हमारे यहां एक त्यागी जी हैं। वैसे तो बडे बुद्धिमान, ज्ञानी हैं; उम्र भी काफी है लेकिन सब दिखावटी। एक दिन ओशो की चर्चा चल पडी। बाकी कोई बोले इससे पहले ही त्यागी जी बोल पडे- ओशो जैसा मादर... आदमी नहीं हुआ कभी। एक नम्बर का अय्याश आदमी। उसके लिये रोज दुनियाभर से कुंवाई लडकियां मंगाई जाती थीं।
मैंने पूछा- त्यागी जी, आपने कहां पढा ये सब? कभी पढा है ओशो साहित्य या सुने हैं कभी उसके प्रवचन? तुरन्त एक गाली निकली मुंह से- मैं क्यों पढूंगा ऐसे आदमी को? तो फिर आपको कैसे पता कि वो अय्याश था? या बस अपने जैसों से ही सुनी-सुनाई बातें नमक-मिर्च लगाकर बता रहे हो?
चर्चा आगे बढे, इससे पहले बता दूं कि मैं ओशो का अनुयायी नहीं हूं। न मैं उसकी पूजा करता हूं और न ही किसी ओशो आश्रम में जाता हूं। जाने की इच्छा भी नहीं है। लेकिन जब उसे पढता हूं तो लगता है कि उसने जो भी प्रवचन दिये, सब खास मेरे ही लिये दिये हैं।
असल में ओशो ने कोई भी पुस्तक नहीं लिखी। केवल प्रवचन दिये और बाद में उसके अनुयायियों ने उनकी पुस्तकें बना दीं। सभी प्रवचन यहां क्लिक करके मुफ्त में डाउनलोड भी किये जा सकते हैं। मुझे प्रवचन सुनना अच्छा नहीं लगता इसलिये पुस्तकें पढता हूं। अच्छा लगता है इसलिये आज आपके साथ भी साझा कर रहा हूं।
अगर आपमें से कोई ओशो विरोधी है, उसका नाम लेते ही उसे गालियां देता है, उसकी सम्भोग सम्बन्धी बातों की आलोचना करता है, तो मेरा बस आपसे एक ही कहना है कि बिना जाने किसी की आलोचना मत कीजिये। हंसराज रहबर ने ‘गांधी बेनकाब’ और ‘नेहरू बेनकाब’ पुस्तकें लिखीं। इन पुस्तकों में उसने इन दोनों नेताओं की जबरदस्त आलोचना की। और ऐसा नहीं है कि आलोचना अपनी इच्छा से की। उसने पहले पूरा गांधी और नेहरू साहित्य पढा। दूसरों की गांधी-नेहरू से सम्बन्धित पुस्तकें पढीं। तब उनमें खामियां निकालीं और उन्हें ढूंढ-ढूंढकर अपनी पुस्तक में रखा। आज रहबर पर कोई उंगली नहीं उठा सकता कि उसने गांधी-नेहरू को अपमानित किया।
आप भी ओशो की आलोचना कीजिये, जितना मन करे उतनी कीजिये लेकिन पहले थोडा उसके बारे में जान लेंगे तो अच्छा रहेगा। त्यागी जैसे मत बनिये कि कहीं ओशो-चर्चा चल रही हो और आप कूद पडे उसमें अपनी गालियां लेकर। निश्चित ही वो आलोचना का पात्र है। लेकिन मजा तब आयेगा, जब आप उसे पढेंगे। पढिये, उसकी एक-एक गलतियां निकालिये और तब देखिये; कितना मजा आता है।
वैसे तो सैंकडों पुस्तकें हैं लेकिन मैं तीन पुस्तकों के नाम लेना चाहता हूं- ‘मैं मृत्यु सिखाता हूं’, ‘सम्भोग से समाधि की ओर’ और ‘दीया तले अन्धेरा’। अगर आप सामाजिक कारणों से अपने घर पर उसकी पुस्तक नहीं ला सकते तो ये तीनों पुस्तकें मेरे पास उपलब्ध हैं। आपका स्वागत है।
कुछ ओशो समर्थक भी हैं। उनमें कमी ये है कि वे ओशो को भूल गये हैं और ओशो के नाम से चलने वाली दुकानों पर जा बैठते हैं। उन दुकानों की वजह से उसका नाम और खराब होता है। सुना है ओशो के नाम से चलने वाली सबसे बडी दुकान पुणे में है। हालांकि इसकी शुरूआत स्वयं ओशो ने ही की थी, लेकिन इसे दुकान बनाया उसके बाद उसके अनुयायियों ने।
