प्रत्येक सरकारी कर्मचारी को देश घूमने के लिये सरकार खर्चा देती है। इसे एल.टी.सी. कहते हैं। इसे लेने के इतने सारे नियम होते हैं कि किसी के लिये सभी नियम याद रख पाना संभव नहीं होता। फिर कुछ नियम ऐसे भी हैं जो समय-समय पर बदलते रहते हैं या आगे कुछ समय के लिये विस्तारित होते रहते हैं। मैं एल.टी.सी. के नियम ज्यादा नहीं जानता। वैसे भी चार साल में एक बार या दो बार इस सुविधा का लाभ उठा सकते हैं। अपना चार साल में पचास बार बाहर जाने का काम है। एक बार खर्चा सरकार दे देगी, तो उनचास बार अपनी जेब से ही सब खर्चा करना होता है। तो सरकार द्वारा दी जाने वाली इस सुविधा को मैं अक्सर भूल जाता हूँ।
एल.टी.सी. का एक मास्टर सर्कुलर है अपने यहाँ। मैंने इसे ही पढ़ लिया और इसी के अनुसार टिकट बुकिंग कर ली। यह सर्कुलर कहता है कि अंडमान जाने के लिये आपको दिल्ली से पहले कोलकाता ट्रेन से जाना पड़ेगा और उसके बाद हवाई जहाज से। बाद में ... वापस लौटकर पता चला कि एक अस्थायी नियम भी चल रहा है जिसके अनुसार हम दिल्ली से सीधे पोर्ट ब्लेयर की फ्लाइट भी ले सकते हैं। लेकिन पहले मुझे इस नियम का पता नहीं था, इसलिये कोलकाता तक ट्रेन में बर्थ बुक कर ली और उसके बाद फ्लाइट।
पहले तो सियालदाह दूरंतो में बर्थ बुक की, लेकिन जब वह अठारह-बीस घंटे तक लेट चलने लगी, तो जी घबरा गया। फिर कालका-हावड़ा मेल में बुकिंग कर ली। हावड़ा मेल में मार्जिन ज्यादा था, इसलिये लेट होने की सूरत में फ्लाइट छूटने की संभावना कम थी।
तो 16 जनवरी 2017 की सुबह सात बजे हम पुरानी दिल्ली स्टेशन पर हावड़ा मेल में बैठ गये। सेकंड़ ए.सी. में। अच्छी लगी सेकंड़ ए.सी. श्रेणी। पहली बार सफ़र किया। भीड़भाड़ नहीं। सहयात्री एक बंगाली परिवार था। भला परिवार था। मैंने उन्हें मोबाइल चार्ज करने को अपना बैटरी बैंक दे दिया और मुझे लैपटॉप चार्ज करने के लिये अपने कूपे का चार्जिंग पॉइंट मिल गया। चौबीस घंटे से भी ज्यादा लैपटॉप चार्जिंग पर लगा रहा, लेकिन बंगालियों ने कुछ नहीं कहा।
इलाहाबाद डिवीजन के बारे में कुछ नहीं कहूँगा। इस अकेली डिवीजन ने पूरी भारतीय रेल को बदनाम कर रखा है। मुझे नहीं पता कि केवल इस डिवीजन में ऐसी कौन-सी समस्या है कि दिल्ली से चलने के बाद मुगलसराय तक ट्रेन आठ-दस घंटे लेट होनी ही होनी है।
दूसरे मार्गों की ट्रेनें जैसे श्रीधाम एक्सप्रेस या गोंड़वाना एक्सप्रेस अगर लेट चल रही है, तो उसके कुछ वाज़िब कारण होते हैं, लेकिन इस मार्ग की ट्रेनें अगर लेट हैं तो इस डिवीजन की ख़राब कार्य-प्रणाली के अलावा कोई और कारण नहीं होता।
