17 जून 2015
दोपहर बाद साढे तीन बजे हम पेंगोंग किनारे थे। अर्थात उस स्थान पर जहां से पेंगोंग झील शुरू होती है और लुकुंग गांव है। इस स्थान को ‘पेंगोंग’ भी कह देते हैं। यहां खाने-पीने की बहुत सारी दुकानें हैं।
पूरे लद्दाख में अगर कोई स्थान सर्वाधिक दर्शनीय है तो वो है पेंगोंग झील। आप लद्दाख जा रहे हैं तो कहीं और जायें या न जायें लेकिन पेंगोंग अवश्य जायें। अगर शो-मोरीरी छूट जाये तो छूटने दो, नुब्रा छूटे तो छूटने दो लेकिन पेंगोंग झील नहीं छूटनी चाहिये।
यह एक साल्टवाटर लेक है यानी नमक के पानी की झील है। नमक का पानी होने का यह अर्थ है कि इसका पानी रुका हुआ है, बहता नहीं है। हिमालय में अक्सर बहते पानी के रास्ते में कोई अवरोध आता है तो वहां झील बन जाती है। जब पानी का तल अवरोध से ऊंचा होने लगता है तो पानी बह निकलता है, रुकता नहीं है। लेकिन पेंगोंग ऐसी झील नहीं है। इसमें चारों तरफ से छोटे छोटे नालों से पानी आता रहता है और जाता कहीं नहीं है। तेज धूप पडती है तो उडता रहता है और खारा होता चला जाता है।
इसकी वास्तविक लम्बाई तो नहीं पता लेकिन यह पचास किलोमीटर से भी ज्यादा भारत में है और ऐसा कहा जाता है कि अपनी कुल लम्बाई का एक तिहाई यह भारत में है और दो तिहाई तिब्बत में।
इसका रंग अप्रत्याशित रूप से नीला है, अत्यधिक नीला। ऐसा इसके नमकीन होने के कारण है। आप फोटो देखेंगे तो समझेंगे कि मैंने फोटो में ज्यादा एडिटिंग कर दी है, इसलिये पानी ज्यादा नीला दिख रहा है जबकि ऐसा नहीं है। जिसने झील देखी होगी, वे जानते होंगे; जिसने नहीं देखी तो जान लीजिये कि इसका पानी गहरा नीला है। गहराई के अनुसार नीलेपन में बदलाव आता जाता है और साफ दिखता है।
हम यहां एक घण्टा रुके और कुछ खाना-पीना भी कर लिया। यहां से 10 किलोमीटर आगे स्पांगमिक गांव है। रास्ता अच्छा बना है। ज्यादातर यात्री तो यहीं से लौट जाते हैं, कुछ स्पांगमिक तक भी चले जाते हैं। स्पांगमिक पहुंचे तो देखा कि हर जगह केवल गेस्ट हाउस और होमस्टे ही हैं। बुलेट वाले यहां काफी थे और एसयूवी वाले भी। स्पांगमिक से जरा सा पहले सडक खराब हो जाती है जो आगे कभी ठीक नहीं मिलती। हमारा पेट भरा हुआ था और हमारे पास टैंट भी था, इसलिये हमें स्पांगमिक में रुकने की जरुरत नहीं थी। हम आगे बढते गये और टैंट लगाने के लिये अच्छी जगह ढूंढने लगे। जगह रास्ते से थोडी सी हटकर हो और झील के बिल्कुल किनारे भी न हो।
स्पांगमिक से डेढ किलोमीटर आगे ऐसी जगह मिल गई। यहां कभी याकपालकों ने तम्बू लगाये होंगे। सूखा गोबर पडा था, समतल जमीन थी और करीने से रखे हुए पत्थर भी थे। जब याकपालक तम्बू लगाते हैं तो चारों तरफ अक्सर पत्थरों से ही तम्बुओं को बांधते हैं। हमने यहीं टैंट लगा लिया। हमने भी उन्हीं पत्थरों का इस्तेमाल कर लिया, जमीन में कीलें नहीं गाडनी पडीं।
अगर सौ गाडियां पेंगोंग आती हैं तो उनमें से नब्बे गाडियां लुकुंग से ही लौट जाती हैं। बाकी बची दस गाडियां ही स्पांगमिक तक पहुंचती हैं। इन दस में से नौ स्पांगमिक से वापस हो लेती है। सौ में से एक गाडी ही स्पांगमिक से आगे जाती है। बडी देर देर में कोई गाडी या एक-दो बाइक वाले आते-जाते मिलते।