इतनी प्रस्तावना काफी है। अभी हाल ही में मैंने ‘दीया तले अन्धेरा’ पढी। इससे मैं बडा प्रभावित हुआ। इतना प्रभावित कि इसके कुछ उद्धरण आपके साथ साझा करना चाहता हूं। ध्यान रहे कि जो भी लाइनें मैं साझा करूंगा, वे लम्बे प्रवचन का छोटा सा हिस्सा है। बहुत कुछ उस लाइन से पहले कहा जा चुका है, बहुत कुछ बाद में कहा जायेगा। वास्तव में वह एक लाइन पूरी तरह पर्याप्त नहीं है। हो सकता है कि कोई लाइन समझ में न आये।
“हवा आयेगी तो वृक्षों में कम्पन्न होगा। होना ही चाहिये। सिर्फ मरा हुआ वृक्ष नहीं हिलेगा जिसके सब पत्ते सूख गये हैं। जीवित वृक्ष तो कंपेगा, और जोर से कंपेगा। और कम्पन से कोई नुकसान नहीं होने वाला है। हवा चली जायेगी, धूल झड जायेगी, वृक्ष ताजा और नया होगा। रोना, जब रोना हो। हंसना, जब हंसना हो। स्वाद लेना। जीवन में कुछ भी छोडने जैसा नहीं है। छोडने जैसा होता तो परमात्मा उसे बनाता ही नहीं। तुम परमात्मा से ज्यादा बुद्धिमान होने की कोशिश में लगे हो। जीवन में सभी अपरिहार्य हैं, अनिवार्य हैं। उन सबसे गुजरना लेकिन केन्द्र पर बने रहना। सब छुए, फिर भी न छू पाये।”
“तुम कुछ भी ठीक से नहीं देख पाते, क्योंकि हर चीज के बीच में तुम्हारी धारणाएं खडी हो जाती हैं।”
“तुम अति मत चुनना, अन्यथा मुश्किल में पडोगे। और जीवन में हर जगह हर चीज का मध्य खोजना। कठिन नहीं है। क्योंकि जब तुम अति खोज लेते हो, मध्य खोजना कैसे कठिन होगा? दोनों अतियों के बीच में रुक जाना। न तो भोग के पीछे पागल हो जाना, न त्याग के पीछे पागल हो जाना। न शरीर के गुलाम हो जाना, न शरीर के दुश्मन हो जाना।”
“जागो! कोई तुम्हें भटका नहीं रहा है। तुम भटक रहे हो तो तुम्हीं कारण हो। न कोई स्त्री तुम्हें खींच रही है, न कोई धन तुम्हें पुकार रहा है। न कोई पद तुम्हारे लिये आतुर है कि आओ और विराजो। कोई तुम्हें परेशान नहीं कर रहा है। तुम खुद ही परेशान हो रहे हो। और जब तुम परेशान हो जाते हो तो तत्क्षण तुम विपरीत चुन लेते हो। अब तुम विपरीत से परेशान होओगे।
इधर लोगों को मैं देखता हूं स्त्रियों से परेशान हैं। उधर मैं साधुओं को देखता हूं, वे स्त्रियों के न होने से परेशान हैं। साधु मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं- क्या करें, स्त्री कठिनाई है। और मेरे पास गृहस्थ आते हैं, वे भी यही कहते हैं- क्या करें, स्त्री कठिनाई है।”
“ईश्वर के सम्बन्ध में अब तक तय नहीं हो पाया है कि वह है या नहीं। करोडों वर्षों से आदमी लड रहा है। न आस्तिक नास्तिक को हरा पाता है, न नास्तिक आस्तिक को हरा पाता है। जरूर बात कुछ ऐसी है कि वह मूढतापूर्ण है और तय नहीं हो सकती। कुछ प्रश्न ही ऐसा है कि उसमें कोई भी उत्तर देने से गडबड होगी।
जैसे यह समझो कि कोई तुमसे पूछने लगे कि लाल रंग की सुगंध क्या है? प्रश्न तो बिल्कुल ठीक लगता है। भाषाशास्त्री कोई गलती नहीं निकाल सकते। व्याकरण साफ-सुथरी है- लाल रंग की सुगन्ध क्या है? और दो जवाब देने वाले मिल जायेंगे। वे हमेशा मिल जायेंगे। फिर विवाद शुरू हो जायेगा और हल कुछ भी न हो पायेगा।”
“प्रतिभाशाली सदा लीक से हटता है। सिर्फ जडबुद्धि लीक पर चलता है।”
“समाज दूध के साथ जहर पिलाता है। वह सब अनजाने चल रहा है। जिस ढांचे में बाप है, मां है, समाज है, गुरू है, उसी ढांचे में वे बच्चे को ढालेंगे। बिना इस बात की फिक्र किये कि वह ढांचा बुनियादी रूप से गलत था। इस जमीन को गौर से देखो। अगर ये ढांचे गलत न हों तो क्यों इतनी जरुरत है युद्धों की? हर दस वर्ष में एक महायुद्ध जरूरी हो जाता है। करोडों लोग जब तक मारे न जायें हर दस वर्ष में, तब तक आदमियत को चैन नहीं। और बेहूदा कारणों से मारे जाते हैं। ऐसे कारण कि तुम भी अगर थोडे होश में होओगे तो हंसोगे।
