27 सितंबर, 2016
स्थान: अनंत पेट
गाड़ी एक घंटे से भी ज्यादा विलंब से चल रही थी। ग्वालियर में कुछ नहीं खा पाया। ऊपर लेटा रहा और जब तक पता चलता कि यह ग्वालियर है, तब तक देर हो चुकी थी। तेज भूख लगी थी। अब अच्छी-खासी चलती गाड़ी को अनंत पेट पर रोक दिया। दो ट्रेनें पास हुईं, तब इसे पास मिला।
अनंत पेट... पता नहीं इनमें से भूखे कितने हैं? मुझे तो एक पेट का ही पता है। इससे अच्छा तो थोड़ा आगे डबरा में रोक देते। कम से कम खाने को कुछ तो मिल जाता। वैसे यह कितनी मजेदार बात है - अनंत पेट में भूखे रहे और ‘डबरे’ में भोजन मिल जाता। है ना?
खैर, झाँसी में टूट पड़ना है खाने पर। इधर ट्रेन में भी कुछ नहीं। चौबीस घंटे चिल्लाते रहने वाले किसी वेंड़र की कोई आवाजाही नहीं। अच्छा है। ऐसी ही शांतिपूर्ण होनी चाहिये रेलयात्रा।
स्थान: अनंत पेट
गाड़ी एक घंटे से भी ज्यादा विलंब से चल रही थी। ग्वालियर में कुछ नहीं खा पाया। ऊपर लेटा रहा और जब तक पता चलता कि यह ग्वालियर है, तब तक देर हो चुकी थी। तेज भूख लगी थी। अब अच्छी-खासी चलती गाड़ी को अनंत पेट पर रोक दिया। दो ट्रेनें पास हुईं, तब इसे पास मिला।
अनंत पेट... पता नहीं इनमें से भूखे कितने हैं? मुझे तो एक पेट का ही पता है। इससे अच्छा तो थोड़ा आगे डबरा में रोक देते। कम से कम खाने को कुछ तो मिल जाता। वैसे यह कितनी मजेदार बात है - अनंत पेट में भूखे रहे और ‘डबरे’ में भोजन मिल जाता। है ना?
खैर, झाँसी में टूट पड़ना है खाने पर। इधर ट्रेन में भी कुछ नहीं। चौबीस घंटे चिल्लाते रहने वाले किसी वेंड़र की कोई आवाजाही नहीं। अच्छा है। ऐसी ही शांतिपूर्ण होनी चाहिये रेलयात्रा।
समय: रात नौ बजकर सत्रह मिनट
सोनागिर में फिर रुक गये। लेकिन चूँकि मेन-लाइन पर ही रुके हैं, इसलिये इतना तो पक्का है कि कोई ‘पासिंग’ नहीं है। अगर भूख न लगी होती, तो मुझे कभी भी ट्रेन के बार-बार रुकने पर झुंझलाहट न होती।
मैं किसी और की साइड़ लोवर बर्थ पर खिड़की पर कोहनी टिकाकर बैठा हूँ। जिन बाबाजी की यह बर्थ है, वे पैर सिकोड़कर लेटे हैं। मेरे लिये उन्होंने जगह छोड़ दी है। नींद में वे पैर फैलाते और उनका पैर मुझे लगता, तो एक झटके से फिर से सिकुड़ जाते। केंचुए की तरह। सोचता कि उठ जाऊँ, फिर सोचता कि रहने दे।
ऊपर की बर्थ से एक सिर नीचे लटका और पूछा - “कौन-सा स्टेशन है? दतिया?”
“नहीं। सोनागिर।"
सुनते ही सिर फिर अपनी पूर्व-स्थिति में चला गया।
दो मिनट रुककर ट्रेन चल पड़ी।
सोनागिर में फिर रुक गये। लेकिन चूँकि मेन-लाइन पर ही रुके हैं, इसलिये इतना तो पक्का है कि कोई ‘पासिंग’ नहीं है। अगर भूख न लगी होती, तो मुझे कभी भी ट्रेन के बार-बार रुकने पर झुंझलाहट न होती।
मैं किसी और की साइड़ लोवर बर्थ पर खिड़की पर कोहनी टिकाकर बैठा हूँ। जिन बाबाजी की यह बर्थ है, वे पैर सिकोड़कर लेटे हैं। मेरे लिये उन्होंने जगह छोड़ दी है। नींद में वे पैर फैलाते और उनका पैर मुझे लगता, तो एक झटके से फिर से सिकुड़ जाते। केंचुए की तरह। सोचता कि उठ जाऊँ, फिर सोचता कि रहने दे।
ऊपर की बर्थ से एक सिर नीचे लटका और पूछा - “कौन-सा स्टेशन है? दतिया?”
