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जांस्कर यात्रा- दिल्ली से कारगिल

तैयारी
अगस्त में भारत में मानसून पूरे जोरों पर होता है। हिमालय में तो यह काल बनकर बरसता है। मानसून में घुमक्कडी के लिये सर्वोत्तम स्थान दक्षिणी प्रायद्वीप माना जाता है लेकिन एक जगह ऐसी भी है जहां बेफिक्र होकर मानसून में घूमने जाया जा सकता है। वो जगह है लद्दाख। लद्दाख मूलतः एक मरुस्थल है लेकिन अत्यधिक ऊंचाई पर होने के कारण यहां ठण्ड पडती है। हिमालय के पार का भूभाग होने के कारण यहां बारिश नहीं पडती- न गर्मियों में और न सर्दियों में। मानसून हो या पश्चिमी विक्षोभ; हिमालय सबकुछ रोक लेता है और लद्दाख तक कुछ भी नहीं पहुंचता। जो बहुत थोडी सी नमी पहुंचती भी है वो नगण्य होती है।
जांस्कर भी राजनैतिक रूप से लद्दाख का ही हिस्सा है और कारगिल जिले में स्थित है। जांस्कर का मुख्य स्थान पदुम है। अगर आप जम्मू कश्मीर राज्य का मानचित्र देखेंगे तो पायेंगे कि हिमाचल प्रदेश की सीमा पदुम के काफी नजदीक है। पदुम जाने के लिये केवल एक ही सडक है और वो कारगिल से है। बाकी दिशाओं में आने-जाने के लिये अपने पैरों व खच्चरों का ही सहारा होता है। चूंकि जांस्कर की ज्यादातर आबादी बौद्ध है इसलिये इनका सिन्धु घाटी में स्थित विभिन्न बौद्ध मठों में आना-जाना लगा रहता है। यह सारी आवाजाही पैदल ही होती है। अगर किसी को पदुम से हेमिस जाना हो तो सडक के रास्ते जाने में दो दिन लगेंगे, कारगिल व लेह होते हुए। जबकि स्थानीय निवासी पदुम से हेमिस दो दिनों में पैदल भी तय कर सकते हैं। जाहिर है कि वे पैदल यात्रा को ही वरीयता देंगे। इसलिये जांस्कर में ट्रैकिंग काफी प्रचलित है।