एक डंडे पर कपडा लटका रखा है, उसको झंडा कहते हो। उसको किसी ने झुका दिया, इसमें युद्ध हो सकता है। कपडे का टुकडा है, इसमें लाखों लोग मर सकते हैं। तुमने एक मन्दिर बना रखा है, वहां एक भगवान की प्रतिमा तुम बाजार से खरीद लाये हो, उसे स्थापित कर दी, किसी ने उसको फोड दिया, दंगे हो जायेंगे। छोटे बच्चे भी इतने बचकाने नहीं। उनकी गुड्डी तोड दो तो थोडा शोरगुल करेंगे, फिर भूल जायेंगे। लेकिन तुम्हारे दंगे जीवन भर चलेंगे। जन्मों-जन्मों चलेंगे। पीढी दर पीढी दोहराये जायेंगे क्योंकि किसी ने मन्दिर तोड दिया है।
क्या परमात्मा का कोई मन्दिर तोडा जा सकता है? यह सारा अस्तित्व उसका मन्दिर है। तुम्हारे मन्दिर तोडे जा सकते हैं, जो तुमने बनाये हैं। क्योंकि वे परमात्मा के मन्दिर नहीं हैं। जो तोडा जा सकता है उससे ही सिद्ध हो गया कि वो परमात्मा का नहीं है।”
“बाप चाहेगा बेटा मेरे जैसा हो, बिना इसकी फिक्र किये कि मैंने क्या पा लिया? मैं तो था ‘मेरे जैसा’, क्या मिला?”
“मन्दिर कोई भौगोलिक, बाह्य घटना नहीं है; आन्तरिक घटना है। तुम अगर वृक्ष के नीचे बैठ कर या दुकान के छप्पर के नीचे बैठकर भी विवेक को उपलब्ध हो जाओ तो वही मन्दिर है। और तुम मन्दिरों में घण्टे बजाते रहो, क्रियाकाण्ड करते रहो, और विवेक उपलब्ध न हो; तो वहां भी दुकान है।”
“तुम सोचते हो, सब तुम्हीं चला रहे हो। तुम न होओगे तो शायद सारी दुनिया रुक जायेगी। तुम्हारे होने पर जैसे सब जगह ठहरा हुआ है। तुम उस छिपकली की भांति हो, जो छप्पर से अलग नहीं होती थी। उसके किसी मित्र, प्रियजन ने बुलाया कि आओ जरा बाहर! आकाश बडा सुन्दर है। उसने कहा कि बहुत मुश्किल! क्योंकि मैं हट जाऊं, मकान गिर जायेगा। इस छप्पर को मैं ही सम्हाले हूं।”
“धार्मिक आदमी है; पूजा करता है, उपवास करता है, प्रार्थना करता है, उससे भी अहंकार भरता है। उससे उसकी अकड और गहरी हो जाती है। सारी दुनिया को पापी समझता है। जो आदमी मन्दिर गया, उसकी आंखें देखें। उसकी आंखें तुम्हें नरक भेज रही हैं। जिसने एक दिन का उपवास कर लिया, उसके लिये सारी दुनिया पापी है। जो रोज सुबह गीता पढ लेता है, या राम की माला जप लेता है, या कागज पर राम-राम-राम-राम लिख लेता है, वह सोचता है कि स्वर्ग उसका निश्चित! बाकी बेचारों का क्या होगा?”
“तथाकथित महात्माओं की अकड देखते हो? साधारण संसारी में भी वैसी अकड नहीं होती। और उनकी अकड और भी दयायोग्य है, क्योंकि रस्सी जल गई और फिर भी अकड न गई। अभी रस्सी जली नहीं है जिनकी, उनकी अकड समझ में आती है। लेकिन जिनकी रस्सी जल गई, जो कहते- हम संसार छोड चुके, और उनमें फिर भी अकड बनी रहती है। उनकी अकड समझ के बाहर है।”
‘‘परम्परा को लोग चुपचाप मान लेते हैं। न तो तर्क करने की मेहनत करनी पडती है, न विचार करने की झंझट उठानी पडती है। तुम्हें कुछ करना ही नहीं पडता। दूसरे चबाया हुआ भोजन तुम्हें दे देते हैं, और तुम पचा लेते हो।”
“अगर आनन्द भी बंट रहा हो मस्जिद में, तुम वहां से न ले सकोगे क्योंकि तुम मन्दिर के यात्री हो। अगर परमात्मा भी मन्दिर में आकर बैठ जाये आज, तो भी तुम मस्जिद में ही नमाज पढोगे। क्योंकि मन्दिर तुम कैसे जा सकते हो?”