“नहीं। सोनागिर।"
सुनते ही सिर फिर अपनी पूर्व-स्थिति में चला गया।
दो मिनट रुककर ट्रेन चल पड़ी।
समय: रात नौ बजकर पचास मिनट
मैंने सोचा झाँसी है। भूख लगी हो तो ऐसा ही होता है। खिड़की पर जा खड़ा हुआ। ट्रेन रुकेगी, तो भोजन पर हल्ला बोल दूँगा। ये खाऊँगा, वो खाऊँगा। सस्ता मिले, तो ठीक; नहीं तो महँगा भी ले लूँगा। ट्रेन रुकी तो पता चला कि करारी है। झाँसी इससे अगला स्टेशन है। स्टेशनों के नाम भी ऐसे कि भूखे को और ज्यादा भूख लग आये। करारी।
इंटरनेट पर चेक किया कि अब कौन-सी गाड़ी पास होगी। कोई भी नहीं। झाँसी ‘हाउसफुल’ है, इसलिये यहाँ आउटर पर रोक दिया। हिमसागर, गोंड़वाना इससे आगे हैं। इसके बाद जो गाड़ी झाँसी आयेगी, उसे यहाँ तक आने में अभी एक घंटा और लगेगा। लेकिन जब एक यात्री गाड़ी धड़धड़ाती हुई आगे निकल गयी, तो हैरत भी हुई और निराशा भी। इंटरनेट पर काफी टोह मचायी, लेकिन पता नहीं चल सका कि यह कौन-सी गाड़ी थी। खैर।
रात साढ़े दस बजे झाँसी पहुँचे। एक घंटा लेट। अक्सर इधर ट्रेनें लेट नहीं होती, लेकिन आजकल झाँसी भी कानपुर बनता जा रहा है और गाड़ियाँ खूब लेट हो जाती हैं। यहाँ पूड़ी-सब्जी मिली। पेट भर गया। इत्मीनान से डकार लेकर अपनी ऊपर वाली बर्थ पर जाकर लेट गया और सुबह चार बजे का अलार्म लगा लिया। हालाँकि गाड़ी के गुना पहुँचने का समय 03:35 है और प्रस्थान करने का समय 03:45, लेकिन झाँसी से गुना 300 किलोमीटर दूर है, डीजल इंजन लगा है और बीना में इंजन की बदली भी होगी। ट्रेन एक घंटा लेट चल ही रही है, तो सबकुछ सोच-समझकर 04:00 बजे का अलार्म लगाया।
मैंने सोचा झाँसी है। भूख लगी हो तो ऐसा ही होता है। खिड़की पर जा खड़ा हुआ। ट्रेन रुकेगी, तो भोजन पर हल्ला बोल दूँगा। ये खाऊँगा, वो खाऊँगा। सस्ता मिले, तो ठीक; नहीं तो महँगा भी ले लूँगा। ट्रेन रुकी तो पता चला कि करारी है। झाँसी इससे अगला स्टेशन है। स्टेशनों के नाम भी ऐसे कि भूखे को और ज्यादा भूख लग आये। करारी।
इंटरनेट पर चेक किया कि अब कौन-सी गाड़ी पास होगी। कोई भी नहीं। झाँसी ‘हाउसफुल’ है, इसलिये यहाँ आउटर पर रोक दिया। हिमसागर, गोंड़वाना इससे आगे हैं। इसके बाद जो गाड़ी झाँसी आयेगी, उसे यहाँ तक आने में अभी एक घंटा और लगेगा। लेकिन जब एक यात्री गाड़ी धड़धड़ाती हुई आगे निकल गयी, तो हैरत भी हुई और निराशा भी। इंटरनेट पर काफी टोह मचायी, लेकिन पता नहीं चल सका कि यह कौन-सी गाड़ी थी। खैर।
रात साढ़े दस बजे झाँसी पहुँचे। एक घंटा लेट। अक्सर इधर ट्रेनें लेट नहीं होती, लेकिन आजकल झाँसी भी कानपुर बनता जा रहा है और गाड़ियाँ खूब लेट हो जाती हैं। यहाँ पूड़ी-सब्जी मिली। पेट भर गया। इत्मीनान से डकार लेकर अपनी ऊपर वाली बर्थ पर जाकर लेट गया और सुबह चार बजे का अलार्म लगा लिया। हालाँकि गाड़ी के गुना पहुँचने का समय 03:35 है और प्रस्थान करने का समय 03:45, लेकिन झाँसी से गुना 300 किलोमीटर दूर है, डीजल इंजन लगा है और बीना में इंजन की बदली भी होगी। ट्रेन एक घंटा लेट चल ही रही है, तो सबकुछ सोच-समझकर 04:00 बजे का अलार्म लगाया।