मैं प्रकृति-प्रेमी तो हूं लेकिन मुझे इसकी तारीफ़ करनी नहीं आती। आपको स्वयं ही अन्दाजा लगाना होगा हमारी उस समय की मानसिकता का। पेंगोंग किनारे हमारा टैंट लगा था जिसका मुंह झील की तरफ था। टैंट के बाहर बैठो या अन्दर; हमें झील दिखनी ही थी। किसी का आना-जाना न के बराबर था। सांय-सांय हवा चल रही थी और झील में लहरें बन रही थीं। थोडी दूर स्पांगमिक गांव में डीजे बज रहा था, जिसकी मद्धिम आवाज यहां तक आ रही थी जो माहौल को और भी शानदार बना रही थी।
एक गाडी हमसे कुछ दूर आकर रुकी। काफी देर हो गई, उसमें से कोई बाहर नहीं निकला। मैं उनके पास गया। तीन लद्दाखी लडके बैठे थे। बोले कि हम यहां गाडी धोने आये थे, तो सोचा कि थोडी दारू ही पी लें। मैंने पूछा कि स्पांगमिक में दारू की मनाही है क्या? बोले- यहां एकान्त में दारू पीने का अलग ही आनन्द है। ये तीन टैक्सी वाले पर्यटकों को लेकर स्पांगमिक आये थे, आज यहीं रुकेंगे और कल वापस लेह चले जायेंगे।
अन्धेरा हुआ, हम टैंट में सोने लगे। लेकिन आज गर्मी लगने लगी। इसका कारण था कि हमने टैंट साढे पांच बजे लगाया था। आज पूरे दिन तेज धूप पडती रही थी, जिससे जमीन भी गर्म हो गई थी। टैंट लगाने के दो घण्टे बाद तक धूप निकली रही और टैंट अन्दर से तसल्ली से गर्म हो गया। जब रात में ठण्ड हुई तो टैंट की डबल लेयर ने अन्दर की गर्मी को बाहर नहीं निकलने दिया। कल रात ठण्ड के कारण नींद नहीं आई थी, आज भरपूर नींद आई।
रात में पेंगोंग के फोटो लेने का इरादा था लेकिन हवा इतनी तेज चल रही थी कि ट्राईपॉड होने के बावजूद भी कैमरा हिल रहा था, इसलिये झील के रात के फोटो नहीं लिये जा सके।
सुबह चार बजे के आसपास कुत्तों के भौंकने की आवाज सुनकर दोनों की आंख खुल गई। निशा ने कहा कि कैमरे का ट्राईपॉड तैयार रख, अगर कुत्ते टैंट पर हमला करेंगे तो इससे हम उन्हें भगा देंगे। मैंने कहा- ये लद्दाखी कुत्ते हैं। अपनी पर आ जाते हैं तो किसी ट्राईपॉड से नहीं भागेंगे। चुपचाप लेटी रह, ये भौंक-भांक कर चले जायेंगे। वैसे भी ये तीन कुत्ते हैं। एक कुत्ता नेता है और वो ही सबसे ज्यादा भौंक रहा है; बाकी दोनों उसके चेले हैं जिनका ध्यान भौंकने पर कम है और अपने नेता की भौंक में भौंक मिलाने पर ज्यादा है। फिर कुछ देर तक वे भौंकते रहे, फिर चले गये।
18 जून 2015
सुबह आठ बजे जब तिब्बत की तरफ से खूब तेज धूप आने लगी, टैंट में रुकना मुश्किल हो गया; हम बाहर निकले। ठण्डी हवाएं चल रही थीं। टैंट बांधा। भूख लगी थी; नमकीन, बिस्कुट खा लिये। जब यहां से चले तो पौने दस बज रहे थे।
एक बुलेट हमारी बराबर में आई। बुलेट तो लेह की ही थी, लेकिन दोनों यात्री दिल्ली के थे। उन्होंने हमसे पूछा कि आप शो-मोरीरी जा रहे हो? मैंने बताया- हां। बोले कि हमें रास्ता नहीं मालूम, आप हमें रास्ता बताते रहना। हमारी चलने की रफ्तार कम थी, उनकी ज्यादा थी। मैंने कहा कि अभी फिलहाल तो सीधे चुशुल पहुंचो; वहां जाकर शो-मोरीरी का रास्ता किसी से पूछ लेना। वे आगे निकल गये।