दिल्ली से सही समय पर चलकर ट्रेन छह घंटे लेट मुगलसराय पहुँची। मुगलसराय में सभी ट्रेनों को इलाहाबाद डिवीजन से छुटकारा मिल जाता है। फिर हावड़ा तक यह छह घंटे ही लेट रही। सुबह आठ बजे हावड़ा पहुँचने थे, दोपहर दो बजे पहुँचे। कल सुबह की फ्लाइट है।
सीधे पहुँचे किसन बाहेती जी की दुकान पर - चाँदनी चौक। कोलकाता में भी चाँदनी चौक है। और हू-ब-हू दिल्ली के चाँदनी चौक जैसा। लेकिन हम उनके लिये ऐसे मनहूस साबित हुए कि हमारे पहुँचते ही उनके बड़े ससुर का निधन हो गया। हमारे लिये आवश्यक निर्देश देकर वे अपनी ससुराल चले गये।
पता नहीं कोलकाता वालों के लिये मेट्रो कितनी ज़रूरी है, लेकिन हमें केवल दीप्ति के लिये इसमें यात्रा करनी थी। टोकन लो और कोई चेकिंग नहीं - सीधे मेट्रो में जा चढ़ो। जमीन के अंदर गैर-वातानुकूलित मेट्रो। किसन जी के अनुसार - “आपका नसीब अच्छा है, तो ए.सी. वाली मेट्रो भी मिल सकती है।” लेकिन हमारा नसीब अच्छा नहीं था।
कमाल की बात है कि कोलकाता की दूसरी मेट्रो लाइनों को भी भारतीय रेल ही बना रही है। भारतीय रेल ने दिल्ली मेट्रो को भी स्वयं संचालित करने की पूरी तैयारी कर रखी थी, लेकिन श्रीधरन साहब ने ऐसा नहीं होने दिया। भारतीय रेल को लग रहा था कि दिल्ली मेट्रो उसके बिना असफल हो जायेगी और तब यहाँ अपनी ई.एम.यू. चलायेंगे। इसके लिये दिल्ली में शाहदरा स्टेशन पर भारतीय रेल और मेट्रो को जोड़ती हुई एक लिंक लाइन भी है।
तो किसन जी के सुझाव के अनुसार हम पहुँचे विक्टोरिया मेमोरियल। पाँच बजे के बाद यहाँ प्रवेश नहीं मिलता और हम इसमें प्रवेश करने वाले आख़िरी यात्री थे। टिकट क्लर्क ने खटाक से खिड़की बंद की और हमारे पीछे खड़े कई यात्रियों को निराशा हाथ लगी। लेकिन हम भी इसके अंदर नहीं जा सके। केवल गार्डन में ही घूमे। जब तक गार्डन और बाहरी साज-सज्जा की चकाचौंध से आँखें हटतीं, मेमोरियल को खाली करने का हुक्म आ गया।
कुछ देर मैदान में बैठे। यह बहुत बड़ा मैदान है। इसके बराबर में ‘मैदान’ मेट्रो स्टेशन भी है। हम उत्तर भारतीयों को खाली ‘मैदान’ शब्द की आदत नहीं होती। कुछ न कुछ जुड़ना चाहिये; जैसे रामलीला मैदान, गाँधी मैदान। मैदान के उस तरफ़ कहीं हुगली नदी बहती है। लेकिन मेरी चप्पलों ने अब तक पैरों को काफ़ी नुकसान पहुँचा दिया था, इस कारण हुगली घाट की तरफ़ नहीं जा सके। ये वहीं चप्पलें थीं जो कुछ समय पहले मैंने इंदौर से सुमित डाक्टर से ली थीं। अंडमान में काफ़ी पैदल घूमना है, इसलिये दूसरी चप्पलें लेनी पड़ेंगी। आज ही यह काम भी कर लिया। और सुमित वाली इन ‘अत्याचारी’ चप्पलों को टॉयलेट चप्पल बना दिया।