28 सितंबर, 2016
अलार्म बजने से पहले ही आँख खुल गयी। समय देखा तो पूरे 03:45 बज रहे थे। ट्रेन कहीं रुकी हुई थी। इंटरनेट पर ट्रेन की स्थिति देखी। पता चला - “Departed from GUNA at 03:45.” महसूस हुआ कि ट्रेन ने हल्का-सा झटका लिया। जब तक इससे ज्यादा कुछ और सोच पाता, गाड़ी गति पकड़ चुकी थी। मुझे गुना ही उतरना था। मेरी पैसेंजर यात्रा यहीं से आरंभ होनी थी। अब ट्रेन रुठियाई रुकेगी। हालाँकि मैं अपनी पैसेंजर यात्रा रुठियाई से भी आरंभ कर सकता हूँ। लेकिन अभी काफी रात बाक़ी है, पता नहीं रुठियाई में कहीं लेटने को सुरक्षित जगह मिलेगी या नहीं। साथ ही यह भी देख लिया कि रुठियाई में अभी फिलहाल कोटा-भिंड़ पैसेंजर खड़ी है। अगर वह थोड़ी देर और खड़ी रही तो मैं उसी से वापस गुना आ सकता हूँ।
गुना से अगला और रुठियाई से पहला स्टेशन है महूगड़ा। ट्रेन महूगड़ा में रुक गयी। बराबर में जोधपुर-भोपाल पैसेंजर खड़ी थी। मेरे लिये साफ़ इशारा था। ज़मीन पर एक ही कदम रखा और दूसरा कदम दूसरी ट्रेन में। सवा चार बजे तक मैं वापस गुना आ चुका था। यहाँ खूब चहल-पहल थी। वेटिंग रूम सोये हुए यात्रियों से भरा पड़ा था। आख़िरकार प्लेटफार्म नंबर दो पर कंक्रीट की बेंच पर पसर गया। नीचे प्लेटफार्म पर एक साधु जी महाराज सोये हुए थे। अच्छी हवा, अच्छा मौसम, नतीज़ा अच्छी नींद।
बीना से रतलाम जाने वाली पैसेंजर ठीक समय पर आयी और ठीक ही समय पर चल दी। गुना-मक्सी मार्ग पर चलने वाली एकमात्र पैसेंजर है यह। पता नहीं क्यों मुझे हमेशा से लगता है कि यह इलाका ठीक नहीं है। एक तो राजस्थान से लगता इलाका और फिर ब्यावरा, कुंभराज, राघोगढ, सारंगपुर जैसे नाम। इधर का तो नहीं पता, लेकिन उधर राजस्थान में अफ़ीम की खेती आधिकारिक रूप से होती है। तो मुझे यही लगता था कि इलाका ठीक नहीं है। हालाँकि मुझे यात्रा में कोई दिक्कत नहीं आयी।
यह सिंगल लाइन है। मुझे स्टेशन-बोर्ड़ के फोटो भी खींचने होते हैं। सिंगल लाइन पर प्लेटफार्म कभी दाहिने आता है तो कभी बायें। भीड़ होने पर फोटो छूट भी सकता है। इससे बचने के लिये पहले ही सैटेलाइट-मैप का बारीकी से अध्ययन कर लिया था और प्लेटफार्म किस तरफ आयेगा, इसे एक कागज पर नोट करके अपनी जेब में रख लिया था।