यहां कोई सडक नहीं है। गाडियां चल-चलकर पगडण्डी बन गई है। पहले मिलिट्री की गाडियां चलती थीं, अब सिविलियन गाडियां भी चलती हैं। रेतीला रास्ता है जिसमें बजरी भी बहुत है। अगर रास्ते से हटे तो धंसना तय है या फिर असन्तुलित होकर गिरना। हालांकि बडी गाडियों ने अपनी सुविधा से चलकर कई बार कई-कई रास्ते बना दिये हैं। बाइक वालों को उनके द्वारा बनाई गई लीक पर ही चलना होता है।
मान गांव मिला। दो-चार घरों का यह गांव है। इसके पास ही एक होटल है जो पेंगोंग किनारे तम्बुओं में पर्यटकों को रुकने की सुविधा देता है। इनका पूरा पैकेज होता है जिनकी सांठगांठ लेह और वेबसाइटों के माध्यम से बाहर की दुनिया से होती है। पैकेज टूर में घूमने वालों को ये अपनी बस से या अन्य गाडी से यहां लाते हैं और वापस ले जाते हैं।
मान से 11 किलोमीटर आगे मेरक गांव है। मेरक से तिब्बत सीमा ज्यादा दूर नहीं है। आप केवल मेरक तक ही बिना परमिट के जा सकते हैं। हमारे पास चुशुल का परमिट था, इसलिये मेरक से आगे निकल जायेंगे।
फिर विशुद्ध रेत का इलाका मिला। यहां गाडी वालों ने अपनी मर्जी से गाडियां चला रखी हैं जिससे कई बहुत सारी लीक बनी हुई हैं और कोई भी मजबूत नहीं है। हमारी बाइक रेत में धंसने लगी। निशा को नीचे उतरकर पैदल चलना पडा। फिर कुछ दूर तो मुझे भी नीचे उतरना पडा और बाइक को पहले गियर में डालकर धीरे-धीरे रेत में चलाना पडा। कुछ दूर झील के बिल्कुल किनारे एक गाडी दलदल में धंसी हुई थी, उसे दूसरी गाडियों की सहायता से निकालने की कवायद चल रही थी। रेतीले भूभाग और पानी के पास दलदल बन ही जाती है। हम सूखी रेत में धंसे जा रहे थे, वे नम रेत में धंस गये।
मैंने अभी बताया है कि कोई स्थायी सडक न होने के कारण सभी अपनी अपनी मर्जी से चलाते हैं। दसियों रास्ते बन रहे थे, जो आगे जाकर मिल जाते, फिर अलग होते, फिर मिल जाते। हवाएं चलतीं तो कोई रास्ता रेत से पूरा ढक जाता, कोई आंशिक ढक जाता; फिर कोई गाडी आती, वो अपनी मर्जी से रास्ता बनाती हुई चली जाती। हम जिस रास्ते पर चलते, उसमें धंस जाते। फिर हमें बगल वाला रास्ता अच्छा लगता। किसी तरह उस पर ले जाते तो पता चलता कि यहां तो रेत उससे भी ज्यादा है। वाकई यहां बाइक चलाना बेहद चुनौती भरा था।
एक जगह जिस रास्ते पर हम चल रहे थे, उससे पचास मीटर हटकर दूसरे रास्ते पर एक बाइक खडी थी और दो बाइक सवार भी। निशा ने पहचान लिया कि ये वहीं हैं जो हमसे शो-मोरीरी का रास्ता पूछ रहे थे। हमने सोचा कि रुककर फोटो खींच रहे होंगे या फिर उनकी भारी बुलेट धंस रही होगी तो दोनों उतर गये होंगे और बुलेट को धक्का लगायेंगे। हम आगे बढ जाते, तभी उन्होंने हमें आवाज लगानी शुरू कर दी। हम रुके, किसी तरह अपनी बाइक रेत में खडी की। उनके पास गये तो देखा कि उनकी बुलेट स्टार्ट तो हो रही है, गियर भी लग रहे हैं लेकिन आगे नहीं बढ रही। जाहिर था कि क्लच में कोई समस्या है। वे जहां खडे थे, वहां कोई रास्ता ही नहीं था। पीछे कहीं उन्होंने कोई लीक पकड ली होगी जो धीरे-धीरे विलुप्त हो गई और वे खालिस रेत के बीच में पहुंच गये। रेत से निकालने के चक्कर में बाइक पर, क्लच पर बहुत लोड पडा और क्लच बैठ गया।
