सागा-ला का रास्ता |
रेजांगला मेमोरियल |
यह रास्ता चीन सीमा के बहुत नजदीक है। |
सामने सागा-ला दिख रहा है। |
सागा-ला के पास |
आसपास बने अनगिनत बंकर जिनका इस्तेमाल 1962 में हुआ था। |
सागा-ला को यहां चग्गा-ला लिखा है। |
सागा-ला पर |
आहा! 80 किलोमीटर बाद आखिरकार अच्छी सडक मिली। |
सडक पर फैली रेत |
लोमा के पास सिन्धु नदी |
सैनिक बैरक में डिनर |
अगला भाग: लद्दाख बाइक यात्रा-17 (लोमा-हनले-लोमा-माहे)
1. लद्दाख बाइक यात्रा-1 (तैयारी)
2. लद्दाख बाइक यात्रा-2 (दिल्ली से जम्मू)
3. लद्दाख बाइक यात्रा-3 (जम्मू से बटोट)
4. लद्दाख बाइक यात्रा-4 (बटोट-डोडा-किश्तवाड-पारना)
5. लद्दाख बाइक यात्रा-5 (पारना-सिंथन टॉप-श्रीनगर)
6. लद्दाख बाइक यात्रा-6 (श्रीनगर-सोनमर्ग-जोजीला-द्रास)
7. लद्दाख बाइक यात्रा-7 (द्रास-कारगिल-बटालिक)
8. लद्दाख बाइक यात्रा-8 (बटालिक-खालसी)
9. लद्दाख बाइक यात्रा-9 (खालसी-हनुपट्टा-शिरशिरला)
10. लद्दाख बाइक यात्रा-10 (शिरशिरला-खालसी)
11. लद्दाख बाइक यात्रा-11 (खालसी-लेह)
12. लद्दाख बाइक यात्रा-12 (लेह-खारदुंगला)
13. लद्दाख बाइक यात्रा-13 (लेह-चांगला)
14. लद्दाख बाइक यात्रा-14 (चांगला-पेंगोंग)
15. लद्दाख बाइक यात्रा-15 (पेंगोंग झील- लुकुंग से मेरक)
16. लद्दाख बाइक यात्रा-16 (मेरक-चुशुल-सागा ला-लोमा)
17. लद्दाख बाइक यात्रा-17 (लोमा-हनले-लोमा-माहे)
18. लद्दाख बाइक यात्रा-18 (माहे-शो मोरीरी-शो कार)
19. लद्दाख बाइक यात्रा-19 (शो कार-डेबरिंग-पांग-सरचू-भरतपुर)
20. लद्दाख बाइक यात्रा-20 (भरतपुर-केलांग)
21. लद्दाख बाइक यात्रा-21 (केलांग-मनाली-ऊना-दिल्ली)
22. लद्दाख बाइक यात्रा का कुल खर्च
Ham anubhav kya batege ham to aap ke anubhav se hi sikh lete hai aap ke anubhav se hi mai akele hi amarnath ho aaya
ReplyDeleteधन्यवाद गुप्ता जी...
Deleteवैसे तो आपने साधारण टिप्पणियां करने से मन किया है लेकिन मन नहीं माना. यक़ीनन अद्भुत.और भारत के आखिर तक भी सड़क है और हमारे सिपाही मुस्तैदी से हमारी रक्षा करते हैं ये पढ़कर तो और भी मन रोमांचित हो उठा..
ReplyDeleteधन्यवाद संजय जी...
Deleteभेड़ों के बड़े बड़े सींग तो बहुत हैं लेकिन भेड और याक की तस्वीर पोस्ट नहीं की?
ReplyDeleteकविता जी, समय-समय पर मैंने भेडों की भी तस्वीर लगाई है अय्र याक की भी। आप कृपया पिछली पोस्टें पढिये।
DeleteBlog Padh Ka rmaza aa gaya neeraj bhi
ReplyDeleteधन्यवाद प्रवीण जी...
Delete1.'बब्बर शेर' का फोटो नहीं आया ?
ReplyDelete2. आपने लगभग चीनी सीमा को छू ही लिया था… पकङे गए होते तो अभी चीनियों के पास मिलते… डर नहीं लगा क्या ?
3. कुछ इलाके तो राजस्थान के थार जैसे लग रहे हैं. सूखी मिट्टी और हरियाली रहित.
जब तक ‘बब्बर शेर’ शेर लग रहा था, तब तक तो फोटो खींचना असम्भव ही था। फिर कुत्ता लगा तो सोचा कि कुत्ते का क्या फोटो खींचना?
Deleteहमारा देश, हमारी सडक... फिर चीन पता नहीं कहां था, कितनी दूर था। हमें पता था कि यह हमारी सडक चीन में प्रवेश नहीं करती, इसलिये कोई डर नहीं।
........................
ReplyDeleteगलत बात... कुछ तो कहना ही था।
Deleteनीरज जी, आपही ने अवाक् बना दिया था! :)
DeleteAnother marvelous account of your adventure; a photograph of that ‘Lion-Dog’ would have been nice :-)
ReplyDeleteAdding map and videos are really helpful in getting a glimpse of what you guys went through.