अलार्म बजने से पहले ही आँख खुल गयी। समय देखा तो पूरे 03:45 बज रहे थे। ट्रेन कहीं रुकी हुई थी। इंटरनेट पर ट्रेन की स्थिति देखी। पता चला - “Departed from GUNA at 03:45.” महसूस हुआ कि ट्रेन ने हल्का-सा झटका लिया। जब तक इससे ज्यादा कुछ और सोच पाता, गाड़ी गति पकड़ चुकी थी। मुझे गुना ही उतरना था। मेरी पैसेंजर यात्रा यहीं से आरंभ होनी थी। अब ट्रेन रुठियाई रुकेगी। हालाँकि मैं अपनी पैसेंजर यात्रा रुठियाई से भी आरंभ कर सकता हूँ। लेकिन अभी काफी रात बाक़ी है, पता नहीं रुठियाई में कहीं लेटने को सुरक्षित जगह मिलेगी या नहीं। साथ ही यह भी देख लिया कि रुठियाई में अभी फिलहाल कोटा-भिंड़ पैसेंजर खड़ी है। अगर वह थोड़ी देर और खड़ी रही तो मैं उसी से वापस गुना आ सकता हूँ।
गुना से अगला और रुठियाई से पहला स्टेशन है महूगड़ा। ट्रेन महूगड़ा में रुक गयी। बराबर में जोधपुर-भोपाल पैसेंजर खड़ी थी। मेरे लिये साफ़ इशारा था। ज़मीन पर एक ही कदम रखा और दूसरा कदम दूसरी ट्रेन में। सवा चार बजे तक मैं वापस गुना आ चुका था। यहाँ खूब चहल-पहल थी। वेटिंग रूम सोये हुए यात्रियों से भरा पड़ा था। आख़िरकार प्लेटफार्म नंबर दो पर कंक्रीट की बेंच पर पसर गया। नीचे प्लेटफार्म पर एक साधु जी महाराज सोये हुए थे। अच्छी हवा, अच्छा मौसम, नतीज़ा अच्छी नींद।
बीना से रतलाम जाने वाली पैसेंजर ठीक समय पर आयी और ठीक ही समय पर चल दी। गुना-मक्सी मार्ग पर चलने वाली एकमात्र पैसेंजर है यह। पता नहीं क्यों मुझे हमेशा से लगता है कि यह इलाका ठीक नहीं है। एक तो राजस्थान से लगता इलाका और फिर ब्यावरा, कुंभराज, राघोगढ, सारंगपुर जैसे नाम। इधर का तो नहीं पता, लेकिन उधर राजस्थान में अफ़ीम की खेती आधिकारिक रूप से होती है। तो मुझे यही लगता था कि इलाका ठीक नहीं है। हालाँकि मुझे यात्रा में कोई दिक्कत नहीं आयी।
यह सिंगल लाइन है। मुझे स्टेशन-बोर्ड़ के फोटो भी खींचने होते हैं। सिंगल लाइन पर प्लेटफार्म कभी दाहिने आता है तो कभी बायें। भीड़ होने पर फोटो छूट भी सकता है। इससे बचने के लिये पहले ही सैटेलाइट-मैप का बारीकी से अध्ययन कर लिया था और प्लेटफार्म किस तरफ आयेगा, इसे एक कागज पर नोट करके अपनी जेब में रख लिया था।
गुना जंक्शन से एक लाइन तो बीना की तरफ जाती है और एक लाइन जाती है शिवपुरी होते हुए ग्वालियर। पिछले साल मैंने निशा के साथ ग्वालियर-गुना लाइन पर यात्रा की थी। इसके बाद महूगडा है और फिर है रुठियाई जंक्शन। रुठियाई से एक लाइन कोटा चली जाती है। बीना-गुना-कोटा लाइन विद्युतीकृत है और ग्वालियर-गुना-मक्सी लाइन डीजल लाइन है। बीना-कोटा लाइन पर मैं कई साल पहले पैसेंजर यात्रा कर चुका हूँ।
रुठियाई से आगे चलते हैं तो विजयपुर, राघौगढ़, कुंभराज, चाचौड़ा बीनागंज, सिंदुरिया काचरी, ब्यावरा राजगढ़, पचोर रोड़, उदयन खेड़ी, पढ़ाना मऊ, सारंगपुर, शाजापुर, चौहानी, सिरोलिया और फिर मक्सी जंक्शन है। साढ़े बारह बजे ट्रेन मक्सी पहुँचती है। भीड़ ठीकठाक थी और पहले से ही प्लेटफार्म की दिशा पता होने की वजह से सभी स्टेशन-बोर्ड़ों के फोटो भी मिल गये। रास्ते में कुछ नदियाँ भी मिलती हैं - पारबती, नेवज, काली सिंध आदि। ये सभी नदियाँ सीमा पार करके राजस्थान में चंबल में मिल जाती हैं।