“तुम मुर्दा हो जाओगे अगर तुमने मुर्दों का अनुसरण किया। तुम्हारे भीतर जीवित बैठा है, उसका अनुसरण करो। तुम्हारे भीतर जीवन की धारा बह रही है, उसके पीछे चलो। अपनी आंखें खोलो। बापदादों के पीछे चलने से कुछ न होगा।”
“यही सारे सम्प्रदाय कर रहे हैं। वे कहते हैं, हमारे अतिरिक्त और कोई सत्य नहीं। ईसाई कहता है कि सिवाय जीसस के तुम परमात्मा तक न पहुंच सकोगे। जल्दी करो, समय मत गंवाओ। मुसलमान कहता है कि बिना मोहम्मद को स्वीकार किये परमात्मा का कोई द्वार खुलने वाला नहीं है। नर्क में पडोगे, दोजख में सडोगे। वही हिन्दू कहते हैं, वही जैन कहते हैं, वही बौद्ध कहते हैं। लेकिन बुद्ध ने कभी नहीं कहा। मोहम्मद ने कभी नहीं कहा। कृष्ण ने कभी नहीं कहा। लेकिन अनुयायी सदा यही कहते हैं।”
“मनुष्य जाति ने बडे से बडे पाप धर्म की रक्षा के लिये किये हैं। अब यह बडे सोचने जैसी बात है कि जिस धर्म की रक्षा के लिये पाप करना पडे, वह धर्म रक्षा के योग्य भी है? और क्या यह हो सकता है कि पाप से धर्म की रक्षा हो सके? अगर पाप से धर्म की रक्षा होती है तो फिर पुण्य से किसकी रक्षा होगी? और अगर पाप से धर्म तक की रक्षा होती है तो फिर पाप से सभी चीजों की रक्षा हो सकती है। जब धर्म तक को पाप का सहारा लेना पडता है रक्षा के लिये, जब धर्म तक निर्वीर्य है, असहाय है और पाप की सहायता मांगता है; कितना धर्म होगा यह? नपुंसक है ऐसा धर्म।”
“एक कुत्ता एक झाड के नीचे बैठा था। सपना देख रहा था। आंखें बन्द थीं और बडा आनन्दित हो रहा था। और बडा डांवाडोल हो रहा था, मस्त था। एक बिल्ली जो वृक्ष के ऊपर बैठी थी, उसने कहा कि मेरे भाई, जरूर कोई मजेदार घटना घट रही है। क्या देख रहे हो?
‘सपना देख रहा था’- कुत्ते ने कहा- ‘बाधा मत डाल। सब खराब कर दिया बीच में बोल कर। बडा गजब का सपना आ रहा था। एकदम हड्डियां बरस रही थीं। वर्षा की जगह हड्डियां बरस रही थीं। पानी नहीं गिर रहा था चारों तरफ; हड्डियां ही हड्डियां।’
बिल्ली ने कहा- ‘मूरख है तू! हमने भी शास्त्र पढे हैं, पुरखों से सुना है कि कभी कभी ऐसा होता है कि वर्षा में पानी नहीं गिरता बल्कि चूहे बरसते हैं। लेकिन हड्डियां? किसी शास्त्र में नहीं लिखा है।’
लेकिन कुत्तों के शास्त्र अलग, बिल्लियों के शास्त्र अलग। सब शास्त्र तुम्हारी इच्छाओं के शास्त्र हैं।”
“थोडी देर के लिये सोचो, अगर तुम अकेले हो सारी पृथ्वी पर, क्या करोगे? कोई भी नहीं है, तुम अकेले हो। और वही सत्य है। वही है सत्य। अभी भी तुम अकेले हो, कोई भी नहीं है। क्या करोगे? सुन्दर होने की कोशिश करोगे? किसके लिये सुन्दर होना है? क्या करोगे? सच बोलने की कोशिश करोगे? कोई है नहीं जिससे सच बोलना है। अहिंसक होने की कोशिश करोगे? कोई है नहीं जिसके प्रति अहिंसक होना है। क्या करोगे? सांस लोगे और जो हो, हो। वही स्थिति जो इस चारों तरफ भीड भरी है, इसके बीच भी साध ले, वही सिद्ध है। कुछ करने को और नहीं है- अपने में जीना; बिना दौड का, बिना महत्वाकांक्षा का जीना।”
“ज्यादा भोजन कर लेना एक अति है। उपवास करना दूसरी अति है। समझदार मध्य में खडा होता है।”
“कितनी परम्पराएं तुम माने चले जा रहे हो? और उनका सारा बोध खो गया है, अर्थ खो गया है। तुम भी जानते हो वे मूर्खतापूर्ण हैं, फिर तुम उन्हें क्यों ढो रहे हो?...