वैसे तो यहां बहुत सारे ट्रैक हैं लेकिन सबसे प्रसिद्ध है- दारचा ट्रेक। इसमें 5000 मीटर ऊंचा शिंगो-ला दर्रा पार करके आप हिमाचल पहुंच सकते हो। इस ट्रेक को एक आसान ट्रेक माना जाता है क्योंकि ट्रेकिंग लगभग 4000 मीटर की ऊंचाई से शुरू होती है। आपको तीन दिन या चार दिन पैदल चलते हुए 5000 मीटर तक पहुंचना होता है। ऊंचाई बहुत धीरे धीरे बढती है।
चलिये, काफी प्रस्तावना हो गई। अब यात्रा-वृत्तान्त पर आते हैं। मैंने इसी ट्रेक को करने का फैसला किया क्योंकि मुश्किल ट्रेकों से मुझे पसीने छूटते हैं। ऊंचाई कितनी भी हो, शरीर अनुकूलित होते ही ऊंचाई का कोई प्रभाव नहीं रह जाता। लेकिन ट्रेक आसान होना चाहिये। इसकी खबर विधान को दी तो वह भी चलने को राजी हो गया। उसने पहले भी कई ट्रेक कर रखे हैं तो मुझे यकीन था कि दारचा ट्रेक में उसे कोई समस्या नहीं आयेगी।
पता नहीं कैसे हमारी इस योजना की खबर प्रकाश यादव जी को हो गई। उन्होंने भी चलने को कहा। मैंने मना कर दिया। प्रकाश जी ने पहले कभी कोई ट्रेकिंग नहीं की है तो उन्हें सीधे चार हजार मीटर पर चढा देना मुझे नहीं जंचा। वे चलने की जिद करने लगे। मैंने बहुत डराने की कोशिश की- बहुत ज्यादा ऊंचाई है, बर्फ बिल्कुल नहीं मिलेगी, हरियाली नहीं मिलेगी, पानी नहीं मिलेगा, बिल्कुल रेगिस्तान है, भयंकर धूप पडती है, त्वचा जल जायेगी, कुछ भी मन नहीं करेगा, न खाने का, न पीने का, न फोटो खींचने का...। लेकिन उन्हें लगा कि मैं झूठ बोल रहा हूं। वे नहीं माने। उन्होंने विधान से कहा। विधान चाहता था कि दो से तीन हो जायें तो ज्यादा अच्छा रहेगा। उसने समझाया कि ऐसा कुछ नहीं है। लद्दाख... जहां कोई नहीं जाता... हम जायेंगे। आखिरकार मुझे भी मानना पडा लेकिन चूंकि मुझे लद्दाख के मौसम की अच्छी जानकारी है तो हिदायतें देता ही रहा।
श्रीनगर का हवाई जहाज का टिकट मैंने तब ही बुक करा लिया था जब विधान को भी नहीं पता था। जैसे ही बात आगे बढने लगी तो प्रकाश जी ने भी टिकट बुक करा लिया- रायपुर से दिल्ली और दिल्ली से श्रीनगर। बचा विधान; वह वायुयान से नहीं जाना चाहता था। उसका बजट ज्यादा नहीं था। मैं दिल्ली से दिल्ली दस हजार का हिसाब लगाकर चल रहा था। यही हिसाब विधान को भी बता दिया। विधान के लिये यह बजट ज्यादा था लेकिन फिर भी प्रकाश जी के कहने पर वह श्रीनगर तक वायुयान से जाने को राजी हो गया। वापसी में हमें मनाली के रास्ते आना था, इसलिये किसी वायु टिकट की कोई आवश्यकता नहीं थी।
वायुयान से क्यों? यह बात आपके मन में आ रही होगी। मेरे पास केवल नौ दिन थे। विधान भी बडी मुश्किल से नौ दिनों का प्रबन्ध कर सका। हमारी तत्कालीन जानकारी के अनुसार यह ट्रेक सौ किलोमीटर से भी ज्यादा है। दिल्ली से श्रीनगर तक अगर बस और ट्रेन से लगातार चलते रहें तो चौबीस घण्टे लग जाते हैं। यानी पहला दिन श्रीनगर पहुंचने में, दूसरा दिन श्रीनगर से कारगिल पहुंचने में और तीसरा दिन कारगिल से पदुम पहुंचने में लग जाता। फिर एक दिन उधर दारचा से मनाली और दिल्ली आने के लिये भी चाहिये। अब बचे पांच दिन और इन पांच दिनों में हमें चार हजार मीटर से ज्यादा की ऊंचाई पर सौ किलोमीटर से भी ज्यादा चलना था जो एक बेहद मुश्किल काम था। और जिसने कभी भी ट्रेकिंग नहीं की हो, उसके लिये तो असम्भव। इसलिये मेरी योजना थी कि भले ही कुछ पैसे ज्यादा लग जायें लेकिन ट्रेकिंग के लिये कम से कम छह दिन तो हाथ में होने ही चाहिये। इतनी ऊंचाई पर कम से कम एक दिन अनुकूलन के लिये भी चाहिये। आप अचानक चार हजार मीटर पर पहुंचकर ट्रैकिंग शुरू नहीं कर सकते। इससे पता चलता है कि हमारे पास समय की कितनी भारी किल्लत थी। फिर हमें फोटो भी खींचने थे। विधान व प्रकाश जी अच्छे फोटोग्राफर हैं। अच्छे फोटो कभी भी भागदौड में नहीं खिंचा करते।
अब बारी थी इस यात्रा के लिये जरूरी सामान जुटाने की। मेरे पास टैण्ट और स्लीपिंग बैग हैं तो मुझे इनकी जरुरत नहीं थी। विधान मेरे टैण्ट में आ जायेगा लेकिन उसे स्लीपिंग बैग खरीदना पडेगा। जबकि प्रकाश जी को टैंट भी चाहिये और स्लीपिंग बैग भी। उनकी यह समस्या मैंने हल कर दी। प्रकाश जी ने टैंट छत्तीसगढ में ही खरीद लिया जबकि दोनों के लिये स्लीपिंग बैग व मैट्रेस मुझे खरीदने पडे। प्रकाश जी जबरदस्त तैयारी कर रहे थे। रोज विधान से व मुझसे नई नई बातें पूछते और उसी के अनुसार सामान जुटाते चले जाते। उधर हम दोनों हाथ पर हाथ धरे बैठे थे और एक-एक दिन कम होते गिनते जाते थे।