मक्सी समय से आधे घंटे पहले ही पहुँच गये। कुछ देर बाद पटना-अहमदाबाद एक्सप्रेस निकली और फिर दाहोद-हबीबगंज पैसेंजर आ गयी। यही डिब्बे हबीबगंज पहुँचकर इंदौर इंटरसिटी बन जायेंगे और रात होने तक इंदौर आ जायेंगे। इस ट्रेन को वडोदरा का बिजली इंजन खींच रहा था।
मक्सी जंक्शन से आगे तराना रोड़, शिवपुरा, ताजपुर, पिंगलेश्वर और उज्जैन जंक्शन हैं। शिवपुरा की अंग्रेजी स्पेलिंग Sheopura थी। शिवपुरा, शिवपुरी और श्योपुर कलां - ये तीन स्टेशन मध्य प्रदेश में हैं और सभी Sheo से शुरू होते हैं। किसी और राज्य में होते तो इन्हें Shiv लिखा जाता। इन नामों की अंग्रेजी लिखने वाला पहला इंसान मेरे ही जैसा रहा होगा - अंग्रेजी का धुरंधर।
मेरी ट्रेन उज्जैन तक डीजल इंजन से आयी। अब उधर रतलाम से इसकी जोड़ीदार ट्रेन भी आ गयी। लेकिन उसमें बिजली का इंजन लगा था। यहाँ दोनों ने एक-दूसरी को देखकर सीटी बजायी, जय महाकाल कहा और इंजन भी आपस में बदल लिये। हमारी वाली में बिजली वाला इंजन लग गया और इसे जो डीजल इंजन खींचकर ला रहा था, वो अब जोड़ीदार ट्रेन में लग गया। यह है महाकाल की नगरी का जादू।
मेरी ट्रेन उज्जैन तक डीजल इंजन से आयी। अब उधर रतलाम से इसकी जोड़ीदार ट्रेन भी आ गयी। लेकिन उसमें बिजली का इंजन लगा था। यहाँ दोनों ने एक-दूसरी को देखकर सीटी बजायी, जय महाकाल कहा और इंजन भी आपस में बदल लिये। हमारी वाली में बिजली वाला इंजन लग गया और इसे जो डीजल इंजन खींचकर ला रहा था, वो अब जोड़ीदार ट्रेन में लग गया। यह है महाकाल की नगरी का जादू।
उज्जैन से आगे के स्टेशन हैं - नईखेड़ी, असलावदा, पलसोड़ा मकड़ावन, उन्हेल, पिपलोदा बागला, भाटीसुड़ा और नागदा जंक्शन।
जब मैं उज्जैन स्टेशन पर उतर रहा था तो भीड़ में धक्कामुक्की में एक चप्पल टूट गयी। बद्दी पैर में रह गयी और तलवा नीचे पटरी पर जा गिरा। वैसे मैं किसी और की चप्पल आसानी से उठा सकता था, लेकिन महाकाल की यही इच्छा थी। यह सोचकर नंगे पैर ही रहा।
नागदा स्टेशन पर तपते फर्श पर ‘उई, उई’ करता रहा। इसी चक्कर में नागदा-इंदौर पैसेंजर छूट गयी। दौड़ पड़ता तो पकड़ लेता। वो तो अच्छा था कि मैंने पहले ही ट्रेन के छूट जाने की संभावना को देखते हुए एक्सप्रेस का टिकट ले लिया था। थोड़ी ही देर में बांद्रा-झाँसी एक्सप्रेस आ गयी और मैं इसमें चढ़ लिया। यह ट्रेन झाँसी जाकर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम एक्सप्रेस बनकर कोलकाता भी जाती है। एक घंटे बाद उज्जैन उतर गया। तीन ट्रेनें और खड़ी थीं - हबीबगंज-दाहोद पैसेंजर, इंदौर-छिंदवाड़ा पेंचवैली पैसेंजर और तीसरी अपनी वही नागदा-इंदौर पैसेंजर। मैंने इसे देखते ही कहा - “कहाँ जायेगी री तू जाटराम से बचकर?”