...ऐसा समझो कि बैलगाडी से हम चलते थे और अब हवाई जहाज से तुम चल रहे हो। लेकिन एक बैलगाडी का चाक अपने साथ रखे हुए हो। क्योंकि तुम कहते हो यह बडा जरूरी है। यह जरूरी था। यह बैलगाडी में जरूरी था। लेकिन अब बैलगाडी में कोई चल ही नहीं रहा। न तुम खुद चल रहे हो। हवाई जहाज पर सवार हो। लेकिन यह सोचकर कि बापदादे हमेशा एक स्पेयर चाक रखते थे। कभी टूट जाये, कुछ हो जाये; इसलिये तुम भी रखे हुए हो।”
“तुम अगर हिन्दू हो, कुरान पढो, तो तुम्हें सब गलतियां दिखाई पड जायेंगी। वे ही गलतियां गीता में भी हैं और तुम्हें कभी दिखाई नहीं पडीं। मुसलमान कुरान को पढे, उसे एक गलती न दिखाई पडेगी। उसे गीता दे दो, वह सब गलतियां खोज लेगा जो तुमने कुरान में खोजीं। बडी हैरानी की बात है, बडा चमत्कार है। यह आदमी जब गीता में देख पाता है गलती तो वही गलती कुरान में क्यों नहीं दिखती, जबकि वह वहां मौजूद है?
नहीं, हम उतना ही देखते हैं जितना हम देखना चाहते हैं। हमारा देखना भी चुनाव है। तुम वही देखना चाहते हो जो तुम्हारी पहले से मान्यता है। तुम उसी मान्यता को प्रोजेक्ट करते हो, उसी का विस्तार कर लेते हो। वही तुम्हारी व्याख्या बन जाती है।”
“उस परम-सत्य में जाने के लिये कोई नैवेद्य काम नहीं आयेगा। फूल-पत्ते चढाकर किसको धोखा दे रहे हो? वे फूल-पत्ते भी लोग बाजार से नहीं लाते। दूसरों के बगीचे से तोड लेते हैं। अगर आपका बगीचा है तो आपको पता होगा। धार्मिक आदमी सुबह ही निकल जाते हैं। वे फूल तोडने लगते हैं। उनसे आप कुछ कह भी नहीं सकते, क्योंकि पूजा के लिये तोड रहे हैं। फूल-पत्ते चढाते हो, वे भी दूसरों के तोड कर?”
तो ‘दीया तले अन्धेरा’ पुस्तक की कुछ बातें यहां साझा कीं। हो सकता है कि आपको कुछ बातें विरोधाभाषी लग रही हों, कुछ पक्षपाती लग रही हों, कुछ समझ में न आ रही हों; ऐसा इसलिये है कि ये एक बडे प्रवचन का एक छोटा सा हिस्सा हैं। इनसे पहले काफी कुछ कहा जा चुका है, काफी कुछ और कहा जायेगा। हर प्रवचन की ये चार पंक्तियां पूरी बात को समझने के लिये पर्याप्त नहीं हैं। आप चुल्लू भर पानी से बिल्कुल अन्दाजा नहीं लगा सकते कि नदी कहां से आ रही है, कहां जा रही है, उसमें कितना पानी है आदि।
आप आलोचना करने को पूरी तरह स्वतन्त हैं लेकिन पहले यह जान लेना चाहिये कि जिस बात की आप आलोचना कर रहे हैं, क्या वास्तव में ऐसा है? अक्सर हम सुनी-सुनाई बातों को और ज्यादा नमक-मिर्च लगाकर परोसते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिये।
नीरज ओशो = सेक्स सबसे पहले यही ध्यान लोगों में मस्तिष्क में आता है क्योंकि उन्होंने सुनी बातें होती हैं की ओशो = सेक्स। मैंने ओशो ग्याहरवीं क्लास में पढ़ना शुरू किया था। एक बात जो सबसे बढ़िया लगी थी वो थी बुध के जीवन की घटना। साँझा करता हूँ।
ReplyDeleteबुध अपने शिष्यों के साथ जा रहे थे। जंगल था नदी थी। वहीँ एक गाँव की वेश्या थी। उससे नदी पार करने में मुश्किल थी। बुद्ध ने देखा और कुछ सोच कर उस औरत को अपने कंधे पर उठा लिया। नदी पार हुई साँझ हुई सब अपनी अपनी राह चल दिए। बुद्ध के शिष्य चकित थे पर साहस न कर पाते थे पूछने का की एक वेश्या को क्यों छुआ| दो तीन दिन गुजरे, एक शिष्य ने हिम्मत की पूछ डाला की आप उस वेश्या को उठा लाये आपका तो तप भंग हो गया।
बुद्ध ने कहा तीन दिन का बोझ उठाये घूम रहे हो? मैं भूल गया, वो औरत भूल गयी, पर तुम अभी तक वही बोझ उठाये घूमते हो?
ऐसी ही कई कहानियां ओशो से सुनने को मिली।
तुम्हारा धन्यवाद् इस पोस्ट के लिए। :)
बिल्कुल ठीक कहा तरुण भाई...
Deleteअच्छी पोस्ट ! रजनीश वास्तव में जीनियस थे। इस प्लैनेट से होकर गुज़रना भी उनका क्या गुजरना था। उनकी कही बातें कितनी सीधी और सच हैं। अच्छा याद दिलाया आपने उनके बारे में।
ReplyDeleteधन्यवाद अनुराग जी...