अब क्या करें? इस समस्या के समाधान की जानकारी हममें से किसी को भी नहीं थी। तय हुआ कि इसके इंजन का कवर खोलते हैं। कवर के अन्दर क्लच होता है। क्या पता हम कुछ कर ही दें। लेकिन उनके पास इसके खोलने का टूल नहीं था। इसके बोल्ट कवर में अन्दर धंसे होते हैं, साधारण पाने से ये नहीं खुलते। हमारे पास अपनी बाइक में लगने लायक सभी टूल थे, लेकिन ये बुलेट के काम नहीं आये।
फिर हम चारों ने इसे धक्का लगाया और इसे वहां से हटाकर मुख्य रास्ते पर लाये। हम ऐसी जगह थे, जहां से नजदीकी गांव कम से कम पांच किलोमीटर थे। इधर मान और उधर मेरक। मान हमने देख ही लिया था कि कितना बडा है। वहां उस एक टैंट कालोनी के अलावा कुछ नहीं था। मेरक में परमिट चेक होते हैं। तो कम से कम आर्मी या पुलिस; कोई तो होगा ही। इसलिये मैंने सुझाव दिया कि पांच किलोमीटर तक धक्का लगाकर इसे मेरक तक ले जाओ। ऐसे वीराने में आपको पता नहीं किसी सहायता का कितनी देर इंतजार करना पडे, वहां रुकने और खाने को तो मिलता रहेगा।
लेकिन तभी एक चमत्कार हो गया। मेरक की तरफ से एक खाली बुलेरो कैम्पर आ गई। ड्राइवर से बात की तो वो आठ सौ रुपये में ‘पेंगोंग’ तक छोडने को राजी हो गया। पेंगोंग यानी लुकुंग तक। एक बार वहां पहुंच जायेगी तो बहुत सारे विकल्प मिल जायेंगे। लेह स्थित बाइक के मालिक से बात हो जायेगी और फिर इसे लेह तक भी ले जाया जा सकता है। वहां से आगे के बहुत सारे द्वार खुल जायेंगे।
असली परीक्षा अब शुरू हुई- इसे बुलेरो पर चढाने की। एक रेतीले टीले की ओट में गाडी लगा दी। हमें पहले इस टीले पर बाइक को चढाना था, फिर वहां से गाडी पर। 4250 मीटर की ऊंचाई पर एक भारी-भरकम बुलेट को रेत के टीले पर चढाने से पहले ही सांस फूल गई। लेकिन चढानी जरूरी था और चढा भी दी। फिर इसे रस्सियों से मजबूती से बांध दिया। बाद में बाइक को पकडकर दोनों पीछे ही बैठ गये और धीरे धीरे बुलेरो उस खराब बाइक को लेकर चली गई।
ये थे दिल्ली सफदरजंग अस्पताल के डॉक्टर कवीश और डॉक्टर केतन पाण्डेय।
बारह बजे थे जब हम यहां से फ्री हुए। एक विशेष तरह की खुशी महसूस हो रही थी उस समय। खुदा न खास्ता हमारे साथ ऐसा हो जाता तो क्या करते? हर किसी के पास इतना समय नहीं होता कि वो सामने वाले की सहायता करने के लिये रुके।
खैर, साढे बारह बजे मेरक पहुंचे। यह भी छोटा सा गांव है। भूख लगी थी और हम बिना कुछ खाये मेरक से जाने वाले नहीं थे। निशा को भोजन ढूंढने की जिम्मेदारी दी। वो एक घर में गई, कुछ देर बाद बाहर आई; इशारा किया कि बाइक एक तरफ लगा ले, भोजन का इंतजाम हो गया है।