यह उज्जैन से शाम पाँच बजकर चालीस मिनट पर चलेगी। इतना समय था कि मैं बाहर जाकर चप्पल खरीद सकता था। लेकिन फिर से महाकाल जी याद आ गये। कोई भी घटना बेवजह नहीं घटती। महाकाल जी की यही इच्छा रही होगी कि मैं कम से कम उज्जैन में नंगे पैर रहूँ। अभी तो पुरानी चप्पल ही गयी है, अब नयी न चली जाये। उधर इंदौर में सुमित को बता दिया। मन में था कि इंदौर में नयी चप्पल लूँगा। लेकिन जैसे ही सुमित ने कहा कि वह मेरे लिये अपनी चप्पलें लेता आयेगा, तो मन बदलते देर नहीं लगी। साथ ही यह भी तय हो गया कि उसकी चप्पलें मैं वापस नहीं करूँगा।
सुमित एक डॉक्टर है, डॉक्टर भगवान होता है, भगवान महाकाल होता है। एक महाकाल ने मेरी चप्पलें लीं, दूसरे महाकाल से मैं वापस लूँगा। हिसाब बराबर।
जब मैं उज्जैन स्टेशन पर उतर रहा था तो भीड़ में धक्कामुक्की में एक चप्पल टूट गयी। बद्दी पैर में रह गयी और तलवा नीचे पटरी पर जा गिरा। वैसे मैं किसी और की चप्पल आसानी से उठा सकता था, लेकिन महाकाल की यही इच्छा थी। यह सोचकर नंगे पैर ही रहा।
नागदा स्टेशन पर तपते फर्श पर ‘उई, उई’ करता रहा। इसी चक्कर में नागदा-इंदौर पैसेंजर छूट गयी। दौड़ पड़ता तो पकड़ लेता। वो तो अच्छा था कि मैंने पहले ही ट्रेन के छूट जाने की संभावना को देखते हुए एक्सप्रेस का टिकट ले लिया था। थोड़ी ही देर में बांद्रा-झाँसी एक्सप्रेस आ गयी और मैं इसमें चढ़ लिया। यह ट्रेन झाँसी जाकर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम एक्सप्रेस बनकर कोलकाता भी जाती है। एक घंटे बाद उज्जैन उतर गया। तीन ट्रेनें और खड़ी थीं - हबीबगंज-दाहोद पैसेंजर, इंदौर-छिंदवाड़ा पेंचवैली पैसेंजर और तीसरी अपनी वही नागदा-इंदौर पैसेंजर। मैंने इसे देखते ही कहा - “कहाँ जायेगी री तू जाटराम से बचकर?”