Deleteओशो की कई बातें सोचने पर मजबूर करती हैं
ReplyDeleteआभार साझा करने के लिए
जी, बिल्कुल...
Deleteत्यागीजी जैसे पारिवारिक सम्बन्धों के शब्द प्रयोग करने वाले दार्शनिक बहुत हैं।
ReplyDeleteजी, बिल्कुल...
Deleteनीरज भाई
ReplyDeleteकुछ लोग तो ओशो का विरोध इसलिए करते हैं क्योंकि उन्होंने ओशो को पढ़ा ही नही है
मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि अगर ओशो विरोधी भी ओशो को एक बार गहन चिंतन के साथ पढ़ लें तो जीवन के प्रति उनका नजरिया ही बदल जायेगा..!
बिल्कुल अरुण भाई, इसीलिये मैंने कहा है कि पहले उसे पढें, फिर आलोचना करें। मेरा भी यही विश्वास है कि एक बार पढने के बाद आप उसकी आलोचना नहीं कर सकेंगे।
Delete"Never born,never died"
ReplyDeleteOsho aka Aacharya Rajneesh is one of the most misunderstood indian!
जी, बिल्कुल...
Deleteवाकई नीरजजी आपने बहुत महत्त्वपूर्ण विषय पर लिखा है| नि:सन्देह अद्भुत है ओशो| आप एस धम्मो सनन्तनो १२२ भाग की मालिका जरूर सुनिए| तथा थोडा प्रयास कर अंग्रेजी बायोग्राफी भी पढिए| यह बायोग्राफी उनके प्रवचनों में उनके अपने जीवन पर दिए गए विवरणों का संकलन है| बायोग्राफी यहाँ मिल सकती है- http://www.google.co.in/url?sa=t&rct=j&q=&esrc=s&source=web&cd=2&ved=0CDYQFjAB&url=http%3A%2F%2Ffiles.osho-buddha.webnode.cz%2F200000169-141d616112%2FOsho%2527s%2520biography.pdf&ei=xFpzUbPVNsm4rAeio4DQCA&usg=AFQjCNHeES1mvarRfMCrrw1NQD-HaVaHgg&sig2=Zm9mp2S
ReplyDeleteजिसे ओशो को अधिक समझना है, उसके लिए यह बायोग्राफी अच्छा जरिया है| नीरज जी बहुत बहुत धन्यवाद!
हे भगवान! 7.3 MB की है और 1300 से भी ज्यादा पृष्ठ हैं इसमें, फिर अंग्रेजी में है। नहीं पढा जायेगा।
Deleteवैसे धन्यवाद आपका निरंजन जी...
बहुत अच्च्छा लगा ओशों के बातें पढ़ कर, खास कर आज जब एक अजीब सा माहौल तयार हो रहा है लव जिहाद और धर्मांतरण का. अशो एक आईने की तरह आते हैं जिसमे चेहरे की कालिख और बदसूरती खुद को जाहिर हो जाती है.
ReplyDeleteजी, बिल्कुल। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
Deleteआप को हम सभी लोग एक उच्चकोटी के पर्यटक , ब्लागर ,इतिहासकार,दोस्त ,डायरी लेखक ,रेल्वे जानकार के रूप मे जानते ही है और अब आप को एक सही और बेबाक दारर्शनिक के रूप मे भी जानकर खुशी हुई । अपना विचार देते रहे॥
ReplyDeleteसर जी, आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
Deleteपूरे लेख मे कही कुछ आलोचना जैसा नहीं लग रहा है।
ReplyDeleteत्यागीजी जैसों की गलती नहीं है.... उनका स्वभाव ही ऐसा है कि दूसरों को गलत सिद्ध करके खुद को सही साबित करना... जितने बड़े व्यक्तित्व पर वे उंगली उठाते हैं.. उतनी अधिक उन्हें शांति मिलती है.... उन्हें उपचार की जरूरत है... मेरे खुद के परिवार में बहुतेरे ऐसे हैं....
ReplyDeleteएक समय होता है जब हम नया पढ़ना, नया जानना चाहते हैं....समय बीतने पर कुछ मुश्किल आती है... अधिकांश लोग इससे बचते हैं... यही उनके जीवन की विडंबना है जो अंतत: सामाजिक विडंबना बन जाती है
ओशो को कम ही पढ़ पाया हूं... कहें तो बहुत ही कम... आज आपके माध्यम से थोड़ा पढ़ा... बाकी दोनों किताबों पर भी चर्चा हो जाए....
सोचता हूं कि बाकी दोनों किताबों पर भी चर्चा करूं, इसके लिये वे मुझे पुनः पढनी पडेंगी। धन्यवाद आपका।
Deleteमुझे पूरा यकीन था कि यह लेख एक न एक दिन जरूर आएगा ! बिल्कुल समान परिस्थिती से अपना भी सामना होता रहता है! और सम्भवतः हर उस वयक्ति के साथ होती ही होगी और होती रहेगी जो ओशो या ओशो की talks से आत्मीय होगा| बहरहाल सुंदर ओशो चर्चा !