हम अन्दर गये। घर की मालकिन थी, दो पडोसनें और आ गईं। जब तक दाल-चावल बने, तब तक चाय मिली। लद्दाखी घरों में चाय तो हमेशा ही तैयार मिलती है। बडे बडे थरमसों में इसे रख लेते हैं और बडी देर तक चलाते हैं। आज पहली बार नमकीन चाय पी। अभ्यास न होने के कारण यह अच्छी तो नहीं लगी लेकिन अगर एक-दो बार और पीऊंगा तो अच्छी लगने लगेगी। इसे मक्खन डालकर बनाया जाता है।
‘भारत का आखिरी गांव- माणा’, ‘भारत का आखिरी गांव- छितकुल’ तो प्रसिद्ध हो गये लेकिन आपने कभी मेरक का नाम नहीं सुना होगा। मेरक भी भारत का आखिरी गांव है। यहां से थोडा ही आगे पेंगोंग झील तिब्बत में प्रवेश कर जाती है। मैंने पूछा कि आप कभी तिब्बत गई हो? बोली कि नहीं। बॉर्डर से कुछ पहले आईटीबीपी है, जो किसी को आगे नहीं जाने देते क्योंकि बॉर्डर नाम की कोई चीज यहां है ही नहीं। एक जगह आईटीबीपी है, दूसरी जगह चीनी सेना है। बीच में कहीं बॉर्डर है। कहां है बॉर्डर, किसी को नहीं पता। इसी क्रम में जब आईटीबीपी चीनी कैम्प के नजदीक पहुंच जाती है तो वे ‘वापस जाओ’ के बैनर लेकर खडे हो जाते हैं और जब कभी चीनी पेट्रोलिंग टुकडी इधर आ जाती है तो हम बैनर लेकर खडे हो जाते हैं। टकराव और घुसपैठ नहीं होती।
एक फटी हुई पाठ्य पुस्तक रखी थी, भूगोल की थी, अंग्रेजी में। सातवीं आठवीं कक्षा की होगी, इसलिये जम्मू कश्मीर के भूगोल की पूरी जानकारी लिखी थी। जब तक दाल चावल बने, हमने इस किताब को पढ डाला। जम्मू-कश्मीर के भूगोल की विस्तार से जानकारी थी, साथ ही पाक अधिकृत कश्मीर के भूगोल की भी। पढाई मुख्यतः अंग्रेजी में होती है। वैकल्पिक भाषाएं हिन्दी और उर्दू हैं। मुस्लिम बहुल राज्य होने के कारण ज्यादातर छात्र उर्दू पढते हैं लेकिन लद्दाख में ज्यादातर हिन्दी पढी जाती है।
हमारे साथ तीनों महिलाओं ने भी दाल चावल खाये। दाल अच्छी बनी थी। हम भूखे थे, ठूंस-ठूंसकर खाये। इसके बाद फिर चाय का दौर चला। हम डेढ घण्टे यहां रुके रहे। चलते समय पैसे के बारे में पूछा तो कहा कि जितने मन करे, उतने दे दो। हमने खूब पूछ लिया लेकिन उन्होंने नहीं बताया। फिर मैंने 200 रुपये दिये। उन्होंने 100 का नोट वापस पकडाते हुए कहा कि ये तो बहुत ज्यादा हैं। मैंने जोर दिया, तब जाकर उन्होंने लिये। फिर अपनी जेबें टटोली, कुछ नहीं मिला। एक के पास बीस रुपये थे, ये इन्होंने मुझे दे दिये। कुल मिलाकर कम से कम दस कप चाय और पेट भरकर दाल चावल हम दोनों को 180 रुपये में पडे। अगर हम यही कुछ किलोमीटर पहले स्पांगमिक या लुकुंग में खाते तो कम से कम 500 रुपये के पडते। दस कप चाय ही 200 रुपये की हो जाती।
मेरक से आगे जाने के लिये परमिट की आवश्यकता होती है। हमने लेह में ही चुशुल का परमिट बनवा लिया था। गांव से बाहर निकलते ही पुलिस की चेकपोस्ट है, जो असल में एक तम्बू है। परमिट की फोटोकॉपी यहां जमा होती है और आप चुशुल जा सकते हैं। बेहद आसान! हमें बाइक से भी नहीं उतरना पडा। यहां कभी-कभार ही कोई आता है चुशुल जाने के लिये। दूर से ही उसने हमें देख लिया होगा। जैसे ही हम पहुंचे, वो हमें रास्ते में खडा मिला।
स्पांगमिक की तरफ सडक |
स्पांगमिक से आगे का रास्ता |
रात हम जहां रुके, उस स्थान का जीपीएस डाटा। |
अगले दिन सुबह |