यह उज्जैन से शाम पाँच बजकर चालीस मिनट पर चलेगी। इतना समय था कि मैं बाहर जाकर चप्पल खरीद सकता था। लेकिन फिर से महाकाल जी याद आ गये। कोई भी घटना बेवजह नहीं घटती। महाकाल जी की यही इच्छा रही होगी कि मैं कम से कम उज्जैन में नंगे पैर रहूँ। अभी तो पुरानी चप्पल ही गयी है, अब नयी न चली जाये। उधर इंदौर में सुमित को बता दिया। मन में था कि इंदौर में नयी चप्पल लूँगा। लेकिन जैसे ही सुमित ने कहा कि वह मेरे लिये अपनी चप्पलें लेता आयेगा, तो मन बदलते देर नहीं लगी। साथ ही यह भी तय हो गया कि उसकी चप्पलें मैं वापस नहीं करूँगा।
सुमित एक डॉक्टर है, डॉक्टर भगवान होता है, भगवान महाकाल होता है। एक महाकाल ने मेरी चप्पलें लीं, दूसरे महाकाल से मैं वापस लूँगा। हिसाब बराबर।
17:20 बजे इंदौर से दिल्ली सराय रोहिल्ला जाने वाली इंटरसिटी आ गयी। मुझे किसी व्यस्त स्टेशन पर बैठकर ट्रेनों को आते-जाते देखना बड़ा अच्छा लगता है। वैसे तो इंटरसिटी ट्रेनें दिन में ही चलती हैं, लेकिन यह देश की उन गिनी-चुनी इंटरसिटियों में से है, जो रात में चलती है। इसमें परंपरागत नीले डिब्बे नहीं थे, बल्कि लाल वाले डिब्बे थे, जिनसे इसे राजधानी एक्सप्रेस का लुक मिलता था। इन्हें शायद एल.एच.बी. कोच कहते हैं, पक्का पता नहीं। लेकिन इतना ज़रूर पता है कि पहले यह ट्रेन निज़ामुद्दीन तक जाया करती थी। निज़ामुद्दीन ठहरा साउथ दिल्ली का स्टेशन। जबकि सराय रोहिल्ला हमारा स्टेशन है। इसे किसी जमाने में रेवाड़ी, जयपुर की तरफ जाने वाली ट्रेनों के लिये - मीटरगेज के जमाने में - विकसित किया गया था। लेकिन अब इंदौर इंटरसिटी, पातालकोट के अलावा चेन्नई जाने वाली जी.टी., यशवंतपुर दूरंतो, जम्मू दूरंतो आदि भी यहाँ से चलती हैं। उधर पूरब में मसूरी एक्सप्रेस के अलावा सदभावना एक्सप्रेस भी यहीं से चलती हैं।
उज्जैन से मेरी इंदौर वाली पैसेंजर 17:40 बजे चल दी। विक्रमनगर का अच्छा फोटो आ गया। कड़छा तक रोशनी कम होने लगी, तो कैमरे का फ्लैश चलाना पड़ा। उन्डासा माधोपुर का भी फ्लैश मारकर ठीक फोटो आ गया। अब देवास से पहले आख़िरी स्टेशन बचा था - नारंजीपुर। अब तक लगभग अंधेरा हो चुका था। स्टेशन पर प्रवेश करते समय जो फोटो लिया, उसमें एक सेकंड़ की देर हो गयी और बोर्ड़ का ठीक फोटो नहीं आया। अब बाहर निकलते समय फिर कोशिश करूँगा। अगर दोबारा भी फोटो नहीं लिया गया, तो इस एक फोटो के लिये इस लाइन पर फिर कभी दोबारा आना पड़ेगा। इस समय ऐसा लग रहा था जैसे आख़िरी गेंद पर छक्का मारना हो। ट्रेन चल पड़ी तो लगा कि गेंदबाज ने मेरी तरफ दौड़ना शुरू कर दिया। प्लेटफार्म का आख़िरी छोर नज़दीक आने लगा, स्टेशन-बोर्ड़ भी नज़दीक आने लगा, तो दिल की धड़कनें अपने-आप ही बढ़ गयीं। हर हाल में फोटो आना चाहिये, अन्यथा एक फोटो के लिये दोबारा आना पड़ेगा। पता नहीं ट्रेनों की टाइमिंग कैसी हो, क्या पता इस एक फोटो के लिये पूरा दिन ही गँवाना न पड़ जाये।