दिल्ली से श्रीनगर
आखिरकार ग्यारह अगस्त आ गया जब हमें प्रस्थान करना था। प्रकाश जी दिल्ली दस तारीख को ही आ गये थे। उनकी फ्लाइट ग्यारह को सुबह आठ बजे थी यानी उन्हें हवाई अड्डे छह बजे तक पहुंच जाना था। यमुनापार शास्त्री पार्क से चलकर सुबह छह बजे तक हवाई अड्डे पहुंचना आसान नहीं है और सुरक्षित भी नहीं इसलिये वे वहीं महिपालपुर में ही रुक गये। विधान भी उसी फ्लाइट से जायेगा। वह जयपुर से शाम को चला और आधी रात तक महिपालपुर प्रकाश जी के यहां पहुंच जायेगा। मेरी फ्लाइट उनके दो घण्टे बाद यानी दस बजे थी, मुझे शास्त्री पार्क से चलकर आठ बजे तक डोमेस्टिक हवाई अड्डे पहुंचना मुश्किल नहीं था।
जब मैं चलने लगा तो वजन नापा। मेरा वजन 74 किलो था जबकि सामान का वजन था 13 किलो। बाद में पता चला कि प्रकाश जी और विधान दोनों के पास भी पन्द्रह-पन्द्रह किलो वजन हो गया था। वास्तव में यह बहुत ज्यादा वजन था। मुझे पता था कि हमें कहीं भी टैण्ट और स्लीपिंग बैग की आवश्यकता नहीं पडने वाली, लेकिन समय खराब था कि ले लिये। यह मैंने विधान को भी बता दिया था कि हमें वास्तव में किसी भी चीज की आवश्यकता नहीं है, पूरे रास्ते होमस्टे मिलेंगे। लेकिन उस समय तक किसी ने भी पन्द्रह किलो वजन नहीं उठाया था, उठाया भी था तो दो चार मिनट के लिये उठाया होगा। किसी को अन्दाजा नहीं था कि चार हजार मीटर की ऊंचाई पर इतना वजन लेकर चलना कितना मुश्किल होगा।
भले ही उनकी फ्लाइट मुझसे दो घण्टे पहले हो लेकिन शेड्यूल के अनुसार मेरी फ्लाइट को श्रीनगर उनसे पन्द्रह मिनट पहले पहुंचना था। कारण था कि उनकी फ्लाइट जम्मू होकर जाने वाली थी जबकि मेरी वाली सीधे श्रीनगर ही जाकर उतरेगी। हालांकि चेक-इन के बाद हम तीनों करीब आधे घण्टे के लिये मिल भी लिये। विधान अपने उसी चिर-परिचित अन्दाज में मिला- अरे चौधरी यार, मरवा दिये तूने तो। पन्द्रह किलो वजन बहुत ज्यादा हो गया।
खैर, निर्धारित समय पर स्पाइसजेट की श्रीनगर वाली फ्लाइट उड चली। नीचे कहीं बादल थे, कहीं खुला था। मैंने पहले ही चेक-इन काउण्टर पर खिडकी वाली सीट मांग ली थी, इसलिये शीशे पर मुंह लगाकर नीचे देखता रहा लेकिन मैं पहचान नहीं सका कि कहां से उड रहे हैं। नीचे कोई बडा शहर नहीं दिखा। सूर्य की दिशा देखकर पता चल रहा था कि हम पश्चिम की तरफ उड रहे थे, बाद में धीरे धीरे पश्चिमोत्तर होते-होते उत्तर की ओर होते चले गये। बाद में दिल्ली लौटने पर किसी मित्र ने बताया कि दिल्ली से श्रीनगर जाने वाली उडानें पाकिस्तान के वायुक्षेत्र से होकर जाती हैं। तो क्या मैं भी पाकिस्तान के ऊपर से गुजरा था? लेकिन अगर ऐसा होता तो सीमा तो दिखती। सीमा पर तारबन्दी है और सडक भी बनी है। सीमा दिखती तो मैं पहचान लेता। यह गूगल मैप के सैटेलाइट व्यू में भी दिखाई देती है।
छोडो, गये होंगे जहां से भी गये होंगे। बाद में पहाड दिखने लगे और शीघ्र ही बर्फ भी दिखाई देने लगी। लेकिन बादल ज्यादा होने के कारण बर्फ और बादलों में फर्क करना मुश्किल था। आखिरकार जब वायुयान ने कश्मीर घाटी में प्रवेश किया तो मैं पहचान गया कि हम कहां से उड रहे हैं। बनिहाल के ऊपर से पीर-पंजाल की श्रंखला पार की थी। इसका अर्थ है कि पाकिस्तान के वायुक्षेत्र की बात गलत है। अगर पाकिस्तान की तरफ से आते तो पुंछ की तरफ से आते। काजीगुण्ड के आसपास रेलवे लाइन भी दिखी। फिर ऊंचाई कम होने लगी। कश्मीर घाटी और ज्यादा स्पष्ट दिखने लगी। अब जब एक बार मैं समझ गया कि कहां से उड रहे हैं तो यह भी पता था कि हवाई अड्डा कहां है। लेकिन वायुयान हवाई अड्डे की तरफ नहीं गया बल्कि बडगाम की तरफ चला गया। बडगाम में कश्मीर रेलवे का डिपो है। सभी ट्रेनें वहीं खडी होती हैं और उनकी देखरेख व मरम्मत भी वहीं होती हैं। पूरा डिपो दिख गया और श्रीनगर की तरफ जाती एक ट्रेन भी दिखी। वायुयान ने बडगाम शहर के ऊपर ही ऊपर दो चक्कर काटे, तब जाकर वह हवाई अड्डे पर उतरा। स्पाइसजेट का एक विमान वहां खडा देखकर मैं समझ गया कि विधान और प्रकाश जी भी आ चुके हैं।