May be in the concluding part, you can do post based on just maps, showing your route throughout this journey.
Looking forward to next post.
थैंक्स सर....
DeleteNeeraj ji
ReplyDeleteMuze lag raha tha aap Merak ke aage koi rasta hi nahi hi ..aap TANGTSE hokar Chushul, Hanle jayenge...... Lekin aapne to Shotcut hi mar diya ......... Neeraj ji...... aapki study ko NAMAN _/\_
निशा पीछे बैठी प्रकृति का आनन्द ले रही थी। अचानक उसने कहा- नीरज, उधर देख, शेर है। मैंने एक सेकण्ड के लिये सामने से निगाह हटाई, बायें देखा और फिर सामने निगाह जमा दी। वाकई एक शेर था। मुझे लगा वहम है। बाइक की स्पीड कम की और तीन-चार सेकण्ड के लिये बायें देखा। वास्तव में शेर था और हमारी तरफ बढ रहा था। वो भी बब्बर शेर- गले पर घने बालों वाला। मैं कांप उठा। निशा से कह दिया कि उसके चलने की दिशा देखती रह और बाइक तीस की रफ्तार पर दौडा दी।
मैं सोचने लगा कि यहां लद्दाख में बब्बर शेर कहां से आ गया।
ye colum padkar ......bhot hassi aayi ...neeraji :)
Indian army ne jo खातिरदारी ki aapki ....jabardast ....... garv hota he hamari indian. Army. par ....
धन्यवाद सुनील जी...
Deleteहमेशा की तरह रोमांचक और उत्साहवर्धक... पढ़ते पढ़ते एक जज्बा जगा देते हो कि हम निकल दे ऐसी ही लम्बी उड़ान पर.. पर अभी आप ही उडो.. और लिखो हम फिर कभी उड़ेगे :)
ReplyDeleteधन्यवाद प्रमेन्द्र जी...
DeleteRezang la ke bare me sabse pehle NEELIMA VALANGI ke blog me padha tha.. baad me Rezang la ke yudh ke baare me vistaar se padha..
ReplyDeleteBhartiya sainikon ki veerta aur sahas ke bare me jaan ker garv tho hua per satha he man ro pada tha..
vahan saheed hue sainiko ne akhiri saans tak ladai ladi. yahan tak ki unki guns ki barrel phat gai thi. Akhri waqt tak unki ungliyan trigger per tiki hui thi. Unke bunkers ki tasveer dekh ke sab padha hua yaad agaya. Salute to INDIAN ARMY.. Thanks.
धन्यवाद प्रदीप जी...
Deleteआपका वृत्तांत मे बहुत परिपक्वता है सभी बिषयो का संतुलित लेख है ।
ReplyDeleteसारी जिज्ञासो का जवाब है ।
धन्यवाद कपिल जी...
Deleteउत्कृष्ट लेख नीरज जी ....... एक सुधार करना चाहूँगा ..... चुशूल पास वास्तव में एक दर्रा ही है ...... दरअसल चुशूल पास से सागा ला तक के क्षेत्र का जल पेगोंग सो के दक्षिण में स्थित एक अन्य झील Spanggur Tso में जाता है ... सागा ला से दक्षिण में जल सिन्धु में जाता है .....
ReplyDeleteचुशुल पास दर्रा है?? ये तो अच्छा बताया आपने। अभी सुधार करता हूं। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
Deleteयदि मैं सही पहचान पा रहा हूँ तो ये झाड़ी मिट्टी को बांधे रखने के काम आती है ... हर साल मौसम से पहले सेना वाले इस झाड़ी को ऐसे स्थानों पर लगाते हैं जहाँ मिट्टी झड़ने की संभावना होती है ... अमरनाथ यात्रा में बालताल वाले रास्ते में कई जगह ऐसी झाड़ी लगाई हुई हैं क्यूंकि वहां मिट्टी के पहाड़ हैं .... पिस्सू टॉप के आगे भी NDRF के जवानों को मैंने ये झाडी लगाते देखा है ....... इस झाडी की विशेषता यह है की इसकी जडें बहुत सारी होती हैं और मिट्टी से बहार हवा में निकल आने पर भी झाडी जीवित एवं हरी रहती है .......
ReplyDeleteये तो मुझे नहीं पता कि ये झाडी वहां सेना ने लगाई है या कुदरती हैं। लेकिन लद्दाख और अमरनाथ की प्रकृति में बहुत अन्तर है। शायद वही झाडी हो यह जो आप बता रहे हैं।
Deleteआपका बहुत बहुत धन्यवाद।
पेन्गोंग झील 50 km तो भारत में और बाकि चीन में है या चीन अधिकृत तिब्बत में है ।
ReplyDeleteनीरज जी आप चुशुल से सीधे mood भी जा सकते थे रास्ता तो मैप पर दिख रहा है आपने हनले होते हुवे लंबा रास्ता लिया कोई वजह
ReplyDeleteगूगल मैप में जिस स्थान पर mood लिखा हुआ है, वो असल में लोमा बैंड है... हम चुशुल से हनले जाते समय लोमा बैंड पर ही रात रुके थे...
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