उज्जैन से मेरी इंदौर वाली पैसेंजर 17:40 बजे चल दी। विक्रमनगर का अच्छा फोटो आ गया। कड़छा तक रोशनी कम होने लगी, तो कैमरे का फ्लैश चलाना पड़ा। उन्डासा माधोपुर का भी फ्लैश मारकर ठीक फोटो आ गया। अब देवास से पहले आख़िरी स्टेशन बचा था - नारंजीपुर। अब तक लगभग अंधेरा हो चुका था। स्टेशन पर प्रवेश करते समय जो फोटो लिया, उसमें एक सेकंड़ की देर हो गयी और बोर्ड़ का ठीक फोटो नहीं आया। अब बाहर निकलते समय फिर कोशिश करूँगा। अगर दोबारा भी फोटो नहीं लिया गया, तो इस एक फोटो के लिये इस लाइन पर फिर कभी दोबारा आना पड़ेगा। इस समय ऐसा लग रहा था जैसे आख़िरी गेंद पर छक्का मारना हो। ट्रेन चल पड़ी तो लगा कि गेंदबाज ने मेरी तरफ दौड़ना शुरू कर दिया। प्लेटफार्म का आख़िरी छोर नज़दीक आने लगा, स्टेशन-बोर्ड़ भी नज़दीक आने लगा, तो दिल की धड़कनें अपने-आप ही बढ़ गयीं। हर हाल में फोटो आना चाहिये, अन्यथा एक फोटो के लिये दोबारा आना पड़ेगा। पता नहीं ट्रेनों की टाइमिंग कैसी हो, क्या पता इस एक फोटो के लिये पूरा दिन ही गँवाना न पड़ जाये।
उधर गेंदबाज अंपायर के बगल से निकला, पूरी ताकत से गेंद फेंक दी। इधर मैंने कैमरे को बिना ज़ूम किये शॉट मार दिया। गेंद ऊपर ही ऊपर सीमा रेखा के पार। नारंजीपुर अपनी झोली में। अब कभी इधर नहीं आना।
आगे देवास से इंदौर तक के फोटो हम परसों लेंगे। दिन के उजाले में। आज का काम समाप्त। 29 नये स्टेशन मेरी लिस्ट में जुड़ गये। जब दिल्ली पहुँचकर दीवार पर टँगे रेलवे के नक्शे में गुना-मक्सी-उज्जैन-नागदा लाइन और उज्जैन-देवास लाइन को काले पेन से हाईलाइट करूँगा, तो अपना नक्शा और भरा-भरा लगेगा।
1. पैसेंजर ट्रेन-यात्रा: गुना-उज्जैन-नागदा-इंदौर
2. मीटरगेज ट्रेन यात्रा: महू-खंड़वा
3. खंड़वा से बीड़ ट्रेन यात्रा
4. भोपाल-इंदौर-रतलाम पैसेंजर ट्रेन यात्रा
कुछ भी हो ट्रैन के साथ साथ चलने में मज़ा आ ही जाता है.
ReplyDeleteआपके साथ यात्रा करने मे बहुत मजा आया।
ReplyDeleteबेहतरीन सफ़र की शुरुआत भाई।
ReplyDeleteस्वागत है
ReplyDeleteNeeraj jaat is back to the business..
Keep it up :)
बेहतरीन शुरुआत हो चुकी है। रेल यात्रा जारी रहना चाहिए।
ReplyDeleteसिंगल लाइन पर प्लेटफार्म कभी दाहिने आता है तो कभी बायें। इससे बचने के लिये पहले ही सैटेलाइट-मैप का बारीकी से अध्ययन कर लिया था और प्लेटफार्म किस तरफ आयेगा
ReplyDeleteइंटरनेट पर चेक किया कि अब कौन-सी गाड़ी पास होगी।
नीरज जी यह दोनों देखने के लिए कोन सी साइट है। कृपया हमे भी इसको देखने का तरीका आ जाए।
अभी क्या कुछ बचा है।
वाह!
ReplyDeleteआनंद सा आ गया
कलम का पैनापन अच्छा लगा
जैसे सबकुछ आँखों के आगे हो रहा हो
सराहनीय यात्रा वृन्तान्त, धन्यवाद
ReplyDeleteवाह...
ReplyDeleteउम्मीद से काफी पहले ही लिख दिया...
The best commentary
ReplyDeleteज़मीन पर एक ही कदम रखा और दूसरा कदम दूसरी ट्रेन में। सवा चार बजे तक मैं वापस गुना आ चुका था।
ReplyDeletekya kismat payi aapne
गुना मे मैरा बचपन बीता है बहुत अच्छा शहर है । एक बात खास है कि यहाँ के बच्चे प्रतियोगिता परीक्षाओं मे सबसे ज्यादा पास होते है आपने भय की बात भी की है आप बेखोफ होकर कही भी जाईयेगा सभी लोगों चाहे वो कोई हो सहयोग करते है।
ReplyDeleteNice
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