एसप्लानेड़ पहुँचे। पता नहीं बंगाली लोग इसकी सही वर्तनी कैसे करते होंगे? मैं तो अभी तक इसे इसप्लानाड़े बोलता हूँ। यहाँ एक बस अड्ड़ा है। ज्यादा बड़ा तो मुझे नहीं लगा, लेकिन हो सकता है कि बहुत बड़ा हो और मुझे न दिखा हो। अंधेरा हो गया था। यहाँ से हमें एयरपोर्ट जाने वाली बस पकड़नी थी और रास्ते में जोड़ा मंदिर उतरकर किसन जी के घर जाना था।
यहीं बस-अड्ड़े पर भूटान की एक बस खड़ी थी। यह भूटान नंबर की सरकारी बस थी और इस पर थिंपू या किसी और शहर की बजाय ‘भूटान’ लिखा था। यह बस थिंपू ही जाती होगी। हमारी दिल्ली से भी पाकिस्तान और नेपाल के लिये सरकारी बसें चलती हैं, लेकिन वे किसी बस-अड्ड़े से न चलकर अलग-अलग स्थानों से चलती हैं। इस तरह कश्मीरी गेट का बस-अड्ड़ा अंतर्राज्यीय ही रह गया, इधर कोलकाता में एसप्लानेड़ का बस-अड्ड़ा अंतर्राष्ट्रीय बस अड्ड़ा हो गया।
कोलकाता में ट्रैफ़िक के क्या कहने! डेढ़ घंटे में नौ किलोमीटर दूरी तय की।
आठ बजे तक किसन जी के यहाँ पहुँच गये। नहाये-धोये और खाना खाया। आधी रात के समय किसन जी वापस लौटे।
अगले दिन यानी 18 जनवरी को टैक्सी से एयरपोर्ट पहुँच गये। काफ़ी सारा सामान किसन जी के यहाँ छोड़ दिया। दीप्ति का यह पहला मौका था हवाई जहाज में बैठने का। पहले आईड़ी चेक, फिर चेक-इन और फिर सिक्योरिटी चेक - पंद्रह मिनट भी नहीं लगे और हम हवाई जहाज में बैठने के अधिकारी हो चुके थे।
कोलकाता से पोर्ट ब्लेयर पहुँचने में दो घंटे लगते हैं। दीप्ति ने खिड़की वाली सीट ले ली। मैंने पूछा - “कितनी देर तक जगी रहेगी?”
“ना, मैं सोऊँगी ही नहीं।”
“आच्छ्या जी, अगर आधा घंटा भी जाग ली, तो बड़ी बात होगी।”
“नहीं, असंभव। मैं बहुत रोमांचित हूँ। खिड़की से नज़र हटाऊँगी ही नहीं।”
“देख लेंगे।”
“देख लेना।”
विमान रन-वे की तरफ़ जब ‘टैक्सी’ हो रहा था, तो दीप्ति ने कहा - “मुझे डर-सा लग रहा है। जब विमान उड़ेगा, तो मेरी चीख भी निकल सकती है।”
“आँख बंद कर लेना। अगर चीख निकल पड़ी तो कहीं ऐसा न हो कि ये लोग दोबारा लैंड़िंग कराकर तुझे अस्पताल भेज दें।”
खैर, विमान ने गति पकड़ी, जमीन छोड़ी और आसमान में उड़ गया। लोग, घर, खेत सब छोटे होते चले गये। फिर समुद्र आ गया, फिर बादल आ गये और नीचे दिखना बंद। नीचे अगर कुछ दिख भी जाता तो सिवाय नीले पानी के अलावा कुछ नहीं। बीस मिनट में ही दीप्ति बोल पड़ी - “धत्त तेरे की। यह होती है विमान यात्रा? इतनी बोरिंग। अब डेढ़ घंटा कैसे कटेगा?”