श्रीनगर से कारगिल
हवाई अड्डे से बाहर निकले। हमारी निगाहें लालचौक जाने वाली किसी बस को ढूंढ रही थीं। लेकिन बस तो मिली नहीं, एक शेयर्ड टैक्सी मिल गई जिसने सौ सौ रुपये में श्रीनगर टीआरसी पर उतार दिया। यहीं से बसें भी मिलती हैं और सूमो व टैक्सियां भी। अभी लगभग दोपहर के बारह बजे होंगे। हमारी योजना आज ही कारगिल पहुंच जाने की थी। अगर हम श्रीनगर की बजाय लेह गये होते तो शायद कारगिल की बसें भी मिल जातीं लेकिन यहां इस समय तो बसें असम्भव ही थीं और सूमो भी। इसका कारण था जोजी-ला। जोजी-ला ही हमारे मार्ग की सबसे बडी मुसीबत था। एक बार जोजी-ला पार हो जाये, फिर कोई समस्या नहीं। यहां से जोजी-ला की तरफ यानी द्रास, कारगिल व लेह के लिये जितनी भी बसें व सूमो जाती हैं, सभी सुबह सवेरे निकलती हैं। दोपहर को तो बस काउण्टर पर जाकर अगले दिन जाने वाली गाडी में सीट बुक की जा सकती थी। अगर ऐसा हुआ तो कल दोपहर बाद तक कारगिल पहुंचेंगे, रात को कारगिल में रुकना पडेगा। हम तय कार्यक्रम से एक दिन पिछड जायेंगे। जबकि हम ही जानते थे कि हमारे लिये एक दिन कितना कीमती है।
टैक्सी के लिये बात की। वह कारगिल तक तीन हजार में तैयार हुआ। जाहिर है कि हमारे लिये तीन हजार बहुत ज्यादा थे। विधान ने पहले ही बता दिया था कि उसका बजट बहुत कम है। फिर उसे स्लीपिंग बैग और मैट्रेस भी लेने पडे। इससे खर्चा और बढ गया। प्रकाश जी रायगढ में जिन्दल स्टील में जीएम हैं तो उनके लिये बजट की कोई तंगी नहीं थी। जबकि मैं दोनों के बीच में था। विधान को मैंने पहले ही मना लिया था कि कारगिल से पदुम तक टैक्सी से जायेंगे, भले ही कितना भी खर्च हो। जितना उसका बजट हो, दे देना, बाकी हम दोनों मिलकर वहन कर लेंगे। क्योंकि रास्ता सुरू घाटी से होकर जाता है। मैंने इस घाटी की खूबसूरती के खूब किस्से पढ रखे हैं। लेकिन श्रीनगर से कारगिल भी टैक्सी से जाना पडेगा, यह नहीं सोचा था। आखिरकार तमाम विचार विमर्श के बाद तय हुआ कि टैक्सी कर ही लेते हैं। कम से कम अपने कार्यक्रम के अनुसार तो चलते रहेंगे।
विधान पहली बार कश्मीर आया था। आने से पहले वह डर भी रहा था कि कहीं किसी बम-बारूद की चपेट में न आ जाये। मैंने और प्रकाश जी ने उसे आश्वस्त किया कि ऐसा कुछ नहीं होगा। और टैक्सी में बैठने के बाद जब हमने उसे बताया कि यह लालचौक था, तो वह सिहर उठा।
प्रकाश जी के कहे अनुसार टैक्सी वाला डलझील का चक्कर लगाकर चलने लगा। वैसे तो सीधे हजरतबल के सामने से होते हुए डल को एक तरफ छोडकर भी जा सकते थे, लेकिन सिर्फ विधान के लिये ऐसा किया गया। मैं और प्रकाश जी कई बार कश्मीर आ चुके हैं, तो अब डल का उतना आकर्षण नहीं रहा। शीघ्र ही टैक्सी लेह हाइवे पर दौड रही थी। मैं पिछले साल इसी रास्ते से लेह से साइकिल से आया था, इसलिये इसका चप्पा चप्पा मेरा देखा हुआ है। पिछले साल ही प्रकाश जी भी इसी रास्ते से लद्दाख गये थे। बचा विधान, तो आगे ड्राइवर के पास उसे ही बैठा दिया। देख कश्मीर की सुन्दरता।