ReplyDeleteयकीन था तो बता देते। और पहले चर्चा कर देता।
Deleteअच्छा लगा इतना पढ़ना भी ..
ReplyDeleteधन्यवाद आपका...
Deleteनीरज भाई ओशो के बारे में मै ज्यादा नही जानता,बस इतना ही सूना था की ओशो के यहां विदेशी अनूयायी ज्यादा है,ओर वहा पर सैक्स को बूरा नही माना जाता है,
ReplyDeleteएक बार मै रीशीकेश राफ्टींग करने के लिए गया था,जब मै राफ्टिंग कर रहा था तब एक बीच(तट) पर एक विदेशी महिला अर्दध नग्न अवस्था में बैठी थी,तब राफ्टिग कराने वाले ने बताया की यह ओशो आश्रम है ओर हम वहा पर नही जा सकते है बस मै ओशो को इतना ही जानता हुं.
ओर हां एक बार मै आपसे मिलने आया था तब आपकी अलमारी मे मैने ओशो की बूक देखी थी पर ओशो के विचार आज आपके द्वारा पढने को मिले,यह विचार वास्तव में विचारणिय है
ओशो और सेक्स को एक-दूसरे का पर्यायवाची माना जाता है लेकिन ऐसा मानना हमारी अज्ञानता है। आप यकीन नहीं मानोगे- ओशो सेक्स का विरोधी था, और उसी विरोध के फलस्वरूप ‘सम्भोग से समाधि’ पुस्तक का आविर्भाव हुआ।
Deleteओशो की याद ताजा करवा दी, सटीक अंश चुन कर प्रस्तुत किये हैं। शुक्रिया नीरज जी।
ReplyDeleteधन्यवाद ज्ञानी जी...
Deleteओशो की भक्त तो मैं भी नहीं हूँ -- न मैंने कोई ओशो साहित्य पढ़ा हैं ,सिर्फ मेरे यहाँ आने वाला एक पेपर 'आज का आंनद 'जो पुणे से प्रकाशित होता है --उसके एक पेज पर ओशो विचार आते है जो मैं नियमित पढ़ती हूँ ,मुझे पसंद भी आते है --- मेरे विचार से ओशो अपनी पर्सनल लाईफ में जो हो पर उनके विचार बहुत ही सटीक और जीवन में उतारने लायक हैं ,फिर उनको गाली देना न्यायसंगत नहीं है ---क्योकि वो जो कहते थे वही करते भी थे --आज के अन्य गुरुओ की तरह नहीं जो वो करते है और कहते भी नहीं ---छिपाते है ---इसलिए किसी को जाने बगैर गाली देना ठीक नहीं --
ReplyDeleteआपने बिल्कुल ठीक कहा है।
Deleteमैने ओशो की 14-15 किताबे पढ़ी है. ओशो के विचार बहुत ही उच्च कोटि के है . एक तरह की नई प्रेरणा मिलती है . मैं और कितबे पढ़ना चाहती हू . आपका बहुत-बहुत धन्यवाद ओशो का साहित्य डाउनलोड करने की सुविधा देने के लिए .
ReplyDeleteआपका भी बहुत बहुत धन्यवाद ज्योति जी...
Deleteनीरज भाई ,वाहा …… आपने पूरी पुस्तक का सार अपनी एक ही पोस्ट मे शामिल कर दिया। वास्तव मे आज के सामाजिक वातावरण मे ओशो के विचार समाज को नई दिशा दे सकते है। आज आपने मुझे भी ओशो का प्रशंसक बना दिया। चर्चा अच्छी लगी ,करते रहिए।
ReplyDeleteधन्यवाद विनय जी...
Deleteज्ञान चक्षु खुल गए नीरज जी
ReplyDeleteओशो धर्म और आध्यात्म का अंतर स्पष्ट करता है। नयी आध्यात्मिक यात्रा मंगलमय हो।
धन्यवाद आशु जी...
DeleteI have read Osho ... not all of his lectures but few of those ... i didnt find his messages complete . those were only one sided.
ReplyDeleteबाकी तो समझ में आ गया लेकिन आखिरी पंक्ति समझ में नहीं आई मुझे।
Deleteओशो ज्ञान गंगा में डुबकी लगाने वाले न सिर्फ ओशो को समझ पाते हैं बल्कि फिर उस गंगा में डूब कर बाहर की दुनिया को भी बेहतर समझ सकते हैं
ReplyDeleteनीरज ने बहुत अच्छे उदहारण दिए. ओशो को यदि और भी गहराई से समझना हो तो कृपया कृष्ण, मीरा , बुद्ध और कबीर के बारें में उनके विचार पढ़ें। और फिर यदि और गहराई में उतारना हो तो उनके व्याख्यान जो उन्होंने शिव सूत्र, कठोपनिषद,महावीर वाणी और ईशोपनिषद पर दिए, उनका अध्ययन करें.