और वह सो गयी।
आसमान में हवाएँ बड़ी तेज चल रही थीं। इतनी तेज कि विमान ट्रेन की तरह झटके लेने लगा। एयर-होस्टेसों ने चाय-स्नैक्स बेचना बंद कर दिया और यात्रियों को सीट-बैल्ट बाँधने का आदेश दे दिया और स्वयं भी सीट बैल्ट लगाकर बैठ गयीं। उड़ने से पहले इन्होंने सुरक्षा-उपाय भी बताये थे कि यदि विमान को समुद्र पर उतारना पड़ गया तो सभी सीटों के नीचे लाइफ-जैकेट हैं। इन्हें पहनकर आपातकालीन द्वारों से बाहर आना है। मैं भी विमान-यात्रा का इतना बड़ा अनुभवी नहीं हूँ। मुझे भी डर-सा लगने लगा। मलेशिया के उस विमान की याद आने लगी, जो पिछले साल समुद्र में डूब गया था और न कोई जिंदा बचा और न ही कोई उसका सुराग मिला। उसमें भी तो प्रत्येक सीट के नीचे लाइफ-जैकेट रही होंगी।
विमान बादलों के भीतर से होता हुआ जब कुछ नीचे आया तो अंडमान के द्वीप दिखने लगे। फिर और नीचे आया, और नीचे आया और लैंड़िंग के लिये रनवे पर दौड़ लगा दी।
अंडमान की धरती पर कदम रखा तो बूँदाबाँदी हो रही थी। गर्मी तो ज्यादा नहीं थी, लेकिन उमस चरम पर थी।
विक्टोरिया मेमोरियल |
कोलकाता भूटान बस |
किसन जी के यहाँ रात्रि-भोज |
कोलकाता हवाई अड्ड़ा |
बादल और समुद्र |
जॉली ब्वाय आईलैंड़ |
जॉली ब्वाय आईलैंड़ |
मरीन नेशनल पार्क के द्वीप |
मरीन नेशनल पार्क के द्वीप |
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12. अंडमान यात्रा की कुछ वीडियो
बहुत रोमांचक यात्रा ।
ReplyDeleteकलकत्ता को ज्यादा समय नही दिये । कभी कलकत्ता के पुरानी एतिहासिक गलियो को देखिए ।
इतना ही समय था इस यात्रा में कोलकाता के लिये...
Deleteबेहतरीन आगाज कोलकाता को देखकर मुझे भी मेरी कोलकता की यात्रा याद आ गई मैं भी किशन जी से चाँदनी चौक में ही मिला था अगले भाग के इन्तजार में
ReplyDeleteधन्यवाद गुप्ता जी...
Deleteइस पोस्ट का सबसे बढ़िया भाग पोस्ट लिखने में लगा टाइम बताया जाना। कई दफ़े घूमने से भी ज्यादा समय लग जाता है पोस्ट लिखने में मुझे तो। भारी मेहनत है।
ReplyDeleteसही कहा भाई जी...
DeleteInteresting blog. Kuch shabd jaise 'Air Hostesso' thode funny lekin achhe lage. Aap ne sahi kaha Allahabad division ka working style behad ghatiya hai. Mera home town Mughal Sarai hai aur vaha se Delhi aane me 4-5 hrs ki deri hona aam bat hai.
ReplyDeleteAgle blog ki pratiksha rahegi...
Umesh Pandey
धन्यवाद पांडेय जी...
Deleteबढ़िया नीरज जी।
ReplyDeleteधन्यवाद सर जी...
Deleteबहुत बढिया नीरज भाई
ReplyDeleteधन्यवाद तरुण जी...
Deleteशानदार लेखन
ReplyDeleteबढ़िया ! लेकिन नीरज भाई जैसे आप पहले लिखते थे टिकेट कितने का था ? वो सब "मिस " करता हूँ क्योंकि एक अंदाज लग जाता है खर्चे का ! करीब 14 -15 साल पहले गया था कोलकाता और ऐसा याद पड़ता है कि मैट्रो वातानुकूलित थी !
ReplyDeleteKolkata to. Andmaan. Air. Tickets. Kitne. Ka ?
ReplyDeleteआदरणीय नीरज जी
ReplyDeleteमैं एक हिंदी शिक्षिका हूँ और अपने बच्चों को यात्रा वर्णन लेखन विधा सिखा रही हूँ | क्या मैं आपकी अंडमान यात्रा - दिल्ली से पोर्ट ब्लेयर उन्हें पढ़ाने के लिए उदहारण के तौर पर ले सकती हूँ?
अनुमति देकर अनुग्रजित कीजिये |
धन्यवाद ,
कुमुदिनी मेंडा
आपको बिना शर्त अनुमति है... थोड़ा अपने और बच्चों के बारे में भी बता दें तो अच्छा लगेगा... और आप किस तरह बच्चों को पढ़ायेंगी, यह भी जानने की उत्सुकता है...
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