सोनमर्ग पार करके खबर आने लगी कि जोजी-ला पर बडा भीषण जाम लगा है। मैंने जोजी-ला अच्छी तरह देख रखा है तो जानता हूं कि वहां जाम लगने का क्या अर्थ है। वहां जाम का अर्थ ही भीषण जाम है। बडी खतरनाक जगह है जोजी-ला। मैंने साथियों को आगाह कर दिया कि रात को इसी टैक्सी में सोने के लिये तैयार रहो। सामने जोजी-ला पर गाडियों की लम्बी कतार भी दिख रही थी। जोजी-ला पर असल में दो रास्ते हैं। एक नीचे वाला और दूसरा ऊपर वाला। पता चला कि नीचे वाले पर भू-स्खलन हो गया है इसलिये बन्द है। ऊपर वाले से जाना पडा। नहीं तो ड्राइवर नीचे वाले से जाना चाह रहा था। वो ड्राइवर वास्तव में एक अच्छा ड्राइवर था। जाम होने के बावजूद भी वह गाडी निकाल ले गया। जोजी-ला आराम से पार हो गया। एक बार आप जोजी-ला पार कर जाओ, फिर आगे कहीं भी जाओ, आपको कोई समस्या नहीं आयेगी।
जोजी-ला टॉप की एक घटना का जिक्र करूंगा, उसके बाद कारगिल चलेंगे। दर्रों के दोनों तरफ ढलान होता है, तो इसके दोनों ओर भी है। कश्मीर की तरफ जहां ज्यादा ढाल है वहीं कारगिल की तरफ कम। कश्मीर की तरफ यहां से सिंध नदी निकलती है तो कारगिल की तरफ द्रास नदी। यह सिंध वो सिन्धु नहीं है। यहां थोडी सी बर्फ थी। कुछ पर्यटक बर्फ में खेल भी रहे थे। चाय की दुकान भी थी। मन किया कि एक-एक कप चाय पी ली जाये। सडक से नीचे गाडी उतरवा ली। 3400 मीटर की ऊंचाई पर हवा बडी तेज चल रही थी और ठण्डी भी थी। स्थान वैसे भी दर्शनीय है।
तभी हमें कुछ स्थानीय लडकों ने घेर लिया। उनके पास बर्फ में फिसलने वाले पटडे थे। पैसे बताये एक पॉइण्ट के दो सौ रुपये। उधर मैं इस पूरी यात्रा की छोटी छोटी वीडियो भी बनाता चल रहा था। मेरी इच्छा इसकी एक डॉक्यूमेण्ट्री बनाने की थी। जब यहां आ गये तो मन में आया कि उसमें एक दृश्य यहां बर्फ पर फिसलते हुए भी हो। पहले तो मैंने विधान से कहा। उसने मना कर दिया। प्रकाश जी से कहा, उन्होंने भी मना कर दिया। आखिरकार कैमरा प्रकाश जी को देकर मैं ही फिसलने के लिये जाने लगा। बर्फ पर काफी ऊपर तक गये, फिर फिसलते हुए नीचे आये। प्रकाश जी कैमरे में वीडियो रिकार्डिंग करने में लगे।
जब पैसे देने लगा तो बारह सौ मांगे। कहने लगे कि एक पॉइण्ट के दो सौ बताये थे, आपको हम छह पॉइण्ट तक लेकर गये थे, तो बारह सौ हो गये। मेरा दिमाग खराब हो गया। बडी देर तक बहस हुई। उनका पूरा झुण्ड आ गया और मुझसे बारह सौ ही निकलवाने की गुण्डई कोशिश करने लगा। मैंने भी कहा कि तुम कश्मीरी मुझे मार सकते हो, पीट सकते हो और पैसे छीन सकते हो लेकिन मेरे हाथ से दो सौ से एक भी ज्यादा नहीं ले सकते। आधे घण्टे से भी ज्यादा तक गर्मागर्म बहस होती रही। कई बार तो लगता कि मारपीट हो ही जायेगी। लेकिन यह श्रीनगर नहीं था। यह एक बिल्कुल सुनसान इलाका था। पूरे कश्मीर की तरह यहां भी सेना है। इस बात को मैं भी जानता था और वे भी। आखिरकार उन्होंने दो सौ ही लिये। फिसलने का सारा मजा किरकिरा हो गया। और वीडियो भी उतनी अच्छी नहीं आई जितनी मैं चाहता था। अत्यधिक ठण्ड के कारण प्रकाश जी के हाथ कांप रहे थे और पूरी रिकार्डिंग बुरी तरह हिलते हुए आई।