ओशो की पैनी समझ की धार के आगे टिकना बहुत मुश्किल है। यदि आप उन्हें सही रूप में समझ जाएँ तो फिर वो रह नहीं पायंगे जो अभी आप हैं। उनके विचार आप में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकते हैं पर इसके लिए आपको पहले तैयार होना होगा। वैसे मेरे विचार में यदि सही रूप में उन्हें समझ लिया जाये तो तैयार होने की जरूरत ही नहीं पड़ती बस छलांग खुदबखुद लग ही जाती है.
आलोचना तो सभी कर सकते हैं पर ओशो के विचार में किसी की आलोचना करना भी हिंसा है. वो जियो और जीने दो में विश्वास करते थे.
अंजना जी, आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
Delete“प्रतिभाशाली सदा लीक से हटता है। सिर्फ जडबुद्धि लीक पर चलता है।”
ReplyDeletewaah waah neeraj babu
“तुम मुर्दा हो जाओगे अगर तुमने मुर्दों का अनुसरण किया। तुम्हारे भीतर जीवित बैठा है, उसका अनुसरण करो। तुम्हारे भीतर जीवन की धारा बह रही है, उसके पीछे चलो। अपनी आंखें खोलो। बापदादों के पीछे चलने से कुछ न होगा।
ReplyDeleteNEERAJ BABU AB TUMHE SHADI KAR LENI CHAHIYE " TUMHARE MAN MAIN VAIRAAGYA NE GHAR BANANA SHURU KAR DIYA HAI"
सम्भोग से समाधि की और ?? अगर सम्भोग से समाधि मुमकिन होगी तो अवश्य ही बकरे, कुत्ते आदि समाधि को प्राप्त हो जायेंगे । हाहा क्या मजाक है।
ReplyDeleteosho ke vichaar sadharan the kuch anokha nahin isliye virodh bhi nahi hona chahiye
ReplyDeletepar dharmik kitabon mein gyan zyada hai
bas dhoondhna aana chahiye
यह मनुष्य की फितरत होती है , आप कितना भी अच्छा कार्य करे या बात करे , बहुत से लोग ऐसे मिल जायेंगे जो आपकी अच्छाइयों में भी कमियाँ ढूंढ लेंगे। गालियाँ देंगे। क्यों …… क्योकि यह उनकी फितरत है।
ReplyDeleteवह स्वयं कुछ भी नहीं है …एक मामूली आदमी जिसे उनके मोहल्ले के लोग भी नहीं जानते होंगे पर बनेगे इतने विद्वान कि इनसे ज्यादा योग्य इस दुनिया में भी नहीं है।
आप देख ले आपके लेख पर , लोगो के कॉमेंट पढ़े , गोविन्द सोनी ने मजाक उड़ाना शुरू कर दिया है।
हो सकता है रस्तोगी जी की मेरे कमेंट से आपको मजाक दिख रहा हो । शायद आपके दिल को भी ठेस पहुंची होगी । उसके लोए माफ़ी चाहता हूँ । लेकिन ओशो की हर एक बात लोहे की लकीर टीओ नहीं है। और जहां तक बात मेरे कमेंट की है तो वो सही है। सम्भोग से समाधि ओशो ने फ्रायड के मनोविज्ञान से प्रभावित होकर लिखी है , और फ्रायड का मनोविज्ञान आप इक बार पढ़ के देखिएगा आपको उत्तर मिल जाएगा । ज्ञातव्य है की फ्रायड ने आत्महत्या की थी । यही उसके दर्शन की सार्थकता साबित करने के किये पर्याप्त है शायद । धन्यवाद !
Deleteगोविन्द जी, आपने अगर यह पुस्तक पढी है, तो आपका आलोचना करना जायज है। लेकिन एक-दो बातें इस बारे में मैं भी कहना चाहूंगा। पहली तो यही कि हम सब किसी न किसी से प्रभावित रहते हैं। कोई ओशो से प्रभावित है, कोई मार्क्स से, कोई किसी से, कोई किसी से। तो अगर ओशो फ्रायड से प्रभावित था तो इसमें गलत क्या है? आपने अपनी पहली टिप्पणी में लिखा है कि अगर सम्भोग से समाधि मुमकिन होती तो बकरे, कुत्ते भी समाधि को प्राप्त हो गये होते। कहने का अर्थ है कि आपको ‘सम्भोग से समाधि की ओर’ शीर्षक देखकर लगा होगा कि सम्भोग करते रहो, आप समाधि को प्राप्त हो जाओगे। जबकि मुझे यही शीर्षक देखकर लगा कि सम्भोग छोडो, समाधि की ओर चलो। बाकी इसमें क्या लिखा है, वो तो पुस्तक पढकर ही पता चलेगा।
Deleteपुनश्च, अगर आपने पुस्तक पढी है तो आपका आलोचना करना जायज है, अन्यथा नहीं।