मेरक का रास्ता |
दलदल में धंसी गाडी को निकालते हुए। |
रेत में हमें भी पैदल बाइक चलानी पडी। |
खराब बुलेट |
बुलेट वापस जाने की तैयारी में |
और बुलेट चली गई। |
मेरक गांव |
खाने की प्रतीक्षा में |
घर की मालकिन के साथ निशा |
मेरक के खेत और पेंगोंग |
यही है मेरक की पुलिस चेकपोस्ट जहां से आगे जाने के लिये आपके पास चुशुल का परमिट होना चाहिये। |
अगला भाग: लद्दाख बाइक यात्रा-16 (मेरक-चुशुल-सागा ला-लोमा)
1. लद्दाख बाइक यात्रा-1 (तैयारी)
2. लद्दाख बाइक यात्रा-2 (दिल्ली से जम्मू)
3. लद्दाख बाइक यात्रा-3 (जम्मू से बटोट)
4. लद्दाख बाइक यात्रा-4 (बटोट-डोडा-किश्तवाड-पारना)
5. लद्दाख बाइक यात्रा-5 (पारना-सिंथन टॉप-श्रीनगर)
6. लद्दाख बाइक यात्रा-6 (श्रीनगर-सोनमर्ग-जोजीला-द्रास)
7. लद्दाख बाइक यात्रा-7 (द्रास-कारगिल-बटालिक)
8. लद्दाख बाइक यात्रा-8 (बटालिक-खालसी)
9. लद्दाख बाइक यात्रा-9 (खालसी-हनुपट्टा-शिरशिरला)
10. लद्दाख बाइक यात्रा-10 (शिरशिरला-खालसी)
11. लद्दाख बाइक यात्रा-11 (खालसी-लेह)
12. लद्दाख बाइक यात्रा-12 (लेह-खारदुंगला)
13. लद्दाख बाइक यात्रा-13 (लेह-चांगला)
14. लद्दाख बाइक यात्रा-14 (चांगला-पेंगोंग)
15. लद्दाख बाइक यात्रा-15 (पेंगोंग झील- लुकुंग से मेरक)
16. लद्दाख बाइक यात्रा-16 (मेरक-चुशुल-सागा ला-लोमा)
17. लद्दाख बाइक यात्रा-17 (लोमा-हनले-लोमा-माहे)
18. लद्दाख बाइक यात्रा-18 (माहे-शो मोरीरी-शो कार)
19. लद्दाख बाइक यात्रा-19 (शो कार-डेबरिंग-पांग-सरचू-भरतपुर)
20. लद्दाख बाइक यात्रा-20 (भरतपुर-केलांग)
21. लद्दाख बाइक यात्रा-21 (केलांग-मनाली-ऊना-दिल्ली)
22. लद्दाख बाइक यात्रा का कुल खर्च
What is the meaning of PENGONG Neeraj Bhai ?
ReplyDeleteLake's pictures are beautiful and so is the couple.
अरुण जी, पेंगोंग शब्द का अर्थ तो नहीं पता लेकिन विकीपीडिया बता रहा है कि तिब्बती में पेंगोंग का अर्थ है Lonk, Narrow, Enchanted Lake.
Deleteहिंदी मे कब लिखना सीखेगा भैया
Deleteयात्रा के इस भाग का बेसब्री से इन्तजार था.
ReplyDeleteकुत्ता पुराण पसंद आया.
पैंगोग का नजारा दिल को भा गया. लद्दाख यात्रा मन में और प्रबल हो गया.
धन्यवाद निशान्त जी...
Deleteअब तो आपकी लेख मेरे आलस को दूर करने के काम आता है । सूबह सुबह जब निन्द से जागने का मन नही करता है तब आपकी लेख पढता हू तो शरिर मे एक बिजली सी तरह स्फुर्ती महसूस होती है ।
ReplyDeleteमुझे एक जानने की इच्छा हो रही है कि एकान्त मे रात गुजारने मे भय नही लगता है ।
धन्यवाद कपिल जी...
Deleteअगर जंगल न हो तो मुझे एकान्त में कभी डर नहीं लगता। जंगल में बहुत डर लगता है।
अद्भुत नीरज जी!!!!! वाकई!!!!! एक बात यह भी कि आप इस पूरे स्थान पर पहली बार जा रहे है; लेकिन प्रतीत ऐसा होता है कि आप तो हमेशा वहाँ जाते हैं! :)
ReplyDeleteधन्यवाद निरंजन जी...
Deleteनीरज, वो जो पत्थरों का फोटो है ... उससे याद आया .. पेगोंग के किनारे एसे ही रचनाकार पत्थर दिखते है .. इसका अर्थ क्या है ...