यहां से चले तो फिर से अच्छी सडक आ गई। जोजी-ला पर बेहद खराब सडक है। अब लक्ष्य था द्रास युद्ध संग्रहालय। मेरी इच्छा संग्रहालय देखने की नहीं थी लेकिन मैं वहां कुछ खाना पीना चाहता था। उत्तर भारतीय व्यंजन मिलने का यह आखिरी स्थान था। इसके बाद आगे पता नहीं हमें क्या-क्या खाने को मिलेगा।
ड्राइवर एक भारत विरोधी कश्मीरी था। मैंने उससे बात की तो इस बात का आसानी से पता चल गया। द्रास में वह अपनी पसन्द की दुकान पर रुकना चाहता था लेकिन मैंने मना कर दिया- छह किलोमीटर आगे संग्रहालय है, वहीं रुकेंगे। उसने अनजान बनने की कोशिश की। लेकिन मैंने ऐसा नहीं होने दिया। हालांकि उसे पता सबकुछ था। संग्रहालय आने पर अपने ही आप उसने गाडी पार्किंग गेट में घुसा दी और अन्दर पार्क कर दी। पता नहीं होता तो वह आगे निकल गया होता और फिर हमें रुकवाना पडता।
तब तक सूरज ढल चुका था। ध्वजावरोहण हो रहा था। हालांकि संग्रहालय अभी भी खुला था, विधान ने इसे देखा नहीं था, इसलिये उसने कुछ फोटो लिये। यहीं कैण्टीन है, सबने अपनी पसन्द के स्नैक्स खाये और चाय भी पी।
जब जोजी-ला से द्रास की तरफ आ रहे थे तो प्रकाश जी ने कहा कि यहां से टाइगर हिल भी दिखती है। कुछ देर बाद ड्राइवर ने एक चोटी की तरफ इशारा करके बताया कि वो रही टाइगर हिल। बाकी फोटो लेने की तैयारी करते, मैंने रोक दिया- नहीं, वो टाइगर हिल नहीं है। उसे मैं अच्छी तरह पहचानता हूं। आगे चलकर दिखेगी तो बताऊंगा। कुछ आगे जाकर जब असली टाइगर हिल दिखी, तब गाडी रुकवाकर खूब फोटो खींचे। यह संग्रहालय से भी दिखती है। विधान ने जवानों से इसकी पुष्टि भी की।
द्रास से आगे शम्शा गांव भी मिला जहां साइकिल यात्रा के दौरान मुश्ताक मुझे अपने घर ले गया था। उस समय चलते समय मैंने उसे एक भी पैसा नहीं दिया था, बाद में पछतावा भी हुआ। पछतावा आज भी होता है। अगर उनका घर सडक के किनारे ही होता तो हम पांच मिनट के लिये रुक जाते लेकिन वह पहाड पर काफी ऊपर जाकर था, इसलिये नहीं गये।
आठ सौ रुपये में कारगिल में एक कमरा मिला। असल में अगले दिन यहां प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी आने वाले थे, तो बाहर से आये पत्रकारों की वजह से सब होटल फुल थे। बस अड्डे के पास ही जहां हमने लिया, वो कमरा चौथी मंजिल पर था और अकेला कमरा था, इसलिये शायद किसी पत्रकार ने नहीं लिया होगा। और इसी वजह से हमें सस्ता भी मिल गया, नहीं तो सभी हजार से ऊपर थे। एक बार ऊपर चढकर फिर हम नीचे नहीं उतरे। ऊपर ही खाना मंगा लिया और खुले आसमान के नीचे बैठकर दावते-कारगिल उडाई।
रात होने के बावजूद भी कारगिल के चारों तरफ की बंजर भूरी पहाडियां दिखाई दे रही थीं। लेह वाली सडक दिख रही थी और बटालिक जाने वाली भी लेकिन कल जहां हमें जाना था यानी जांस्कर रोड; वो नहीं दिख रही थी।