ReplyDeleteइनका अर्थ है कि यात्रियों ने यहां कभी मौजमस्ती की थी और एक के ऊपर एक पत्थर रखते चले गये।
Deleteलदाखी होटलो में ज्यादातर महीला ही होती है ... एसा क्यों ? पेगोंग के किनारे एक होट्ल है शायद 3 इडियट हॉ टेल नाम होगा ... उसकी मालकीन 12 में पढने वाले लड की थी ... उस से मैने पुछा तुम हॉटेल चला रही हो ... और तुम्हारा कॉलेज ? ... उसने बताया .. हमें अब 4 महीने की छुट्टी है ... वाकई लदाख में इतनी छुट्टी होती है ..
ReplyDeleteमहिलाएं इसलिये होती हैं क्योंकि पुरुष बाहर जाते हैं काम करने। कुछ भेडों को चराने ले जाते हैं तो कुछ लेह जैसे शहरों में चले हैं ताकि किसी के साथ मिलकर पर्यटकों को घुमा सकें।
Deleteशायद आप अक्टूबर में गये थे। उस समय वहां सर्दी पडने लगती है और मार्च-अप्रैल तक कडाके की ठण्ड पडती है। इसलिये स्कूलों की छुट्टी हो जाती है।
Neeraj ji aap 3 IDIOT movie ke school me nahi gaye.......Real Phunsukh Wangdu se nahi mile
Deleteनहीं मिले सर जी... ठिक्से से निकलने के बाद ध्यान आया कि स्कूल तो पीछे छूट गया। फिर हम वापस नहीं गये।
Deleteनीरज आपकी हर पोस्ट बहुत ही शानदार होती है ! एक एक बात प्रासंगिक और समझने को प्रेरित करती है ! एक सवाल है मेरा - क्या बिना बाइक के इन जगहों पर नही पहुंचा जा सकता ? बस वगैरह की सुविधा नही है कहीं ? या जिसे बाइक न चलानी आती हो वो यहां जा ही नही सकता ?
ReplyDeleteसर जी, दूरस्थ इलाकों में बेहद सीमित संख्या में बसें चलती हैं। आपके पास एक तो बसों की जानकारी होनी चाहिये, फिर समय भी खूब होना चाहिये। जैसे कि लेह से पेंगोंग तक सप्ताह में केवल एक ही बस जाती है। अगर आप बिना बाइक के जाना चाहते हैं तो दो तरीके हैं- एक, टैक्सी से। और दूसरा, लिफ्ट मांग-मांगकर। आप कारू में चांग-ला की तरफ किसी ट्रक या फौजी वाहन से लिफ्ट मांग सकते हैं। या हनले जाना है या शो-मोरीरी जाना है तो उप्शी जाकर लिफ्ट मांगनी पडेगी।
Deleteneeraj ji Srinagar to Leh...... bus to din bhar chalate hoge ?
Deleteश्रीनगर से लेह की बसें श्रीनगर से सुबह सवेरे निकल जाती हैं। दिन में या दोपहर को या उसके बाद नहीं मिलतीं।
DeleteNeeraj ji dil khush ho gaya lake ke photo dekh kar .......पैंगोग lake to Ladhak ki jaan he .............
ReplyDeleteMan se chushul tak ka rasta kharab,..retila hi he kya ?
guest house or home stay ka charge kitna hota hoga ? neeraj ji .....
मान से चुशुल का रास्ता... ह्म्म्म... अगली पोस्ट में जब उस रास्ते पर यात्रा करेंगे, तभी बतायेंगे।
Deleteहोमस्टे का चार्ज मेरक में 800 रुपये था, जिसमें दो समय का खाना शायद शामिल था या शायद नहीं शामिल था।; ध्यान नहीं।
नीरज भाई अभी 10 दिन पहले मैं भी पेंगोंग गया था।ये बताइये की फूंशुक वांगदु का स्कूल है कहाँ?हमें तो मिला ही नहीं।
ReplyDeleteफुंगशुक वांगडू का तो पता नहीं लेकिन वो स्कूल शे गांव में है- द्रुक व्हाइट लोटस स्कूल के नाम से।
Deleteदोस्त ,मै आपके मना करने के बावजूद आपको और निशा जी को सैलूट करने से अपने आप को रोक नही सकता ,जो की मुझ जैसे लोगो को घर बैठे ही पूरी भारत घुमा दे रहे हो ,और जो फोटो या वर्णन दे रहे है ,में यात्रा करने से क्या कभी भी एक पल को भी निशा जी को डर नही लगा ,……?
ReplyDeleteधन्यवाद देवेन्द्र जी... हमें कभी डर नहीं लगा।
Deleteदोस्त ,मै आपके मना करने के बावजूद आपको और निशा जी को सैलूट करने से अपने आप को रोक नही सकता ,जो की मुझ जैसे लोगो को घर बैठे ही पूरी भारत घुमा दे रहे हो ,और जो फोटो या वर्णन दे रहे है ,में यात्रा करने से क्या कभी भी एक पल को भी निशा जी को डर नही लगा ,……?
ReplyDeleteनीरज भाई अभी 10 दिन पहले मैं भी पेंगोंग गया था।ये बताइये की फूंशुक वांगदु का स्कूल है कहाँ?हमें तो मिला ही नहीं।
ReplyDeleteनिरज सावधान होकर सफर किया करो अब तुम अकेले नहि दोनो हो
ReplyDeleteसावधान मतलब????
Deleteमतलब अब तुम सुनसान जगह में तम्बू गाड़ना छोड़ दो निशा साथ रहती है तो थोड़ी सावधानी जरुरी है।हम बुजुर्ग लोगो का भी कहना मान लिया कर...बाद में रोने से क्या फायदा।
Deleteसावधान@solanki
ReplyDeleteneeraj ji wahan ka pani photo jitna dark blue hota he ?
ReplyDeleteदुष्यन्त जी, पेंगोंग का पानी अत्यधिक नीला है। फोटो जितना ही नीला है। इसीलिये मुझे पेंगोंग झील पूरे लद्दाख में सर्वोत्तम लगी।
Deleteनीरज जी बुरा ना मानियेगा आपको हतोत्साहित करना नहीं चाहता लेकिन एक बात कहना जरुरी समझा तो कह रहा हूँ आप विडियो में जिस तरह बोलकर वर्णन करते है.थोडा सुधार की जरुरत है. ऐसे वर्णन किया कीजिये जैसे आप सामान्य बात चीत करते है. बाकी तो पोस्ट के तो कहने ही क्या. पोस्ट से पता लगता है कि आपको लद्धाख क्षेत्र की अच्छी जानकारी है. एक जिज्ञासा यह है की वे कौन सी परिस्तिथियाँ है जो लद्दाख क्षेत्र इतना शुष्क बनाती है जबकि कश्मीर और हिमाचल में काफी हरियाली है. पर्वत श्रेणियां पीर पंजाल, जांसकर, महाभारत श्रेणी, धौलाधार श्रेणी में भिन्नता का क्या आधार है.
ReplyDeleteविशाल जी, यह वीडियो बनाने का मेरा प्रथम प्रयास था। मैं जिस तरह आमतौर पर बोलता हूं, उसी तरह की बोली को इनमें प्रयोग किया है। तेज आवाज इसलिये प्रयोग की कि कैमरे में ऑडियो उतनी अच्छी रिकार्ड नहीं होती। अगर बाहर तेज हवा चल रही हो तो हवा की सर्र-सर्र ही रिकार्ड होगी, हमारी आवाज नहीं। निश्चित रूप से सुधार की आवश्यकता है, और आने वाले समय में यह आपको दिखेगा भी।
Deleteलद्दाख हिमालय के कारण शुष्क है। यह हिमालय नहीं है बल्कि हिमालय पार की धरती है। सर्दियों में पश्चिमी विक्षोभ हो या गर्मियों में मानसून; हिमालय की ऊंची पर्वतश्रंखलाएं सभी को रोक लेती हैं और लद्दाख तक केवल खुश्क और नमीरहित हवाएं ही पहुंचती हैं। जो भी बर्फ पडनी होती है, बारिश होनी होती है वो जोजीला और रोहतांग से इधर ही हो जाती है; उस पार जब तक हवाएं जाती हैं, तब तक शुष्क हो चुकी होती हैं।
रही बात विभिन्न पर्वत श्रेणियों में भिन्नता का आधार। इसके बारे में थोडा विस्तार से लिखने की आवश्यकता है, बाद में कभी लिखुंगा।
समुन्दर की तरह नीला पानी ...यही झील शायद फ़िल्म "जब तक है जान "में दिखाई थी।
ReplyDeleteThoda khana ke bare me b hi likha kare. aur Jayda photo diya kare on food and culture in their house.
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