रेलवे लाइन और श्रीनगर की तरफ जाती एक ट्रेन

बडगाम ट्रेन यार्ड

डल झील



जोजी-ला पर

जोजी-ला पर

जोजी-ला पर प्रकाश जी और विधान जी।

द्रास से दिखती टाइगर हिल

कारगिल में। जहां का नाम सुनते ही मैदानी लोगों में सिहरन दौड जाती है, वहां चैन की नींद सोते हुए।


प्रधानमन्त्री आ रहे हों तो ये झण्डियां तो लगनी ही थीं। @कारगिल


...
इस यात्रा के अनुभवों पर आधारित मेरी एक किताब प्रकाशित हुई है - ‘सुनो लद्दाख !’ आपको इस यात्रा का संपूर्ण और रोचक वृत्तांत इस किताब में ही पढ़ने को मिलेगा।
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अगला भाग: खूबसूरत सूरू घाटी

पदुम दारचा ट्रेक
1. जांस्कर यात्रा- दिल्ली से कारगिल
2. खूबसूरत सूरू घाटी
3. जांस्कर यात्रा- रांगडुम से अनमो
4. पदुम दारचा ट्रेक- अनमो से चा
5. फुकताल गोम्पा की ओर
6. अदभुत फुकताल गोम्पा
7. पदुम दारचा ट्रेक- पुरने से तेंगजे
8. पदुम दारचा ट्रेक- तेंगजे से करग्याक और गोम्बोरंजन
9. गोम्बोरंजन से शिंगो-ला पार
10. शिंगो-ला से दिल्ली वापस
11. जांस्कर यात्रा का कुल खर्च




Comments

  1. यात्रा की शुरुआत अच्छी रही, विडियो कहाँ है नीरज भाई.?

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    1. कहीं नहीं है। कम्प्यूटर में पडी मेमोरी घेरे बैठी है।

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  2. ये ब्लॉग पढ़कर लगा कि आप पहले वाली फॉर्म में आ गए. पोस्ट तो आपकी सभी अच्छी होती है लेकिन मुझे हिमालय ट्रैकिंग सम्बन्धी पोस्ट ज्यादा भाती है. उम्दा लेखन शैली, शानदार फोटो के साथ बेहतरीन पोस्ट.

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    1. आपको हिमालयन ट्रेकिंग ज्यादा भाती है... इस चक्कर में मेरी ऐसी-तैसी हो जाती है।

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  3. अभी हाल ही में आपकी मनाली लेह साइकिल यात्रा संबंधी पोस्ट पढ़ी आपने बताया कि पुरे मार्ग में 5 दर्रे पढ़ते है। क्या आप बताना चाहेंगे कि दर्रा किसे कहते है।

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    1. विशाल जी, पहाड असल में एक टीला नहीं होता। हिमालय में यह एक श्रंखलाबद्ध रूप में होता है। एक बहुत लम्बी बडी ऊंची दीवार जैसी होती है। इसमें कई चोटियां होती हैं। इसके एक तरफ एक नदी होती है, दूसरी तरफ दूसरी नदी होती है। आपको यह श्रंखला पार करनी है। तो आप अपनी सुविधानुसार जहां से भी पार करोगे, वही स्थान दर्रा होगा। इसकी कोई निश्चित परिभाषा नहीं होती। कई बार आपके रास्ते में खडी चट्टानें आती हैं, बडे बडे ग्लेशियर आते हैं, तो कहा जाता है कि दर्रा दुर्गम है। और अगर आसानी से पार हो जाये तो आसान कहा जाता है।

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    2. नीरज जी आपकी यह वास्तविक यात्रा वृतांत पढ़ते वक्त ऐसा लगा जैसे कि मैं भी आप तीनों के साथ था।।। कहने का मतलब यह है कि बहुत ही खूबसूरती के साथ लिखा है आपने------काबिलेतारीफ भाई वाह

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  4. बहुत बढ़िया ..क्या प्रस्तुति है ..लगा जैसे हम ही जांस्कर घाटी में है......

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    1. आपको कैसे लगा कि आप भी जांस्कर घाटी में हैं????
      अभी तो हम भी नहीं पहुंचे वहां...

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  5. जाटराम ने कही भी सुवालो इस पे कोई फर्क नहीं पड़ता।

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  6. आपने यह यात्रा सही समय पर पोस्ट करी है,वहां की ठण्ठ को यहां पर पढ कर महसूस किया जा सकता है.
    बहुत बढिया लेख,नयापन लिए हुए.
    वैसे शायद विधान भाई अपने ब्लॉग पर अपने ढंग से यह यात्रा वर्णन लिख चुके है.
    पर आप का नजरीया,आप के फोटो सबसे अलग होते है,अगली कडी का इंतजार रहेगा.

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  7. वाह जी.... रोमांचक शैली में लिखी गयी रोमांचक यात्रा ... और वैसे ही फोटो भी | वैसे श्रीनगर से जोजिला और कारगिल कितने दूर है ???

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    1. श्रीनगर से जोजी-ला लगभग 100 किलोमीटर है और कारगिल लगभग 200 किलोमीटर। सटीक दूरी के लिये गूगल मैप देख लीजिये।

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  8. नीरज भाई आज की आपकी इस यात्रा कड़ी को "गागर मे सागर " कहे तो उपयुकत होगा। अब तो सुबह अख़बार से पहले आपका ब्लॉग खोलता हू कि देखू नीरज जी ने आज क्या पोस्ट किया है। शानदार यात्रा -शानदार फोटो -अगली कड़ी का बेसब्री से इंतजार रहेगा।

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  9. KARGIL India me hai ?

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    1. ओ तेरे की... मजाक तो नहीं कर रहे????

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    2. SORRY BHAI YAH TO INDIA ME HI HAI MENE SOCHA PAKISTAN WALI SIDE HAI...

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  10. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (20-12-2014) को "नये साल में मौसम सूफ़ी गाएगा" (चर्चा-1833)) पर भी होगी।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. कभी कोई नई टिप्पणी भी कर लिया करो शास्त्री जी... कई सालों से आपकी यही टिप्पणी पढ-पढ कर पक गया हूं।

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  11. दिल्ली से कारगिल की यात्रा एक रोचक जानकारी वाला लेख है। सभी फोटो बहुत बढ़िया है।

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  12. ये यात्रा तो पढ़ी हुई है

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    1. आपने कहां पढ ली???? इसे मैंने पहली बार प्रकाशित किया है।

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    2. सही कहा ,यह नया यात्रा विवरण है इससे पहले साइकिल - यात्रा पढ़ी थी जिसमें जांस्कर ,कारगिल ,जोजीला का नाम पढ़ा था इसलिए मुझे लगा की ये रिपीट पोस्ट है और मैंने नहीं पढ़ी पर जब 'सुरु घाटी ' का विवरण पढ़ा तो दोबारा यह पोस्ट पढ़ी --सॉरी

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  13. नीरज जी राम राम, बहुत दिनों के बाद आपकी पोस्ट पढ़ी मज़ा आ गया, धन्यवाद....वन्देमातरम

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  14. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति

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  15. Nice post sir ,

    How good is kargil for settling after retirement in your opinion ? are there basic health care facilities available ?

    thanks

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    1. वह निर्भर करता है कि आप अभी कहां रहते हैं? किस धर्म के मानने वाले है? अगर किसी मैदानी शहर में रहते हैं या हिमालय के हरे-भरे इलाके में रहते हैं तो कारगिल में बसना आपको रास नहीं आयेगा। अगर मुस्लिम नहीं हैं तब भी आपको वहां बसना अच्छा नहीं लगेगा। वैसे कारगिल में बेसिक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हैं। आजकल सर्दियों में वहां तापमान शून्य से 15-20 डिग्री नीचे तक पहुंच रहा है।

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  16. aagaj bahut hi behtarin hai neerajji.dekhte hai anjam ko kaise bayan kiya hai.

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  17. बहुत बढ़िया सुन्दर सुन्दर चित्रों की साथ सुन्दर यात्रा वृत प्रस्तुति हेतु धन्यवाद!

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

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ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब